पिछले साल जब मैंने पहली बार डव के ‘सौंदर्य स्केच‘ अभियान का विज्ञापन देखा, जो उस साल के ‘सबसे ज्यादा देखे गये विज्ञापन‘ में से एक था, तो मुझे बहुत असहज महसूस हुआ। मेरी ये असहजता इस साल फिर से स्पष्ट हो गई जब एक सप्ताहांत यात्रा (वीकेन्ड ट्रिप) पर एक दोस्त के साथ एक उत्तेजक चर्चा खटाई में पड़ गई। उस चर्चा में, मैं अपनी उलझन के कारण ठीक से समझा नहीं पाई कि वास्तव में यह अभियान कितना रूढ़िवादी और अनुत्पादक था। इस लेख में बेतरतीब सोच मेरे असंतोष को आवाज़ ना दे पाने से पैदा हई है।
भले ही मैं महिला शरीर की बनावट के कुछ ‘वांछनीय‘ ख़यालों को कायम रखने वाली, कॉर्पोरेट प्रायोजित, मीडिया छवियों को सतर्क और संदिग्ध नज़र से देखने के लिए खुद पर गर्व करती हूँ, पर मेरी तत्काल प्रतिक्रिया, भी, ज़ाहिर है अच्छा-महसूस करने वाली उसी भावुकता (फील-गुड) में बह जाने की थी जिसका प्रचार विज्ञापन कर रहा था – यह कि आम तौर पर हम खुद को जितना खूबसूरत मानते हैं उससे अधिक खूबसूरत होते हैं और विज्ञापन हमें उन सभी अच्छे लोगों का ‘आभारी‘ होने के लिए कह रहा था जो व्यक्ति की शारीरिक कमियों से परे देखते हैं। ज़ाहिर है संदेश, खुश करने वाला था। असंख्य दोस्तों को सोशल नेटवर्किंग साइट पर वीडियो साझा करते देखने के बाद, मैंने इसे दूसरी बार देखा, और इस बार मैं बेहद अप्रभावित और थोड़ी नाराज़ भी हुई और फिर गुस्सा आया।
यह विज्ञापन, फिर से, महिला सौंदर्य की उन्हीं कठोर निश्चित धारणाओं पर खेलता है। विज्ञापन में भाग लेने वाली महिलाओं ने खुद का वर्णन ‘नकारात्मक‘ चिन्हों के साथ किया जैसे ‘मोटी‘ या ‘गोल‘ और जब दूसरे प्रतिभागियों ने उन्हीं महिलाओं का वर्णन ‘सुंदर नीली आँखें‘, ‘पतला चेहरा‘ और ‘प्यारी नाक‘ जैसे ‘सकारात्मक (पॉजिटिव)‘ चिन्हों के साथ किया, तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। वाह! एक ऐसी महिला के रूप में जिसके पास उनमें से कोई नाक-नक्श नहीं थे, मुझे डव के अभियान से आसानी से बाहर कर दिया गया और मुझे विश्वास दिलाया गया कि मेरे पास ‘असली सौंदर्य‘ नहीं है या कम-से-कम वो ‘सौंदर्य‘ तो नहीं है जिसे डव ‘असली‘ के रूप में प्रचारित करता नज़र आ रहा है। लेकिन फिर, मैं उसी मूल कंपनी से बहुत संवेदनशीलता और विवेक की उम्मीद कर रही थी जो एक्स डिओडोरेंट्स और फेयर एंड लवली क्रीम के लिए महिला-द्वेषी अभियानों पर फलती-फूलती है।
यह मुझे उस असाधारण उत्साहजनक और सशक्त अनुभव की ओर ले आता है जो मुझे इस्तांबुल, तुर्की, में एक तुर्की हमाम में हुआ। ‘हमाम‘ एक पारंपरिक तुर्की सार्वजनिक स्नानघर होता है, जो 10वीं शताब्दी से चला आ रहा है और आधुनिक संस्करण के रूप में तुर्की और मिस्र से लेकर हंगरी और साइप्रस के कई देशों में अभी भी मौजूद है। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग जगहों के साथ, हमाम को मनोरंजन और उत्सव या खुशी मनाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था, जहाँ महिलाएँ विवाह, जन्म और अन्य उत्सवों के अवसरों से पहले नाच और गाना किया करती थीं।
मेरी सबसे अच्छी दोस्त और मैंने हमाम जाने के बारे में कई चर्चाएं की थीं। महिला शरीर के मुद्दों और नग्नता के आस-पास सामाजिक-सांस्कृतिक बोझ हमारी मुक्त नारीत्व का जश्न मनाने की गहरी इच्छा पर हावी होने के साथ, हमने इस्तांबुल में निर्वस्त्र होने का विचार लगभग छोड़ दिया था, जब हमारे थके हुए पैरों, पीठ दर्द और अकड़ी गर्दन ने हमें बिना सोचे-समझे, एक हमाम की ओर खींच लिया। पेस्तेमल – हमारे नंगे शरीर को ढकने के लिए एक तौलिये जैसा सूती कपड़ा – में लिपटे हुए हमने गहरी साँस ली और अज्ञात में प्रवेश किया। ‘अगर हम सिर्फ़ तौलिया लपेटे हुए हैं तो इसमें कोई परेशानी की बात नहीं होनी चाहिए, वो उसे हमसे छीन थोड़ी लेंगे, है ना? पता चला, वे ऐसा ही करती हैं। हालाँकि, ‘वे‘ ऐसा करती उससे पहले, सभी आकृतियों और आकारों की नग्न महिलाओं से भरी उस जगह ने हमसे अजीब होने की भावना और ‘ढकी’ कमियों पर से परदा हटवा दिया और हमें भाप के स्नान (सौना) में डूबने, दूसरी महिलाओं के साथ पहले, सहमी नज़र से, और बाद में खुली हँसी के साथ, मेल-मिलाप करने दिया।
नग्नता का कॉर्पोरेट मीडिया, हिंसक राष्ट्र और पितृसत्तात्मक समाज द्वारा हमेशा अतिसंवेदनशीलता की चरम सीमा को बताने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, चाहे वह कैदियों को नंगा करना हो या दलित महिला को नंगा कर उन्हें गाँव में घुमाना हो। हाँलाकि मैं अपने विशेषाधिकार और सरकार और उसके संस्थानों द्वारा उत्पीड़ित लोगों की अधीनता के बीच अनुभवों की किसी भी तरह से तुलना नहीं करूँगी, लेकिन यह बात मुझे हैरान करती है, कि इस्तांबुल की गली में एक भाप से गर्म कमरे में, नग्नता सशक्त महसूस करने और समुदाय के साझेपन भाव की अभिव्यक्ति थी और महिला शरीर के लिए उनके लटकते माँस, और मुलायम से निकले हुए पेट और झूलते स्तनों के साथ एक कलात्मक प्रशंसा थी। ये शरीर उतने ही सुंदर और ‘असली’ थे, जितने बाहर की दुनिया ने कहा कि वो नहीं थे।
जहाँ डव ने ‘सुंदर‘ होने और एक सामाजिक स्वीकृति की ज़रूरत पर ज़ोर दिया , इस्तांबुल में मेरा अनुभव यह याद दिलाने के लिए बहुत ही ज़रूरी था कि मैं न केवल एक विशेषण से ज़्यादा थी, बल्कि यह कि महिला साथियों की सामान्य खुशियों और बे-रोक-टोक हँसी को हमेशा किसी भी भौतिकवादी, सामाजिक रूप से निर्धारित, कॉर्पोरेट संचालित प्रचार से अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
सुनीता भदौरिया द्वारा अनुवादित
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