यह कल्पना कर पाना पूरी तरह से असंभव नहीं है कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा अनंत काल से चली आ रही है और यह भी कि इन नृत्यों के माध्यम से बताई जाने वाली कथाओं के कथानक में आदि काल से कोई भी परिवर्तन नहीं आया है। हमारे महाकाव्यों में दिखाई पड़ता है कि नृत्य के माध्यम से अप्सराओं, देवदासियों और दरबारी नृत्यांगनाओं का सानिध्य सरलता से पाया जा सकता है और उतनी ही सरलता से हम उनके नृत्य की उन भाव-भंगिमाओं और मुद्राओं का रसा-स्वादन कर सकते हैं जो संभवत: इच्छा-अभिव्यक्ति की भाषा को समझ पाने का हमारा एकमात्र और आखिरी स्रोत हो। लेकिन भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी कला का प्रदर्शन कर चुकी विख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना अनीता रत्नम के साथ हाल ही में नृत्य और यौनिकता विषय पर हुई चर्चा के दौरान मुझे आभास हुआ कि नृत्य हमेशा से ही एक लोचपूर्ण और परिवर्तनशील माध्यम रहा है। नृत्य शैली में लगातार परिवर्तन आते रहे हैं और नृत्य की प्रस्तुति, मंचन के दौरान उपस्थित दर्शकों के रुझान और प्रसंग के अनुरूप बदलती रही है। किसी भी अन्य कला माध्यम की तरह ही, शास्त्रीय नृत्य भी आधुनिक बना रहा है।
हम में से कईयों के लिए, भरतनाट्यम नृत्य भारत में सबसे अधिक प्रचलित और प्रशंसित शास्त्रीय कला शैली है। भरतनाट्यम नृत्य शैली का इतिहास पूछे जाने पर सुश्री रत्नम बताती हैं कि किस प्रकार यह नृत्य शैली एक आधुनिक कला विधा बन कर उभरी है। वे कहती हैं, “भरतनाट्यम प्रस्तुत करने वाले कलाकारों को यह तो मानना ही होगा कि उनके द्वारा वर्तमान में प्रस्तुत किया जाने वाला नृत्य वास्तव में भरतनाट्यम का आधुनिक स्वरुप है”। “यह कहना बिलकुल गलत है कि भरतनाट्यम एक प्राचीन नृत्य है जिसका इतिहास कोई 5000 वर्ष पुराना है। आज प्रस्तुत किए जाने वाले भरतनाट्यम नृत्य का सृजन 18वीं या 19वीं शताब्दी में हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के काल में इसका परिवर्तन और भी आधुनिक नृत्य के रूप में होता गया। यह नृत्य शैली 20वीं शताब्दी के भारत की आधुनिक नृत्य शैली है और यही कारण है कि हमें इसे आधुनिकता के नज़रिए से ही देखना चाहिए। हमने भरतनाट्यम की कला विधा को हमेशा ही प्राचीन संस्कृति और समय से जोड़ने की कोशिश की है जो कि सही नहीं है।“
हम में से अनेक लोग भरतनाट्यम नृत्य को देवदासी प्रथा के साथ जुड़ी नृत्य शैली के रूप में देखते हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के दिनों में इस नृत्यशैली पर अरुचिकर होने के कारण पाबंदी लगा दी गयी थी और स्वतन्त्रता मिलने के उपरान्त सुश्री रुक्मिणी अरुंडेल और कलाक्षेत्र नाट्य विद्यालय के प्रयासों के कारण ही इसे पुनर्जीवित किया जा सका। सुश्री अनीता रत्नम स्वयं भी कलाक्षेत्र नाट्य विद्यालय की ही छात्रा रहीं है। जहाँ एक ओर सुश्री अरुंडेल को ‘एक परंपरा को पुनर्जीवित करने’ का श्रेय दिया जाता है वहीँ दूसरी ओर इस नृत्य शैली का ‘शुद्धिकरण’ करने के लिए उन्हें प्राय: नारीवादियों की आलोचना का सामना भी करना पड़ता है। हालांकि सुश्री रत्नम का मानना है कि देवदासियों द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली शैली पहले ही लगभग समाप्ति के कगार पर थी और अरुंडेल इस शैली को उस समय के परम्परावादी उच्च-वर्ग के लिए रुचिकर बनाए बिना पुनर्जीवित नहीं कर सकती थीं। नृत्य शैली को उनकी रूचि के अनुसार परिवर्तित करने पर ही उस वर्ग के लोग अपने लड़के और लड़कियों को इसकी शिक्षा लेने के लिए भेजने के लिए तैयार होते। लेकिन इसके साथ ही सुश्री रत्नम देवदासी प्रथा को पूरी तरह समझे बिना, इस नृत्य विधा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के प्रति भी सजग रहने को कहती हैं।
“आज के छात्र इस नृत्य के संगीत को पूरी तरह से नहीं समझते और न ही उन्हें प्राचीन तेलुगु, तमिल या संस्कृत भाषाओं की जानकारी है। इसलिए वे केवल इस नृत्य की कुछ मुद्राएँ और भंगिमाएँ सीखते हैं”। “आजकल इस नृत्य शैली में प्रचलित कुछ श्रृंगारिक पदम् सीख लेने का भी चलन है जबकि सीखने वालों को उनमें दिखाई जाने वाली जीवन शैली के बारे में कुछ पता नहीं होता। इसका एक उदाहरण देखते हैं। पहले के भारतीय फिल्मों में नायिका होती थी और वैम्प या खलनायिका होती थी, लेकिन आज की फिल्मों में नायिका ही वैम्प है। आज महिलाएँ सीता भी बनना चाहती हैं, सूर्पनखा भी और हेलेन भी लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि दरबार में नर्तकी होना या देवदासी होना क्या होता है। देवदासियाँ खुद भी बेहद धनी थीं, उनके पास जायदाद होती थी, घर थे, वे अपनी संपत्ति चाहे जिसे दे सकती थीं, उनकी संतान होती थीं और वे अपनी संतान को उत्तराधिकार में सम्पति भी देती थीं। आपको यह समझना होगा कि देवदासियाँ कितनी स्वतंत्र और स्वाबलंबी थीं। वे अपने समय में स्वयं नारीवादी और महिला शक्ति का रूप होती थीं! ब्रिटिश इन स्वतंत्र और स्वाबलंबी महिलाओं को समझ नहीं सके और इसीलिए उन्हें बुरी महिला करार दिया गया”।
सुश्री रत्नम आगे बताती हैं कि देवदासी प्रथा के समाप्त होने के बाद, देवदासियों के जीवन की समझ न रखने वाले दर्शकों के बीच भरतनाट्यम नृत्य को स्वीकार्य बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी था कि इस शैली में से श्रृंगार रस को कम कर इसे भक्ति उन्मुख किया जाए। एक तरह से देवदासी प्रथा अब प्रासंगिक नहीं रह गयी थी और स्टेज पर नृत्य के माध्यम से इसके चित्रण को केवल आंशिक रूप से ही पुन: शुरू किया जा सकता था। नृत्य में से श्रृंगार को कम करने से इसे फिर प्रचलित करने में सहायता मिली और अब कलाकार को इस नृत्य शैली को नए नज़रिए से देखने और जेंडर व यौनिकता की नयी समझ से अनुरूप प्रस्तुत करने का अवसर मिलने लगा।
वान्प्रस्थम (1999)
अनीता रत्नम जी से बातचीत करते हुए मुझे 1999 में भारत-फ्रांस सहयोग से बनी मलयालम फिल्म वान्प्रस्थ्म का ख्याल आया जिसमें एक अन्य दक्षिण भारतीय नृत्य, कथकली का ज़िक्र है। कथकली दो शब्दों, कथा (कहानी) और कलि (प्रदर्शन) को जोड़ कर बना है जिसमें पारंपरिक रूप से नृत्य और संगीत के माध्यम से पौराणिक कथाएँ कही जाती हैं जो केरल के धार्मिक प्रवृति दर्शकों की अभिरुचि के अनुरूप हों। वान्प्रस्थ्म फिल्म में कथकली नृत्य को इसके पारंपरिक रूप से अलग कर आधुनिक युग में चित्रित किया गया है हालांकि ऐसा करने में इसे कुछ हिंसक रूप में भी दिखाया गया है। फिल्म में दो कहानियाँ एक साथ चलती हैं – पिछड़े वर्ग का अधेड़ कथकली नर्तक कुन्हीकुट्टन, महाभारत की कथा पर आधारित प्रसंग सुभद्राहरणम में अर्जुन की भूमिका करते-करते सुभद्रा नामक एक धनी नायर महिला कलाकार के प्रेम में पड़ जाता है। इस प्रसंग में अर्जुन द्वारा कृष्ण की बहन सुभद्रा से प्रेम और विवाह का प्रसंग दिखाया गया है। फिल्म की कहानी में कुन्हीकुट्टन कथकली नृत्य को ही अपना जीवन बना लेता है और मंच पर एक राजकुमार की ओजपूर्ण भूमिका निभाते हुए एक निर्धन कलाकार का जीवन तब तक जीता रहता है जबतक कि परिस्थितियों के कारण उसे इन दोनों भूमिकाओं और पहचानों को अलग नहीं कर देना पड़ता। कुन्हीकुट्टन के माध्यम से वान्प्रस्थ्म फिल्म में कथकली नृत्य के कथा और कलि पहलुओं को अलग होते हुए उस युग का अंत दर्शाया गया है जबकि कथकली नृत्य उतना प्रचलित नहीं रह गया था और कलाकारों को मजबूर होकर नृत्य की एक नयी शैली अपनानी पड़ी थी और जब नृत्य केवल उनके लिए एक पेशा मात्र बन कर रह गया था।
किसी भी युग की समाप्ति होने पर उस युग की कला और उससे जुड़े अर्थों और संदेशों का भी स्वत: ही अंत हो जाता है क्योंकि नए समय में उन अर्थों और मूल्यों को लोग समझ नहीं पाते। सुश्री रत्नम् कहती हैं “आज हम देखते हैं कि नृत्य में श्रृंगार पर पहले की तरह फिर लोगों का ध्यान आकर्षित हो रहा है लेकिन हमारे यहाँ भरतनाट्यम में उस तरह के भावों को समझते हुए प्रस्तुत करने वाले कलाकारों का अभाव है। आज के सुविख्यात कलाकारों में से कोई भी इन भावों को पूरी तरह से समझ नहीं पाता है। लक्ष्मी विश्वनाथन या बाला सरस्वती की शिष्या श्यामला की अब मांग नहीं रही है। आज की स्थिति बहुत विकट हो गयी है जब लोग नृत्य में कलाकारों को उछल-कूद करते देखना चाहते हैं जबकि भरतनाट्यम नृत्य की सुन्दरता उसके उस ठहरे हुए समृद्ध रूप में है जहां संगीत और कविता का सुन्दर समुचित मिश्रण हो। तो यह कहना कि नृत्य में से श्रृंगार को हटाने की कोशिश की गयी थी, वास्तव में अर्ध-सत्य ही है। अगर यह आज भी उसी रूप में उपलब्ध होता जैसा कि उस समय था, तो भी आज इस नृत्य की बारीकियों को शायद कोई समझ नहीं पाता”।
फिल्म वानप्रस्थम में हालांकि जीवन निर्वाह के एक तरीके का अंत होने दर्शाया गया है लेकिन फिर भी एक फिल्म के रूप में यह इसलिए सफ़ल रही क्योंकि इसमें यह भी दिखाया गया है कि कला की हर विधा, समय से साथ-साथ परिवर्तित होते हुए खुद को आधुनिक समय के साथ ढाल पाती है और चिरजीवी बनी रहती है। जब यौनिकता, इच्छा की अभिव्यक्ति और प्रेम की एक व्याख्या अनुवाद में कहीं खो जाती है तब एक अन्य व्याख्या उभर आती है और इस अभिव्यक्ति को आगे बढ़ाती है। जहाँ कुन्हीकुट्टन को अपने जीवन में दो तरह की पहचान के साथ तालमेल बिठाने में संघर्ष करना पड़ता है वहीँ उनकी बेटी को पता चलता है कि कुछ कला विद्यालय लड़कियों को कथकली नृत्य की शिक्षा देने को तैयार हैं तो वह अपनी माँ की इच्छा और अपने पिता के परम्परावादी विचारों को अनदेखा करते हुए इस नृत्य शैली की महिला नर्तकी बन जाती है जिसमें अब तक केवल पुरुष नर्तक ही भाग लेते रहे थे। कुन्हीकुट्टन द्वारा नृत्य के अपने अंतिम प्रदर्शन के दौरान उनकी बेटी ही नृत्य में सुभद्रा की भूमिका निभाती है और इस प्रक्रिया में मंच पर अपने पिता के सामने सुभद्रा की अपनी भूमिका और वास्तविक जीवन में उनकी बेटी के रूप में अपनी पहचान के अंतर को समझ पाने की कोशिश करती है। पिता-पुत्री के बीच सम्बन्ध जैसे बुरे समझे जाने वाले विचारों को परखते हुए इस फिल्म में कथकली नृत्य को एक आधुनिक रूप में दर्शाया गया है जहाँ नर्तकी महिला है और नृत्य के दौरान पूरी तरह से अपने प्रदर्शन पर उसका नियंत्रण बरकरार है। 1980 के दशक से कथकली नृत्य में केवल हिन्दू कथाओं पर आधारित कहानियों के अलावा शेक्सपियर के नाटकों, होमर के ग्रीक महाकाव्यों और बाइबिल पर आधारित कथाओं को भी स्थान दिया जाने लगा है जिससे कि यह भारत के और विश्व के अन्य दर्शकों के बीच अधिक लोकप्रिय हुआ है।
इसी तरह सुश्री रत्नम सहित अनेक भरतनाट्यम कलाकारों ने आधुनिक दर्शकों की अभिरुचि के अनुसार अनेक कथाओं को अपने नृत्य में शामिल करते हुए विविध रूपों में प्रस्तुत किया है। “मैंने किसी देवदासी गुरु से शिक्षा नहीं पायी, मैंने एक ऐसे गुरु से नृत्य की शिक्षा ली है जिनके पास मुझे सिखाने के लिए भक्ति परंपरा के अतिरिक्त कुछ और नहीं था। इसलिए मुझे लगता है कि मेरे लिए इस सब को नृत्य अथवा संगीत के रूप में सुनना अधिक उचित होगा। यदि मैं बाला सरस्वती के कथानकों में से पैय्यादा जैसे किसी प्रसिद्द पदम् को अभिनीत करना चाहूँ, जिसमें नारी का विरह दिखाया गया है, तो मैं संभवत: उसके लिए नाट्य अथवा अभिमंचन का सहारा लूंगी। मैं अपने प्रदर्शन में संगीत का साथ लूंगी और नृत्य के लिए केवल मुद्राओं का प्रयोग करने की बजाय ऐसी विधा प्रयोग करूंगी जिसमें मैं अपने शरीर को मुक्त रख सकूं। मैं ऐसे किसी प्रदर्शन को इस प्रकार करूंगी; जिसमें नाट्य के माध्यम से व्याख्या हो और उसे एक आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया जाए। श्रृंगार प्रधान इन सभी पदम् आदि का प्रदर्शन करते हुए मैं ऐसा ही करती हूँ”।
सुभद्राहरणं के जीवंत मंचन का एक चित्र : चित्र स्रोत : फ्लिक्कर के सौजन्य से इचुल्टिस्ट
ऐसा माना जाता रहा है कि शास्त्रीय नृत्यों के कथानक हमेशा ही प्राचीन समय से चली आ रही परम्परायों के अनुरूप होते है और मंच पर अभिनीत की जा रही भूमिकाओं में प्रदर्शित यौनिकता भी प्राचीन समय से चली आ रही जेंडर और यौनिकता के विचारों के अनुरूप ही होती हैं। हालांकि नृत्य कलाकारों ने लगातार दर्शकों के लाभ के लिए इच्छा, यौनिकता और प्रेम की पुन: व्याख्या की है और इन्हें इस तरह से प्रदर्शित किया है कि ये दर्शकों की पसंन्द के अनुरूप हों। प्राचीन संस्कृत महाकाव्य महाभारत के एक संपूर्ण संस्करण में सुभद्राहरण प्रसंग में लगभग स्थिर खड़ी सुभद्रा दिखाई गयी है जिसे अर्जुन देखता है, उस पर मोहित हो जाता है और उसका हरण कर लेता है और इस पूरे दृश्य में उनके बीच एक शब्द का भी आदान-प्रदान नहीं होता। लेकिन संभ्रांत दर्शकों के सामने, जिनमें कई नायर महिलाएँ भी शामिल थीं, प्रदर्शित पारंपरिक कथकली नृत्य में सुभद्रा एक अधिकार प्राप्त नारी के रूप में दिखाई पड़ती है जो अर्जुन को पसंद करती है और चाहती है कि उसका हरण हो। इतना ही नहीं, हरण होने के बाद वह अपने पिता के घर से जाते हुए रथ भी स्वयं चलाती है। इस तरह फिल्म में यह सुभद्रा रुपी नायर महिला इस कहानी के नए रूप की रचना खुद करती है जिसमें सुभद्रा अर्जुन के प्रति अपने प्रेम और आसक्ति को दृढ़ता से प्रस्तुत करती है और अपनी इच्छाओ की प्रबलता को को दर्शाने के लिए मंच को एक माध्यम के रूप में प्रयोग करती है।
सुश्री रत्नम का भी मानना है कि तरह भरतनाट्यम में दर्शाए जाने वाले कथानकों में भी आधुनिक नज़रिए को दिखाया जाता है। “शास्त्रीय कला कथानक पर आधारित होती है और बहुत बार नृत्य कलाकार, चाहे वह पुरुष हों अथवा महिला, कहानी की आवश्यकता के अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं। तो कहानी के अनुसार आप कभी भी पुरुष, महिला, पेड़, कोई जानवर या जीव बन सकते हैं। ऐसा करते समय विश्वास या जानकारी भी मानो कहीं पीछे चली जाती है। दर्शक जानते हैं कि कलाकार एक महिला हैं लेकिन इस कहानी में वह एक पुरुष बनी हैं। आपको बार-बार और अनेक बार जेंडर की सीमा लांघनी होती है… लेकिन आज के समय के यौनिकता से जुड़े मुद्दों का शास्त्रीय नृत्य पर कोई असर दिखाई नहीं पड़ता… इस तरह से हम अपने नृत्य में जो कथाएँ दिखाते हैं, वे सब हमारे आधुनिक नज़रिए पर खरी उतरती हैं और कथानकों का आधुनिक स्वरुप हैं” ।
इस प्रकार कथानक की व्याख्या करते हुए, नर्तक प्राय: अपने व्यक्तिगत जीवन से भी प्रेरणा लेते हैं। सुश्री रत्नम बताती हैं, “एक एकल माँ के रूप में मैंने माँ और पिता, दोनों भूमिकाएँ निभायी हैं। इस तरह मैंने स्टेज के बाहर भी पुरुष भूमिका का निर्वहन किया है और मुझे लगता है कि इसका प्रभाव मेरे नृत्य पर भी पड़ता है, मैं किस तरह चलती हूँ, किस तरह मंच पर खड़ी होती हूँ या किस तरह दर्शकों के सामने खुद को प्रस्तुत करती हूँ”। वे मुझे वाशिंगटन में, हाल ही में हुए, अपने एक प्रदर्शन पर लिखी गयी रिपोर्ट दिखाती हैं जिसमें अपनी रिपोर्ट में लेखक ने उनके नृत्य में निहित शक्ति का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, “नृत्य में अपनी बात रखते हुए उनके धड़ का उठाना वास्तव में शक्तिशाली लगता है। मंच पर उनकी भाव-भंगिमाएँ अमिट छाप छोड़ती हैं।“
सुश्री रत्नम कहती हैं “अगर आप मानते हैं कि कोमलता और संकोच नारीत्व सुलभ गुण हैं तब आप इन विशेषताओं को पौरुष प्रतीक समझ सकते हैं”, लेकिन हर नृत्य कलाकार अपने नारी सुलभ और पौरुष, दोनों पहलूओं की जानकारी रखते हैं। मैं इन दोनों पहलूओं से वाकिफ़ हूँ और मैं जिन नारी पात्रों को मंच पर अभिनीत करती हूँ, वे भी अपने इन दोनों पहलूओं से परिचित होते हैं”।
किसी शास्त्रीय नृत्य को देखने वाले एक आम दर्शक के रूप में मुझे लगा कि यह सब किस तरह से मुझसे और मेरे जीवन से सम्बद्ध है। इन नृत्य प्रदर्शनों में दिखाए जाने वाले कथानक अक्सर वे कहानियाँ होती है जिन्हें मैंने बचपन से सुना है फिर भी मुझे इसमें कोई विशेष रूचि नहीं लगती। लेकिन सुश्री रत्नम के दृष्टिकोण के आधार पर, पुराने कथानकों को आधुनिक रूप देने के उनके प्रयासों और किसी पुरानी परंपरा के लुप्त हो जाने पर दुःख प्रकट करने के स्थान पर नृत्य को एक नया रूप देने का के प्रयास को देखते हुए भरतनाट्यम और अन्य शास्त्रीय नृत्य अब और अधिक प्रसांगिक हो जाते हैं जिनसे आप आसानी से जुड जाते हैं।
(सुश्री अनीता रत्नम के साथ पौराणिक कथायों की प्रासंगिकता के बारे में उनके विचार और नृत्य व् सांस्कृतिक सक्रियतावाद में पित्रसत्तात्मक व्यवस्था पर पूरा इंटरव्यू अंग्रेज़ी में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।)
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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