मंजुला प्रदीप एक वकील हैं और नवसरजन ट्रस्ट की कार्यकारी निदेशक रह चुकी हैं। नवसरजन ट्रस्ट जमीनी स्तर पर दलितों के सशक्तिकरण के लिए काम कर रही एक अखिल भारतीय संस्था है। इस समय मंजुला, पुणे की संस्था मानुस्की में फ्रीलान्सर आधार पर बतौर वरिष्ठ कंसल्टेंट काम करती हैं। मानुस्की संस्था भारत में “उपेक्षित समुदायों में नेतृत्व विकास के क्षेत्र में काम करती है।”
इस इंटरव्यू में मंजुला ने अलग-अलग दृष्टिकोणों से जाति, यौनिकता और जेंडर के बीच के सम्बन्धों पर हमसे बात की।
सोनिया धवन — आमतौर पर जब भी हम जाति और यौनिकता के अंतरसंबंधों के बारे में सोचते हैं, तो हमारे मन में सबसे पहले यही विचार आता है कि दलित महिलाओं को अनेक तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है – फिर वह चाहे उनकी जाति के आधार पर हो या फिर जेंडर के आधार पर। क्या आप हमें बता सकती हैं कि जेंडर और जाति के आधार पर उपेक्षित होने में क्या अंतर होता है?
मंजुला प्रदीप — यह तो स्पष्ट है कि भारत में एक महिला को अपनी जाति के कारण अपनी यौनिकता पर कई तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। जैसा कि हम जानते ही हैं, भारत के जाति आधारित समाज में वर्ग अनुक्रम चलता है और “पवित्रता तथा दूषित” होने के विचार के चलते भारत के लोगों के मन में या तो दूसरों से ऊंचे होने या फिर निकृष्ट होने की भावना घर कर जाती है। आप जाति प्रथा की इस सीढ़ी में जितनी ऊंची पायदान पर होते हैं, उतने ही आप अधिक श्रेष्ठ और पवित्र समझे जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि एक पुरुष के रूप में आपके पास अपनी यौनिकता को समझने, उसे व्यक्त करने के अधिक अवसर होते हैं। लेकिन भारत में सभी जातियों की महिलाओं की यौनिकता, यहाँ के रिवाजों, प्रथाओं और परम्पराओं द्वारा नियंत्रित होती है। इसलिए एक ब्राह्मण महिला, ऊंची जाति की होने पर भी, किसी भी दूसरी जाति की महिलाओं की तरह ही अपनी जाति में प्रचलित प्रथाओं में बंधी होती है। उनकी यौनिकता पर इसलिए नियंत्रण रखा जाता है क्योंकि वो एक ‘पवित्र’ जाति की प्रतिनिधि होती हैं और उनका समुदाय यह नहीं चाहता कि वह ब्राह्मण जाति के किसी पुरुष के अलावा किसी और से यौन संबंध बनाएं और अपनी पवित्रता खो दें। हालांकि ब्राह्मण जाति के पुरुषों पर ऐसे कोई प्रतिबंध नहीं लगाए जाते कि वो किसके साथ यौन संबंध बनाना चाहते हैं।
दलित महिलाएँ, जो कि जाति प्रथा की इस सीढ़ी में सबसे निचली पायदान पर होती हैं और भेदभाव झेलने वाले सभी लोगों में सबसे अधिक भेदभाव का सामना करती हैं, उनके शरीर को कलंक की निगाह से देखा जाता है और उन्हें सामाजिक अलगाव भरा जीवन व्यतीत करना पड़ता है। उन्हें अपवित्र समझा जाता है; वे अपने अधिकार पाना तो चाहती हैं लेकिन प्रभावी जाति के पुरुष उनका शारीरिक शोषण करते हैं, उनका सामूहिक बलात्कार करते हैं, दलित महिलाओं पर आक्रमण करते हैं, उन्हें निर्वस्त्र करके घूमाते हैं, और दलित समुदायों द्वारा प्रभावी होने की कोशिश के विरोध में अपना गुस्सा दिखाने के लिए इन महिलाओं की हत्या भी कर देते हैं।
सोनिया – समाज में दलित महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित किए जाने से जुड़े कुछ ऐतिहासिक उदाहरण बताइये।
मंजुला – अनेक पुरानी जाति-आधारित प्रथाओं से भारत में पिछड़ी जाति की महिलाओं की स्थिति का पता चलता है। देवदासी प्रथा या “मंदिरों में वेश्यावृति करवाना” भी ऐसी ही एक प्रथा है। इस प्रथा में, जो कि सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है, छोटी उम्र की दलित लड़कियों को मंदिरों की वेश्याएँ बनने पर मजबूर किया जाता है। यह एक तरह से यौन गुलाम बनाए जाने की परंपरा है जो आज भी आधुनिक भारत में देखी जा सकती है। पहले ऐसी प्रथा थी कि दलित महिला को अपने विवाह के बाद पहली रात अपने पति के गाँव के किसी ऊंची जाति के पुरुष के साथ सोना पड़ता था। केरल में, साम्राज्यवादी शासन से पहले, पिछड़ी जाति की महिलाओं पर मुला करम नामक स्तन टैक्स भी लगाया जाता था जो उस समय पिछड़ी जाति पर लगाए जाने वाले सभी करों में सबसे दमनकारी कर था। इस कर में महिला द्वारा एक निश्चित रकम सरकार को कर के रूप में अदा करने पर ही अपने स्तनों को ढक कर रखने का अधिकार दिया जाता था। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर रहने वाली बेदिया समुदाय की महिलाओं द्वारा वेश्यावृति किए जाने की जाति आधारित प्रथा भी लंबे समय से चली आ रही है। इन प्रथाओं और परम्पराओं से न केवल पिछड़ी जाति की महिलाओं की संवेदनशीलता का आभास हो जाता है, बल्कि यह भी पता चलता है कि इन महिलाओं का खुद अपने शरीर पर कोई अधिकार या नियंत्रण नहीं है। इस तरह इस जाति प्रथा और पितृसत्तात्म्क व्यवस्था के चलते, एक मनुष्य होने के गौरव के साथ जीवन जीने और अपने स्वतन्त्रता के अधिकारों का प्रयोग कर पाने की आज़ादी इन पिछड़ी जाति की महिलाओं से छीन ली जाती है।
सोनिया – भारत में सभी जातियों की महिलाओं की यौनिकता और विवाह पर इतना नियंत्रण क्यों रखा जाता है? आखिर इस तरह नियंत्रण रखने से क्या हासिल होता है?
मंजुला – महिलाएँ संतान को जन्म देती हैं, इसलिए जाति की शुद्धता और श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने के लिए महिला के शरीर पर नियंत्रण रखा जाता है। अस्पृश्यता या छुआछूत को समझने के उद्देश्य से नवसरजन ट्रस्ट ने 2010 में गुजरात के 1589 गांवों में एक अध्यन्न किया। इस अध्यन्न से मिली जानकारी में से एक प्रमुख जानकारी यह थी कि उत्तर देने वाले 98% लोग अंतर्जातीय विवाह का विरोध करते थे।
भारत में सामाजिक प्रथाओं और संस्कारों को नियंत्रित करने में जाति पंचायतों या जाति परिषद की भी भूमिका रहती है। ये जाति परिषद विवाह, जीवन साथी के चुनाव आदि कामों के मामले में नियम कानून बना कर लोगों के मन में भय उत्पन्न कर देती है। इन जाति पंचायतों के डर के कारण ही परिवार के पुरुष, इज्जत बचाने के नाम पर अपने परिवार की लड़कियों की हत्या तक केवल इसलिए कर देते हैं क्योंकि लड़की ने जाति प्रतिबंधों का उल्लंघन कर किसी गैर जाति के व्यक्ति से प्रेम करने का गुनाह किया होता है। भारतीय समाज में अधिकांश महिलाओं को अपनी परिवार की इज्ज़त और गौरव का बोझ ढोना पड़ता है।
विषमलैंगिक पहचान भी जाति प्रथा के जारी रहने का प्रतीक है क्योंकि संतान पैदा करने के दायित्व का बोझ तो भारतीय समाज में महिलाओं पर ही है; और उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि अपनी प्रजननशीलता द्वारा वे जाति में वंश-परंपरा को जारी रखें। इसलिए, विभिन्न यौन पहचानो से जुड़े मुद्दे, जो जाति की श्रेणी में नहीं आते, उन्हें नकार दिया जाता है। ऐसा किसी एक धर्म में नहीं बल्कि हर एक धर्म में होता है – इसका कारण है कि जाति प्रथा तो भारत के सभी धर्मों में पायी जाती है।
सोनिया – हमें अपने जीवन और अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं। आपने वकील बनने का फैसला क्यों लिया?
मंजुला – मैं उत्तर प्रदेश के एक दलित परिवार से हूँ। मेरे पिता एक सरकारी अधिकारी थे और तबादले पर वड़ोदरा आए थे। मेरा जन्म यहीं वड़ोदरा में ही हुआ। मैं अपने परिवार में पैदा हुई दूसरी लड़की थी। बचपन से ही मुझे ऐसा लगता था कि परिवार में पैदा हुई दूसरी लड़की होने के कारण मुझे स्वीकार नहीं किया गया था। 4 वर्ष की उम्र में ही मेरे पड़ोस में रहने वाले 4 पुरुषों ने मेरा यौन शोषण किया था। इसलिए मेरा बचपन हमेशा ही अकेलेपन और तिरस्कार से भरा रहा। मेरे पिता को हमेशा यह डर सताता रहता था कि कहीं लोगों को हमारी जाति के बारे में मालूम न चल जाए, तो उन्होने हम बच्चों के नाम के आगे जाति की जगह उपनाम लगा दिया, जो वास्तव में लोगों का पहला नाम ही होता है। अपने परिवार में जाति और जेंडर से जुड़ी चुनौतियों का सामना करते हुए, मैंने यह सवाल उठाना शुरू कर दिया कि लड़की होने के कारण मेरे साथ ही भेदभाव क्यों किया जाता है और मेरे भाइयों के साथ क्यों नहीं। मैं उस दर्द और तकलीफ़ को भी महसूस करती थी जो मेरी छोटी उम्र की बहुत ही खूबसूरत माँ ने मेरे पिता के साथ रहकर झेली थी। 2012 में अपने पिता की मृत्यु होने तक मैंने ही अपने पिता से अपनी माँ की रक्षा की। मैं परिवार की विद्रोही संतान के रूप में बड़ी हुई और मैंने हम महिलाओं पर थोपी जाने वाली सभी प्रथाओं और रिवाजों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना शुरू किया।
1992 में नवसरजन की पहली महिला कर्मचारी के रूप में काम करना शुरू कर, मैंने गुजरात में जमीनी स्तर पर काम करके बहुत सा अनुभव बटोरा। यहाँ काम करते हुए मुझे बहुत करीब से दलितों की समस्याओं के बारे में मालूम चला। मैंने दलित समुदाय के लोगों में प्रभावी जाति के लोगों के हाथों हो रहे अत्याचारों को देखा और यह भी देखा कि किस तरह दलित लोग खुद को असहाय महसूस करते थे। 1993 में पुलिस हिरासत में एक दलित युवक को दी गयी यंत्रणा ने मेरी आँखें खोल दी। तब मुझे शासन और व्यवस्था द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न के प्रति दलितों की संवेदनशीलता का पता चला, हालांकि शासन का काम ही दलितों को हिंसा और शोषण से बचाना होता है। घटना के अगले दिन इस दलित युवक का मृत शरीर उसकी झोंपड़ी में लटकता हुआ पाया गया। उसकी बूढ़ी विधवा माँ, वलिबेन ने धंढूका नगर के दो पुलिस अधिकारियों के खिलाफ़ शिकायत दर्ज कराई। मैं न्याए पाने के लिए संघर्ष करने की उस बूढ़ी औरत के जीवट को देखकर चकित थी। इस केस पर काम करते हुए मैंने युवक के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को पढ़ना शुरू किया लेकिन मैं उस रिपोर्ट में लिखे बहुत से कानूनी शब्दों को समझ नहीं पायी। मुझे मेडिकल विधिशास्त्र की पुस्तक पढ़ने के लिए कहा गया और तब मुझे लगा कि मुझे कानून की पढ़ाई करनी चाहिए। मैं वलिबेन की बातों से भी बहुत प्रेरित हुई जो अब मेरे लिए वलीमाँ बन चुकी थीं। आरोपी पुलिस अधिकारियों द्वारा चार लाख रुपयों की रिश्वत की पेशकश किए जाने पर वलिबेन ने कहा था, ‘मुझे इंसाफ़ चाहिए, पैसा नहीं’।
सोनिया – एक इंटरव्यू में आपने कहा था कि 2008 की एक घटना (पाटन रेप मामला जिसे आपने कॉलेज में पढ़ने वाली उस लड़की की ओर से लड़ा और जीता, जिसका यौन शोषण कॉलेज के 4 प्रोफेसर कर रहे थे) ने आपका जीवन बदल कर रख दिया। क्या आप हमें इसके बारे में विस्तार से बता सकती हैं?
मंजुला – मैंने नवसरजन का नेतृत्व नवम्बर 2004 में संभाला। किसी संस्था में काम करते हुए उसका एक भाग होना और उस संस्था की अगुवाई करना, इन दोनों में बहुत अंतर होता है। मुझे इसका आभास उस समय हुआ जब मैंने नवसरजन में कार्यकारी निदेशक के पद के लिए हुए चुनाव में अपने चार दलित सहकर्मियों के विरुद्ध चुनाव लड़ा। मुझे अपने दूसरे अधिकांश सहकर्मियों के वोट मिले लेकिन उसके बाद इन चार लोगों के साथ मेरे संबंध अचानक बदल से गए। वह समय मेरे लिए बहुत चुनौती भरा था क्योंकि मुझे अपने ही संगठन में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा; मुझ पर दुश्चरित्र महिला होने का आरोप लगाया गया और फिर मेरी तुलना हिटलर से की जाने लगी। मुझे यह भी आभास हो गया कि मुझे खुद को साबित करना होगा, मुझे यह साबित करना होगा कि मैं इस संगठन का नेतृत्व करने के योग्य और सक्षम थी; अर्थात अब मेरे ऊपर एक तो जाति और दूसरे जेंडर का दोहरा बोझ था। पाटन रेप मामले से पहले नवसरजन ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामले के हल खोजने की कोशिश की थी, लेकिन ये प्रयास केवल घरेलू हिंसा के मामलों तक ही सीमित थे। रेप और यौन शोषण के मामले भी यहाँ लिए जाते थे, लेकिन इनमें से किसी भी मामले में आरोपियों को सज़ा नहीं हो पायी थी।
पाटन रेप मामले ने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया था। मैं उस युवती से मिली और मुझसे उसका दर्द देखा नहीं गया। मैंने तभी यह फैसला कर लिया कि चाहे जो हो जाए, मैं इस लड़की को इंसाफ़ दिला कर रहूँगी। मेरे मन में केवल इस लड़की को न्याय दिलाने का विचार नहीं आया था बल्कि मैं उन अनेक युवा लड़कियों को न्याय दिलाना चाहती थी जो पिछले एक दशक से इन प्रोफेसरों द्वारा किया जा रहा यौन शोषण का शिकार हो रही थीं। यह प्रकरण नवसरजन के लिए भी मील का पत्थर साबित हुआ, क्योंकि इस मामले के चलते संगठन में जाति और जेंडर के अंतरसंबंधों पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाने लगा। नवसरजन का पूरा दल इन मामले में बहुत ज़्यादा प्रेरित था क्योंकि यह मामला राजनीतिक रंग भी ले चुका था। यह मामला पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल के चुनाव क्षेत्र का था, जो उस समय शिक्षा मंत्री थीं और श्री नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्य मंत्री थे। रेप झेल चुकी इस युवती को अपनी देखरेख में ले लेने के बाद से मुझ पर गुजरात सरकार का बहुत दबाब था। बहुत बार तो मुझे लगने लगता था कि इस मामले में दोनों पक्षों के बीच अदालत से बाहर कोई समझौता हो जाएगा। उस लड़की को नवसरजन के दल और मुझसे मिलने वाले नैतिक बल, सामाजिक सहयोग और कानूनी सहायता के कारण और मामले में मीडिया द्वारा दिएदिए गए सहयोग के कारण यह केस बहुत ही मजबूत हो गया था। मामला अभियोजन में जाने के एक वर्ष और एक महीने बाद अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी, और यह समय गुजरात में एक ऐतिहासिक क्षण था। आरोपी छ: प्रोफेसरों में से दो दलित समुदाय के थे और उनमें से एक दलित राजनीतिज्ञ का भतीजा था। यह राजनीतिज्ञ वर्तमान में संसद सदस्य हैं।
इस केस पर काम करते हुए, नवसरजन दल के सदस्यों ने यौन तस्करी, रेप और यौन शोषण के दूसरे मामले भी हाथ में लेने शुरू कर दिए थे। ये मामले न केवल दलित महिलाओं, बल्कि जनजाति की महिलाओं और दूसरी सभी जातियों और धर्मों की महिलाओं के थे। तो यह इस संगठन की काम की नीति में भी एक बड़ा परिवर्तन था। तब मैंने उपेक्षित महिलाओं में नेतृत्व मजबूत करने का निर्णय लिया और गुजरात के विभिन्न भागों में महिला अधिकार परिषदों की स्थापना की।
सोनिया – दलित और आदिवासी महिलाओं के अलगाव और नारीत्व को उपेक्षित करने वाली ताकतों और शक्तियों को ध्वस्त करना कैसे शुरू किया जा सकता है? दूसरी प्रभावी जाति के लोग किस तरह से अपनी शक्ति का प्रयोग कर दलित और आदिवासी महिलाओं और दूसरे उपेक्षित जेंडर के लोगों को उनके यौन एवं प्रजनन अधिकार दिलाने में मददगार हो सकते हैं?
मंजुला – यह शक्ति व्यवस्थाएँ हमारे यहाँ जाति व्यवस्था और पितृसत्ता में बहुत गहरे घर कर चुकी हैं और इसलिए इन्हे ध्वस्त कर पाना एक बड़ा ही चुनौती भरा काम है। लेकिन यह असंभव नहीं है। यह संभव हो सकता है अगर सभी जातियों की महिलाएँ आपस में एकजुटता करें और महिला संघ बना कर उन सभी अमानवीय परम्पराओं और प्रथाओं के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करना शुरू करें जो पुरुषों द्वारा जाति और धार्मिक परिषदों और पंचायतों के माध्यम से उन पर थोपी जाती हैं। मुझे लगता है कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया और महिलाओं के सशक्तिकरण में रुकावटें पैदा करने में इन जाति और धर्म परिषदों की बड़ी भूमिका है।
दलित और आदिवासी महिलाओं को उनकी एक से अधिक पहचानों के कारण कमजोर समझा जाता है। लेकिन पितृसत्ता और जाति प्रथा, दोनों के खिलाफ़ लड़ाई में वे सबसे मजबूत हैं। जो महिलाएँ इन दलित और आदिवासी महिलाओं के अधिकारों के लिए उठ खड़ी होती हैं, उन्होंने खुद अपनी जातिगत पहचान से बाहर निकलना होगा और इन दलित, आदिवासी और उपेक्षित महिलाओं की स्थिति को समझ कर इनके अधिकारों का समर्थन करना होगा। समाज में प्रभाव रखने वाले लोग इन महिलाओं के साथ एकजुटता नहीं दिखा रहे हैं। दलित, आदिवासी और उपेक्षित महिलाओं का रेप होने या उनके साथ यौन शोषण होने पर ये लोग ऊंची प्रभावी जाति के पुरुषों से सवाल नहीं करते। क्यों प्रभावशाली जाति की महिलाएँ अपनी जाति के पुरुषों, अपने पतियों, बेटों और भाइयों को बचाने की कोशिश करने लगती हैं जब इन पुरुषों पर इन दलित, आदिवासी और उपेक्षित महिलाओं का रेप करने के आरोप लगते हैं? उन्हें चाहिए कि वे दलित, आदिवासी और दूसरी उपेक्षित महिलाओं को दुश्चरित्र कहने की बजाए इन पुरुषों के दुष्कर्मों की भर्त्सना करें। क्या हम उपेक्षित महिलाओं को भी समानता और आदर की नज़र से देख सकते हैं? इन दलित, आदिवासी और उपेक्षित महिलाओं को इसी की उम्मीद है। वे नहीं चाहती कि समाज के दूसरे समुदाय उन्हें निकृष्ट या गंदा समझे और उनके साथ भेदभाव बरतें। प्रभावी जाति की महिलाओं को आखिरकार यह समझना होगा कि यह सब कुछ सत्ता का खेल है, जहाँ उनके समुदाय के पुरुष न केवल उपेक्षित समुदायों और महिलाओं का गलत इस्तेमाल करते हैं बल्कि वे प्रभावी जाति की अपनी ही महिलाओं का भी इस्तेमाल करते हैं।
सोनिया – आपके काम में क्या आपका सामना कुछ ऐसे लोगों से भी होता है जो जेंडर या यौनिकता के स्वीकृत मानकों से अलग हैं? इसमें विविध यौनिक पहचान के लोग हो सकते हैं जो खुद को लेस्बियन, गे या ट्रांसजेंडर तो नहीं कहते, लेकिन जो अपनी जेंडर पहचान या यौनिकता को व्यक्त करने के प्रचलित तरीकों के अनुरूप भी व्यवहार नहीं करते। दलित समुदाय में ऐसे लोगों को किस तरह की स्वीकार्यता मिलती है? और दलित समुदाय के बाहर, क्या ऐसे लोगों को एक तरह से दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है?
मंजुला – मानवाधिकारों के क्षेत्र में अपने 25 वर्ष से अधिक के अनुभव और कार्यकाल के बाद मुझे लगता है कि जेंडर और यौनिकता के क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है। विविध जेंडर और यौनिक पहचान रखने वाले लोगों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है। दलित समुदाय के लोग जो विषमलैंगिक यौनिक पहचान नहीं रखते, उन्हें अक्सर लोगों, खासकर पुरुषों के मज़ाक और तानों को झेलना पड़ता है। समुदाय की लेस्बियन महिलाएँ अपनी पहचान उजागर नहीं करती क्योंकि उन्हें अपने समुदाय में और अधिक अलगाव होने और उपेक्षित कर दिए जाने का डर सताता है। यौन अल्पसंख्यक दलितों को इस भेदभाव, अलगाव, तिरस्कार और हिंसा से सुरक्षा देने के लिए कोई कानून नहीं है क्योंकि हमारे सभी कानून तो विषमलैंगिक पहचान रखने वाले लोगों के लिए बने हैं, फिर चाहे वह अत्याचार निषेधक कानून हो या फिर घरेलू हिंसा रोकथाम कानून। समलैंगिक और दूसरी यौनिक पहचान वाले लोगों को कानून में संवेदी सामाजिक वर्ग नहीं समझा जाता।
सोनिया – क्या आपको दलितों के अधिकारों के आंदोलन और यौन एवं प्रजनन अधिकारों के आंदोलन में एकजुटता के कुछ उदाहरण दिखते हैं? ।
मंजुला – दलितों के अधिकारों पर और यौन एवं प्रजनन अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वालों के बीच अब एकजुटता बनने लगी है। दलित अधिकार आंदोलन की नेता महिलाएँ अब अपने इस आंदोलन में यौन एवं प्रजनन अधिकारों से जुड़े मुद्दों को उठाए जाने के बारे में बात करने लगी हैं। वे यौन अल्पसंख्यकों के नेतृत्व और दूसरे ऐक्टिविस्ट्स के साथ भी मिलकर काम कर रही हैं। चलो नागपुर एक ऐसा ही ऐतिहासिक आयोजन है जिसमें विभिन्न उपेक्षित समुदायों की महिलाओं को एक मंच पर लाने की कोशिश की गयी है। इस आयोजन के द्वारा दक्षिणपंथी ताकतों और उस ब्राह्मणवादी विचारधारा को भी चुनौती दी गयी है जो भारत में लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करती है। मैं कॉमन हेल्थ कलेक्टिव (Common Health collective) की भी सदस्या हूँ। यह समूह यौन एवं प्रजनन अधिकारों पर काम करता है। हमारी कोशिश एक ऐसा टूल विकसित करने की है जिससे कि समाज में उपेक्षित महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकारों को पाने की कोशिश करते हुए उनके साथ होने वाले भेदभाव के तरीकों की पहचान की जा सके। मैं CREA संस्था से भी जुड़ी हूँ और मैं भारत में महिला नेतृत्व के लिए जाति और यौनिकता विषय पर प्रशिक्षण भी देती हूँ।
लेकिन मुझे लगता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। आखिरकार हम सबका अंतिम लक्ष्य तो भारत के संविधान के तहत हमें मिले अधिकारों को पूरी तरह प्राप्त करना ही है।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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