जैस्मिन जॉर्ज TEDx स्पीकर हैं, अधिवक्ता हैं और भारत में यौन एवं प्रजनन अधिकारों की पैरोकार हैं। ये Hidden Pockets की संस्थापिका हैं और इस समय यौनिकता और दूसरे मुद्दों पर हो रहे वार्तालाप को प्रबंधित करती हैं। कानून और तकनीक के वैकल्पिक उपायों के प्रयोग द्वारा यौनिकता को समझ पाने में इनकी रुचि है। जैस्मिन अनेक और विविध अल्पसंख्यक समूहों के साथ काम करती हैं और आनंद, सुलभता, पहुँच और तकनीकी के बारे में वर्तमान विचारों और वर्णन के तरीकों को बदलने के लिए काम करती हैं। जैस्मिन कहती हैं, ‘योजना तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान भी हम यही कहते रहे हैं कि हमें पहुँच या सुलभता पर विशेष ध्यान देना है, इसका मतलब है कि किसी सुविधा तक हर व्यक्ति की पहुँच हो फिर चाहे वह कोई भी हों, किसी भी आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हों, किसी भी आयु वर्ग या पहचान समूह से हों। अपने अनुभव के आधार पर हम जानते हैं कि वास्तव में होता क्या है। होता यह है कि अलग-अलग तरह के अस्पताल होने पर भी, फिर चाहे वे सार्वजनिक क्षेत्र में हों या फिर केवल महिलाओं के लिए हों, इनसे वांछित लाभ नहीं मिल पा रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सेवाएँ देने की इस पूरी प्रक्रिया में हम यह ध्यान नहीं देते कि लोगों के जीवन की वास्तविकताओं और जीवन अनुभवों का सीधा असर उनके द्वारा सेवाओं तक उनकी पहुँच और अधिकारों के प्रयोग पर पड़ता है’।
इस इंटरव्यू के लिए समय निकालने के लिए और साथ ही आपके समय, ऊर्जा, जानकारी और विचारों के लिए धन्यवाद जैस्मिन।
शिखा आलेया – जैस्मिन, आपके प्रोजेक्ट, हिडन पॉकेट्स (Hidden Pockets) में एक शहर को अनेक मापदण्डों पर आँका जाता है जिसमें यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर तैयार कई तरह की शहरी सुविधाएं शामिल हैं। और इस प्रक्रिया में आप शहर के प्लेज़र पॉकेट्स ( pleasure pockets) कि भी पहचान करती हैं। आखिर ये प्लेज़र पॉकेट्स क्या हैं और इन पर ध्यान दिया जाना क्यों इतना ज़रूरी है?
जैस्मिन जॉर्ज – प्लेज़र पॉकेट्स की शुरुआत निर्भया मामले के बाद की गयी थी। हमने देखा कि इस घटना के बाद, हर जगह सुरक्षा और सीसीटीवी कैमरों पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगा था। हिडन पॉकेट्स में हम किसी भी शहर को इस मापदंड पर आँकने के पक्ष में नहीं थे। हमारा हमेशा से यही विचार था कि किसी भी आंकलन का मुख्य आधार वहाँ सेवाओं की सुलभता होना चाहिए। फिर हमने सोचा कि क्यों न इसे बढ़ाकर इसमें आनंद या खुशी पाने को भी शामिल कर लिया जाए। इसी तरह से प्लेज़र पॉकेट्स की शुरुआत हुई और हमने लोगों से पूछना शुरू किया कि, “आपके शहर में मज़ा करने के लिए कौन सी जगहें हैं?” “आपके शहर में वो कौन से स्थान हैं जहाँ जाना आप पसंद करते हैं?” अगले ही सप्ताह हम इसी बिन्दु पर ध्यान देते हुए एक अभियान भी चलाने वाले हैं। अपने आप में यह शब्द, प्लेज़र पॉकेट्स थोड़ा जटिल है और हममें से अधिकांश लोग अपनी बातचीत में प्लेज़र या आनंद अथवा मज़ा शब्द का प्रयोग नहीं करते और देखा जाए तो इस शब्द को परिभाषित करने के लिए हमारे पास कोई सटीक परिभाषा भी नहीं है। इस प्रश्न के उत्तर में अनेक तरह के, अलग-अलग कथन और उत्तर हमें मिलते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आनंद या मज़े को अपने ही तरीके से देखता और महसूस करता है।
समय बीतने के साथ हमने शहरों के साथ-साथ, मानव शरीर में भी प्लेज़र पॉकेट्स की तलाश करना शुरू किया। हमने लोगों से पुछा- “आपके शरीर की प्लेज़र पॉकेट्स कहाँ हैं?” मूलत: हम आनंद को पूरी संतुष्टि के एक भाग के रूप में देख सकते हैं और पॉकेट्स के प्रयोग से इसे विभिन्न अंगों में देखा जा सकता है। इस परियोजना की शुरुआत में हमने दिल्ली में एकल महिलाओं से शहर में प्लेज़र पॉकेट्स के बारे में पूछा। आप इसे ऑनलाइन भी देख सकते हैं, इस दौरान हम इस जानकारी का परिचित्रण या मैपिंग भी कर रहे थे जिससे कि यह पता चले कि एकल महिलाएँ शहर के किन स्थानों को प्लेज़र पॉकेट्स मानती हैं। तब हमने देखा कि लगभग सभी महिलाओं ने अपने उत्तर में साउथ दिल्ली और मॉल को ही प्लेज़र पॉकेट्स होना बताया। यह तब की बात है जब हमने यह अभियान चलाया ही था। तो इससे हमें यह पता चला कि एकल महिलाओं को प्लेज़र या आनंद की अनुभूति पाने के लिए दिल्ली में केवल साउथ दिल्ली या यहाँ के मॉल ही उपयुक्त लगते हैं और यह एक तरह की रूढ़िवादी सोच थी। फिर इसके बाद हमने दिल्ली के दूसरे भागों, जैसे पूर्वी दिल्ली, चाँदनी चौक, महरौली, आदि में भी यह अभियान चलाया। हमने रात के समय भी महिलाओं के साथ यह अभियान किया। यह एक तरह से सवाल पूछ कर लोगों को आनंद के बारे में सोचने के लिए विवश कर देने का हमारा तरीका था।
मोटे तौर पर, जब हम किसी शहर के संदर्भ में आनंद की बात करते हैं, तो यह हमेशा ही शहर में सुरक्षा के नज़रिए से देखा जाता है, और जब हम शरीर के संबंध में आनंद की बात करते हैं तो यह प्राय: यौन आनंद से जोड़कर देखा जाता है। जब हम शरीर के संबंध में आनंद अनुभव करने के विषय को और आगे बढ़ाते हैं या थोड़े और सवाल पूछते हैं तो लोग कहते हैं कि “उन्हें चलना पसंद है लेकिन भारत में नहीं”, या फिर “मुझे कुछ पढ़ना पसंद है”। हमें लोगों से इस तरह के उत्तर पाने के लिए उन्हें कुरेदना पड़ता है, इस तरह के उत्तर उनके मन में अपने-आप तुरंत नहीं आ जाते। पढ़ना या चलना आम तौर पर लोगों के पहले जवाब नहीं होते। मुझे लगता है कि प्रश्न पूछे जाने के तरीके या बातचीत में आनंद की अनुभूति पर बात करने के तरीके के कारण ऐसा होता है।
शिखा आलेय – हिडन पॉकेट्स साइट पर एक व्हाट्सएप (Whatsapp) नंबर दिया गया है जिस पर संदेश भेज कर लोग यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर जानकारी पा सकते हैं। क्या लोग इस सेवा का उपयोग कर रहे हैं? इस नंबर पर आने वाले संदेशों के बारे में आपका क्या विचार है? आपको इन संदेशों में किन अधिकारों से जुड़े मुद्दे दिखाई देते हैं?
जैस्मिन जॉर्ज – इस नंबर पर लोगों के संदेश बड़ी संख्या में मिल रहे हैं। हमें आसानी से हर महीने देश के लगभग 25 शहरों से लगभग 200 से 300 संदेश प्राप्त होते हैं। इस समय हम हिन्दी, अँग्रेजी और मलयालम भाषा में वार्ता कर रहे हैं। हमने इस सेवा के माध्यम से शुरुआत में केवल यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य केन्द्रों के बारे में जानकारी देना आरंभ किया था, लेकिन अब हम यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य विषय पर इस सेवा के माध्यम से कानूनी, चिकित्सीय सलाह ओर मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग आदि भी देते हैं। हमारा यह नंबर एक तरह से रेफेरल सेवा हेल्पलाइन की तरह काम करता है। हमने पाया है कि इस हेल्पलाइन का इस्तेमाल करने वाले लोगों में बहुत सी एकल महिलाएँ हैं जो गर्भसमापन सेवाओं के बारे में जानना चाहती हैं। उनमे से बहुत को गर्भ के चिकित्सीय समापन (एमटीपी) के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता होता। ये महिलाएँ न केवल छोटे शहरों से होती हैं बल्कि कई बड़े शहरों की महिलाएँ भी इस तरह की जानकारी पाना चाहती हैं। लोगों को कानून के बारे में बहुत कम जानकारी है। हमने यह भी देखा है कि लोग सेक्स करने के बारे में तो बहुत बात करते हैं, लेकिन सेक्स के दौरान या इसके बाद क्या करना चाहिए, इस बारे में उन्हें बहुत कम जानकारी होती है। यही कारण है कि गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल, या इसके तरीकों के बारे में बहुत कम जानकारी लोग मांगते हैं। गर्भसमापन के बारे में हम लोगों को बहुत सी जानकारी और सलाह देते हैं, क्योंकि इस बारे में सलाह दिए जाने की बहुत कमी है।
हमारे इस नंबर पर बहुत से पुरुष भी काउंसलिंग के लिए संदेश भेजते हैं। वे आमतौर पर पूछते हैं कि, “मेरी साथी को इस तरह की परेशानी है, मैं उसकी मदद के लिए क्या कर सकता हूँ”? इस तरह हम यह तो निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि बहुत से पुरुष अपने साथी के प्रजनन स्वास्थ्य की देखभाल पर ध्यान देते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि उन्हें क्या करना चाहिए, तो ऐसे में वे गूगल करके हमारा नंबर ढूंढ लेते हैं और संदेश भेजना शुरू करते हैं और फिर लंबी बातचीत कर पूरी जानकारी लेते हैं। हमें लगता है कि लोगों की मदद करने में यह हेल्पलाइन बहुत उपयोगी है। यह एक ऐसी सेवा है जिस के माध्यम से लोगों की मदद के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है क्योंकि यहाँ हम केवल लोगों को सेवा देने कर बाद चले नहीं जाते, हमारी उनसे दोस्ती हो जाती है। हमने देखा है कि लोग परेशानी के समय हमारे पास आते हैं और फिर कई-कई दिनों तक, छ: से सात दिन तक हमसे बात करते हैं। यह एक चैटिंग सेवा है इसलिए लोगों को किसी अंजान व्यक्ति से बात करते हुए भी झिझक नहीं होती, और फिर इसके बाद हम उन्हें शहर के किसी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता का संपर्क सूत्र देते हैं।
अभी तक ऐसा ही चल रहा है। जहां तक युवाओं का संबंध है, मुझे लगता है कि उन्हें न केवल जानकारी दी जानी चाहिए बल्कि यह भी बताया जाना चाहिए कि उस जानकारी का प्रयोग वे किस तरह से करें। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि हम अधिकारों की बात तो करते हैं, लेकिन इन अधिकारों को कैसे पाया जा सकता है, यह मुझे होते हुए नहीं दिखता। यही कारण है कि लोग बार-बार हमारी इस हेल्पलाइन पर वापिस आते हैं, क्योंकि अधिकारों को प्राप्त कर पाना एक भयावह काम दिखता है और शायद लोग ऐसा करते हुए डरते भी हैं। अगर देखा जाए तो शायद ज़्यादा कुछ अभी बदला नहीं है और युवा लोग ऐसे में खुद को असहाय महसूस करते हैं। इसीलिए मुझे लगता है कि हमारी यह हेल्पलाइन अच्छा काम कर रही है। जब मैं युवा लोगों की बात कहती हूँ तो मेरा पर्याय 29 वर्ष तक की उम्र के युवाओं से भी है, उन्हें भी कानून के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं होता! आपको यह जानकार हैरानी होगी कि कैसे दिल्ली से संदेश भेजने वाले एक व्यक्ति, जो शायद 29 वर्ष की आयु के थे और एकल थे, उन्हें सेक्स, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में बिलकुल भी पता नहीं था। हो सकता है ऐसे किसी व्यक्ति से किसी प्राइवेट क्लीनिक में कोई डॉक्टर यह कहकर मनमानी रकम वसूल कर ले कि गर्भसमापन या ‘एमटीपी गैर-कानूनी है’ या फिर ऐसी ही कोई दूसरी बात कह दे।
शिखा आलेय – सुरक्षा, यौनिकता और सबको समाहित कर साथ चलना आदि मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दे हैं जो लोगों की विकलांगता, जाति-वर्ग, आयु, किशोरावस्था और वयस्कता आदि अलग-अलग परिस्थितियों में रह रहे विविध जनसंख्या समूहों को प्रभावित करते हैं। आपके विचार से सभी वर्गों और लोगों के लिए सुरक्षित, समावेशी और यौनिकता समर्थक और अधिकारों को प्रदत्त करने वाली योजना निर्माण प्रक्रिया तैयार करने में सबसे महत्वपूर्ण क्या है?
जैस्मिन जॉर्ज – हिडन पॉकेट्स में हमारी कोशिश यही है कि हम सुविधाओं की सुलभता या उन तक पहुँच को आधार बना कर चलें और यह बात हमने विकलांगता के क्षेत्र के अनुभवों से सीखी है। हमारा ध्यान हमेशा ही सेवाओं तक पहुँच को बढ़ाने पर रहता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई युवा व्यक्ति किन्ही सेवाओं का उपयोग करने वाले हों तो उस सेवा द्वारा उनकी कौन सी आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं? अगर व्हीलचेयर प्रयोग करने वाले कोई व्यक्ति सेवा उपयोग करने वाले हों तो फिर उनकी कौन सी आवश्यकताएँ होंगी जिन्हे पूरा किया जाना चाहिए? हमारे पास लोगों को देने के लिए सुविधा और सेवाएँ उपलब्ध हैं, इन सेवाओं को पाने से जुड़े सभी कानून भी बन गए हैं, हमारी कोशिश भी यही है कि लोग सेवाओं का उपयोग कर सकें, लेकिन फिर भी हम में अधिकांश लोग अपने अधिकारों और सेवाओं का उपयोग नहीं कर पाते हैं, तो ऐसे में निश्चित तौर पर यह न्याय न कर पाने का मामला है। हिडन पॉकेट्स में हम यौनिकता के साथ-साथ न्याय के परिपेक्ष्य से भी काम करते हैं और हमारा मानना यह है कि अगर हमारी मूलभूत सुविधाएं अभी पूरी तरह से तैयार नहीं हैं, हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति अभी नहीं बनी है, हमारे पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं हैं तो सिर्फ़ अधिकारों की बात करते रहने से कुछ नहीं होगा। भले ही हम अधिकारों की बात करते रहे, हम अपने अधिकारों को प्राप्त नहीं कर पाएंगे। तो इस तरह से न्याय की दृष्टि से, सेवाओं तक पहुँच हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। योजना तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान भी हम यही कहते रहे हैं कि हमें पहुँच या सुलभता पर विशेष ध्यान देना है, इसका मतलब है कि किसी सुविधा तक हर व्यक्ति की पहुँच हो फिर चाहे वह कोई भी हों, किसी भी आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हों, किसी भी आयु वर्ग या पहचान समूह से हों। अपने अनुभव के आधार पर हम जानते हैं कि वास्तव में होता क्या है। होता यह है कि अलग-अलग तरह के अस्पताल होने पर भी, फिर चाहे वे सार्वजनिक क्षेत्र में हों या फिर केवल महिलाओं के लिए वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटर हों, इनसे वांछित लाभ नहीं मिल पा रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सेवाएँ देने की इस पूरी प्रक्रिया में हम यह ध्यान नहीं देते कि लोगों के जीवन की वास्तविकताओं और जीवन अनुभवों का सीधा असर उनके द्वारा सेवाओं तक उनकी पहुँच और अधिकारों के प्रयोग पर पड़ता है’। आप यह नहीं सोचते कि- कोई किशोर किस तरह से किसी किशोर स्वास्थ्य क्लीनिक में सेवाओं का उपयोग करता है? या, कोई महिला रेप होने के बाद वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटर में किन सेवाओं के उपयोग के उद्देश्य से पहुँचती है? या फिर, कोई एकल महिला किसी सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र में गर्भसमापन सेवाएँ किस तरह ले सकती है? इसलिए सेवाओं तक पहुँच या उनकी सुलभता एक ऐसा विषय है जिस पर हम काम करते रहे हैं और न्याय दिलाने के विचार पर आधारित एक संरचना तैयार करने में लगे हैं। जहाँ सेवा पाना ही एकमात्र उद्देश्य न हो बल्कि आपके पूरे स्वास्थ्य की भलाई देखी जाए, आपकी देखभाल हो। ऐसा क्या हो जिससे कि सेवाएँ पाने के बाद और अपना अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के बाद भी किसी महिला के मन में संतोष का यह भाव उत्पन्न हो कि सब कुछ ठीक है।
शिखा – धन्यवाद जैस्मिन, वाकई व्यक्ति की भलाई की स्थिति एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिन्दु है जिस पर विचार किया जाना चाहिए। क्यों नहीं आप हमारे साथ अपने कुछ अनुभव साझा करतीं या कुछ उदाहरणों के माध्यम से हमें बतातीं की कैसे आप अपने काम द्वारा शहरी जीवनशैली में कुछ ऐसे बदलाव ला पायीं कि विविधता को स्वीकार किया जाने लगा और भेदभाव पूर्ण और समावेश विरोधी प्रथाओं को पीछे किया जा सका।
जैस्मिन – यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न है! चलिए सबसे पहले नाईट वाक की ही बात करते हैं; सच कहूँ तो नाईट वाक के माध्यम से हमने समावेश किए जाने के मुद्दे के बारे में बिलकुल नहीं सोचा था। हमारा विचार तो केवल यह था कि नाईट वाक के द्वारा हम सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी समय पहुँच पाने के अपने अधिकार को पाना चाहते थे। हमारा सोचना था कि क्यों नहीं लोग रात के समय कहीं बाहर जा सकते? इसके लिए हमने रात के समय ये नाईट वाक करना शुरू किया, हम अभी भी बैंग्लोर में नाईट वाक का आयोजन करते हैं, हम दिल्ली में यह करते रहे हैं, हमने शहर के उन भागों में इनका आयोजन किया जहाँ लोग रात के समय घूमना पसंद नहीं करते थे, हमने जयपुर, अहमदाबाद जैसे कई शहरों में इसे आयोजित किया। इसके पीछे हमारा मकसद यह बताना था कि विभिन्न जगहों पर शहरों की सड़कों पर घूमना आनंददायक बनाया जा सकता है अगर हर क्षेत्र के लोग इसमें भागीदारी करें, विभिन्न वर्गों, जातियों, अलग-अलग तरह के लोग इसमें भाग लें; यही तरीका है कि कुछ जगहों पर लोगों का पहुँच पाना आसान बनाया जा सकता है। हिडन पॉकेट्स में, आज भी, हम सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की ही तलाश करते हैं। क्यों? क्योंकि हमारा मानना है कि सेवाएँ देना सरकार का दायित्व है, और अपनी सरकार को इस दायित्व से जोड़े रखने के लिए ज़रूरी है कि हम सरकार को इस बारे में आगाह करते रहें। इसके लिए ज़रूरी है कि हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति अपने नज़रिए को बदलें, हम उस तरीके को बदले कि जैसे समाज का मध्यम वर्ग, या पढ़ा-लिखा शिक्षित वर्ग इन स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग करता है…इस सेवाओं के लिए सरकार को अधिक दायित्वपूर्ण बनाया जाए, सरकार पर लगातार दबाब बनाए रखा जाए कि वह बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था करे… यह बहुत महत्वपूर्ण है। हमें पूरे देश के 12 शहरों में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ऑडिट किया और हमने प्रमाण के साथ यह साबित किया है कि सरकार भी सार्वजनिक क्षेत्र में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ देती है, यह कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ सस्ती और अच्छी हैं, हमें गर्भसमापन कराने के लिए, जो कि हमारा अधिकार भी है, ज़रूरत से ज़्यादा पैसा खर्च करने की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारा अधिकार होने के साथ साथ गर्भसमापन पूरी तरह से स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ विषय भी है।
जहाँ तक शहरों में सार्वजनिक स्थानों का प्रश्न है, हम शहरों में विकास के प्रति नज़रिए को भी बदलने के लिए लगातार ज़ोर डालते रहे हैं। विकास का अर्थ केवल यह नहीं है कि शहर में बड़े-बड़े मॉल बना दिए जाएँ, बल्कि हमें चाहिए कि हम बेहतर स्वास्थ्य प्रणाली, बेहतर सड़कों की मांग करें, हम ऐसे सार्वजनिक स्थानो के विकास की मांग करें जहाँ हर कोई व्यक्ति पहुँच सके फिर चाहे वो महिलाएँ हों, व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले लोग हों, इशारों कि भाषा इस्तेमाल करने वाले हों, सभी इन जगहों तक पहुँच पाएँ और इनके बारे में जानकारी भी पा सकें। हम सभी के लिए इन जगहों पर पहुँचना सुलभ होना चाहिए। और जब हम जगहों की बात करते हैं, तो हमारा मतलब केवल उन भौतिक जगहों से नहीं है। चूंकि हम ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों तरह से काम करते हैं तो जगहों से हमारा पर्याय भौतिक स्थान और डिजिटल दुनिया भी है। यहीं व्हाट्सएप एक व्यक्तिगत नंबर, एक व्यक्ति की निजी पहचान, उनका कार्यक्षेत्र बन जाता है। लोग व्हाट्सएप पर खुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं, वे आपस में लोगों से मिलना पसंद नहीं करते क्योंकि, व्हाट्सएप पर मिलने वाली गोपनियता उन्हे बेहतर लगती है।
यह सब कुछ बहुत ही रोचक रहा है। जब आप लोगों को एक से अधिक विकल्प उपलब्ध कराते हैं तो आप परिस्थितियों को उनके लिए अधिक समवेशी बना देते हैं, साथ ही साथ आप यह भी सुनिश्चित कर पाते हैं कि भेदभाव वाली प्रथाएँ और व्यवहार कम से कम हों। मुझे तो हमेशा यही लगता है कि इस प्रक्रिया में लगतार कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है, यह सब कुछ प्रक्रिया और तरीकों के जुड़ा मुद्दा है। इस पूरे काम में हम पहले से जानी कुछ पुरानी बातों को भुला भी रहे हैं, नए विकल्प खोज रहे हैं और हिडन पॉकेट्स में हम हमेशा यही, कुछ नया जानने की लगातार कोशिश में लगे रहते हैं।
यहाँ तक कि व्यापक यौनिकता शिक्षण के विषय पर भी हम ज़्यादातर ऑडियो पॉडकास्ट के माध्यम से ही काम करते हैं, क्योंकि जिन समुदायों के साथ हम काम करते हैं, उनमें अधिकतर लोग अनपढ़ हैं, लेकिन भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है। हम लिखी और छपी सामग्री वितरित नहीं करते, हम रेडियो कार्यक्रम बना कर काम करते हैं और यह रेडियो कार्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में होते हैं। हम लोगों के साथ काम करते हुए उन्हें उसी भाषा में कुछ बताना चाहते हैं जो उन्हें आती हो और जिसे वे प्रयोग में लाते हों। हम ऐसी किसी भाषा का प्रयोग नहीं करते जो हमें तो आती तो और सुनने वाले लोग शायद उसे इतना न समझते हों। हम कमजोर नज़र या देख न सकने वाली लड़कियों के साथ भी इसी तरह ऑडियो या आवाज़ के माध्यम से काम करते हैं। ये लडकियाँ आवाज़ सुनना पसंद करती हैं और अपनी ऑडियो सामग्री में जब हम कुछ हास्य जोड़ देते हैं तो वे इसे और भी अधिक पसंद करती हैं। जब हमने हिडन पॉकेट्स शुरू किया था, उसी समय से हमारा यही मानना था कि यौनिकता, सेक्स के बारे में बताते हुए और सुनते हुए हमें और सुनने वालों को अच्छा लगना चाहिए। मुझे राजनीति समझ में आती है लेकिन राजनीति को भी तो मज़ा लेकर बताया जा सकता है। युवा लोग हमारे पास तभी आते हैं जब वे किसी परेशानी में होते हैं, ऐसे में हम उनकी मदद कर पाते हैं, उनकी सम्पूर्ण भलाई की बात कर पाते हैं। बातों को हल्का-फुल्का रखने के कारण ही वे हमसे हंस कर बात कर पाते हैं, मज़ाक कर लेते हैं, ज़रूरत पड़ने पर हमारे पास दोबारा आते हैं, इससे एक तरह का अपनापन, मित्रता सी हो जाती है। ये कुछ अलग-अलग तरीके हैं जो हमने अपने काम में शामिल करने की कोशिश की है और जिससे कि वर्तमान मुद्दों पर भी हल्के-फुल्के माहौल में काम कर पाना संभव हो पाया है।
शिखा – आनंद पाने के विषय को अपनी इस चर्चा में शामिल करना बहुत रोचक होगा। तो अपने आखिरी सवाल में मैं पूछना चाहती हूँ कि, 2016 में इन प्लेनस्पीक पर लिखे अपने एक लेख में आपने मज़ाक, हास्य और अधिकारों की ओर ध्यान खींचते हुए लिखा था, “हमने हास्य पाने, हास्य करने के अपने अधिकार के लिए संघर्ष किया, हमने इसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का रूप दे दिया, और यही नागरिकों के लिए अधिकार का विषय बन गया और यह था व्यंग्य करने का अधिकार, आलोचना करने का अधिकार, व्यवस्था को चिढ़ाने, उसका मखौल उड़ाने का अधिकार”। आपको क्या लगता है कि क्या आज भी विरोध के स्वरों में हास्य देखने को मिलता है, क्या मानवाधिकार मुद्दों पर वर्तमान कथानक में कहीं हास्य दिखता है? अधिकारों को पाने के लिए कार्यरत किसी भी ऐक्टिविस्ट के तरकश में हास्य का तीर होना आज कितना महत्व रखता है? इससे उस ऐक्टिविस्ट को, जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य के क्षेत्र को किस तरह की मदद मिल सकती है?
जैस्मिन – आपका यह सवाल बहुत ही रोचक है सच मानिए, मुझे यह सवाल सुन कर बहुत ही अच्छा लगा, यह वाकई एक बहुत ही अच्छा सवाल है! मुझे सच में ऐसा लगता है कि आज के समय में, आज की परिस्थितियों में जहाँ हम रहते हैं, उनमें जीवन को सुचारु तरीके के चलाने के लिए हास्य ही एकमात्र सही तरीका है; हास्य वो जो परेशान कर दे, जो व्यंग्य हो, जिसमें तंज़ हो तल्खी हो। सदियों से, पीढ़ियों से हास्य की यही भूमिका चलती आई है। हास्य हमेशा मौजूद रहा है, मजबूत बन कर उभरा है। बहुत से सफल लेखकों ने हास्य के माध्यम से ही समाज के सामने अपनी बातें रखी हैं। तारशी के लिए वह लेख लिखते हुए मेरे दिमाग में कहीं मिलन कुंदरा की किताब, ‘द जोक’ (THE JOKE) का ख्याल आ रहा था। इस किताब में उस समय के चेकोस्लोवाकिया में राजनीतिक विरोध की कहानी बताई गयी है। इसमें बताया गया है कि कैसे उस समय सभी लेखक केवल व्यंग्य ही लिखते थे और उस राजनीतिक माहौल में वे केवल व्यंग्य लिखने के कारण ही सुरक्षित रहते थे।
हास्य के बारे में यह बातें मैंने सेक्स-वर्क समुदाय के लोगों, ट्रांस लोगों, LGBTQIA लोगों के समुदाय से, जिन लोगों के साथ मैं काम करती रही हूँ, उनसे और अपने मित्रों व समुदाय से भी सीखी और जानी हैं।
जीवन में हास्य का होना, हंसी मज़ाक कर पाना, वास्तव में यह दर्शाता है कि मौजूदा हालातों में भी, हम मज़ाक कर सकते हैं या हंस सकते हैं तो ऐसे में जीवन एक उत्सव बन जाता है। एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी हास्य आपको खुद अपनी सीमायों को विस्तृत करने में मददगार होता है। मुझे साहित्य पसंद है और मैं साहित्य में विकल्प खोजती हूँ और नयी कल्पनाओं की तलाश करती हूँ जिससे मैं कुछ ज़्यादा कर सकूँ। साहित्य में हास्य की विधा हमेशा हमें कुछ नया कहने, कुछ नया करने के अवसर देती है। इसके माध्यम से हम कुछ ऐसा कह सकते हैं जो सभी सीमायों को पार कर पाने की काबलियत रखता है। अब अगर आप फ्लर्ट करने या किसी को प्रलोभन देने या वश में करने को ही देखें, आप पाएंगे कि इन सब में भी हास्य के पुट रहते हैं।
मैंने हमारे हेल्पलाइन नंबर पर संदेश भेजने वाले लाभार्थियों से यही सीखा है कि वे हमसे कहीं आगे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि किस तरह से क्या पूछना है, किस भाषा में पूछना है। उन्हें अपनी अधिकारों की जानकारी है और वे उससे भी ज़्यादा कुछ और भी चाहते हैं। वे लगातार हमसे सवाल पूछकर कुछ नया जानने में लगे रहते हैं। ऐसे में कभी ऐसा भी हो सकता है कि आपको थकान या बर्नआउट महसूस हो, और ऐसे में यही सौन्दर्य का भाव, यही प्रेम, यही हास्य आपको बिना थके काम करने की शक्ति देता है। आपको वाकई इसकी ज़रूरत पड़ती है। यह सब आसान नहीं है। सच में, मुझे लगता है कि हास्य वाकई एक सहयोगी और उपयोगी टूल है।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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Cover Image: Jasmine George