वर्ष 1514 में जब फ्रांस रोमन साम्राज्य का हिस्सा था, वहाँ फ्राऊ ट्रोफ़िया नाम की एक महिला ने शहर की सड़कों और गलियों में नाचना शुरू किया जिसे बाद में ‘डांस मेनिया/प्लेग के नाम से जाना गया। इस काम में उनके साथ लगभग 400 और लोग भी जुड गए। इनमें से अधिकाँश लोग कई हफ़्तों तक नाचते रहे थे और बाद में थकान के मर गए। काफ़ी चर्चा के बाद वहां के लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दिमागी संतुलन खराब हो जाने के कारण ये लोग इस तरह से सड़कों पर नाच रहे थे। बाद में, इन्हें ठीक करने के लिए भी कई सुझाव सामने आए, लेकिन कोई भी उपाय कारगर साबित नहीं हुआ। हालांकि यह कोई इकलौती ‘नाच की महामारी’ नहीं थी लेकिन इसके बारे में सबसे ज़्यादा लिखा गया था, जबकि विशेषज्ञों को भी यह समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ये लोग इस तरह से नाचते क्यों थे?
लोगों को सरेआम सार्वजनिक स्थानों पर नाचते देखकर मेरे ज़हन में सबसे पहले हिंदी फिल्मों का दृश्य घूम जाता है। बहुत से हिंदी फिल्मों के गानों, जैसे कि रंगीला रे, खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे, प्यार में दिल पे मार दे गोली, ये इश्क है, राँझना, आज फिर जीने की तमन्ना है, आदि को देख कर ऐसा लगता कि बॉलीवुड की फिल्मों में सार्वजनिक स्थानों पर नाच-गाने के माध्यम से मिलने वाले आनंद को दिखाने का एक ख़ास अंदाज़ निर्धारित है। वर्ष 1975 की फिल्म खेल-खेल में के गाने, खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे की एक लाइन है, ‘प्यार हम करते हैं चोरी नहीं’, यह लाइन हमें बार-बार याद दिलाती है कि सार्वजनिक स्थान हमारे मन की ख़ुशी को खुलकर और इमानदारी से व्यक्त करने की जगह है। इसी तरह, रंगीला रे उन कुछ गिने-चुने गानों में से है जिसमें एक ‘महिला’ को एक ऐसी जगह पर लोगों की भीड़ के सामने नाचता हुआ दिखाया गया है जहाँ आम तौर पर नाच-गाना ‘स्वीकृत’ नहीं किया जाता। यही कारण है कि बॉलीवुड की फिल्मों को कई बार ‘यथार्थ से परे’ या फिर ‘पलायनवादी’ कहा जाता है लेकिन फिर भी इन फिल्मों के कारण ही हम सार्वजनिक स्थानों पर अपने मन की ख़ुशी और आनंद को शरीर के माध्यम से प्रकट कर पाने को देख पाते हैं। आजकल सोशल नेटवर्किंग साइट्स के उपलब्ध हो जाने से ‘इन्ही दृश्यों का आनंद’ हमें इन्टरनेट के ज़रिए घर पर ही मिल जाता है और इन्टरनेट, सार्वजनिक स्थानों की इस परिभाषा को नए रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है।
इसी सन्दर्भ में सोशल मीडिया पर बॉलीवुड की जो आलोचना दिखाई पड़ती हैं, उनसे भी ‘पुरुष अवलोकन’ (मेल गेज़ थ्योरी, मल्वे 1975) का सिद्धान्त ही नज़र आता है। मल्वे के इस ‘पुरुष के देखने के अंदाज़’ का सिद्धान्त यह है कि महिला को नाचता हुआ देखने वाले लोग उसे ‘पुरुष की नज़र’ से देखते हैं जो इस महिला को एक यौनिक और भोग की वस्तु के रूप में देखती है, और वह महिला भी देखने वाले उन्हीं लोगों के लिए ‘देखने लायक वस्तु’ बन कर प्रस्तुत होती है। यह सही है कि मल्वे के इस सिद्धान्त की अनेक बार आलोचना कर उसमें बदलाव आ गए हैं, लेकिन फिर भी प्रचलित रूप से महिला को भोग की वस्तु के रूप में देखने का नज़रिया कायम ही रहा है। मैं इस बात से इनकार नहीं करती कि मीडिया में दिखाया जाने वाला महिला का रूप बहुत अधिक यौनिक या सेक्सुँलाइज्ड होता है, लेकिन इस व्याख्या की बारीकी भी सन्दर्भ के ऊपर निर्भर है। किसी स्टेज पर प्रस्तुत नृत्य और सड़क पर लोगों की भीड़ के सामने नाचने को लोग अलग-अलग रूप में ही देखते हैं।
व्यक्तिगत रूप से मुझे नाच-गाना हमेशा ही अपने विचारों और भावों की, अपनी इच्छाओं और आकाक्षाओं की कामुक अभिव्यक्ति लगता है, जिसे बहुत ही उन्मुक्त अथवा उच्छृंखल या व्यभिचारी रूप में भी देखा जा सकता है। पिछले 2 वर्षों में मैंने सार्वजनिक स्थानों पर नाचने की अपनी इच्छा को पूरी करने की कोशिश की है। मेरे यह नृत्य कोरियोग्राफ किए हुए नहीं होते है। मैं जान-बूझकर इस बात पर ज़ोर इसलिए दे रही हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि शास्त्रीय नृत्य शैली बिलकुल अलग होती है जिसमें अपने शरीर को अनुशासित करने पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अपने इन नृत्यों के विडियो जिन्हें मैं सोशल नेटवर्किंग साईटस पर भी डालती हूँ, में मेरा नृत्य बिलकुल वैसा ही होता है जैसे ‘कि फिल्मों में ही किया जाता है’ और ‘असल ज़िन्दगी में नहीं’। सोशल नेटवर्क पर लोगों की जो प्रतिक्रियाएं मुझे मिलती हैं उनमें ‘पागलपन’ से लेकर ‘बहादुरी भरी प्रयास’ जैसे कमेंट होते हैं और सार्वजनिक स्थानों पर नृत्य करने के यही दो पहलु हैं जिन्हें मैंने अपने नृत्य के द्वारा समझा और जाना है।
मनुष्य के सब कुछ जानने, समझने और कारण तलाश करने की इच्छा का ही परिणाम है कि आज हम आनंद को केवल आनंद के रूप में नहीं समझ पाते जब तक कि इसे हम असामान्य नहीं करार देते। हमें यह सिखाया गया है कि हमें अपने इस शरीर को अनुशासन में,नियंत्रण में और सभ्यता के अनुकूल बना कर रखना चाहिए – हमें यह भी बताया जाता रहा है कि आनंद खतरनाक होता है और इससे अक्सर समय ही नष्ट होता है। सिद्धान्तवादी हर्बर्ट मार्क्यूज़ ने अपनी किताब इरोज़ एंड सिविलाइज़ेशन (1955) में फ्रॉएड के विचारों की व्याख्या मार्क्सवादी विचारों के आधार पर करने की कोशिश करते हुए शरीर की बहुरूपी और भ्रष्ट यौनिकता के बारे में कहा है कि – यह पूरा शरीर ही कामुक है। अपनी किताब में उन्होंने विकसित पूंजीवादी समाज में ज़रुरत से अधिक इच्छाओं के दमन की बात भी कही हैं जहाँ काम करने और मेहनत करने को वरीयता देते हुए मनुष्य आनंद पाने को छोड़ देता है। इसलिए उस समाज में केवल काम के प्रति लगन के अलावा किसी भी ध्यान भंग करने वाली दूसरी चीज़ को तर्कहीन समझा जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि आनंद की अनुभूति केवल हमारी जनेंद्रियों तक ही सिमित होकर रह जाती है, अर्थात प्रजनन कर अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाना और किसी भी दुसरे तरीके से आनंद पाने को वर्जित और निषिद्ध समझना। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, जहाँ समय की कीमत है या जहाँ समय ही पैसा है, वहां सड़कों पर नाच-गाना करना बे-मतलब और बेकार समझा जाता है।
सार्वजनिक जगह पर नृत्य करने के मेरे काम को बहादुरी का दर्ज़ा दिए जाने से पता चलता है कि किसी न किसी तरह से सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला का नृत्य करना वहां किये जाने वाले रोज़मर्रा के कामों से तो बहुत हटकर होता है। यंग (1980) ने महिलाओं के अभिव्यक्ति के अनुभवों और स्थान के इस्तेमाल की संकुचित ज़रुरत (जो वे इसलिए करती हैं जिससे उनके कार्य को ‘भोग की वास्तु के रूप में देखे जाने के निमंत्रण’ के रूप में ना लिया जाए) की विवेचना की है। यंग कहती हैं कि, महिलाओं को लगता है कि उनका शरीर वह ही कर सकता है जो वे अपने शरीर को करने का आदेश देती हैं ना कि वो जो ‘वे अपने शरीर के ज़रिए करने की कामना’ करती हैं। फडके (2009) के अनुसार सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की पहुँच को उनके भ्रष्ट होने के विचार के साथ जोड़ कर देखा जाता है जिससे सार्वजनिक स्थान एक खतनाक और चिंतित करने वाली जगह बन जाता है जबकि घर के अन्दर की निजी जगह एक सुरक्षित स्थान हो जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर इस खतरनाक ‘दुसरे’ की उपस्थिति के कारण ही सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के आने-जाने में रूकावट पैदा होती है। रंगीला रे गाने में इसी तरह के खतरनाक दुसरे व्यक्ति को ‘मुंबई के टपोरी’ (फडके व् अन्य 2009) की तरह के उस व्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है जो ‘निचले वर्ग’ से है, जिसका हुक्म वहां लोगों पर चलता है, और जो लड़कियों को परेशान करने की वजह से सामाजिक व्यग्रता का कारण बन जाता है। यही कारण है कि आम तौर पर महिलाएं जोखिम नहीं उठाती और अपनी सुरक्षा के प्रबंध कर लेती हैं (फडके व् अन्य 2009) जैसे वे कुछ ख़ास रास्तों पर नहीं जाती, या अपने साथ मोबाइल फ़ोन रखती है, चेहरा ढक लेती हैं या हमेशा ये दिखने की कोशिश करती हैं कि वे किसी ज़रूरी काम से कहीं जा रही हैं। इसके ठीक विपरीत, सार्वजनिक स्थानों पर नाचने को जोखिम उठाने और लोगों की नज़र में आने की राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है। रंगीला रे गाना आज भी सशक्त इसलिए लगता है क्योंकि दुसरे अधिकाँश दृश्यों के विपरीत जहाँ लडकियां ज़्यादातर केवल स्टेज पर ही अकेले नृत्य करती हैं या सड़कों पर भी अपने किसी (पुरुष) प्रेमी के साथ नज़र आती हैं, इस विडियो में नायिका सड़क पर अकेले नृत्य कर रही है।
मेरे खुद के अनुभवों और रंगीला रे गाने को देखने के बाद, मेरा सुझाव यह है कि सार्वजनिक जगह पर नृत्य कर रहा शरीर पहचान मिलने की और ध्यान आकर्षित करने की मांग करता है लेकिन साथ ही साथ वे खुद को भोग की वस्तु के रूप में देखे जाने और नुमाइंदगी का प्रतिरोध भी करता है। इस तरह से बेपरवाह होकर सार्वजानिक जगह पर नृत्य करने में इतनी शक्ति और सामर्थ्य होता है कि वह ‘भोग वस्तु’ बनाने वाली पुरुष की नज़र (मल्वे, 1975) को एक संकोच भरी नज़र (लेविनस, 1974) में बदल सकती है जो इसे भोग वस्तु के रूप में नहीं देखती और इस पर प्रतिक्रिया नहीं करती। इस विषय को जानने की थाह का अंत नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे नृत्य करने से मिलने वाला आनंद, जो नृत्य करने का वास्तविक कारण होता है। रंगीला रे गाने में दिखाया गया है कि किस तरह टपोरी की नज़र, जो शुरू में भेदती हुई सी लगती है, बाद में संकोच में बदल जाती है। मेरे खुद के नृत्य के विडियो में भी एक दुकानदार दिखाई पड़ता है जो मुझे नाचती हुई देखकर हैरान है और मुझे सीधे देखने से कतराता है। सन 1514 के फ्रांस कि तरह ही, नाचने के वास्तविक कारण अज्ञात ही रहते हैं। पुरुष नज़र के बारे में मल्वे के सिद्धान्त में नृत्य करने वाली महिला की एजेंसी को नहीं परखा गया है जो अपनी इच्छा से कुछ भी छिपाने या दिखाने का फैसला करती है। नृत्य करने वाली महिला अपने नृत्य को देख रहे दर्शक की मौजूदगी से भी अनभिज्ञ नहीं है लेकिन फिर भी अनजान बने रहने का दिखावा भी करती है। इस पूरे अनुभव को केवल नृत्य में शामिल होकर ही पाया जा सकता है, किनारे बैठ कर उसके बारे में सैधांतिक विचार करने से नहीं!
नृत्य करना, वास्तव में अपने पहले सीखे हुए निर्देशात्मक व्यवहारों का त्याग करने या उन्हें भूल कर नए व्यवहार सीखने के बारे में भी होता है। यह एक ऐसा काम है जिसके लिए हमें सार्वजनिक स्थानों पर देखे जाने के अपने मन के डर को छोड़ना होता है और लोगों के साथ एक सकारात्मक विश्वास का रिश्ता कायम करना होता है। सार्वजनिक स्थानों पर केवल स्वीकार्य काम न करते हुए, ऐसी जगहों पर नाचते हुए एक शरीर में इतना सामर्थ्य है कि वह सामजिक-राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दे सकता है। नाचते हुए शरीर की भाव-भंगिमाओं को और उनके आनंद की अनुभूति के साथ जुड़े होने को खतरनाक समझा गया है (रीड, 1998)। साम्राज्यवाद के दिनों में, नृत्य की शैली में परिवर्तन करना भी लोगों को सभ्य बनाने के मिशन का एक भाग हुआ करता था। ब्रिटिश शासकों ने देवदासियों के नृत्य में से यौन प्रदर्शन को हटा कर भरतनाट्यम नृत्य को विकसित किया जो उच्च जाति की संवेदनाओं के मुताबिक था।
मार्क्यूज़ (1955) लिखते हैं कि वर्तमान समय में हो रहे इन क्रांतिकारी बदलावों कर अर्थ यह होगा कि ‘मानव शरीर को मेहनत करने की बजाए आनंद का साधन मान लिया जाए’। शरीर गति के माध्यम से अपनी विभिन्न विधाओं का प्रदर्शन कर पाने में सक्षम है और किसी उचित ‘कारण’ की परिभाषा में बिना बंधे, यह सार्वजनिक स्थानों पर अपनी पहुँच भी बना सकता है। नृत्य के माध्यम से हमारा शरीर अपनी यौनिकता, संवेदना, आनंद और दमन के प्रति विरोध जैसे भावों को दर्शाता है। यह विचारों को अहिंसक रूप से व्यक्त करने का माध्यम है और इसमें निजी रूप से विरोध जताने और विरोध प्रकट करने के लिए एकजुट होने का भी सामर्थ्य है (जैसा कि वन बिलियन राइजिंग अभियान में दिखा)। इस तरह से नाचना न केवल सार्वजनिक स्थानों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करने का तरीका हो सकता है बल्कि यह अपने निजी शरीर में आनंद पाने का उपाए भी है – एक ऐसा आनंद जिसे आजतक केवल काम करते रहने में ही आनंदित होने तक सिमित कर दिया गया था।
यह लेख मेरे शोध निबंध का भाग था। अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में अपनी प्रिय सुपरवाइजर, दीप्ति सचदेव की सहायता के बिना इसे पूरा कर पाना मेरे लिए कठिन होता।
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