Scroll Top

किशोर और परिवार : संयम, बातचीत और परस्पर निर्भरता पर पुनर्विचार

किशोरों के जीवन में यौनिकता और रोमांस के अनुभवों में अक्सर उनके और उनके परिवार के लोगों के बीच मोलभाव शामिल होते हैं। मुझे अपने शोध के दौरान मिली जानकारी से यही पता चला है कि किशोरों में रोमांटिक प्रेम संबंधों को उनके माता-पिता अक्सर ‘ध्यान भटकाने वाला’ करार देते हैं जिससे पढाई पर ‘बुरा असर’ पड़ता है, जो ‘जोखिम से भरा’ है और एक ऐसा काम है ‘जिसे नहीं किया जाना चाहिए’। प्रेम करने के बारे में सिर्फ़ पढाई ख़त्म हो जाने के बाद ही सोचना चाहिए। लेकिन यह सोच इस सत्य को मिटा नहीं सकती कि किशोर प्रेम सम्बन्ध बनाते हैं और यौन सम्बन्ध भी! प्रेम हो जाने पर परिवार से विद्रोह कर देने, भाग कर शादी कर लेने और ‘परिवार की इज्जत’ के लिए जान से मार दिए जाने का ख़तरा उठाने के अलावा वे और कौन से तरीके हैं जिनके द्वारा किशोर अपने परिवार के लोगों के साथ रोमांस और यौनिकता के विषय पर बातचीत (या निगोशिएट) कर सकते हैं और/या करते हैं?

इस बारे में ज्यादा जानने के लिए मैं मुंबई में रहने वाली काउंसलर और लेखिका, ऐनी दे ब्रगंका कुन्हा की किताब Get Set Grow: Ten Tools for Happy-Go-Healthy Teens (2013) में कही कुछ बातों पर विचार करूंगी। इसके अलावा मैं अपने शोध कार्य के दौरान मुंबई के कुछ 19 वर्षीय विद्यार्थियों द्वारा उनके परिवार के लोगों के साथ उनकी बातचीत के अनुभवों पर भी विचार प्रस्तुत करूंगी।

जब मैं ‘बातचीत कर पाने’ का ज़िक्र करती हूँ तो मुझे देनिज़ कन्दियोती द्वारा प्रयोग किये गए शब्द ‘पितृसत्ता के साथ बातचीत या मोलभाव’ स्मरण हो आते हैं जिन्होंने लिखा है कि किस तरह ‘महिलाएं कुछ जटिल कठिनाईयों के अंतर्गत अपनी कार्य योजना तैयार करती हैं’। महिलाओं की इस बातचीत कर प्रभाव ‘अपने शोषण के खिलाफ सक्रिय या सहनशील विरोध कर पाने की उनकी क्षमता और विरोध, दोनों पर पड़ता है’। (कन्दियोती, 1988:275)

कुन्हा द्वारा लिखी गयी इस पुस्तक को दक्षिण मुंबई के एक प्रतिष्ठित प्राइवेट स्कूल ने अपने यहाँ किशोर विद्यार्थियों को बांटा है। मैं कुन्हा की किताब के उस अध्याय पर चर्चा करना चाहूंगी जहाँ वे लिखती हैं, ‘अपने माता-पिता के साथ सम्बन्ध बेहतर कीजिए’ (Make Peace with your Parents) जिसमें वे बताती हैं कि कैसे किशोर अपने परिवार के लोगों के साथ रोमांस जैसे विषयों पर बातचीत/मोलभाव कर सकते हैं। इस किताब में यह विचार मुख्य रूप से आरम्भ में स्पष्ट किया गया है कि सेक्स केवल विषमलैंगिक वैवाहिक सम्बन्ध में पति-पत्नी के बीच ही होना चाहिए हालांकि विषमलैंगिक डेटिंग कर पाने की छूट भी दी गयी है। कुन्हा की किताब में दर्शाए गए परिवार में संभवत: माता-पिता और उनकी संतान शामिल है।

डेटिंग

अगर कोई आपको अच्छे लगते हैं, तो उन्हें अपने अन्य दोस्तों के साथ अपने घर ले आइए ताकि आपके माता-पिता भी उन्हें जान सकें। आपके दोस्त के बारे में आपके माता-पिता की कुछ राय बनेगी, उनके साथ खुल कर समझदारी से चर्चा करें। अगर वे आपके दोस्त को लेकर बहुत ज़्यादा खुश न भी हों तो घर को सिर पर उठा लेने की ज़रुरत नहीं है। अगर आपकी शुरूआती दोस्ती आगे बढ़ती है और उम्र के साथ परिपक्व होती है तो आपके माता-पिता इसे समझेंगे और स्वीकार करेंगे। आप किसी भी समय कहाँ हैं और किसके साथ हैं, इसके बारे में हमेशा अपने माता-पिता को बताएं। नियत समय पर घर आने और समयसीमा का पालन करते रहने से परस्पर विश्वास बढ़ता है।

दोहरे मानदंड

‘नीता को अपने 17वें जन्मदिन की पार्टी में लड़कों को बुलाने के लिए मना कर दिया गया क्योंकि उनके पिता ने उनकी सबसे अच्छी सहेली को एक लड़के के साथ हाथ में हाथ डाले घूमते देख लिया। इसके बाद नीता के पिता ने एक घंटे तक नीता के कमरे में उनसे बात की। ‘अगर लड़के-लड़कियों को एक ही स्कूल में भेजने से यह होता है तो मैं अपनी छोटी बेटी को तो सोफिया कॉलेज में भेजूंगा, उन्होंने तैश में आकर कहा।’

जब बात अपनी बेटियों की होती है तो लड़कियों के पिता सुरक्षा के प्रति ज़रुरत से ज्यादा चिंतित हो जाते हैं, शायद उन्हें अपनी जवानी की घटनाएं याद हो आती हों! तो ऐसे में आप क्या करेंगे?

  • अपने पिता के साथ बेहतर और प्रभावी ढंग से बातचीत करने का तरीका अपनाकर स्थिति को सुधार जा सकता है। इसके लिए आप अपनी किसी आंटी या अपनी माँ की भी सहायता ले सकते हैं।
  • अपने घर वापिस पहुँचने की समयसीमा निर्धारित करें और उन पर अमल करें। इसी तरह घर के बाहर रहने और घर में रहते हुए क्या करना है, अपने लिए इसके दिशानिर्देश बनाएं।
  • याद रखें कि आप के लिए सीमाएं निर्धारित करने या पाबंदियां लगाने में भी प्यार और आपके प्रति चिंता छिपी है। इन सीमायों और निर्देशों का पालन आदर के साथ करें, केवल सज़ा से बचने या डर के कारण इन्हें मानने का कोई फ़ायदा नहीं ।
  • अपने अनुभवों के आधार पर जीवन या ज़िन्दग्री के बारे में बाद करें लेकिन ऐसा करते समय खीज दिलाने वाले या ‘आप समझ नहीं रहे!’ जैसे शब्द प्रयोग न करें।
  • माता-पिता को समझाएँ कि लड़कों के साथ बातचीत करने पर पूरी तरह से रोक लगा देने से यह भी हो सकता है कि आप भ्रमित हो जाएँ या फिर झूठ का सहारा लेने लगें।
  • माता-पिता से वायदा करें कि लड़कों के साथ दोस्ती बढ़ाने में आप कोई जल्दीबाजी नहीं करेंगी और केवल उन्हीं से दोस्ती करेंगी जिन्हें वे पसंद करते हों।
  • माता-पिता से कहें कि वे आपके दोस्तों को घर पर बुलाएं ताकि वे भी उन्हें जान सकें। इसके लिए घर पर एक पार्टी भी रखी जा सकती है लेकिन जहाँ आपको थोडा एकांत भी मिले।
  • मम्मी-पापा से कहें कि वो आप पर भरोसा करें और ये साबित कर दें कि आप उनके इस भरोसे के काबिल हैं। बस, ऐसा करके देखिये, बहुत जल्दी ही आपको लगने लगेगा कि अब आपको अधिक आज़ादी मिलने लगी है। लेकिन ये सब करके भी अगर आपके सम्बन्ध मम्मी-पापा के साथ बेहतर नहीं हो पा रहे तो अपने से बड़े किसी की मदद लें (कुन्हा, 2013: 46-47)

अपने माता-पिता के साथ अर्थपूर्ण बातचीत कर पाने के बारे में युवा लोगों के अनुभव कैसे हैं? मुंबई में मैंने उच्च-मध्यम वर्ग के कुछ 19 वर्षीय लोगों से इस बारे में चर्चा की तो उन्होंने भी लगभग वैसे ही अनुभव बताए जैसा कि कुन्हा द्वारा अपनी किताब में लिखा गया है। टीना ने बताया कि कैसे उनके माता-पिता ने उन्हें अपने लड़के-मित्रों को घर पर आमंत्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया। टीना की माँ ने उनसे कहा कि ‘वह चाहे तो रिश्ते में भी हो सकती हैं, उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी लेकिन ऐसा न हो कि उन्हें किसी तीसरे व्यक्ति से सुनने को मिले कि टीना किसी के साथ शारीरिक यौन सम्बन्ध बना रही हैं जहाँ कुछ गलत होने की सम्भावना है’।

अतुल ने बताया कि संबंधों को लेकर उनके और उनके माता-पिता के बीच की बातचीत किस तरह से होती है। अतुल द्वारा दिए गए ब्योरे में भी कुन्हा द्वारा अपनी किताब में दी गयी सीख झलकती है।

अगर आपके माँ-बाप नहीं चाहते कि आप डेट पर जाएँ, तो आप उन्हें अपने साथी के बारे में विस्तार से बताएं कि वह किस तरह के व्यक्ति हैं। माँ-बाप आपसे कहते हैं कि आपकी पढ़ाई और करियर पर इसका बुरा असर पड़ेगा; आपका ध्यान भटक जाएगा, आप हमेशा फ़ोन पर ही बात करते रहते हो।  माँ-बाप की बात भी गलत नहीं है। वे यह भी सोचते हैं कि आपके इस दोस्त से आपका ब्रेक-अप हो जाने पर कहीं आपको डिप्रेशन न हो जाए, उनकी सोच इसी तरह से होती है। लेकिन कुछ होने या कुछ न होने की सम्भावना तो हमेशा ही रहती है। हो सकता है मैं दुखी हो जाऊं, लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि मैं इसे संभाल लूं।

शीतल ने भी बताया कि वह किस तरह अपने माता-पिता से बातचीत करती है और अपने परिवार द्वारा लगाई गयी सीमाओं और पाबंदियों को समझने की कोशिश करती हैं:

कुछ हद तक घर पर लगाई जाने सीमाएं आपको घर में रहने का अभ्यस्त कर देती हैं। मेरे मम्मी-पापा मेरी सुरक्षा के बारे में बहुत ज्यादा चिंता करते हैं। मुझे हर हालत में रात 11 बजे से पहले घर पहुँच जाना होता है, पहले तो वे हमेशा मुझे लेने और छोड़ने जाते थे। मुझे यह सब पसंद नहीं था, लेकिन मैं समझ सकती हूँ कि वे ऐसा क्यों करते हैं। मेरा बॉयफ्रेंड और मैं सिर्फ बैठ कर बातें करते हैं। हम बहुत ज़्यादा बाहर भी नहीं घुमते; हम लोग कॉलेज में बात करते हैं और फिर घर जाकर पढाई करते हैं। मेरे मम्मी-पापा को लगता है कि हम दोनों के बीच शारीरिक सम्बन्ध भी हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। शायद उनका सोचना भी सही है कि यह सब ठीक नहीं है, लेकिन उनकी सोच को बदल नहीं सकते।

यह तो निश्चित है कि रोमांस और डेटिंग जैसे विषय के बारे में किशोरों और उनके परिवार के बीच के संबंधों के बारे में कुन्हा के दृष्टिकोण में कई समस्याएँ हैं। लेकिन बताए गए दोनों व्यक्तियों के अनुभवों और कुन्हा के सुझावों से यही लगता है कि बातचीत कर अपनी बात कह पाने की प्रक्रिया में संवाद, सहनशीलता और परस्पर विश्वास ज़रूरी होता है। अब हमारे सामने वह सवाल खड़े हो उठते हैं जो संभव है कि हम अपनी राजनैतिक सोच के बारे में खुद से पूछना चाहें – परिवार द्वारा नियंत्रण रखे जाने और उनकी चिंता के बीच का अंतर क्या होता है? क्या परिवार के लोगों द्वारा किशोरों के किसी विशेष रोमांटिक सम्बन्ध का विरोध करना केवल उनके मन में नियंत्रण रखने के भाव, पितृसत्ता या विषमलैंगिकता को ही सही मानने के दृष्टिकोण के उपजता है? यहाँ ‘उनके चिंता करने’ के भाव की क्या भूमिका है? किशोर आयु में यौनिकता के सन्दर्भ में परिपक्वता को किस तरह से समझा जा सकता है?

शिल्पा फडके (2013) ने एक नारीवादी माँ के रूप में स्वतंत्रता और सुरक्षा से जुडी दुविधाओं पर विचार किया है – ‘क्या अपनी बेटी की भलाई के लिए उसे दिए जाने वाले विकल्पों और स्वतंत्रता को नियंत्रित कर देना या फिर उसकी भलाई किसमे है, इसका फैसला हमारे द्वारा किया जाना नारीवाद विरोधी है? आमतौर पर ‘भलाई इसी में है’ की भाषा का प्रयोग वे लोग करते हैं जिनके काम के तरीकों को हम प्रतिगामी या पीछे ले जाने वाला समझते हैं। क्या हम नियंत्रण को ‘प्रगतिशील’ या ‘प्रतिगामी’ के रूप में विभाजित कर सकते हैं’? (फडके, 2013: 98) अब, वे किशोर जो अपनी यौन स्वतंत्रता ओर इच्छा को प्रयोग करना चाहें, वे कैसे यह निर्णय ले पाएं कि उनके परिवार द्वारा लगाए गए कौन से प्रतिबन्ध ‘प्रगतिशील’ हैं और कौन से ‘प्रतिगामी’? अगर प्रतिबन्ध और सीमाएं ‘प्रतिगामी’ हैं, तो उनपर बातचीत कर पाने और प्रभावी रूप से अपने विचार बताने का तरीका क्या हो?

किशोरों द्वारा अपने परिवार के साथ बातचीत को संवाद और कठिनाई के रूप में समझने का क्या लाभ होगा? लता मणि (2014) प्रतिबन्ध और स्वतंत्रता के विषय पर विचार करते हुए सवाल करती हैं – क्या प्रतिबंधों का ना होना ही स्वतंत्रता है?….मानवजाति के अस्तित्व की परस्पर निर्भर परिस्थितियों में किसी भी तरह के प्रतिबन्ध न होने की कल्पना कर पाना भी असंभव है’। मणि आगे पूछती हैं ‘वे कौन से प्रतिबन्ध हैं जो हमारी परस्पर निर्भरता और अंतर-संबंधों के साथ जुड़े हुए हैं और जिन्हें स्वतंत्रता और विकल्प के हमारे विचारों का भाग होना चाहिए?’ (मणि, 2014 : 29)। क्या वर्तमान में हम जिस प्रतिबन्ध या रोक की बात करते हैं उससे, और ‘बातचीत’ कर मुद्दों को सुलझाने से हमें भविष्य में अधिक स्वतंत्रता मिल सकती है? क्या ऐसा होने से शक्ति-संबंधो की स्थिति पूर्ववर्त हो जाएगी या फिर इससे, जैसा कि मणि कहती हैं, हमें परस्पर एक-दुसरे पर निर्भर रहते हुए जीवन जीने की राह मिलेगी? किशोरों के यौन जीवन के बारे में और गहराई से जानने और समझने के लिए शायद गंभीरता से इस विषय पर विचार करना अधिक श्रेयकर होगा कि हम अपनी कार्यशैली में विश्वास, परस्पर-निर्भरता, रोक, प्रतिबन्ध और बातचीत को क्या स्थान देते हैं।

सन्दर्भ

चंदिरामनी, राधिका, शगूफा कपाडिया, रेनू खन्ना, गीतांजलि मिसरा. 2002. सेक्सुअलिटी एंड सेक्सुअल बिहेवियर : अ क्रिटिकल रिव्यु ऑफ़ सिलेक्टेड स्टडीज (1999-2000), नई दिल्ली: द जेंडर एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ रिसर्च इनिशिएटिव व् क्रिया

कुन्हा, ऐनी डी ब्रगंका, 2013, गेट सेट ग्रो: टेन टूल्स फॉर हैप्पी-गो-हेल्थी टीन्स, ऐनी डी ब्रगंका कुन्हा, मुंबई

कन्दियोती, देनिज़ 1998 ‘बारगेनिंग विथ पैट्रिआर्की’ जेंडर एंड सोसाइटी 2.3: 274-290

मणि लता, 2014, ‘सेक्स एंड थे सिग्नल फ्री कॉरिडोर : टुवर्ड्स अ न्यू फेमिनिस्ट इमेजिनरी’ इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली XLIX.6:26-29

फडके, शिल्पा, 2013 ‘फेमिनिस्ट मदरिंग? सम रेफ्लेक्श्न्स ऑन सेक्सुअलिटी एंड रिस्क फ्रॉम अर्बन इंडिया’ जर्नल ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज, 36.1:92-106

शाह, चयनिका, अनुपमा राव, रोहिणी हेन्स्मन, मैरी जॉन, रिन्चिन, 2005, सिम्पोजियम ‘मैरिज फॅमिली एंड कम्युनिटी : अ फेमिनिस्ट डायलाग’ इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली 40.8

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित

To read this article  in English, click here.