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सुरक्षित सेक्स तक पहुँच – अपनी यौनिकता को जानने और सुरक्षित रूप में इसका आनंद उठाने का क्या अर्थ है?

सुरक्षित सेक्स पर लिखी और बताई जाने वाली बातें अक्सर मेडिकल या चिकित्सीय शब्दावली में लिखी गयी होती हैं – यौन जनित संक्रमण और अनचाहे गर्भ से सुरक्षा पा लेना ही मानो सेक्स को सुरक्षित बनाता है। लेकिन जब हम यौन सुख या सेक्स का आनंद लेते हैं तो क्या बस ये ही जोखिम होते हैं? सेक्स को सुरक्षित बनाने की कोशिशों में मेडिकल तरीकों के साथ समस्या यह है कि इनमें दूसरे अनेक तरह के जोखिम अनदेखे कर दिए जाते हैं जो कि उतने ही वास्तविक हैं जितना कि अनचाहा गर्भधारण या किसी तरह के संक्रमण का शिकार हो जाना। अपने इस लेख में मैं सेक्स से जुड़े दूसरे भावनात्मक, सामाजिक और सांस्कृतिक खतरों की चर्चा करना चाहूंगी और शर्मसार होने या कलंक के खतरे पर भी विस्तार से चर्चा करूंगी। सुरक्षित सेक्स तो दूसरे रूप में ऐसे भी समझा जा सकता है कि जिसमें किसी भी तरह के कोई दुष्परिणाम न निकलें – फिर भले ही वह अनचाहे गर्भ या किसी बीमारी के रूप में हो अथवा सामाजिक कलंक या शर्मसार होने के रूप में।       

सोचविचार की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में एक फिल्म सहायक हो सकती है जो मैंने अभी हाल ही में देखी थी। इस फिल्म के बारे में हर एक व्यक्ति की (और शायद उनके पालतू जानवर की भी) कोई न कोई प्रतिक्रिया ज़रूर थी! जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का’ की! हालांकि इस फिल्म नारीवादी विचारों पर बने होने पर इस लेख में मैं कोई चर्चा नहीं करना चाहती, लेकिन यह लेख ऐसी चर्चाओं से प्रभावित ज़रूर है। बॉलीवुड में ऐसी अनेक फिल्में नहीं बनती जिनमें यह दिखाया जाता हो कि महिलाएँ यौनिकता से जुड़े पेचीदा पहलुओं से कैसी निबटती हैं – गर्भनिरोधन अपना रही महिलाओं के जीवन की वास्तविकता क्या होती है या फिर किस तरह समय-समय पर महिलाओं को अपनी यौनिकता के खुले या लुके-छिपे प्रदर्शन के लिए शर्मसार किया जाता है। सुरक्षित सेक्स के व्यवहारों को अपनाने की हर ज़िम्मेदारी का निर्वहन करने की अपेक्षा हर उस महिला से की जाती है जो यौन रूप से सक्रिय हो। स्त्री-पुरुष के विषमलैंगिक सम्बन्धों में या वैवाहिक सम्बन्धों में पुरुष का इस दायित्व से कोई सरोकार नहीं होता। क्या सरकार या समाज पुरुषों पर भी सुरक्षित सेक्स अपनाने का दायित्व डालता है? बड़े ही दु:ख और बदकिस्मती की बात है कि इस प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ ही है!  

फिर से फिल्म की ओर लौटते हैं! इस फिल्म में कुछ महिलाओं के अनुभवों के बारे में बताया गया है जिन्हें अपने यौन जीवन और यौनिकता को व्यक्त करने पर समाज द्वारा उनसे की जाने वाली मांगों का सामना करना पड़ता है। फिल्म में दिखाया गया है कि अपने यौन रुझानों और इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश में किस तरह की कठिनाइयों का सामना ये महिलाएँ किस तरह करती हैं। इनमें से एक महिला, शिरीन को जहाँ अपने वैवाहिक संबंध में मर्ज़ी के खिलाफ़ सेक्स करने की मजबूरी का सामना करते दिखाया गया है वहीं लीला और बुआ जी को यौन इच्छाएँ रखने और उन्हें ज़ाहिर करने के कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। अब इन महिलाओं के लिए सुरक्षित सेक्स का क्या मतलब हो सकता है? फिल्म में शिरीन का किरदार निभा रही कोंकोना को असुरक्षित और अनचाहे सेक्स का सामना करते हुआ दिखाया गया है। उनके पति उनके कहने पर भी सेक्स के समय कोंडोम का प्रयोग नहीं करते। शिरीन के लिए यह ज़रूरी है कि वह किसी भी तरह से अभी गर्भवती न हो। ऐसे में I-Pill (आपातकालिक गर्भनिरोधक गोली) ही उनके सुरक्षित रखने का साधन बनती है। उनके सेक्स जीवन में आनंद पाने की कोई संभावना नज़र नहीं आती। जैसा कि फिल्म में बताया गया है उनके पति कभी भी उन्हें प्रेम से नहीं छूते हैं और शिरीन भी सेक्स में आनंद, सहमति या मैरीटल रेप (शादी में बलात्कार) जैसी बातों के बारे में सोच पाती हैं। क्या यह सिर्फ़ हम ही नहीं हैं – तथाकथित संभ्रांत उदारवादी नारीवादी – जिन्हें फिल्म में दिखाया गया सेक्स का वह सीन मैरीटल रेप नज़र आता है? मुझे नहीं पता कि हमारे समाज में कितनी शिरीन को उस सीन में मैरीटल रेप का अनुभव दिखाई देगा। यह कह कर मैं कतई मैरीटल रेप को सही ठहराने या नज़रअंदाज़ करने की कोशिश नहीं कर रही हूँ, बल्कि मेरा उद्देश्य उन दूसरे अनेक जोखिमों और प्रताड़नाओं की ओर ध्यान खींचना है जिनका सामना मैरीटल रेप के खिलाफ़  आवाज़ उठाने वाली अनेक महिलाओं को करना पड़ेगा। क्या महिला को यह डर सताएगा कि मैरीटल रेप के खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर कहीं उनका पति उन्हें छोड़ कर न चला जाए? क्या उन्हें तलाक़शुदा औरत होने पर लगने वाले सामाजिक कलंक का डर सताएगा या फिर वह उस परिस्थिति से घबराती हैं कि एक छोटे शहर में तीन बच्चों के साथ तलाक़शुदा जीवन व्यतीत करना कैसा होगा? वैवाहिक सम्बन्धों में पति द्वारा जबरन सेक्स करने के खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर समाज उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा?           

शिरीन के किरदार को देखकर मुझे राजी* की याद हो आई या फिर शायद I-Pill उसके याद आने का कारण रही हो। मैं जब केरल-तमिलनाडु की सीमा पर स्थित एक गाँव में फील्ड वर्क कर रही थी, तब मेरी मुलाक़ात राजी से हुई थी। राजी 24 वर्ष की महिला थीं जिन्होंने कुछ ही महीने पहले एक संतान को जन्म दिया था। बातचीत के दौरान मैंने राजी से गर्भनिरोधन के बारे में पूछा था कि क्या वह और उनके पति कंडोम इस्तेमाल करते थे? क्या उन्होंने गर्भ-निरोधन के लिए कॉपर-टी (गर्भाशय में लगाया जाने वाला गर्भनिरोधक उपकरण) लगवाया हुआ था या फिर वह गर्भनिरोधक गोली लेती थीं? उन्होंने आखिरी सवाल के उत्तर में हाँ में सिर हिलाया था। उनकी बातों से मुझे पता चला था कि वह I-Pill का नियमित प्रयोग करती थीं। “”इसका प्रयोग आसान है उन्होंने कहा था। मुझे सेक्स करने के 72 घंटे के अंदर इसे खा लेना होता है”। उन्होंने बताया था कि यह सबसे आसान ऊपाय था। उनके पति कंडोम इस्तेमाल करने के लिए तैयार नहीं होते थे। उन्हें और उनके दूसरे दोस्तों को लगता था कि कंडोम से इस्तेमाल से आदमी में कमजोरी आ जाती है। राजी का कहना था कि “कॉपर टी सुरक्षित नहीं था”। उनकी एक पड़ोसन को कॉपर-टी लगवाने के बाद संक्रमण हो गया था और फिर इसे हटवाने के लिए उन्हें फिर से अस्पताल जाना पड़ा था। इस पर मैंने पूछा था कि, “क्या I-Pill के कोई दुष्प्रभाव नहीं होते? क्या तुम इसके इस्तेमाल से संतुष्ट हो?” उन्होंने बड़े ही इत्मीनान से उत्तर दिया था, “हाँ, मुझे कोई चिंता नहीं रहती। इसे खाना आसान है। फिर इसके इस्तेमाल के बारे में मुझे सरकारी अस्पताल की नर्स नें ही बताया था, तो फिर यह कैसे असुरक्षित हो सकती है? मुझे केवल यह ख्याल रखना होता है कि जब भी पति आए तो घर में गोली होनी चाहिए”। लेकिन अब मुझे उनकी बात सुनकर चिंता हो चली थी। मैंने उनसे पूछा कि क्या नर्स ने उन्हें बताया था कि गोली के लगातार सेवन से किस तरह की समस्याएँ हो सकती हैं। इस पर उन्होंने कहा कि नहीं। मुझे हैरानी हुई कि कौन सी नर्स I-Pill को नियमित गर्भनिरोधक की तरह बार-बार खाने की सलाह दे सकती है। उसने ऐसा क्यों किया होगा? क्या लंबे समय तक हर महीने कई बार खाने के लिए I-Pill पूरी तरह सुरक्षित थी?     

फिर मैं उस नर्स से मिली जिसने राजी को I-Pill का नियमित प्रयोग करने की सलाह दी थी। उस नर्स ने मुझे बताया कि उन्होंने राजी को I-Pill खाने की सलाह इसलिए दी थी क्योंकि उनके लिए यही सबसे कम जोखिम वाला ऊपाय था। “वह हर-रोज़ नियमित रूप से माला-डी की गोली खाना भूल जाती थीं। उनके मामले में कंडोम और कॉपर-टी का प्रयोग संभव नहीं था। आपने देखा नहीं कि उनके दोबारा गर्भवती होने के लिए यह सही समय नहीं है? उनका बच्चा अभी 6 महीने का ही है और वह हमेशा बीमार रहता है। इसलिए वह अभी गर्भवती नहीं होना चाहती। इसके अलावा हो सकता है कि उनका पति उन्हें जल्दी-जल्दी बहुत से बच्चे होने के कारण छोड़ दे (जैसा कि उन्होंने अपनी पहली पत्नी के साथ किया था)। तो ऐसे में वह और क्या करे? अब वह अपने पति को तो सेक्स के लिए मना नहीं कर सकती, क्यों? अगर उनका पति उन्हिएँ छोड़ देगा तो वो क्या करेगी”? उस नर्स ने पूछा। 

यह बात मुझे इतना याद दिलाने के लिए काफ़ी थी कि हम सुरक्षा और जोखिम की अलग-अलग दुनिया में रहते हैं और सबकी वास्तविकता अलग हैं। भारत में अनेक महिलाओं के लिए अकेले रहना या तलाक़शुदा जीवन बिताना एक व्यावहारिक विकल्प नहीं है। ऐसा करने में अनेक तरह के जोखिम हैं। यहाँ तक कि वैवाहिक सम्बन्धों में रेप के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भी ऐसे ही जोखिम हैं। अक्सर हम महिलाओं का शरीर ही अनेक तरह के जोखिम में से किसी एक को चुनने का स्थान बन जाता है। अनेक बार इस तरह के चुनाव करने में भाषा की ज़रूरत नहीं पड़ती या इस अनुभव को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। अविवाहित होने के कारण मैं वैवाहिक सम्बन्धों के निजी, खुद के जिए अनुभव होने का दावा नहीं कर सकती। यह सही है कि कानूनी सहमति के बिना बने किसी भी अन्य गैर-सामान्य संबंध में भी सहमति का कोई विशेष स्थान नहीं होता लेकिन परिवार द्वारा सहमति से किए गए किसी वैवाहिक संबंध की तुलना में संभव है कि ऐसे सम्बन्धों में प्रेम कुछ अधिक रहता हो। इसके अतिरिक्त अगर आप किसी ऐसे संबंध में हैं जो दुनिया की नज़र में अभी नहीं आया है, तो ऐसे संबंध की समाप्ती पर सामाजिक दबाब और कलंक से बच पाना अधिक सरल होता है।   

फिल्म में शिरीन के अनुभव की तुलना में लीला को जिस कलंकित होने के अनुभव से गुजरना पड़ा था वह कुछ अधिक व्यावहारिक नज़र आया। इसी तरह बुआ जी को इस उम्र में कामुक कहानियाँ पढ़ने और फोन पर सेक्स करने के लिए जिस तरह समाज में निष्काषित और बे-इज्ज़त किया गया, वह अनुभव भी ऐसा था जिसके बारे में सोच पाना सरल था। उम्र भले ही कितनी ही हो, समाज में महिलाओं द्वारा इस तरह के व्यवहार की कल्पना नहीं की जाती और न ही इसे स्वीकार किया जाता है। महिलाओं के मन में यौन इच्छाओं के पनपने को केवल विवाह जैसे विषमलैंगिक सम्बन्धों में ही स्वीकार किया जाता है। 

हमारे समाज में समलैंगिक सम्बन्धों द्वारा या खुद अपने शरीर के साथ यौन आनंद ले पाने को न केवल अस्वीकार कर दिया जाता है बल्कि इसे इतना जघन्य अपराध समझा जाता है कि इसके चलते समाज में आपका आदर और इज्ज़त पूरी तरह से खत्म हो सकती है। महिलाओं के लिए यह स्थिति और भी कठिन इसलिए होती है क्योंकि उन्हें केवल सेक्स के लिए वस्तु के रूप में देखा जाता है जिनके पास अपनी यौनिक इच्छाओं को प्रकट करने का कोई साधन नहीं होता। इस सामाजिक मान्यता और विचारों को न मानने वाले किसी भी व्यक्ति को सामाजिक ताक़तें शर्मसार कर मानने पर मजबूर कर देती हैं। अपने सांस्कृतिक परिवेश में अस्वीकार्य और असुरक्षित समझे जाने वाले यौन व्यवहारों को किस तरह से सुरक्षा बरतते हुए अपनाया जा सकता है? क्या जब तक सेक्स को सुरक्षित बनाए रखने का दायित्व केवल एक जेंडर अर्थात महिलाओं के कंधों पर रहेगा, तब तक सुरक्षित सेक्स कर पाना क्या वास्तव में संभव हो सकता है? मैं अपनी बात को फिर से दोहराते हुए अपने लेख का समापन करना चाहूंगी कि अब ज़रूरत है कि हम सुरक्षित सेक्स के बारे में अपनी इस चर्चा को I-Pill और कंडोम से आगे ले कर चलें। सेक्स को सुरक्षित बनाने पर की जाने वाली प्रत्येक चर्चा और विचार-विमर्श में सहमति, आदर, साझा दायित्व और साथ ही हमारी इच्छाएँ और आनंद, शर्म और अपराधबोध, सभी कुछ शामिल होना चाहिए।     

चित्र: फिल्म लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का (2017) का एक दृश्य 

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित 

To read this article in English, please click here 

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