हमारे समाज में महिलाओं को आमतौर पर ‘सहमति’ या ‘रजामंदी’ शब्द के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं होती, लेकिन वे ‘हिंसा’ शब्द से भलीभाँति वाकिफ़ होती हैं। चुनाव कर पाने या चुनने का अधिकार, किसी भी तरह के संबंध को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर देते का अधिकार या फिर संबंध होने पर उस संबंध में यौन संबंध रखने या न रखने का फैसला लेने का अधिकार, मनुष्य जीवन की गरिमा के लिए बुनियादी या मौलिक अधिकार होता है। महिलाओं से सहमति लेने या उनकी इच्छा जानने का चलन हमारे समाज में तो मानो है ही नहीं, चाहे ये वैवाहिक सम्बन्ध के बारे में हो यौनिक सम्बन्ध। हालांकि ऐसा हो सकता है कि कभी अकस्मात् ही महिलाओं की इच्छा भी जान ली जाए लेकिन किसी संबंध को स्थापित करने से पहले या उसे जारी रखने में महिलाओं की मर्ज़ी जान लेना कभी भी शर्तिया ज़रूरी नहीं समझा जाता।
लेकिन अब, जैसे-जैसे महिलाओं को शिक्षित होने के अधिक अवसर मिल पा रहे हैं और वे नौकरी करने के लिए घरों से बाहर निकालने लगी हैं, ऐसा देखा गया है कि परिस्थितियों में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। अब जैसे-जैसे महिलाएँ अपनी निजता, अपने शरीर और अपने जीवन से जुड़े अधिकारों को प्राप्त कर रही हैं, वे चुनाव करने के अपने अधिकार को भी पहचानना शुरू कर रही हैं और इस अधिकार को पाने के लिए प्रयास भी कर रही हैं। लेकिन उनके इस तरह से अधिकारों का प्रयोग करने का एक अन्य परिणाम समाज का बढ़ता विरोध भी है। आज समाज में महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों की माँग किए जाने के परिणामस्वरूप, इसके विरोध में अनेक तरह की हिंसा की घटनाएँ देखने को मिलती हैं। महिलाओं पर तेज़ाब फेंके जाने, या परिवार की इज्ज़त के नाम पर उनकी हत्या तक कर दिए जाने की घटनाओं में वृद्धि, इसी सामाजिक विरोध के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों की माँग किए जाने और उस पर ऐसे हमले होने में एक तरह का समीकरण दिखाई पड़ता है। ‘सहमति’ जताने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए महिलाओं द्वारा ‘हाँ‘ कहने पर एक तरह की हिंसा होती है वहीं ‘असहमति’ जताते हुए अपने अधिकार के तहत ‘मना’ कर देने या हामी न भरने के परिणामस्वरूप भी महिलाओं के खिलाफ़ एक अन्य तरह की हिंसा होती है।
इसे आसानी से तब समझा जा सकता है अगर हम चुनाव के अधिकार को किसी के व्यक्तिगत अधिकार के रूप में न देखें बल्कि इसे एक ऐसे अधिकार की तरह समझें जो समाज में उपस्थित अनुक्रमता और आधिपत्य की व्यवस्थाओं को चुनौती देने में सक्षम है। अपने अधिकारों को पाने की इस कोशिश के कारण इतनी ज़्यादा हिंसा इसीलिए शुरू हो गयी है क्योंकि ऐसा करने से पारंपरिक जाति-व्यवस्था को ठेस पहुँची है; वही जाति व्यवस्था जो’ यह निर्धारित करती थी कि कौन किसके साथ विवाह कर सकते हैं या फिर, नहीं कर सकते हैं। इन्हीं सीमाओं ने जाती-प्रथा की अनुक्रमता को सदियों से बनाए रखा है। महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रण में रखना, अपनी ही जाति या कुनबे में विवाह संबंध बनाने का एक सुनिश्चित तरीका समझा जाता था। कौन किससे विवाह करे, किसके साथ प्रेम करे, किसके साथ किस प्रयोजन से यौन संबंध बना पाए, यह सभी कुछ जातियों और उप-जातियों के आधार पर निर्धारित होता था। खासकर ऊँची समझी जाने वाली जातियों में महिलाओं को जाति की प्रतिष्ठा के प्रतिबिम्ब के रूप में देखा जाता था और उन्हें जाति की मर्यादा और पारिवारिक संपत्ति को सुरक्षित रख पाने का साधन माना जाता था। जाति-प्रथा के इस अभेद्ध किले की सीमाओं को धार्मिक ग्रंथों और ‘सम्मान’ की धारणाओं द्वारा हिंसक रूप से संरक्षित किया जाता था।
यही कारण रहा कि जब भी इस अभेद्द समझे जाने वाले दुर्ग की दीवारें ढहने लगती हैं तो इसके रखवाले इसे सुरक्षित रखने के लिए और भी अधिक बल का प्रयोग करने लगते हैं। एक महिला द्वारा अपने जीवनसाथी के चुनाव खुद करना, खासकर अगर वह किसी अन्य जाति के व्यक्ति को जीवनसाथी बनाना चाहती है, इसने हाल ही में क्रूरतापूर्ण तरीके से हिंसा को जन्म दिया है। खप-पंचायतों ने अपनी जाति, उप-जाति या गोत्र के बाहर प्यार करने वाले, और विशेषकर विवाह करने वाले युवक-युवतियों की हत्या कर दिए जाने के फरमान खुले रूप में जारी किए हैं क्योंकि उन युवाओं द्वारा इस तरह अपनी मर्ज़ी से विवाह करने को, इस जाति-प्रथा के अनुशासन की खुली अवहेलना और चुनौती समझा गया था। पिछले दो दशकों में जाति-प्रथा की मर्यादा को भंग करने वाले लोगों की क्रूर तरीकों से हत्या किए जाने की अनेक घटनाएँ देखने में आई हैं जो मुख्यत: अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी खोजने वाले या प्रेम की तलाश करने वाले इन युवक-युवतियों को सज़ा देने के उद्देश्य से ही हुई हैं।
वहीं दूसरी ओर, महिलाओं द्वारा ‘ना’ कर दिए जाने पर उन्हें सजा देने की घटनाएँ भी देखने में आई हैं। पीछा करने वाले या ‘तिरस्कृत’ कर दिए गए प्रेमी, अपना कहना न मानने वाली या प्रेम को ठुकरा देने वाली इन महिलाओं पर, आए दिन, आक्रमण करते रहते हैं। अपना पीछा कर रहे इन मजनुओं से टक्कर लेने वाली सबसे बहादुर लड़की को भी अपने चेहरे पर तेज़ाब फेंके जाने का शिकार केवल इसलिए होना पड़ सकता है क्योंकि वह इनके उत्पीड़न से दुखी न होकर इनका मुक़ाबला करने का साहस करती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें रोज़ धमकियाँ मिलती रहें या फिर ’तिरस्कृत’ व्यक्ति द्वारा यौन शोषण का शिकार हो जाएँ। इस तरह की घटनाएँ भी महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों का प्रयोग करने और इस कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मिली चुनौती का परिणाम ही नज़र आती हैं। इस तरह की घटनाओं के बाद अक्सर यह कहा जाता है कि आक्रमण करने वाला पुरुष उस लड़की के ‘प्रेम में पागल’ था, या फिर वह अपमानित महसूस कर रहा था आदि। जुलाई 2013 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई एक घटना में भी इसी की झलक दिखी थी। वहाँ बी ए (कोरियाई) में पढ़ने वाले एक छात्र ने कक्षा में घुस कर एक लड़की पर कुल्हाड़ी से इतनी बेरहमी से आक्रमण किया कि बहुत महीनों तक घायल रहने के बाद मुश्किल से उनकी जान बच पायी, लेकिन उनकी याददाश्त जाती रही। लड़की पर आक्रमण करने के बाद, उस लड़के ने कीटनाशक दवा पी ली और खुद अपना गला काट लिया, जिससे बाद में लड़के की मृत्यु हो गयी। पता चला कि यह लड़का पिछले कुछ समय से इस लड़की से ‘प्रेम’ करता था जबकि लड़की ने स्पष्ट रूप से उनके इस प्रेम इज़हार का विरोध किया था। इस लड़के के कथनानुसार, लड़की ने उनका इस्तेमाल किया था और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया था। लेकिन इस मामले में सच्चाई यह थी कि यह इस लड़के के लगातार पीछा किए जाने और परेशान करने से लड़की दुखी थी। लड़के को यह बिलकुल गवारा नहीं हुआ कि यह लड़की उनके साथ संबंध रखने को राज़ी नहीं थी। 2011 में, झारखंड के रांची शहर में एक लड़के ने 17 वर्ष की एक कॉलेज जाने वाली लड़की का सिर केवल इसलिए काट दिया क्योंकि वह उनसे बात करने से मना कर दिया था। इसी तरह दिल्ली के मुनिरका में एक व्यक्ति ने, स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की द्वारा अपना कहना न मानने के कारण गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। इन घटनाओं के अलावा, उपेक्षित प्रेमियों द्वारा लड़कियों पर तेज़ाब फेंके जाने की बढ़ती घटनाएँ भी इसी तरह की हिंसा की सूचक हैं। साफ पता चलता है कि महिलाओं को आए दिन इन पुरुषों के ‘प्रेम’ और कामना का शिकार होना पड़ता है। प्रेम की परिभाषा में सामने के पक्ष द्वारा प्रेम को स्वीकार किए जाने या अपनी सहमति देने का कोई स्थान मानों है ही नहीं। यह कभी नहीं पूछा जाता कि हिंसा के सूक्ष्म या अतिवादी रूपों के माध्यम से व्यक्त किया जाने वाला रिश्ता प्रेम कैसे माना जा सकता है। कैसे कोई किसी के इकतरफा जुजूनी पीछा किए जाने को प्रेम मान ले? क्या महिलाओं से यही उम्मीद की जाती है कि वे अपनी इच्छाओं और भावनाओं को दरकिनार कर, किसी के भी प्रेम को ऐसे ही स्वीकार कर लें और उसे कृतार्थ कर दें?
इसके अलावा हिंसा का एक दूसरा रूप भी है जिसके आगे किसी महिला के मना करने का अधिकार गौण हो जाता है और वह है विवाहेत्तर सम्बन्धों में बलात्कार। वैवाहिक सम्बन्ध में बलात्कार को परिभाषित करने का कोई भी कानूनी या सामाजिक तरीका नहीं बना है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि विवाह तो अपने-आप में महिला द्वारा अपने पति के साथ यौन संबंध रखने के लिए हमेशा के लिए दी गयी सहमति है जिसे एक बार देने के बाद वापिस नहीं लिया जा सकता। पति-पत्नी के बीच हर बार यौन संबंध बनाने के लिए इस सहमति का बार-बार लिया जाना ना तो आवशयक समझा जाता है और ना ही अधिकार। इसके अलावा प्रचलित और स्वीकृत नैतिकता के अनुसार महिला का किसी भी समय अपने पति के साथ सेक्स करने से मना करने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसा माना जाता है कि बलात्कार केवल कोई ‘बाहरी व्यक्ति’ ही कर सकता है। लेकिन वास्तविकता यही है कि पुरुष और महिला के बीच जिस तरह के असमान संबंध होते है और जिस तरह से हमारे समाज में पुरुष और महिलाओं का सेक्स के प्रति भिन्न-भिन्न नज़रिया विकसित किया जाता है, उससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि पति और पत्नी के बीच के यौन-सम्बन्धों में परस्पर आत्मीयता और संवेदनशीलता बहुत कम या ना के बराबर होती है। भारत में आज भी वैवाहिक सम्बन्धों में हुए बलात्कार को कानूनन बलात्कार नहीं माना जाता। लेकिन फिर भी सच्चाई यही है कि संभवत: महिलाओं के खिलाफ़ बार-बार होने वाली यह हिंसा सबसे अधिक होती हो क्योंकि, कानून के तहत कोई महिला इसकी शिकायत भी नहीं कर सकती और महिला को अपने विवाह को बचाने और उसकी ‘मर्यादा’ को बनाए रखने के लिए इसे बार-बार झेलने के लिए मजबूर भी होना पड़ता है।
मनुष्यों के बीच के किसी भी तरह के आपसी सम्बन्धों में सहमति का होना, इन सम्बन्धों की मज़बूत नींव की तरह होना चाहिए। हमारे समाज में हम इस ‘सहमति’ देने या ‘ना’ कह पाने के अधिकार पर प्रतिक्रिया के रूप में नयी तरह की हिंसा को देख पा रहे हैं। अधिकारों को प्रयोग करने की इस प्रक्रिया को केवल किसी व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों के प्रयोग के रूप में न देखकर इसे सभी के लिए सामूहिक रूप से किए जा रहे अधिकारों के प्रयोग के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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