लेखक की ओर से: इस कविता में अलंकार का प्रयोग करते हुए महिलाओं के भय का चित्रण करने की कोशिश है, वो भय जो कुछ जेंडर (विशेषकर महिलाओं) को प्रभावित करता है और जिस से उनके दैहिक स्वच्छंदता के तमाम रास्ते दुरूह हो जाते हैं; मेरी यह कविता उन सभी महिलाओं को समर्पित है जिनके शरीर, इच्छा और आनंद को इस समाज ने अनदेखी बेड़ियों में बाँध रखा है।
रात दबे पाँव न जाने कहाँ भागती रहती है
किसी से कुछ कहती नहीं,जागती रहती है
किसी मोड़ पे किसी परछाई की तलाश में
आँखें मींच के हर शख्स को ताकती रहती है
उजाले की बिल्कुल भी कोई ख्वाहिश नहीं
बस हर घड़ी पूनम का चाँद माँगती रहती है
नींद की गलियों में क्यों कर छुप-छुपा कर
ख़्वाबों के मुलायम धागे बाँधती रहती है
खुल गई हैं सड़कों पर रिश्तों की कई गिरहें
चुपचाप वो खामोशी के बटन टाँकती रहती है
चित्र: Pixabay