कौस्तव बक्शी तथा अरनब अदक
देवी दुर्गा के स्थान पर अर्धनारीश्वर
अपनी पुस्तक ‘मिथ टूड़े’ में रोलैंड बर्थेस (Roland Barthes) ‘मिथक’ या ‘कल्पित कथा’ को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि ‘मिथक, संवाद करने का एक माध्यम है’, या ‘किसी भी वस्तु, घटना या बात को अभिप्रेत’ करना मिथक है। वे आगे कहते हैं कि ‘अभिप्रेत करने, अर्थ बताने, या महत्व दर्शाने का यह माध्यम या तरीका निश्चित या निर्धारित नहीं होता – ’मिथक बनते रहते हैं, बदलते हैं, ध्वस्त हो जाते हैं या पूरी तरह समाप्त भी हो सकते हैं’। मिथक किसी भी विचार या बात को सीधे-सीधे प्रतिपादित नहीं करते। मिथकों के माध्यम से कोई भी विचार, प्रथा या परंपरा से जुड़ी बात परोक्ष रूप से हमारे सामने आती है। मिथकों के द्वारा आगे बढ़ाये गए कथनों को प्रतीकों के साथ जोड़कर देखा जाने लगता है, लेकिन इन प्रतीकों के अपने कोई अर्थ नहीं दिए जाते। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि मिथक किसी भी ऐतिहासिक और राजनैतिक घटनाक्रम को लोगों के समक्ष इतिहास और राजनीति के संदर्भ से परे कर प्रस्तुत करते हैं। मिथक इन घटनाओं, विचारों और बातों को उनके वास्तविक संदर्भ या परिप्रेक्ष्य से परे कर प्रस्तुत कर देते हैं। इस तरह संदर्भ से दूर कर किसी भी विचार को आगे बढ़ाने वाले यह मिथक अक्सर खुद ही किसी ऐसे सत्य को, जो आधुनिक जगत में किसी भी विचार को अपराध या ‘अप्राकृतिक’ साबित करता हो, लोगों के सामने प्रस्तुत करने का सरल रूप बन जाते हैं। भारत में पुराणों एवं आगामिक प्रथाओं पर आधारित प्राचीन परम्पराओं के इतिहास में ऐसे ही मिथक या प्रतीक अर्धनारीश्वर का रहा है। भारत में देवत्व के अलावा, अर्धनारीश्वर को सेक्स और यौनिकता के साथ जोड़कर देखे जाने पर यह अपने अनेक व्यापक रूपों में हमारे सामने आता है। यह देखने वाली बात है कि किस तरह शिव और शक्ति के इस संयुक्त रूप, अर्धनारीश्वर को आज सेक्स और यौनिकता वाले राजनैतिक विचार की नज़र से देखा जाने लगा है और किस तरह अर्धनारीश्वर को हम एक नए प्रतीक के रूप में देखने और सोचने लगे हैं। अर्धनारीश्वर की इस छवि ने कोलकाता के शरदोत्सव (दुर्गा पुजा को शरदोस्तव भी कहा जाता है) में भी जगह पा ली है और इसके नए अर्थ निकल कर सामने आए हैं। अर्धनारीश्वर जो कि (अर्धनारीश्वर का शाब्दिक अर्थ और अभिप्राय ऐसे ईश्वर या देव से है जो आधे पुरुष है और आधी स्त्री हैं) उभयलिंगता या इंटर-सेक्शुअल व्यक्ति की छवि का दैवी रूप है, से अनेक अभिप्राय बनते रहे हैं और जेंडर तथा यौनिकता के संदर्भ में इसकी इसी लोचपूर्ण छवि के कारण यह व्यक्ति की तृतीय प्रकृति या तीसरे जेंडर का प्रतीक बन कर उभरा है और भारत में तीसरे जेंडर को स्वीकृति दिलाए जाने के लिए इस प्रतीक का सहारा लिया जाता रहा है। यहाँ यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि अर्धनारीश्वर के रूप को ग्रीक, रोमन, मिस्र जैसी दूसरी मूर्ति उपासक सभ्यताओं और संस्कृतियों में किस तरह से दिखाया जाता रहा है। ग्रीस में उदाहरण के लिए हेर्मफ्रोडिटोस (जिसमें देवता के शरीर में एक भाग सलमसिस अप्सरा का है) और अगदीसटिस (ग्रीक, रोमन और अनातोलियान देवता जिसमें नारी और पुरुष, दोनों के यौनांग हैं) की उपासना की जाती है। कुषाण काल में सामने आई अर्धनारीश्वर की यह छवि, पुरुष (उत्पत्ति में पौरुष अंश) और प्रकृति (उत्पत्ति में स्त्री सुलभ गुणों का प्रतीक) के संयुक्त रूप का प्रतीक चिन्ह है। अर्धनारीश्वर का उल्लेख पुराणों में, अगम में और पारंपरिक प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है और इसे अनेक नामों से पुकारा गया है। आदि शंकरा भागवतपाद द्वारा लिखे गए अर्धनारीश्वर स्त्रोतम में बताया गया है कि किस तरह से सृष्टि के रचयिता ईश्वर, सेक्स एवं जेंडर से ऊपर हैं, वे इन दोनों से अलग नपुंसक लिंग भी हो सकते हैं। राष्ट्रीय विधायी सेवा प्राधिकरण (नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी) द्वारा भारत सरकार व अन्यों के विरुद्ध दायर की गयी सिविल रिट याचिका (क्रम 400 वर्ष 2012) में तृतीय प्रकृति या तीसरे जेंडर को परिभाषित करते हुए किन्नर, जोगप्पा और अरावनी के साथ-साथ शिव और शक्ति के इस संयुक्त रूप, अर्धनारीश्वर का ज़िक्र भी प्रमुख तौर पर किया गया है। इस रिट याचिका में अनेक बार महाकाव्यों, पुराणों और मिथकों से उदाहरण देते हुए उस ट्रान्सजेंडर पहचान और प्रवृति को सामान्य साबित करने की कोशिश की गयी है जिसे बहुत हद तक साम्राज्यवादी काल में अप्राकृतिक सिद्ध कर दिया गया था। साम्राज्यवाद के युग में पौरुष का बोलबाला था और यह मान लिया जाता था कि ‘पुरुष में नारी सुलभ गुण होना ही उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अंत होता है। व्यक्ति में ट्रान्सजेंडर प्रवृति होना उनके स्त्री होने से भी बड़ा विकार होता है’ (नंदी 8)। ट्रान्सजेंडर पहचान को अपराध मानना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन थी जिसका परिणाम यह हुआ कि ट्रान्सजेंडर समुदाय के लोग अलग-थलग पड़ गए, इसने न केवल तृतीय प्रकृति को गैर-कानूनी बना दिया बल्कि समाज के आम लोगों के मन में ट्रान्सजेंडर लोगों के प्रति गहरी वितृष्णा भी भर दी। इसलिए, 2012 की इस रिट याचिका में तृतीय प्रकृति या ट्रान्सजेंडर प्रवृतियों का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश साम्राज्य से पहले के अपेक्षाकृत अधिक उदार काल से उदाहरण दिये ताकि ब्रिटिश काल के क़ानूनों द्वारा तृतीय प्रकृति को पहुंचे नुकसान को ठीक किया जा सके। इस तरह से यह रिट याचिका, जेंडर और यौनिकता पर राजनीतिक दृष्टिकोण में एक गैर-ऐतिहासिक और गैर-राजनैतिक मिथक को जोड़े जाने के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
वर्ष 2015 को कोलकाता के दुर्गा पुजा उत्सवों में अर्धनारीश्वर के रूप या प्रतिमा को समाहित किए जाने का वर्ष कहा जा सकता है। कोथी और ट्रान्सजेंडर लोगों के बीच काम रहे एक एनजीओ द्वारा पहली बार 2015 में इस सार्वजनिक पूजा का आयोजन उत्तर कोलकाता में किया गया था। 2016 में इस पूजा के आयोजन के स्थान में परिवर्तन किया गया और इसे दक्षिण कोलकाता में आयोजित किया गया। एक वर्ष के अंतराल के बाद, वर्ष 2018 में ट्रान्सजेंडर ऐक्टिविस्ट रंजीता सिन्हा द्वारा उनके गोखले रोड घर पर आयोजित होने वाली बाड़ी’र पूजा (वह पूजा जो आयोजित तो किसी के घर में होती है लेकिन जिसमें हर कोई शामिल हो सकता है) में अर्धनारीशर की प्रतिमा एक बार फिर शामिल की गयी।
देवी की प्रतिमा पर माल्यार्पण करती ट्रान्सजेंडर ऐक्टिविस्ट रंजीता सिन्हा
पिछले कुछ वर्ष भारत में LGBTIKHQ आंदोलन की प्रगति के लिए उल्लेखनीय रूप से बहुत ही नाटकीय रहे हैं…..और यह आंदोलन 6 सितंबर 2018 को भारतीय दंड विधान की धारा 377 के खारिज किए जाने के साथ अपने चरम पर पहुंचा। धारा 377 को खारिज किए जाने का यह फैसला दुर्गा पूजा से लगभग एक महिला पहले आया। इससे पहले अगस्त 2018 में मंत्रिमंडल ने ट्रान्सजेंडर समुदाय द्वारा 2016 में मंजूर हुए विधेयक का विरोध किए जाने के बाद, ट्रान्सजेंडर लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के संशोधित विधेयक को 27 बदलावों के साथ मंजूरी दे दी थी। इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि पूजा में अर्धनारीश्वर की यह उपासना यौनिक अल्पसंख्यकों के समुदाय द्वारा वर्षों तक सरकार के साथ संघर्ष के बाद मिली अपनी जीत का उत्सव मनाने के लिए की थी।
पूजा में पारंपरिक दुर्गा की प्रतिमा के स्थान पर अर्थनारीश्वर की प्रतिमा को रखा जाना, और इस पर किसी विशेष विरोध या हठ के न होने से कोलकाता के इस सबसे अधिक लोकप्रिय उत्सव के वाकई एक हर्षोल्लास का लोक-उत्सव होने का पता चलता है। मुख्यधारा के एक धार्मिक उत्सव में जेंडर की इस नगण्यता को शामिल किया जाना, और फिर इसे स्वीकार कर लिया जाना, दर्शाता है कि दुर्गा पूजा वास्तव में, जैसा कि इसके बारे में कहा जाता है, सबको साथ लेकर चलने वाला समावेशी उत्सव है।
हालांकि, उदार वामपंथियों ने, जो LGBTIKHQ आंदोलन की सक्रियता को धर्म के साथ जोड़कर देखने के पक्षधर नहीं थे, ज़रूर थोड़ा-बहुत विरोध किया लेकिन उनके इस विरोध को यह कहकर खारिज किया जा सकता है कि भले ही पूजा अनुष्ठानों में किन्ही भी शास्त्रों और विधियों का अनुसरण किया जाता हो, दुर्गा पूजा का यह उत्सव अब किसी एक धर्म का उत्सव नहीं रह गया है और जैसा की इसमें भाग लेने वाले लोगों की बड़ी तादाद से पता चलता है, इस उत्सव नें वर्ग और जाति के सभी बंधनो को तोड़ दिया है। दरअसल, दुर्गा की प्रतिमा के उद्गम को लेकर भी अनेक कथाएँ हैं, एक कथा में तो दुर्गा का चामुंडेश्वरी के रूप में आदिवासी स्वरूप देखने को मिलता है जिसने आदिवासी असुरों के अश्वेत राजा का वध किया था। साम्राज्यवादी काल में दुर्गा की प्रतिमा की पूजा शुरू होने और फिर दुर्गा पुजा के एक लोकप्रिय उत्सव के रूप में प्रसिद्ध होने का इतिहास भी बड़ा ही रोचक है।
दरअसल, दुर्गा पुजा के उत्सव को मनाए जाने को लेकर कोई एक निश्चित इतिहास नहीं है। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो दुर्गा पूजा को मनाए जाने के तरीकों में, इसे देखे जाने के नज़रिये में, हमेशा ही बदलाव आता रहा है। इस बदलाव के सबसे उत्कृष्ट उदाहरण दुर्गा की प्रतिमा को सजाने में कलाकारों द्वारा लगातार किए जाते रहे नित नए प्रयोग हैं जिनमें दुर्गा को अनेक नए रूपों में दिखाया जाता रहा है। इसलिए, दुर्गा पूजा का यह उत्सव यौनिक अल्पसंख्यक समुदाय को भी अपने आप में सम्मिलित कर लेने और दुर्गा की प्रतिमा को अर्धनारीश्वर के रूप में प्रतिबिम्बित कर प्रस्तुत करने का अवसर बन सकता है। दरअसल, सिन्हा की बाड़ी’र पूजा में, उपासना के वैष्णव तरीके के अनुसार, पूजारी के रूप में एक ट्रांस व्यक्ति को शामिल किए जाने और कुम्हारटोली के विशेषज्ञ मूर्तिकार की देखरेख में ट्रांस समुदाय के लोगों के दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमा तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल किए जाने से एक नयी समावेशी परंपरा का पता चलता है।
यहाँ यह कहा जा सकता है की समन्वयता लाने की इस कोशिश का परिणाम यह हुआ कि दुर्गा पुजा का इस पूरे आयोजन को एक नए रूप, एक जेंडेरीकृत तरीके में प्रस्तुत किया गया, यह एक ऐसा प्रयास था जिनसे अर्धनारीश्वर की छवि के साथ जुड़े सेक्स और जेंडर के, या स्त्री और पुरुष गुणों के सभी भेदों को ध्वस्त कर के रख दिया। इससे दुर्गा पुजा के इस पूरे आयोजन तो भी एक नया अर्थ, एक नयी पहचान मिल पायी।
यह अपने आप में इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अभी तक सेक्स और यौनिकता जैसे विषय को जहाँ आज तक बुरा या अपवित्र मानते हुए एक धार्मिक समझे जाने वाले उत्सव से दूर रखा जाता रहा था, फिर भले ही यह केवल धर्म से जुड़ा कोई आयोजन न होकर एक लोक उत्सव था जिसमें बड़ी तादाद में लोग शामिल थे, अब उसी उत्सव में अर्धनारीश्वर की उपासना के रूप में सेक्स और यौनिकता को इस तरह आम लोगों की स्वीकार्यता मिल पायी थी। जैसा कि ऊपर पहले चित्रित किया गया है, अर्धनारीश्वर के रूप से जुड़े प्रतीक चिन्ह और इनके अभिप्राय अब और अधिक सशक्त तरीके से हमें यह स्मरण कराते हैं कि किस तरह उभयलिंगता, या जेंडर की नगण्यता और इसकी प्रकृति, जिसे शिव और शक्ति के एकरूप होने के प्रतीक अर्धनारीश्वर के रूप में दिखाया जाता है, इस ऐसा शास्वत सत्य है जिसे हमारा यह विषमलैंगिक बहुता वाला समाज चाह कर भी नकार नहीं सकता। अर्धनारीश्वर का स्वरूप, उनकी प्रतिमा समाज में इस पुरुष / महिला वाली दो-आधारी विचारधारा के या यौनिकता को केवल दो विपरीत लिंगों की नज़र से देखने वाली सोच के ध्वस्त होने का प्रतीक बन गया है। इस तरह से एक गैर-ऐतिहासिक मिथक ने, आज अभूतपूर्व राजनैतिक महत्व पा लिया है। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि पारंपरिक रूप से दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा और उनकी चार संतानों को जिस एक-चला मूर्ति रूप में दर्शाया जाता है, उसे भी प्राय: एक सुखी संयुक्त परिवार का प्रतीक माना जाता रहा है, और यह कहने की तो ज़रूरत ही नहीं कि यह अवश्य ही एक विषमलैंगिक सुखी संयुक्त परिवार होगा।
पूजा का दृश्य
पूजा में देवी दुर्गा के स्थान पर उसी एक-चला मूर्ति रूप में अर्धनारीश्वर को दिखाए जाने का यह अभिप्राय भी हो सकता है कि परिवार की संरचना एक अलग तरह से भी संभव हो सकती है जिसमें ज़रूरी नहीं कि परिवार के सदस्यों के बीच केवल जैविक परस्पर संबंध हों।
इस फोटो को खींचने वाले फॉटोग्राफर को पूजा के कमरे के ठीक बाहर एक अकुयरीउम में रखा यह कछुआ भी बहुत प्रासंगिक लगा क्योंकि हिन्दू मान्यता के अनुसार कछुआ उन स्त्री-सुलभ गुणों का प्रतीक माना जाता है जो संसार को स्थायित्व देने वाले पौरुष के प्रतीक, हाथी को सहारा देता है।
प्रतिमा का यह एक-चला रूप, जिसकी उपासना पहचान और पहचान की राजनीति से जुड़े क्विअर समुदाय के लोग करते हैं, जैविक सम्बन्धों और विषमलैंगिकता के विचार पर बनी परिवार की इस परिभाषा को चुनौती देता है। इसलिए, अर्धनारीश्वर की प्रतिमा के रूप में देवी की उपासना, प्रतीकात्मक रूप में ही सही, एक अलग स्तर पर दिखाई पड़ती है जिसमें एक बहु-प्रचलित उत्सव में गैर-सामानयता के विचार को बड़े ही सशक्त ढंग से प्रतिपादित किया जाता है।
लेखक : कौस्तव बक्शी
चित्रांकन: अरनब अदक
संदर्भ :
Barthes, Roland. ‘Myth Today’.Mythologies. Trans. A. Lavers. London: Vintage, 2009. 131-187.
Nandy, Ashis. ‘The Psychology of Colonialism’.The Intimate Enemy: Loss and Recovery of Self Under Colonialism. New Delhi: OUP, 1983. 1-63.
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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