तारशी द्वारा वर्ष 2010 में ‘भारतीय संदर्भ में यौनिकता और विकलांगता’ कार्यशील परिपत्र (वर्किंग पेपर) निकाला गया था। वर्ष 2010 से 2017 के बीच – वैश्विक से लेकर स्थानीय, दोनों स्तरों पर – कानून और नीतियों में बदलाव के साथ संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा शोध और नई पहलें हुई हैं, जिनसे गुजांइशें और बढ़ी हैं। इन बातों को ध्यान में रखते हुए इस पेपर को वर्ष 2018 में भारत में यौनिकता और विकलांगता के समकालीन परिदृष्य से पुनः देखा गया और नए कानून और नीतियों के साथ-साथ बदलाव की अन्य कहानियों को शामिल कर इसी शीर्षक के साथ अपडेट करके इसे दोबारा प्रकाशित किया गया है। इस पेपर में शामिल जानकारी विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के माता-पिता, शिक्षकों, अन्य देखभाल प्रदाताओं, इस क्षेत्र के पेशेवरों, सक्रियतावादियों (एक्टिविस्ट), पैरोकारों के साथ बातचीत और भारत में यौनिकता और विकलांगता से संबंधित मौजूदा कानूनों और नीतियों की समीक्षा से आती है। यौनिकता और विकलांगता एक ऐसा अन्तःप्रतिच्छेदन (इंटरसेक्शन) है जो नया तो नहीं है लेकिन जिस पर ज़्यादा बातचीत भी नहीं हुई है। तारशी के वर्किंग पेपर के ज़रिए इसी संबंध को समझने की कोशिश कि गई है; प्रस्तुत हैं उसी पेपर के कुछ अंश और उसपर आधारित विचार।
यौनिकता मानव जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद, दुनिया के अनेक समाजों में, एक वर्जित विषय है और विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्ति के लिए यौनिकता के बारे में सोचना तो शायद कल्पना से भी परे की बात है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे विकलांग हैं बल्कि इसका एक कारण यह भी है कि परिवार और समाज उन्हें हमेशा एक ऐसे ‘बच्चे’ की तरह देखता है जिसे हर वक्त सुरक्षा और सहारे की ज़रूरत होती है। उन्हें बिरले ही कभी अपने फैसले लेने या उन लोगों की तरह रहने और महसूस करने का मौका मिलता है जिनमें विकलांगता ना हो। कोई न कोई उनके आस-पास मँडराता रहता है या यह तय कर रहा होता है कि उनके लिए क्या सही है और उन्हें किस चीज़ की ज़रूरत हो सकती है। इसके साथ-साथ उनकी पहुँच सीमित होती है, समाज की सोच नकारात्मक है और इन सब के अलावा उनके पास अन्य लोगों की तरह शिक्षा, मनोरंजन, सामाजिक और स्वास्थ्य सुविधाएँ और अधिकार भी नहीं हैं।
वर्ष 2010 में, जब यौनिकता और विकलांगता पर पेपर के लिए शोध किया गया था उस समय समाज में इन दोनों के बीच संबंध मुश्किल से ही नज़र आता था। आम तौर पर विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की यौन ज़रूरतों और अभिव्यक्तियों को अनदेखा किया जाता था। आम नज़रिया यह था (और अब भी है) कि विकलांग व्यक्ति यौन रूप से सक्रिय नहीं होते – उन्हें यौन रूप से सक्रिय नहीं होना चाहिए। जबकि सच यह है कि विकलांगता के साथ रह रहे लोगों में भी बाकी और लोगों की तरह सेक्स की भावनाएँ, कल्पनाएँ और इच्छाएँ होती हैं, लेकिन विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की यौनिकता के बारे में प्रचलित सामाजिक मान्यताओं के कारण उन्हें अपनी यौनिकता को अभिव्यक्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यौन संबंधों से जुड़ी बाधाओं के कारण विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने के बजाए उन्हें नकारना आसान होता है।
हाल ही में मुझे विकलांगता पर एक सम्मेलन में भाग लेने का मौका मिला लेकिन वहाँ जो बातें हुईं वे इस बात की पुष्टि करती हैं कि आज भी हम विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को समाज में एक बोझ की तरह देखते हैं। आज भी सारा ज़ोर इस बात पर लगाते हैं कि उन्हें कैसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाय जिससे वे खुद कमा और खा सकें। यहाँ दुःख की बात यह है कि उनकी यह आत्मनिर्भरता उनके अधिकार के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक ‘उपकार’ के रूप में उन्हें प्रदान की जाती है; हम उन्हें कमाने के लायक तो बनाना चाहते हैं लेकिन उन्हें एक आम इंसान की तरह नहीं देखना चाहते जिनकी बाकियों की तरह सामान्य इच्छाएँ हैं, वे चाहे कमाई को लेकर हों या पढ़ाई, संबंध, शादी, परिवार या बच्चे को लेकर हों।
उपकार का यह दृष्टिकोण और विकलांगता के साथ रहे लोगों की आवश्यकताओं को नज़रंदाज़ करने का ये रवैया मेरे मन के इस सवाल को और भी दृढ़ कर देता है कि कोई विकलांग हो या न हो सबकी मूलभूत आवश्यकताएँ तो समान ही हैं, फिर यह पक्षपात क्यों? मेरी बात थोड़ी काल्पनिक या दार्शनिक लग सकती है लेकिन सच तो यही है कि सूरज, चाँद और तारे सब पर बराबर रोशनी डालते हैं, चोट लगने पर सभी को दर्द होता है और खुशी होने पर सबके चेहरे पर मुस्कुराहट आती है। भले ही कितने ही अंतर हों फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक अंतर के कारण व्यक्ति में किसी प्रकार की कोई भावना या इच्छा है ही नहीं।
तारशी के इस पेपर में इसी बात पर ध्यान दिलाने की कोशिश की गयी है। यौनिकता और विकलांगता के इंटरसेक्शन पर संवाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर प्रारम्भ हो गए हैं; यह कहा जा सकता है कि शुरुआत ज़रूर हुई है हालाँकि दिल्ली अभी दूर है और इस विषय पर और बात करने की ज़रूरत है। पेपर से साफ़ है कि अभी भी विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है। फिर भी विकलांगता की बात करते हुए पेपर में इस बात को स्वीकार किया गया है कि जहाँ शारीरिक विकलांगता पर काम हुआ है वहीं बौद्धिक विकलांगता के साथ रह रहे लोगों पर आंकड़ों और शोध का अभाव है जो इस पेपर के लिए भी एक सीमितता रही।
आमिर खान के टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ का उल्लेख करते हुए इस पेपर में बताया गया है कि इस टीवी प्रोग्राम के विकलांगता के साथ रह रहे लोगों वाले एपिसोड ने काफ़ी प्रभाव छोड़ा और वर्ष 2015 में भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय और एनएफ़डीसी के संयोजन से, दिल्ली में, विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह भी आयोजित किया गया। इस प्रकार, पिछले कुछ सालों में संचार और सभी अन्य क्षेत्रों में समावेशन की बेहतर समझ और स्वीकृति बनाने के प्रयास भी किए गए हैं, जो एक अच्छी खबर है!
इस पेपर में यौनिकता और विकलांगता से जुड़े सभी प्रासंगिक मुद्दों को छुआ गया है। शुरुआत यौनिकता को समझने से होती है जिसमें भारत में यौनिकता, यौनिकता को परिभाषित करना और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं। यौनिकता और विकलांगता को समझने के लिए इस पर एक नज़रिया होना ज़रूरी है और इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि क्या वाकई यौनिकता के कोई मायने हैं, क्या इससे कोई फ़र्क पड़ता है। इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या ये मुद्दे सबके लिए समान हैं; इस विषय पर भी पेपर में अन्य अध्ययनों और शोधों के हवाले से प्रकाश डाला गया है। साथ ही इस पेपर में भारत में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों और कुछ आंकड़ों का भी जिक्र किया गया है। आंकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन, वर्ल्ड बैंक, भारत की 2011 जनगणना रिपोर्ट, और यू.एन. की मानव विकास रिपोर्ट, 2016 से लिए गए हैं। यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ‘छोटी संख्या’ का मतलब ‘कम अधिकार’ नहीं होता है।
विकलांगता से जुड़ी नीतियों को जानना महत्वपूर्ण है। यह पेपर दर्शाता है कि कैसे वैश्विक रूप से विकलांगता नीतियाँ रोकथाम और पुनर्वास के नज़रिए से बदलकर विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए समान अवसरों की ओर उन्मुख हुई हैं। विकलांगता से संबंधित अंतरराष्ट्रीय नीतियों और भारतीय कानूनों पर प्रासंगिक जानकारी भी पेश की गई है। भारत में, वर्ष 1995 के विकलांगता अधिनियम के बदले, नया विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्तियों के अधिकार (आर.पी.डी.) आधिनियम, 2016 पारित किया गया है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि यूएनसीआरपीडी (UNCRPD) की परिभाषा को ध्यान में रखते हुए, इसमें विकलांगता की सूची को विस्तृत किया गया है, अब इसमें 7 से बढ़ाकर 21 विकलांगताओं को शामिल कर दिया गया है। साथ ही, वर्ष 1987 के मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम के बदले नया मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 आया है जो एक और महत्वपूर्ण अधिनियम है। और आर.पी.डी. की तरह यह भी यूएनसीआरपीडी के तालमेल में है।
जब यौनिकता, यौन स्वास्थ्य और अधिकारों की बात आती है तो यह देखा जाता है कि इस क्षे़त्र में यौनिकता और विकलांगता को लेकर कई अवधारणाएँ हैं। इसमें सबसे बड़ी गलतफ़हमी यह है कि विकलांगता के साथ रह रहे लोगों में या तो ‘यौन इच्छाएँ होती ही नहीं’ या फिर ‘ज़रूरत से ज़्यादा यौन इच्छाएँ होती हैं। यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और यौनिकता से जुड़े मुद्दे यूँ तो समाज के सभी हिस्सों और सभी पृष्ठभूमियों के व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं। फिर भी गंभीर बहु-विकलांगताओं और/या बौद्धिक विकलांगताओं को छोड़कर, विकलांगताओं के साथ रह रहे लोगों की बहुत सारी चिंताएँ गैर विकलांग लोगों के समान ही होती हैं। उदाहरण के लिए विकलांग हों या गैर विकलांग, किशोरावस्था दोनों में ही आती है और उससे जुड़े शारीरिक व भावनात्मक बदलाव और समस्याएँ भी। इसी तरह विकलांग हों या गैर विकलांग अपने शरीर को समझने, अपने आप को साफ़ रखने, संक्रमण और अनचाहे गर्भ के परिणामों, और खुद की यौनिकता पर अधिकार, इनपर जानकारी की ज़रूरत सभी को होती है। ज़रूरी है कि, सभी मामलों में यह जानकारी उनकी परिस्थितियों, समझ के स्तर और विशेष विकलांगता के हिसाब से होनी चाहिए।
इस वर्किंग पेपर में न सिर्फ़ इनके बारे में बात की गई है बल्कि अन्य महत्वपूर्ण आयामों को भी शामिल किया गया है। जैसे कि मीडिया में यौनिकता और विकलांगता का क्या परिदृश्य है, शरीर की छवि (बॉडी इमेज) और आत्म-मूल्य (सेल्फ वर्थ), रिश्ते, शादी, जेंडर, यौनिकता शिक्षा, यौन गतिविधियाँ/प्रथाएँ, दुर्व्यवहार और एचआईवी एवं एड्स को भी विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के संदर्भ में देखा गया है। प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों को भी विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के नज़रिए से देखा गया है। इसमें माहवारी, गर्भनिरोधक, गर्भाधान, गर्भ समापन, नसबंदी और गोद लेने के मुद्दों पर जानकारी दी गई है। आम तौर पर तो सभी इन विषयों के बारे में कुछ जानकारी रखते ही हैं लेकिन विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्ति के लिए इन बातों के क्या मायने हैं, वे इनसे कैसे प्रभावित होते हैं, यह जानना समझना भी ज़रूरी है क्योंकि उन्हें भी अपनी यौनिकता अनुभव करने का अधिकार है।
विभिन्न चुनौतियों के वाबजूद कुछ सकारात्मक कथानक हैं जो यौनिकता और विकलांगता पर काम को आगे बढ़ाने के लिए कुछ संभावनाएँ प्रदान करते हैं। यौनिकता और विकलांगता दो जटिल मुद्दे हैं और भारत जैसे सीमित-संसाधनों वाले परिवेश में इनपर काम करना और भी मुश्किल है। फिर भी कुछ मौजूदा पहलों और सुझावों के साथ आगे की राह देखने का प्रयास किया गया है। इन संभावनाओं में कुछ कौशल निर्माण और प्रशिक्षण, पहुँच के अंदर जानकारी और सेवाएँ, सामाजिक स्थान, शोध, पैरवी, और विकलांगता अध्ययन शामिल हैं।
पेपर का निष्कर्ष यह कहता है कि यह तो साफ़ है कि यौनिकता और विकलांगता के बीच संबंध को अभी भी अक्सर नहीं पहचाना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज में गलतफ़हमियाँ व्याप्त हैं जिनके चलते बड़े पैमाने पर मानव अधिकारों का उल्लघंन होता है। यौनिकता और विकलांगता के बीच संबंध को देखने के लिए शोध और अध्ययनों में निवेश करने की ज़रूरत है। साथ ही पैरवी और कार्यक्रमों के लिए साक्ष्य बनाने और मज़बूत करने की आवश्यकता भी है।
भारत के संदर्भ में स्कूलों में यौनिकता शिक्षा एक बहुत बड़ी बाधा है और विकलांगता के साथ रह रहे बच्चों के लिए और भी बड़ी अड़चन है। जहाँ बात की भी जाती है यह केवल माहवारी और यौनिक दुर्व्यवहार के संदर्भ में की जाती है। सुरक्षित सेक्स, गर्भनिरोधक और अन्य यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सरोकारों पर जानकारी को अक्सर विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए बेकार समझा जाता है। विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों पर प्रशिक्षित करना एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें निवेश और संसाधनों की आवश्यकता है ताकि वे इन विषयों पर स्वयं पैरोकार, प्रशिक्षक और शोधकर्ता बन सकें।
इन सीमाओं के बावजूद वर्ष 2010 से अब तक बदलाव की हवा महसूस की जा सकती है। दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में कुछ नयी संभावनाएं और आवाजे़ं उभरी हैं जो विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के सरोकारों को संबोधित कर रही हैं। इन सभी कोशिशों से संपर्क और विभिन्न अनुभवों और साझा जानकारि से सबक लेना महत्वपूर्ण है। भारत के कानून में बदलाव आया है। हालाँकि उसे लागू करने के लिए नियम, दिशा-निर्देश, व्याख्याएँ और रणनीतियाँ बनाना और कानून में बदलाव के पीछे के कारण को समझना एक चुनौती है। इस पेपर में उदाहरणों से दिखाया गया है कि पिछले कुछ वर्षों से भारत में खुद विकलांगता के साथ रह रहे लोगों, माता-पिताओं, शिक्षकों, अन्य देखभालकर्ताओं, विकलांगता अधिकार सक्रियतावादियों और अन्य लोगों द्वारा विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के यौन अधिकारों को मज़बूत करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं।
हालाँकि सभी क्षेत्रों में सोच में बदलाव लाना और स्थान बनाना एक मुख्य चुनौती है। विकलांगता को समझने और चर्चा में भाग लेने के लिए और अधिक लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। विकलांगता के बारे में समाज का नज़रिया विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की यौनिकता को प्रभावित करता है। समय आ गया है जब हमें समय के साथ नज़रिए में बदलाव लाना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि यह दस्तावेज़ विकलांगता के साथ रह रहे लोगों, सक्रियतावादियों, देखभालकर्ताओं, स्वास्थ्य पेशेवरों, शैक्षणिक विश्व, शोधकर्ताओं और नीति-निर्माताओं के लिए विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य को दृढ़ करने के काम को आगे ले जाने में मददगार साबित होगा। और इसमें पहला कदम होगा इस पेपर को हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में अनुवादित कर उपलब्ध करवाना!