लेखक अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते हैं
संपादक की ओर से – यह लेख सबसे पहले अंग्रेज़ी में व्यापक यौनिकता शिक्षा के सन्दर्भ में यूथ की आवाज़ मंच के सहयोग से तारशी द्वारा चलाए जा रहे #TalkSexuality अभियान के हिस्से के रूप में प्रकाशित हुआ था। इन प्लेनस्पीक के इस महीने के इशू ‘समय एवं यौनिकत’’ में इस लेख को हिंदी में प्रस्तुत करते हुए हम लेखक के अपनी पहचान को समझने और अन्य लोगों को समझाने के सफ़र पर प्रकाश डालना चाहते हैं। इस लेख में लेखक ने खूबसूरती से दर्शाया है कि कैसे उम्र के साथ उनकी स्वयं की पहचान के प्रति समझ बढ़ी और समय के साथ यौनिक पहचान पर समाज की समझ बदलने का उनके ऊपर क्या असर हुआ।
अपनी पहचान के बारे में बात करते हुए लेखक ‘क्लॉसेट’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, यहाँ ‘क्लॉसेट’ का अर्थ अलमारी नहीं, एलजीबीटी सन्दर्भ में ‘क्लॉसेट’ का अर्थ है अपनी जेंडर एवं/या यौनिक पहचान को गुप्त रखना।
“तो आपको कैसे पता चला कि आप… गे हो”?
पहली बार जब मुझसे यह सवाल पुछा गया, उस समय मैं दसवीं कक्षा में था और मैंने कुछ ही समय पहले अपनी सबसे अच्छी मित्र पर अपना यह राज़ ज़ाहिर किया था। बोर्ड की परीक्षा निकट होने के कारण स्कूल में एक खाली पीरियड के दौरान उसने मुझसे पुछा था कि मैं उस पूरे दिन इतना व्याकुल और उलझा हुआ क्यों दिख रहा था। मैंने उससे यह कहकर कि ‘परीक्षा करीब है शायद इसलिए’ पीछा छुड़ाना चाहा था लेकिन वो शायद मुझे बेहतर समझती थी। फिर उसके बाद इस बारे में बात करते हुए हम स्कूल में ही घूमने लगे। उस समय मेरी उम्र लगभग 14 वर्ष रही होगी और मैं हर चिंता से उन्मुक्त और भविष्य के सपने संजोने वाला एक अभीप्रेरित छात्र था। मुझे शायद उसे बताने में एक क्षण का समय लगता कि मैं गे हूँ, लेकिन इतना कहने के लिए साहस जुटाने में मुझे एक घंटे से अधिक का समय लगा। उसे यह जानने के बाद कोई समस्या या उलझन नहीं हुई कि उसका सबसे अच्छा मित्र वास्तव में गे था, लेकिन मेरे पास उसके उस सवाल का अभी भी कोई जवाब नहीं था कि मुझे कैसे पता चला कि मैं गे हूँ।
सातवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान, मैं अपना ज़्यादातर समय अपनी उम्र के लड़कों के साथ बिताता था। इस दौरान हम दोस्तों की अधिकतर बातचीत उन्हीं तीन विषयों पर हुआ करती थी जिनके बारे में बात करने की उस समय हमसे उम्मीद नहीं की जाती थी – सेक्सी लड़कियाँ, हमारा शरीर और सेक्स। इन ‘प्रचलित बातों’ के बारे में हमें अधिकाँश जानकारी केवल उन दिनों की फिल्मों, संगीत और क्लास में होने वाली खुसर-फुसर से मिलती थी जैसे ‘हस्त-मैथुन करने से मुंहासे निकल आते हैं’। हालांकि इन सभी बातों में मुझे ख़ासा मज़ा आता था, लेकिन मैं यह कभी समझ नहीं पाया कि मेरे दोस्तों को यह सब सुनकर कैसा महसूस होता था। मेरे दोस्त बातें करते हुए अपने-अपने सपनों के बारे में बताते कि सपने में पोर्न फिल्म की नायिका के स्तन देखकर उन्हें मज़ा आया जबकि मैं उन्हें अपने मनगढ़ंत किस्से सुनाता कि कैसे मैंने किसी लड़की के साथ इसी तरह से मज़े लिए। मैं चाहता तो था कि मुझे किसी लड़की के साथ ऐसा कुछ करने का मौका मिले ताकि मैं अपने दोस्तों को सच्ची घटना बता सकूं लेकिन ऐसा हो ही नहीं पाया। अब तक मुझे पता चल चुका था कि मुझे लड़कों के शरीर को देखने में ज़्यादा आनंद आता था लेकिन फिर भी मुझे यह अहसास कभी नहीं हुआ कि मैं गे था।
आठंवी क्लास में आते-आते मेरे लिए गे शब्द, मूर्खता, कमज़ोरी और हीनता का प्रयायवाची बन चुका था। अगले लगभग दो वर्ष तक इन्टरनेट पर सर्फिंग करने के बाद मुझे यह पता चला कि समलैंगिक होना कोई गाली या अभिशाप नहीं था और न ही मैं अकेला ऐसा लड़का था जो दुसरे लड़कों के प्रति आकर्षण महसूस करता था। लेकिन अभी भी मैं खुद को गे मानने को तैयार नहीं था। मुझे लगता था कि जहाँ तक मेरे स्कूल के टीचर, मेरे क्लास के दुसरे छात्रों और देश के राजनेताओं का सवाल था, उनमें से कोई भी समलैंगिक या गे नहीं था और मैं नहीं चाहता था कि मुझ अकेले पर समलैंगिक होने के कारण अंगुली उठे, ख़ासकर हाई-स्कूल में पढ़ाई के दौरान तो बिलकुल नहीं। मुझे यह भी पता चला था कि गे होना किसी व्यक्ति की अपनी खुद की इच्छा पर निर्भर करता है, तो मैंने फैसला कर लिया कि मैं खुद को गे नहीं रहने दूंगा, कम से कम मैंने कोशिश तो ज़रूर की। लेकिन इसका भी कोई मनचाहा परिणाम नहीं निकला – मेरे लिए तो अब भी वरुण धवन अलिया भट से ज़्यादा सेक्सी था। सबसे बुरा तो यह हुआ कि मुझे पक्का यह लगने लगा कि शायद मेरी यह प्रवृति मेरे द्वारा अतीत में किए गए कुछ फैसलों और कामों के कारण विकसित हुई है और अगर मैं किसी लड़की के साथ सेक्स कर लूं तो यह खुद-ब-खुद ही दूर हो जाएगी। चूंकि इस बारे में मेरी किसी और व्यक्ति से बातचीत नहीं हो पाती थी इसलिए इसके बारे में व्याप्त चुप्पी से मेरे ये सभी भ्रम मेरे मन में घर करते गए।
आखिरकार, दसवीं क्लास में, मुझे एक लड़के के प्रति आकर्षण महसूस होने लगा और फिर उसके बाद तो सब कुछ बदलने लगा। अपनी क्लास में पढ़ने वाले एक मज़ाकिया किस्म के उस लड़के को देखकर मेरे मन में मिले-जुले भाव पैदा होते थे और अब मुझे लगने लगा था कि मैं उसकी ओर आकर्षित हो गया था। अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि यह कितना बचकाना लेकिन बहुत मज़ेदार अनुभव था। पहली बार ऐसा हुआ था कि मुझे दिल की धड़कन का आभास हो रहा था, एक अलग सा रोमांच महसूस होता था और मन में लगातार यह जानने की जिज्ञासा रहती थी कि उस लड़के को, जिसे मैं पसंद करता था, किस करने में कितना मज़ा आएगा। अपने मन में इतने बड़े रहस्य को दबा कर रख पाना मेरे लिए कठिन होता जा रहा था, लेकिन मेरे सामने बहुत से अनसुलझे सवाल थे और मुझे बहुत शर्म भी आती थी। अब मैं चाहता था कि मैं अपने मन की बात किसी के साथ साझा कर सकूं। उस समय स्कूल में समलैंगिकता के प्रति दुसरे बच्चों के मन में कोई विशेष अच्छे भाव नहीं थे और अक्सर स्कूल के गलियारे में यह चर्चा सुनाई पड़ती थी कि समलैंगिक होना कितनी गलत बात है। लेकिन समय के साथ-साथ मीडिया में समलैंगिक के रूप में पहचान करने वाले लोगों के बारे में चर्चा धीरे-धीरे बढ़ने लगी और अब लोग इस बारे में खुल कर बात भी करने लगे। अब मेरे लिए अपने इस रहस्य को छुपा कर अकेले अपनी इस कोठरी में रह पाना असहनीय होता जा रहा था, पर कम से कम मुझे स्वयं तो अपने इस क्लॉसेट के बारे में पता चल चुका था।
अपने किशोर मन में चल रही इन उलझनों के कारण मैं इतना परेशान रहता था कि मुझे लगने लगा कि शायद मैं किसी के भी साथ संतोषजनक सम्बन्ध नहीं रख पाऊँगा। संभव है कि अगर उस समय मैं अपने स्कूल में, फिल्मों में, अखबारों में या किताबों में अपने जैसे दुसरे अन्य गे लोगों से मिलता या उन्हें देख पाता तो शायद मुझे इतनी उलझन नहीं होती। मेरे लिए बस यह जान लेना ही काफ़ी होता कि मेरे देश में मेरे जैसे दुसरे गे लोग भी रहते हैं जो पूरी तरह ‘नार्मल’ हैं – और यह भी कि मैं भी ‘नार्मल’ हूँ।
स्कूल में उस दिन घुमते हुए जब मैंने अपना यह रहस्य अपनी सबसे अच्छी दोस्त को बताया, तब मुझ लगा कि उसके उस सवाल पर मेरा जवाब इतना जटिल और लम्बा होने की कोई ज़रुरत शायद नहीं थी। अगर हमें पहले ही स्कूल में यह पता चल जाता कि इंसानों में यौनिकता इतनी विविध, बेहद आंतरिक और फिर भी सर्वव्यापी है, तो शायद हम मेरे जैसे किशोरों को इस तरह क्लॉसेट में धकेलने से पहले कई बार सोचते।
आज मैं देख सकता हूँ कि उस दिन से अब तक कितने बदलाव आ चुके हैं। मैंने अपने गे होने के बारे में अपने सभी दोस्तों और अपने परिवार के सदस्यों को बता दिया है और लगभग उन सभी की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक रही है। इनमें से अधिकाँश लोगों के लिए यह पहला अनुभव था जब किसी व्यक्ति ने खुद के गे होने के बारे में उनसे बात की थी, और इसीलिए मुझे उन्हें अनेक स्पष्टीकरण भी देने पड़े। लेकिन अगर हम सभी को इंसानों की यौनिकता के बारे में पहले से पूरी जानकारी होती तो क्या मेरे जैसे लोगों के लिए परिस्थितियाँ कुछ बेहतर होतीं? आज हमारे स्कूलों में व्यापक यौनिकता शिक्षा पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा है और इसके लिए Breaking Barriers और The Global Impact Project के द्वारा सामाजिक जागरूकता सप्ताह आयोजित करने जैसे प्रयास किए जा रहे हैं। शायद अगर हम अभी से स्कूलों में यौनिकता के विषय पर चर्चा करना आरम्भ कर दें तो संभव है कि इसके परिणामस्वरूप बच्चों के मन में निरर्थक उपजने वाले विचार बंद हो जाएँ और देश भर में अनेक बच्चे अपने क्लोसेट से बाहर आ पाएँ। लोगों को जेंडर और अलग-अलग यौनिक पहचानों के बारे में बेहतर जानकारी मिलने से संभव है कि अन्य मुद्दों के अलावा, स्कूलों में बच्चों को साथी छात्रों द्वारा परेशान किए जाने या अध्यापकों से टीका-टिपण्णी सुनने की घटनाओं में कमी आए और लोग खुद को ‘गलत’ या ‘अकेला’ न महसूस करें।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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This post was originally published under this month, it is being republished for the anniversary issue.