सयद साद अहमद द्वारा लिखित
“हम क्या वास्तव में सच जानना चाहते हैं? सत्य की क्या आवश्यकता है? उसके बदले में झूठ क्यों नहीं? अनिश्चितता? अज्ञानता?…कोई वचन झूठ हो, ज़रूरी नहीं वो गलत हो…हमें ये देखना है कि वो कितनी ज़रूरी हैं हमारी ज़िन्दगी में…मनुष्यों का ऐसा झुकाव है कि बड़े से बड़ा झूठ हमारे लिए अपरिहार्य है…झूठ को त्यागना ज़िन्दगी को त्यागने के समान है, उसको नकारने के समान हैं” – बियॉन्ड गुड एंड ईविल, निएत्ज़्स्चे
“आने दो उन्हें ज़ीनत का बदन देखने के लिए, वे उनके शरीर को भूलकर फिल्म को याद करते हुए बाहर जायेंगे” – राज कपूर, निर्देशक, सत्यम शिवम् सुन्दरम
यदि किसी फिल्म को प्रतिक्रियाओं की विभिन्नता पर परखना हो तो सत्यम शिवम् सुदरम पूरी तरह से खरी उतरेगी। जहाँ अधिकतर देखने वालों के लिए एकमात्र दिलचस्पी जीनत अमान की नग्न सुन्दरता होगी, कुछ को ये ‘व्यवसायिक सिनेमा क्षेत्र में एक असाधारण प्रयोग’ और ‘उत्तम शैली और परिष्कृत’ भी लगता है। हालाँकि अपने कामुक बदन पर लत्ता लपेट कर अकड़ना (पूरी फिल्म में!) किसी प्रकार से परिष्कृत नहीं है, पर फिल्म प्रतिनिधित्व और वास्तविकता की सदियों पुरानी विषय-वस्तु, शरीर और आत्मा के द्वंद्व, और मुख्यधारा बॉलीवुड सिनेमा की परंपराओं के भीतर सुंदरता की प्रकृति का सामना करने की कोशिश करती है।
सत्यम शिवम सुन्दरम (सत्य, इश्वर, सौंदर्य) रूपा (ज़ीनत अमान) की कहानी है, एक आदर्श अभागन, जिनकी दुर्गति उनके जन्म के साथ शुरू होती है जब उनकी माँ का देहांत हो जाता है। तुरंत ही उन्हें शापित घोषित कर दिया जाता है और लोगों द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है। बाद में एक हादसे में उनके एक तरफ के पूरे चेहरे पर गरम तेल गिर जाता है, जिससे उनका चेहरा हमेशा के लिए दागदार हो जाता है। इसके बाद भी वो अपना जीवन निर्वाह करती हैं – अकेली पर संतुष्ट।
एक दिन राजीव (शशि कपूर) गाँव में रहने आते हैं जो पास के बाँध पर इंजिनियर के रूप में काम करते हैं। अगली सुबह रूपा का गाना सुनकर उनकी नींद खुलती है और वो तुरंत ही मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वो गाँव में रूपा को ढूँढ़ते हैं और कुछ ही दिनों में उनमें बातचीत शुरू हो जाती है। हालाँकि, रूपा हमेशा घूंघट में होती हैं और सिर्फ अपना शरीर और चेहरे का वो हिस्सा दिखाती हैं जिसपर दाग नहीं था। वे गाँव के पास एक झरने के पास लगातार मिलते हैं और अंततः एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। राजीव रूपा से घूंघट हटाने को कहते हैं पर रूपा कहती हैं कि वो शादी के बाद ही घूँघट हटाएँगी।
शादी के बाद जब राजीव उनका घूंघट हटाते हैं तो रूपा की कुरूपता पर हतप्रद रह जाते हैं और उनको रूपा के रूप में पहचानने से इनकार कर देते हैं। वे इलज़ाम लगाते हैं कि गाँव वालों ने उनकी शादी किसी दूसरी औरत के साथ करके उनके साथ धोखा किया है। वो अपनी प्रेमिका रूपा की खोज में जाते हैं और अपनी पत्नी से मिलते हैं जो पुराना छलावा बनाए रखने के लिए फिर से घूंघट में और बिना कपड़ों वाली स्थिति में आ गई हैं जैसी वो उनके प्यार वाले दिनों में थीं। राजीव फिर से उनका घूंघट उतारने की कोशिश करते हैं पर रूपा स्पष्ट रूप से उन्हें मना करती हैं और कहती हैं कि जिस दिन वो अपनी पत्नी के पास वापस चले जायेंगे, उस दिन ये घूंघट अपने आप उतर जायेगा। वे झरने के पास अपनी गुप्त मुलाकातें जारी रखते हैं और एक रात शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं।
राजीव काम के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर जाते हैं। जब वो वापस आते हैं तो उनके पड़ोसी उन्हें बताते हैं कि उनकी पत्नी गर्भवती हैं। गुस्से में भरे हुए राजीव रूपा पर व्यभिचार का इलज़ाम लगाते हैं, जबकि अन्य सभी इस बात की गवाही देते हैं कि रूपा और उनकी पत्नी एक ही व्यक्ति हैं। वो रूपा को घसीटते हुए गाँव के मंदिर में ले जाते हैं और उनसे इश्वर की शपथ लेकर बताने को कहते हैं कि बच्चा उनका है। रूपा ऐसा ही करती हैं, पर हमेशा की तरह, राजीव उन पर विश्वास नहीं करते। रूपा, उस पहले पल में जिसमें फिल्म के अन्दर महिला की एजेंसी की झलक दिखाई देती है, अपने पति को श्राप देती हैं कि अब से ना तो वो अपनी पत्नी को देख सकेंगे और ना ही प्रेमिका को, और उन्हें छोड़ देती हैं।
(यदि आप (पहले से ही ज़ाहिर) पूर्वानुमानों से बचना चाहते हैं तो अगले अंश को ना पढ़ें)
रूपा का टूटा हुआ दिल आसमान में हलचल मचा देता है जिससे भयंकर तूफ़ान आ जाता है जो पूरे गाँव को डूबा देने पर तुला है (!) राजीव फिर से झरने पर रूपा को खोजने जाते हैं पर उन्हें ढूँढ नहीं पाते हैं। जब सभी गाँव वाले ऊंची ज़मीन की तलाश में भागते हैं, रूपा फिल्म का शीर्षक गीत गाती हैं – प्रेम, सत्य और सौंदर्य का फरियादी जयगान। उनकी आवाज़ सुनकर राजीव उन्हें खोजने के लिए कारवां की ओर भागते हैं, और फिर से उन्हें पहचान नहीं पाते हैं! बाढ़ उन्हें बहा ले जाती है और जैसे ही रूपा डूबने वाली होती हैं, वही होता है जिसकी उम्मीद की जा सकती है, बहुत ही फिल्मी अंदाज़ में, राजीव को यह एहसास होता है कि उनकी कल्पनाओं की रूपा और वह औरत जिससे उन्होंने शादी की थी, वास्तव में एक ही हैं। राजीव पानी की धारा में उन्हें पकड़ लेते हैं और वो उसी मंदिर के शिखर पर तैर कर जाते हैं जहाँ रूपा ने अपनी वफ़ादारी की कसम खाई थी।
कहानी के विषय को, निश्चय ही, आश्चर्यजनक हद तक खींचा गया है पर बॉलीवुड के लिए ये चिंता का विषय नहीं है जहाँ सुखद अंत की ज़रुरत अन्य सभी चिंताओं को अनदेखा कर देती है। फिल्म के बारे में राज कपूर ने कहा “विषय-वस्तु पहले आई। मुझे उसके चरों ओर कहानी बुननी पड़ी। पर कहानी का महत्त्व केवल विषय-वस्तु को बताने के लिए ही है।”
हालाँकि, घारणा और वास्तविकता के बीच मतभेद का विषय पूरी तरह सिलसिलेवार नहीं रहा। अंत में राजीव का अचानक, अकारण ह्रदय परिवर्तन पूरी तरह अस्पष्ट रहा। फिल्म की शुरुआत में वो कहते हैं कि वह दुनिया में बिलकुल अकेले हैं। उन्हें वैसे रहना अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह वो अपने काल्पनिक जगत में खो सकते हैं जिसे वो वास्तविकता से बेहतर मानते हैं। बाद में उन्हें एक कलाप्रेमी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो कुरूपता के सभी प्रकारों से एक अस्वाभाविक प्रतिकर्षण रखते हैं; यहाँ तक कि गाँव के मेले में दर्पण में एक विकृत प्रतिबिम्ब उन्हें गहराई तक विचलित कर देता है। एक यूनानी दार्शनिक की तरह सुन्दरता के सार की खोज करते हैं – और अपनी कल्पना की रूपा में उसे पाते हैं। वास्तविक रूपा, हालाँकि, कभी भी उनकी आदर्श रूपा के करीब नहीं आ सकती थीं।
वेंडी डोनिगर फिल्म पर अपने एक मनोरंजक ढंग से व्यावहारिक निबंध में बताते हैं, “राजीव कहते हैं, ‘मैंने घोर पाप किया है; मैं शारीरिक सौंदर्य को खोजता रहा और मन की सुन्दरता को देख ना सका।’ पर वास्तविकता में राजीव ने घूंघट वाली रूपा के शारीरिक सौंदर्य का अनुभव ही नहीं किया; उन्होंने बस रूपा की कल्पना की, जैसा कि रूपा खुद कहती हैं: ‘ये आपकी कल्पना है कि मैं सुन्दर हूँ, पर मैं कुरूप हूँ’।”
राजीव की काल्पनिक रूपा को हम सिर्फ़ एक बार ‘चंचल शीतल निर्मल’ गाने में ही द्वंद्व से रहित देखते हैं, जिससे वह अन्यथा संघर्ष करती रहती हैं। दृश्यों का मंचन वास्तविक और काल्पनिक जगत के बीच स्पष्ट अंतर दिखाता है; पहले जगत का फिल्मांकन गाँव के सेट पर किया गया है जिसमें रूपा अधिकतर या तो घूंघट में हैं या उनके दाग पूरी तरह दिखते हैं, जबकि राजीव के मतिभ्रम का फिल्मांकन भड़कीले सेट पर किया गया है जहाँ वह अपनी प्रेमिका के साथ हैं जो विस्तृत वेशभूषा में सजी हुई हैं और उनके चेहरे पर कोई दाग नहीं हैं।
हालाँकि, यह स्वीकार किया जाना आवश्यक है कि राजीव की कल्पनाओं को महज़ एक पागल आदमी की अहंकारी दीवानगी नहीं करार दिया जा सकता है। रूपा फिल्म के अधिकाँश भाग में उनका साथ देती हैं, और यहाँ तक कि शादी के बाद भी उनकी काल्पनिक प्रेमिका के भ्रम को बनाय रखने में मदद करती हैं ना कि उसे तोड़ने में। हमेशा ही राजीव की पत्नी यह दावा करती है कि वो रूपा है, रूपा उनकी पत्नी होने का दावा नहीं करती। अंत के करीब रूपा उन्हें पूरी तरह अकेला छोड़ देती हैं, पत्नी और प्रेमिका दोनों ही रूप में। वो अपनी प्रेमिका को खोजते हैं पर पत्नी को पाते हैं। यह प्रेमिका का परित्याग है जो उन्हें सताता है और पत्नी को स्वीकार करने के लिए मजबूर करता है जिससे वो परोक्ष तौर पर अपनी पत्नी के माध्यम से अपनी प्रेमिका का साथ पा सकें।
फिल्म की अपनी समीक्षा में वीर सांघवी दावा करते हैं “यह फिल्म एक सकारात्मक तर्ज़ पर ख़त्म होती है। धारणा और वास्तविकता का आपस में विलय।” हालाँकि, करीब से देखें तो सच्चाई ये नहीं है, क्योंकि वह वास्तविकता है जो राजीव की कल्पना के अधीन हो जाती है। राजीव ने जो मिसाल कायम की है उसको देखते हुए यदि इस फिल्म का दूसरा भाग बनता तो शायद उसमें एक स्वप्निल राजीव रूपा को घूंघट में रहने पर ज़ोर देते जिससे रूपा उनकी कल्पनाओं को निभा पाती। फिल्म के अंत में राजीव के आखिरी शब्द बेमायने नहीं है “मेरी रूपा तो बहुत सुन्दर है। उसे मेरी आँखों से देखो।”
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Image courtesy: Songson.net.