मेरी कल्पना में… मैं उड़ती नहीं …
मगर तोड़ी हैं बेड़ियाँ उन कल्पनाओं के पीछे…
देखें हैं सपने जिन्हें बुना था मैंने अपनी कल्पनाओं में,
क्यूंकि नींद तो खेल रही थी दूर कहीं मेरे बचपन के साथ
और उठाए थे कदम मेरी सच्चाई पर पड़े हिजाब उतारने के लिए…
वे हिजाब जो डाले थे समाज ने मेरे चेहरे पर…
जिनके पीछे महसूस करती थी मैं अपनी घुटती हुई साँसे,
और दुनियां की नज़रों से महफूज़ जिस्म…
जिस्म जिसे लोग कहते हैं अस्मत की निशानी,
कौन सी अस्मत? जिसे घर पर ही बेचा गया?
या वो वाली जिसे गुम होते कोई देख नहीं पाया?
वह उस दिन भी गयी थी जब मैं लड़की पैदा हुई,
उस दिन भी जब मुझे स्कूल जाने से रोका गया
और उस दिन भी …और कई दिन..और कई और दिनों भी तो,
गिन नहीं पाऊँगी कितनी बार बेड़ियाँ पड़ी,
लेकिन जानती हूँ कितनी बार तोड़ी मैंने,
अपनी पहली कल्पना के साथ तोड़ डाली सभी बेड़ियाँ मैंने…
मेरी कल्पनाओं ने किया आज़ाद मुझे
मैं आज भी उड़ती नहीं अपनी कल्पना में क्यूंकि,
असलियत में पाँवों तले ज़मीं, और सर पर खुले आसमां का मतलब जानती हूँ मैं!
श्रद्धा माहिलकर
Cover Image: Sweetie187, CC BY 2.0