कुमाम डेविडसन एक स्वतंत्र पत्रकार, ऐक्टिविस्ट और शिक्षक हैं। वे पूर्वोत्तर भारत में क्विअर विषयों पर डिजिटल और प्रिंट सामग्री का संकलन करने के लिए संचालित की जा रही चिंकी-होमो प्रोजेक्ट के सह-संस्थापक भी हैं। शिखा आलेया के साथ बातचीत करते हुए डेविडसन, पूर्वोत्तर भारत में विद्रोह आंदोलन के साए में खुद के बड़े होने से जुड़े संस्मरण साझा करते हैं, और अपने के बारे में चर्चा करते हुए अपनी यह चिंता भी जताते हैं कि, ‘2019 में धारा 377 को खारिज कर दिये जाने के बाद भी कैसे वे, अपने गृह राज्य में अंतरंगता और यौनिकता से जुड़े अनेक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए जूझ रहे हैं’। उन्हें इस बात का दुख है कि उनके राज्य में आज भी, समलैंगिक लोगों का आपस में प्रेम केवल चुरचंदपुर के किसी सस्ते होटल में, इम्फ़ाल में किराये के किसी घर में, या फिर पहाड़ पर झड़ियों के पीछे या रात के अंधेरे में किसी सुनसान गली में ही व्यक्त किया जा सकता है, इसके लिए कहीं और कोई जगह नहीं है।
शिखा आलेया – डेविडसन, हम आपके आभारी हैं कि आप अपने काम के बारे में और अपने मूल्यों, अपनी मान्यताओं के बारे में हमारे साथ चर्चा करने के लिए तैयार हुए। आपने पूर्वोत्तर भारत में क्विअर लोगों के वास्तविक जीवन के अनुभवों के संदर्भ में अंतरंगता और यौनिकता के विषय को जाना है। आपकी लिखी कहानी, इम्फ़ाल एक्सप्रेस बस, में जीवन की घटनाओं और अंतरंगता, आपसी करीबी में एक तरह की दूरी देखने को मिलती है और कहानी के पात्र हमेशा ही संघर्ष और टकराव की स्थिति में दिखाई देते हैं। कृपया हमें विस्तार से बताएँ कि इन विषयों पर कुछ लिखते हुए आपके मन में क्या विचार रहते हैं और इस लेखन की पृष्ठभूमि में किस तरह के अनुभव होते हैं।
कुमाम डेविडसन – दरअसल यह विषय पर संदर्भ के होने और उस जीवन के वास्तविक अनुभवों के जुड़ा एक बड़ा ही जटिल सा मामला है। मणिपुर जैसी जगह में यौनिकता और यौन नज़्दीकी के अनुभवों को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि इस बारे में किसी ऐसे व्यक्ति से जानकारी ली जाए जो यहीं के हों और अन्दर कि बात जानते हों। यहाँ समाज के अधिकांश भागों में यौन नज़्दीकियाँ, सेक्स और यौनिकता आदि विषय निषिद्ध समझे जाते हैं। पहले मैं मणिपुर के एक छोटे से कस्बे में रहता था जहाँ रहते हुए मेरे अंतरंगता और यौनिकता से जुड़े अनुभव लगभग न के बराबर थे। लेकिन पहले इम्फ़ाल और बाद में दिल्ली, जहाँ मैं अपने मित्रों, अपने अंतरंग प्रेमी मित्रों के साथ रहा, शिफ्ट हो जाने पर मुझे यौनिकता और अंतरंगता या यौनिक नज़्दीकी से जुड़े अनेक अनुभव हुए। यह दोनों ही शहर मेरे जन्म स्थान, मेरे मूल निवास स्थान से बहुत दूर थे और यहीं आकर नज़्दीकी और यौनिकता के बारे में अपने अनुभवों को मैं परिभाषित कर पाया, उन्हें साकार कर पाया। अब जबकि मैं वापिस अपने छोटे से कस्बे में आ गया हूँ, तो ऐसा लगता है कि जैसे मैं अंतरंग नज़्दीकियों से दूर कहीं निकल आया हूँ, जहाँ जीवन में यौनिकता और यौनिक पहचान का जश्न मनाना तो दूर, जीवन में अंतरंगता के लिए भी कोई जगह नहीं है। मुझे किसी जगह से खुद के जुड़ाव और वहाँ मिलने वाली अंतरंगता, दोनों में एक विरोधाभास महसूस होता है। मैं जिस जगह से हूँ, वहाँ कोई नज़्दीकियाँ नहीं मिलती और जहाँ ये मिलती हैं, वहाँ मेरा कोई जुड़ाव नहीं है, मेरे वहाँ जड़ें नहीं हैं। मेरी यही इच्छा होती है कि मुझे, नज़दीकियाँ और अपनापन, दोनों मिल जाएँ पर हमेशा डर लगता कि अगर मैं इस कोशिश में विफ़ल रहा तो क्या होगा?
मुझे अंतरंगता और यौन नज़्दीकी के अनुभव बहुत पहले ही हो गए थे, जब मुझे पता भी नहीं था कि यह क्या होती है। मेरी कहानी, इम्फ़ाल एक्सप्रेस बस, में मैंने अपनी खुद की कई यादों और विचारों को शामिल किया है। मैं बहुत छोटी उम्र से ही लड़कों के एक स्कूल में पढ़ता था और हॉस्टल में रहा था जहाँ समलैंगिक नज़्दीकियाँ और लुकी-छुपी दोस्ती होना आम बात थी और इसे किसी हद तक स्वीकार भी किया जाता था, इसलिए किन्ही दो लड़कों के बीच, जो आपस में अच्छे दोस्त भी हों, नज़्दीकी होने पर कोई आपत्ति नहीं की जाती थी। यहाँ आपको यह समझना होगा कि इन दो लड़कों के बीच यह भावनात्मक जुड़ाव सिर्फ़ किताबों या साहित्य में कही जाने वाली बात नहीं है। छोटी उम्र के लोगों को एक दूसरे की ओर आकर्षण महसूस होता है और आकर्षित होने की इसी प्रक्रिया में उनके बीच प्रेम या स्नेह की भावना उत्पन्न हो जाना बहुत ही स्वाभाविक होता है। लेकिन जैसा कि आपने बिलकुल सही कहा है, इस क्षेत्र में चल रहे संघर्ष की छाया इस कहानी के प्रत्येक किरदार पर पड़ती साफ़ दिखाई देती है। मेरा मानना है कि किसी भी व्यक्ति के खुद के जीवन के अनुभव, उसके विचार और दृष्टिकोण बहुत हद तक उस जगह के परिवेश से प्रभावित होते हैं जहाँ वे रहते हैं। मेरी यह कहानी सन 2000 के आरंभ की है जिस समय पूरे राज्य में राजनीतिक संघर्ष और उग्रवाद अपने चरम पर था और यही वे साल थे जब मैं वहाँ रहा था। यह संभव है कि आज के दिनों के युवा क्विअर लड़कों की पीढ़ी इस कहानी के चरित्रों के मन की स्थिति को उस तरह से नहीं समझ पाएंगे जैसा मैं कर पाया था। उस समय बहुत ही अनिश्चितता और डर कर माहौल हर ओर था। मुझे याद है कि एक बार मैं घर की ओर बहुत तेज़ी से भागता हुआ इसलिए जा रहा था क्योंकि पास ही कहीं सुरक्षा बलों के साथ एक मुठभेड़ हुई थी और मैं सोच रहा था कि किसी भी तरह मैं या तो घर पहुँच जाऊँ या मुझे कहीं आश्रय मिल जाए। देर शाम तक पूरा शहर बंद हो गया था और सड़कों और गलियों में अंधेरा होने के बाद कहीं भी कोई दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि सुरक्षा बलों और उग्रवादियों के बीच रह-रहकर गोलीबारी शुरू हो जाती थी। लेकिन ऐसे में भी, शहर से दूर पहाड़ों के बीच एक स्कूल के हॉस्टल में कंबल के अंदर दुबके दो लड़के, एक दूसरे के बदन की गर्मी के एहसास में खोए, दूसरे की छाती पर रखे हाथ की सनसनाहट को महसूस करते हुए दुनिया से दूर अपनी ही दुनिया में खोए थे। और ऐसे में जब एक को उठ कर दूसरे से दूर जाना होता था तो दोनों के मन में जुदा होने की टीस उठती थी। उनकी काल्पनिक दुनिया में, उस क्षेत्र में चल रहे संघर्ष का कोई महत्व नहीं था; उनके अपने मनोभाव और शारीरिक समवेदनाएँ कहीं अधिक बलवती थीं। यह सही है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बाद में आए बदलावों के चलते यह पूरा चित्र आज के समय में कहीं अधिक जटिल और बारीक समझ के स्वरूप ले चुका है और यही स्वरूप, मेरी एक अन्य कहानी Gay Cruising in Imphal में आंशिक रूप में झलकता है।
शिखा : अब यहाँ एक सवाल उठ खड़ा होता है कि आप, अंतरंगता और समीपता को किस तरह समझते और परिभाषित करते हैं? आपके अनुसार, नज़्दीकियाँ क्या होती हैं और यौनिकता और यौनिक रुझानों के साथ इसका क्या संबंध होता है?
डेविडसन: मेरे विचार से किसी से अंतरंगता या नज़्दीकी होना, दो लोगों के बीच परस्पर प्रेम के प्रदर्शन, लालसा, इच्छा और कलपनाशीलता को व्यक्त करने का तरीका है; इसके लिए लोग बोल कर भाषा के प्रयोग से या फिर बिना कुछ बोले अपने हाव-भाव और अभिव्यक्तियों के माध्यम से इसे प्रकट करते हैं। इन दो तरीकों के बीच, नज़्दीकी व्यक्त करने के अनेक तरीके असपष्ट ही होते हैं। वास्तव में अंतरंगता किसी भी व्यक्ति की शारीरिक, भावनात्मक और सामाजिक बनावट को दर्शाने के या/ और उस व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया को व्यक्त करने का ही प्राकृतिक तरीका होता है। सामाजिक रूप से व्यक्ति के मन में घर कर गए विचार और समाज द्वारा स्वीकृत नैतिकता के मूल्य, लगातार किसी व्यक्ति द्वारा इस अंतरंगता को व्यक्त करने के तरीके और व्यवहार को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं।
अंतरंगता एक ऐसा भाव और क्रिया है जिसे किसी भी तरह से विवाह, विषमलैंगिकता या विषमलैंगिक सम्बन्धों के ही सामान्य होने के विचार जैसे सामाजिक बंधनों में जकड़ कर नहीं रखा जा सकता लेकिन फिर भी ज़्यादातर समाज लगातार ऐसा करने की कोशिश करते रहते हैं। मुझे लगता है कि इसी कारण से लोगों को सिनेमा हाल का अंधेरे वाला माहौल, सार्वजनिक शौचालय और पार्क अपनी अंतरंगता व्यक्त करने के सबसे सुरक्षित स्थान लगते हैं। हालांकि अब इन जगहों के स्थान पर अनेक तरह की वर्चुअल ऐप आ गए हैं या इसके लिए विशेष पार्टी आयोजित होने लगी हैं। विषमलैंगिक सम्बन्धों को ही सामान्य मानने के विचार के तहत लोगों के बीच अंतरंगता को बहुत ही तंग नज़रिए से प्रस्तुत और महिमामंडित किया जाता रहा है। अधिकांश समाजों में और प्रचलित कला संस्कृति में इस विचारधारा के तहत, अंतरंगता की बात करते समय संकीर्ण और दक़ियानूसी नज़रिये को ही आगे बढ़ाया जाता है। सही मायने में अंतरंगता किस तरह से व्यक्त की जा सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी समाज में विचारों का कितना खुलापन है।
शिखा: आपकी कहानी, Gay Cruising in Imphal में, दिखाया गया है की किस तरह एक सार्वजनिक स्थान पर भी नितांत अजनबी लोग किस तरह से एक दूसरे के बारे में गहरी और अंतरंग समझ रखते हैं। फिर आगे इसके ठीक उल्टे दिखाया है कि कैसे एक कमरे की तलाश की जाती है। क्या आपको नहीं लगता कि इस पूरे प्रकरण में जहाँ पूरे मंज़र के एक ओर लोगों में सार्वजनिक जगह पर भी अंतरंगता दिखती है जबकि उसी मंज़र के दूसरी ओर लोग अपनी नज़दीकियाँ व्यक्त करने के लिए बंद कमरे की निजता खोजते हैं? इन दो अलग-अलग परिस्थितियों में, लोगों के बीच की यह अंतरंगता किस तरह विकसित होती है और किस तरह लोग इस नज़्दीकी को साझा करते हैं?
डेविडसन: मेरा मानना है कि अंतरंगता वाकई कई तरह से प्रकट, व्यक्त और विकसित होती है, इसकी तीव्रता कम या ज़्यादा हो सकती है। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर व्यक्ति अपने आसपास के माहौल को लेकर हमेशा सजग रहता है, उसे हमेशा यह ध्यान रहता है कि लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ हो सकता है और पकड़े जाने का डर या अंतरंगता दिखाने पर फटकार दिये जाने का डर तो हमेशा बना ही रहता है। लेकिन फिर भी व्यक्ति, बड़ी ही चालाकी से, बहुत ही सूझ-बूझ से अपनी अंतरंगता का भाव व्यक्त कर ही देता है; इसके लिए अंगुलियों की हल्की छुहन, आँखों का मिलना, होठों को चबाना या आँख मार देना भर भी काफ़ी होता है। लोग हर तरह की परिस्थितियों में, हमेशा दूसरे के प्रति अपना जुड़ाव व्यक्त करने का तरीका ढूंढ ही निकालते हैं। इसके अलावा और किस तरह से लोग एक-दूसरे के प्रति अपना लगाव, अपनी आत्मीयता दर्शाते हैं, अपने भाव व्यक्त करते हैं? हाँ, यह सही है कि सार्वजनिक रूप से भी लगाव दिखाने के अनेक तरीके हैं; विषमलैंगिक जोड़ों द्वारा एक दूसरे का हाथ पकड़ना इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन, जैसे कि मैंने कहा, अपने लगाव तो बिना किसी हिचक के दिखा पाना बहुत हद तक समाज के खुलेपन पर निर्भर करता है। मणिपुर या दिल्ली के संदर्भ में, जहाँ रहते हुए मैं बड़ा हुआ, सार्वजनिक रूप से खुले में अपनी आत्मीयता का प्रदर्शन करना गलत समझा जाता है। यही कारण है कि यहाँ लोग इसके लिए एकांत ढूंढते हैं, वे एक ऐसे सुरक्षित स्थान की तलाश में रहते हैं जहाँ किसी तरह की अनिश्चितता न हो, जहाँ लोगों की नज़रें उनका लगातार पीछा न कर रही हो। एकांत में कोई भी व्यक्ति न केवल अपनी अंतरंगता और यौनिकता को खुल कर प्रदर्शित कर पाता है बल्कि अपनी कलपनशीलता को भी खुले स्वछंद पंख दे सकता है।
मेरी इस कहानी Gay Cruising in Imphal में, एक सार्वजनिक स्थान पर नितांत अजनबियों के मन में आत्मीयता का बोध साफ़ तौर पर दर्शाता है की इधर-उधर नज़रें दौड़ाने और cruising करने की प्रथा का पालन किसी भी समाज में एक विशेष वर्ग के लोगों द्वारा हमेशा ही किया जाता है। Cruising करना कोई ऐसी प्रवृति नहीं है जो केवल किसी एक स्थान पर ही सीमित हो, बल्कि यह तो दुनिया में हर जगह, हर समाज में देखी जा सकती है। Cruising किए जाने का एक विशेष तरीका, एक विशेष प्रक्रिया लोगों द्वारा अपनाया जाता है। सरकारों को भी इस बात की जानकारी है लेकिन फिर भी अभी तक इस गतिविधि को कोई नाम नहीं दिया जा सका है और न ही इसके करने पर लोगों को दंडित किया जाता है। कमांडो पुलिस वालों की एक जीप व्यस्त जगहों पर लोगों से सेक्स या पैसे की उगाही करने के लिए घूमती रहती है। जीप में बैठे इस मुस्तैद कमांडो के वहाँ होते हुए भी, कोई दो पुरुष उनकी नज़रें बचा कर किसी होटल के कमरे में पहुँच कर एक दूसरे की भूख को शांत करने का अवसर ढूंढ ही लेते हैं। आपने बिलकुल ठीक गौर किया है कि इस कहानी के अंतिम भाग कथानक कुछ अलग, कुछ विपरीत रंग ले लेता है और तब वहाँ कथावाचक सूत्रधार अपने साथ वाले दूसरे व्यक्ति को होटल की दिशा में चलने और कमरा बुक करने की पहल करने देता है और खुद केवल सब कुछ होते हुए देखता है और उसके कहे अनुसार करता है। दरअसल ऐसा इसलिए क्योंकि कथावाचक को होटल के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं है जबकि उस सार्वजनिक स्थान, जहाँ वे पहले मिले थे, के बारे में दोनों को जानकारी थी।
शिखा : जिस तरह समाज, राजनीति और संस्कृति, नज़्दीकी और यौनिकता के हमारे अनुभवों को प्रभावित करती है, उस बारे में आपके क्या विचार हैं?
डेविडसन: यह अपने आप में एक बहुत ही विस्तृत विषय है और मणिपुर के संदर्भ में तो यह और भी पेचीदा विषय है। बड़े होते हुए मुझे यह जानकारी मिल गयी थी कि सेक्स और आत्मीयता या अंतरंगता बिलकुल ही निषिद्ध और वर्जित विषय थे। मेरे समाज में प्रेम, इच्छा और आत्मीयता दिखाने का कोई रिवाज़ नहीं है। बल्कि आपसी रजामंदी से भी सेक्स करने वाले दो लोगों को ऐसा करने पर वहाँ के सामाजिक संगठन सरेआम शर्मिंदा कर सकते हैं और सज़ा भी देते हैं। मईतेई समुदाय (मईतेई समुदाय मणिपुर में प्रमुख बहुसंख्यक जातिय समुदाय है) में तो जबरन विवाह करवा दिए जाने की भी प्रथा है जिसे वहाँ ‘केनाकटपा’ कहा जाता है। कोई पुरुष व स्त्री अगर आपत्तीजनक स्थिति में एक साथ पाए जाते हैं और लोगों को अगर शक हो कि उनके आपस में संबंध हैं, तो फिर चाहे वे सार्वजनिक जगह पर हो या किसी घर में (घर के अंदर भी लोगों का दखल रहता है), स्थानीय महिलाओं के समूह (जिन्हे Meira Paibis कहते हैं) उनका जबरन विवाह करवा देते हैं। इसके अलावा यहाँ के स्थानीय लोगों के चौकसी समूह इन महिला समूहों के साथ मिल कर समय समय पर रेस्तरां आदि पर छापे मारते रहते हैं जहाँ वे ऐसे प्रेमियों की तलाश करते रहते हैं जो रेस्तरां के अंदर एक दूसरे के साथ अंतरंग होते हों। इन्हें पकड़ कर वे इन्हें सज़ा देने के लिए इनका जबरन विवाह करवा देते हैं या फिर इन्हें लोगों के बीच सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यहाँ पर लोग सेक्स कर ही नहीं पाते; यहाँ इसी काम के लिए खास तौर पर उपलब्ध होटल के कमरे हैं, लेकिन उनमें सिर्फ़ अमीर लोग ही जा सकते हैं।
90 के दशक के आखिरी वर्षों में मणिपुर के एक उग्रवादी संगठन ने यहाँ की एक महिला और एक दूसरी मयना (बाहर से आई) महिला की हत्या भी कर दी थी। मणिपुरी महिला के बारे में उन्हें शक था कि वह पार्न फिल्मों में काम करती थी और बाहर से आई महिला यहाँ पार्न फिल्म बनाने के लिए आई थी। उस संगठन ने यह घोषणा की थी कि युवतियों की हत्या उन्हें सज़ा देने के लिए की गयी थी। इस घोषणा के साथ संगठन ने स्थानीय लोगों को भी सावधान किया कि इस तरह बाहरी संस्कृति (पोर्नोग्राफ़ी) अपनाने वाले हर व्यक्ति के साथ ऐसा ही व्यवहार हो सकता है। यह वर्ष 2000 में मणिपुर में रेवोलुशनरी पीपल्स फ्रंट द्वारा बॉलीवुड की फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिए जाने से कुछ ही पहले की घटना है। इस प्रतिबंध के लगते ही, रातों-रात मणिपुर में वहाँ के डिजिटल फिल्म उद्योग का विकास हो गया। वहाँ की फिल्मों में भी आलिंगन करना या गले लगाने (ऐसा माना जाता है कि महिला के स्तन पुरुष के शरीर से छूने नहीं चाहिए, हालांकि अब कुछ बदलाव आ गया है), किस करने और ऐसे ही दूसरे शारीरिक नज़दीकियों के सीन नहीं दिखाए जाते, और शायद यह यौनिकता और अंतरंगता के प्रति वहाँ के लोगों के नज़रिए को भी दर्शाता है और इस नियम को फिल्म सेंसर बोर्ड भी लागू करता है। यहाँ राजनीति, संस्कृति, समाज और सरकार पाले के एक ओर ही खड़े दिखाई देते हैं। लेकिन इन सबके बाद भी इन बन्दिशों को तोड़ पाने और अपनी इच्छानुसार कुछ कर पाने के अवसर निकाल ही आते हैं। इच्छानुसार कुछ कर पाने के बारे में बात करते हुए मैं बताना चाहता हूँ कि कैसे एक कड़े प्रतिबंधों वाले समाज में रहते हुए भी लोग फ़िल्म थिएटर जैसे स्थानों या ऐसी ही जगहों में अंधेरे का लाभ उठाकर अपने मन की कल्पनाओं को पूरा कर लेते हैं।
80 और 90 के दशक में यहाँ ऐसे फ़िल्म थिएटर और विडियो पार्लर थे जहाँ कामुक और उत्तेजक अँग्रेजी फ़िल्में दिखाई जाती थीं। इन सिनेमा घरों में ‘ब्लू फिल्में’ या पार्न फिल्में भी खूब दिखाई जाती थीं। देखिए, आज के समय में लोग बड़े आराम से अपने मन की इच्छाओं को और अपनी यौनिकता की कल्पनाओं को स्मार्ट फोन में उपलब्ध एप्स के माध्यम से पूरा कर लेते हैं, लेकिन उन दिनों में यह सब सिनेमा घरों और विडियो पार्लर की पिछली अंधेरी पंक्तियों में ही कर पाना संभव था, जहाँ सिर्फ पुरुष ही जाते थे। लोगों के जीवन में कामुकता से जुड़ी कल्पनाएँ भी इसीलिए बलवती होती हैं क्योंकि अंतरंगता और यौनिकता को समाज में निषिद्ध विषय माना जाता है और आमतौर पर लोग इस तरह से स्वछंद जीवन जीने के अनुभव नहीं ले पाते।
शिखा: तो ऐसे में, इन सबसे आपकी, खुद की ज़िंदगी पर किस तरह से असर हुआ?
डेविडसन: बड़े होने के दौरान, मैं भी इन विडियो पार्लरों में ‘ब्लू फिल्में’ देखने और हॉलीवुड की वे उत्तेजक फिल्में देखने जाया करता था क्योंकि एकमात्र यही ऐसी जगह थी जहाँ लोग यौनिकता का मज़ा लेते थे। लेकिन जहाँ तक बात आपसी अंतरंगता और नज़्दीकी की है, इसका पता तो मुझे स्कूल के हॉस्टल में जा कर या फिर इम्फ़ाल में किराए पर लिए हुए घर में ही चला जहाँ मुझे लड़कों के बीच आपसी अंतरंगता और नज़्दीकियों के थोड़े-बहुत अनुभव हुए। एक युवा उम्र के लड़के के रूप में, जिसे उस समय तक अपनी पहचान और यौन रुझानो के बारे में भी बहुत कुछ पता नहीं था, मेरे यह सभी अनुभव बहुत जल्दी-जल्दी और अचानक ही हुए। मैं न तो मैते समुदाय में देवी-देवताओं के लाई हराओबा अनुष्ठान से जुड़े अमाइबा व अमईबी समूहों से जुड़ा हुआ था और न ही मैं एप ओर सोशल मीडिया के माध्यम से LGBTQ लोगों के नेटवर्किंग समूह के साथ सम्बद्ध था – जबतक कि 2008 में दिल्ली में रहते हुए मुझे ऑर्कुट के बारे में पता नहीं चला था। उससे पहले ही मेरे समलैंगिक संबंध बनने शुरू हो गए थे। वर्षों बाद मुझे यह आभास हुए कि मणिपुर में अपने पुराने प्रेमी मित्रों के साथ मेरे संबंध भी शायद विषमलैंगिकता को ही सामान्य समझने के मेरे विचारों का परिणाम थे। इन सम्बन्धों के बनने के बाद भी मुझे हमेशा अपने समलैंगिक होने के विचार मात्र से भी डर लगने लगता था, यहाँ तक कि मैं अपने दोस्त को किस भी नहीं कर पाता था, हालांकि बिस्तर में हम अक्सर नग्न ही हुआ करते थे। लेकिन यह सब सुन कर हैरान होने की ज़रूरत नहीं है; मैं भी प्रचलित हिन्दी और मणिपुरी रोमांटिक फिल्में देख कर बड़ा हुआ था और उस समय हमें समलैंगिक सम्बन्धों में नज़्दीकी के बारे में कुछ पता भी नहीं था, जबकि हो सकता है कि उस समय भी ये सब लुके-छिपे रूप में होता ही होगा। 2019 में, धारा 377 के खारिज कर दिये जाने के बाद भी, मैं आज तक अपने राज्य के संदर्भ में नज़्दीकी, अंतरंगता और यौनिकता के जुड़े प्रश्नों के उत्तर खोज नहीं पाता हूँ और उलझ कर रह जाता हूँ। मुझे दुख इस बात का होता है कि समलैंगिक सम्बन्धों की यह नज़दीकियाँ क्या केवल चुरचंदपुर के किसी सस्ते होटल के कमरे में, या इम्फ़ाल में किसी किराये के फ्लैट में या फिर पहाड़ों में झाड़ियों के पीछे छिप कर अथवा रात के समय किसी सुनसान अंधेरी गली के कोने तक ही सीमित रह जाएंगी और कहीं नहीं? यह सही है कि स्पा, सैलून पार्लर भी इन सब के लिए महफूज़ जगह समझी जाती है जहाँ इस तरह के यौन संबंध बनते हैं। लेकिन हर क्विअर व्यक्ति इन जगहों पर नहीं पहुँच सकते।
मैं अक्सर उस दिन की कल्पना करता हूँ जब मैं उस व्यक्ति, जिनसे मैं प्यार करता हूँ, के हाथों में हाथ डालकर बिना किसी शर्म और हिचक के अपने शहर की सड़कों पर निकाल पाऊँगा और कोई मुझे इसके लिए शर्मिंदा नहीं करेगा। मेरे मन में यह विचार भी आता है कि शायद किसी दिन मैं अपने उस प्रिय मित्र के साथ यहीं कहीं कोई घर लेकर रह भी पाऊँगा, और जब मुझे मेरे घर वाले या मेरे पड़ोसी ऐसा करने पर परेशान नहीं करेंगे। अब विषमलैंगिक सम्बन्धों को ही सामान्य मानने का दिखावा करते हुए, समलैंगिकता के प्रति घृणा से भरे इस छलावे के जीवन को जी पाना दूभर हो चला है।
शिखा – हमारे साथ इतना कुछ, इतने विस्तार से साझा करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अब प्लीज हमें द चिंकी होमो प्रोजेक्ट के बारे में कुछ बताइए। जैसा की इसकी वैबसाइट पर बताया गया है कि “यह प्रोजेक्ट उन लोगों के जीवन अनुभवों और विचारों के बारे में जानने, चर्चा करने और इन्हें अभिलिखित करने की कोशिश है जो विषमलैंगिकता और समलैंगिकता वाले जीवन के दोराहे पर खड़े हैं”। इस प्रोजेक्ट पर काम करते हुए आपको लोगों की किस तरह की प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं?
डेविडसन – इस प्रोजेक्ट में हम पूर्वोत्तर भारत के क्विअर लोगों के विचारों, उनके अनुभवों को जानने की और उन्हें लेखबद्ध करने की कोशिश करते हैं। इस प्रोजेक्ट पर लोगों की अनेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं, कुछ लोग हमारे काम की सराहना करते हैं तो कुछ दूसरे लोग इसके आलोचक भी हैं। हमारी ऐसी कोई कोशिश नहीं है कि हम ‘चिंकी’ और ‘होमो’ जैसे शब्दों को फिर से प्रचलन में ले आए। मणिपुर में समुदाय के कुछ लोगों को लगता है कि प्रोजेक्ट के साथ होमो शब्द जुड़ा होने से लोगों के मन में फिर से एक बार ट्रांस-महिलाओं के साथ और क्विअर लोगों के साथ हुई हिंसा का दुखद इतिहास याद आ जाता है। हम इन सभी आलोचनाओं को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं और प्रोजेक्ट के कोर ग्रुप में लोगों की इन शिकायतों को दूर करने को लेकर अनेक बार चर्चा हुई है। यदि ज़रूरी हुआ तो हम इस प्रोजेक्ट का नाम भी बदल देंगे।
आज इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं आपको इस प्रोजेक्ट से जुड़ी एक नई चिंता के बारे में भी बताना चाहूँगा जो मेरे मणिपुर में मोइरांग में आने के बाद से शुरू हुई। अब मुझे वाकई इस प्रोजेक्ट के भविष्य, अपने सामाजिक कार्यों और जीवन को लेकर भी चिंता होने लगी है। अगर मैं इम्फ़ाल में होता जहाँ मीडिया की मौजूदगी अधिक है और एनजीओ, ऐक्टिविस्ट्स और पैरवी कार्य करने का समुचित अवसर मौजूद हैं, तो संभव था की इस प्रोजेक्ट का आसानी से एक और चरण शुरू किया जा सकता है हम जमीनी स्तर पर और अधिक काम कर सकते। मोइरांग इम्फ़ाल से 45 किलोमीटर की दूरी पर है और यहाँ सार्वजनिक यातायात की सुविधा इतनी विश्वसनीय नहीं है कि आप मोइरांग में रहते हुए इम्फ़ाल में अपने काम को जारी रख सकें। इम्फाल ही यहाँ होने वाली हर गतिविधि का केंद्र बिन्दु होता है। पूर्वोत्तर पहले ही भारत के एक छोर पर स्थित है, इस पर यहाँ से भी दूर बैठकर, और किसी भी प्रोजेक्ट चलाने में अपनी अलग ही चुनौतियाँ हैं। और मैं इस समय इस स्थिति में नहीं हों कि फिर एक बार इम्फ़ाल या दिल्ली में जाकर रहने लगूँ।
इसके अलावा पावेल और दिल्ली में रहने वाले मेरे दूसरे क्विअर दोस्त, जिनके साथ मिलकर मैं इस प्रोजेक्ट पर काम करता रहा हूँ, इस समय खुद अपनी आजीविका कमाने और करियर बनाने में लगे हैं। हम सब भलीभाँति यह जानते हैं और समझते हैं कि क्विअर लोगों के लिए सक्रियतावादी काम करना और पैरवी कामों में लगे रहना किस तरह की परिस्थितियों का सामना करते हुए किया जा सकता है; हमारे पास बहुत कम या लगभग ना के बराबर संसाधन हैं, साथ ही परिवार और समाज के साथ एक साथ चलने वाले संघर्ष अलग से हैं, जिससे हम पर बहुत अधिक दबाब बन जाता है, अनेक चुनौतियाँ खड़ी हो जाती हैं और तनाव भी होता है। लेकिन अभी भी हम में से किसी नें भी हार नहीं मानी है। हर रोज़ सुबह उठकर घंटों इस प्रोजेक्ट के भविष्य के बारे में नयी योजनाएँ बनाता रहता हूँ, इसके बारे में दिल्ली में अपने दूसरे क्विअर दोस्तों के साथ अपने व्हाट्सएप ग्रुप, ई-मेल और फोन के माध्यम से विचार विमर्श करता हूँ।
इस समय हमारे साथ सबसे अच्छा यह हो रहा है कि हम मे से प्रत्येक सदस्य अपनी निजी स्तर पर इस दिशा में लगातार कार्यरत है और हमें इस क्षेत्र में और बाहर से भी अपने समुदाय के लोगों और मित्रों का प्यार, सहयोग और विश्वास लगातार मिल रहा है। मुझे लगता है कि हमारे लिए भी इन अंधेरे स्याह बादलों के पार उम्मीद की कोई किरण ज़रूर होगी और उसी की तलाश में हम सब लगे हैं।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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