गतिशीलता या मोबिलिटी को साधारण तौर पर हम स्थिति या स्थान बदलने के रूप में देखते हैं। यह एक जगह से दूसरी जगह पर पहुँचना हो सकता है, या केवल अपने शरीर को हिलाना हो सकता है या फिर दोनों ही। चल रहे किसी दोपहिया वाहन पर पीछे बैठे व्यक्ति या किसी वाहन में बैठी सवारी भी गतिशील होती है। साईकिल चला रहा, घुड़सवारी कर रहा, वाहन चला रहा, पैदल चल रहा या दौड़ रहा व्यक्ति भी गतिशील होता है। व्हीलचेयर का प्रयोग करने वाले या फिर वॉकर की सहायता से चलने वाले व्यक्ति भी गतिशील होते हैं; लेकिन उनसे आमतौर पर यह सवाल नहीं किया जाता कि ‘क्या आप गतिशील है?’ ऐसा कोई सवाल करने से पहले हम अंदाजे भी लगभग तुरंत ही लगा लेते हैं, जैसे कि, शायद ‘व्हीलचेयर पर बैठे व्यक्ति से यह पूछना अशिष्टता होगी’, या ‘देखा जाएजाए तो व्हीलचेयर पर बैठा कोई व्यक्ति या वॉकर की मदद से चलने वाला कोई व्यक्ति, ‘सही मायने’ में गतिशील थोड़े ही है’। भले ही हम जानबूझकर ऐसा नहीं करते, लेकिन हमारे मन में उस व्यक्ति के प्रति इस तरह के विचार आते ही व्हीलचेयर या वॉकर का इस्तेमाल कर रहे वह व्यक्ति सहसा ही शक्तिविहीन हो जाते हैं और गतिशील लोगों श्रेणी से बाहर हो जाते हैं।
गतिशीलता के बारे में लगाए गए हमारे अनुमान कभी-कभी बिलकुल विपरीत तरीके से भी काम करते हैं। जैसे हम किसी व्यक्ति के गतिशील होने का अनुमान उन्हें देख कर ही लगा लेते हैं क्योंकि हमें उनमें कोई शारीरिक विकलांगता दिखलाई नहीं देती, या फिर व्यक्ति में किसी तरह की विकलांगता देखते ही हम अनुमान लगा लेते हैं की इनके गतिशील न होने का कारण शायद इनकी यही विकलांगता होगी। आप अगोराफोबिया (agoraphobia) के साथ रह रहे (अपने घर के सुरक्षित माहौल को छोड़ कर बाहर निकलने का डर) किसी व्यक्ति से पूछ कर देखें कि गतिशीलता का क्या महत्व है। परिवार में लंबे समय से बीमार चल रहे व्यक्ति की देखभाल करने वाले व्यक्ति से पूछें, या किसी दूरदराज़ गाँव में पढ़ने वाली किसी लड़की, जिसे स्कूल केवल इसलिए छोड़ना पड़ा हो क्योंकि स्कूल तक पहुँचने का रास्ता सुनसान था और उसके घरवाले उसे किसी तरह के यौन आक्रमण से बचाना चाहते थे या फिर वे नहीं चाहते थे कि लड़की के किसी के साथ संबंध बन जाएँ या उसका कोई ‘चक्कर’ चल जाए जिसमें उनके परिवार की इज्ज़त चली जाए, या फिर किसी पुरुष प्रधान परिस्थितियों में रहने वाली एक ट्रांसजेंडर लड़की से पूछ कर देखें कि गतिशीलता का क्या अर्थ होता है। हो सकता है कि इन लोगों को सवारी करने के लिए बस की सुविधा उपलब्ध हो या फिर छकड़े में इंजिन लगा कर बनाई गयी जुगाड़ गाड़ी हो जिसमें छ: से लेकर सोलह लोग (अगर कुछ लोग छत पर भी बैठ जाएँ तो) सवारी कर सकते हैं। हो सकता है इनमें किसी व्यक्ति के घर के बाहर कार खड़ी हो और उनके पास पर्स में गाड़ी चलाने का लाईसैन्स भी रखा हो, और ऐसी कोई परिस्थिति न हो जिससे यह लगे कि इन लोगों के लिए भी गतिशील होना लगभग असंभव सा काम है।
इन प्लेनस्पीक पत्रिका प्रकाशित करने का उद्देश्य यही है कि बातचीत के दायरे को बढ़ाया जाए, अनसुनी या खामोश रही आवाज़ों को सुना जा सके, आपस में नए अनुभव बांटे जाएँ, और यौनिकता के नज़रिए से विविधता को स्वीकार कर समावेशिता को बढ़ाया जा सके। व्यक्ति की यौनिकता उनके जीवन और उनकी पहचान के प्रत्येक पहलू का अभिन्न अंग होती है और यही कारण है कि इन प्लेनस्पीक में शामिल हर विषयवस्तु के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में बहुआयामी और संबन्धित दृष्टिकोण दिए जाने की कोशिश की जाती है। इस लेख में हम गतिशीलता और यौनिकता के विविध रूपों पर पर चर्चा करेंगे। शुरुआत में ही यह समझ लेना ज़रूरी है कि गतिशीलता और यौनिकता, दोनों को ठीक से समझा नहीं जाता और इनका महत्व कम करके आँका जाता है, हालांकि दोनों का ही हमारे दैनिक जीवन में बहुत ज़्यादा महत्व होता है। लोग इन दोनों के बारे में अनुमान लगाते रहते हैं और प्राय: इन्हें बहुत ही सरल और एकआयामी सिद्धान्त समझ लेते हैं। यौनिकता को हम केवल सेक्स, विवाह और महिला व पुरुष के जेंडर की बाईनरी के रूप में देखते हैं। गतिशीलता के बारे में सोचते हुए हम इसे शरीर और क्षमता के सबसे सक्षम सिद्धान्त के रूप जानते हैं या फिर इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने के लिए किसी वाहन की उपलब्धता या उस वाहन के अपने पास होने को समझ लेते हैं।
अनुमान लगाना जोखिम भरा काम है क्योंकि अनुमान में किसी व्यक्ति को सीमाओं में बांध देने या पूरी तरह से रोक देने की क्षमता होती है, या फिर अनुमान लगाए जाने के कारण कोई व्यक्ति उस सहायता से भी वंचित हो सकते हैं जो उन्हें गतिशील बनाने के लिए ज़रूरी हो। यौनिकता के लिए भी यही बात बिलकुल सही है। किसी व्यक्ति की राह में अड़चन खड़ी कर उन्हें रोक देना, और उन तक सहायता न पहुँचने देना, उनके मानवाधिकारों, विशेषकर स्वतन्त्रता और समानता के अधिकारों का उल्लंघन होता है। अगर गतिशीलता और यौनिकता के अंतरसम्बन्धों पर एक साथ विचार करें, तो यह बहुत ही जटिल और पेचीदे प्रतीत होते हैं जिनमें व्यक्तित्व, व्यक्ति के संबंध, उसकी पहचान बनते हैं, टूटते हैं या बने रहते हैं, बदलते हैं या फिर निर्धारित भूमिकाओं में बंधे रहते हैं, और अगर इन पर कोई सवाल न उठाया जाए तो ये अपनी स्थिति में स्थायी हो जाते हैं।
अगर आप गतिशीलता की सैद्धांतिक तहों को खोलना शुरू करें तो आप पाएंगे कि अनेक मुद्दे आपके सामने आ खड़े होंगे। गतिशीलता किसी यात्री के करीने से लगाए हुए बैग की तरह नहीं होती जिसमें जुराबें सफाई से ऊपर के सिरे में रखी होती हैं, प्रसाधन का सामान आदि बिलकुल सही तरीके से किसी कोने में लगे हुए होते हैं। गतिशीलता तो बिलकुल लापरवाही से रखे बैग के समान होती है जिसमें जुराबें और अधोवस्त्र मिलते ही नहीं, जोड़ों के दर्द की द्वा किसी कमीज़ या साड़ी पर फैल जाती है और व्हीलचेयर को उस पर बैठे हुए व्यक्ति के साथ उठा कर सीढ़ियों के ऊपर तक इसलिए पहुंचाना पड़ता है क्योंकि व्हीलचेयर के लिए बनाए गए बहुत बढ़िया से रैम्प पर किसी ने ज़ंजीर लगा कर ताला डाल दिया होता है। यात्रा से जुड़े ये सब संभावित दृश्य गतिशीलता की केवल कुछ तकलीफ़ों और जटिलताओं को दर्शाते हैं।
ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि यौनिकता के प्रति सुरक्षित, समावेशी, सकारात्मक और स्वीकारात्मक दृष्टिकोण तैयार करने में गतिशीलता की क्या भूमिका हो सकती है? इसके लिए किन लोगों द्वारा, कौन से काम किए जाने ज़रूरी होंगे ताकि पूरे नज़रिए को दोबारा से इस तरह परिभाषित किया जा सके और ऐसी परिस्थितियाँ तैयार हो सकें जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से खुद की पहचान स्वतन्त्र भाव के व्यक्त कर सकें और बेरोकटोक कहीं भी आ जा सकें? भौगोलिक रूप से भी और समाज के भीतर भी सही मायने में गतिशील होने के लिए क्या करना ज़रूरी होगा?
सुनने में बड़ा विचित्र लगेगा, लेकिन धूप के चश्मे इन जरूरतों में से एक हैं, और ये धूप के चश्मे सूरज की चौंध से बचाव के लिए नहीं चाहिए! इन प्लेनस्पीक के पहले के अंकों लेखकों ने अपने विचार प्रकट करते हुए बताया है कि कैसे जो दिखता है वो असल में होता नहीं है। उन्होंने यौनिकता और गतिशीलता को समझने के अनेक नए तरीके के बारे में भी अपने लेखों में लिखा है। 2016 में लिखे अपने लेख में स्वपना वासुदेवन थम्पी लिखती हैं, “मैं हर रोज़ अपने कस्बे से मेट्रो शहर का सफ़र करती हूँ और इसके लिए मुझे एक धीमी ट्रेन लेनी होती है जिसमें ज़्यादातर सवारियाँ पुरुष होते हैं। [….] मैं सफ़र के दौरान सर से लेकर पैरों तक खुद को ढांपे रखती हूँ और अपने चेहरे से दोहरे आकार के एक बड़े से धूप के चश्मे से अपना चेहरा भी ढक कर रखती हूँ। मैं ऐसा क्यों करती हूँ? क्योंकि ट्रेन में यात्रा कर रहे अधिकतर पुरुष डिब्बे में मौजूद महिलाओं को ऐसे देखते हैं मानों इन महिलाओं को देखने का अधिकार उन्हें ट्रेन की टिकिट के साथ मुफ्त मिला हो”। इसी वर्ष सुरक्षित शहरों पर बात करते हुए एक इंटरव्यू में कल्पना विश्वनाथ ने गतिशीलता का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा, “मैं हमेशा यह कहती हूँ कि शहर में अकेले या फिर किसी को साथ लेकर, स्वछंद होकर घूम पाना (flaneuring) और उस शहर में ग्रहण करने लायक चीजों को अनुभव कर पाना, शहरों में जीवन जीने का एक अनूठा अनुभव होता है। हमें केवल यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी लोग इस तरह से शहरों में आज़ादी से घूम सकें। अगर ऐसा हो सके तभी हम कह सकेंगे कि शहर सुरक्षित हो गए हैं”। इससे पहले 2014 में, मानसी वाधवा ने प्रवास के बारे में – और गतिशीलता प्रवास का एक प्रमुख भाग होता है – अपने लेख में लिखा था, “पुरुष और महिला के जेंडर में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि महिला को विवाह के बाद प्रवास कर अपने पति के घर और उसके परिवार के साथ आकर रहना होता है। यहाँ महिला के प्रवास का अर्थ केवल उनका अपने रहने की जगह का बदलना ही नहीं होता बल्कि इसमें उस महिला का पूरा जीवन ही मानो पूरी तरह से बदल जाता है। उनका नाम बदल जाता है, उनकी वैवाहिक स्थिति बदलती है और समाज में उनकी भूमिका तक भी बदल जाती है। इस तरह, विवाह की प्रथा के चलते ही महिला के पहचान को दोबारा से निर्धारित कर देने की परंपरा शुरू हुई और इसे प्रथा का रूप दे दिया गया”।
यहाँ हम गतिशीलता और यौनिकता के विविध आयामों को एक दूसरे के साथ और अनेक दूसरे कारकों के साथ प्रतिक्रिया करते हुए देख पाते हैं। ट्रेन में बड़े आकार के धूप के चश्मे पहनना एक व्यक्तिगत रणनीति हो सकती है जिसे शायद गतिशीलता या यौनिकता के बारे में इस तरह की अकादमिक चर्चा में शामिल न किया जाए! अलग-अलग माहौल में लोग अनेक तरह की रणनीतियाँ और तरीके अपनाते हैं, जिनकी पूरी फेहरिस्त तैयार करने के लिए शायद अलग-अलग क्षेत्रों जैसे टेक्नालजी और इंजीन्यरिंग, डिज़ाइन, नीति और योजना, विकलांगता, जेंडर, कानून, वास्तुविद्द, इन्फ्रास्ट्रक्चर, मानवाधिकार, और निस्संदेह पर्यटन और यातायात विशेषज्ञों की ज़रूरत होगी। उदाहरण के लिए, इंटरनेट पर हमें अक्सर इंटरनेट का इस्तेमाल कर अपने सवालों के उत्तर खोजने की इच्छुक महिलाओं द्वारा सुरक्षा और गतिशीलता के बारे में उठाए गए सवाल देखने को मिल जाते हैं। अब इंटरनेट भी अपने आप में कोई बहुत ज़्यादा सुरक्षित जगह तो नहीं है, लेकिन कम से कम यहाँ भौगोलिक गतिशीलता के लिए तैयार होने में सहायक मानसिक गतिशीलता तो मिल ही जाती है। फिर इसके अलावा बहुत से सामाजिक-सांस्कृतिक कारक हैं और पितृसत्तात्म्क व्यवस्था में अपने शक्ति का उपयोग या दरुपयोग भी देखने को मिल जाता है जिसके कारण अलग-अलग जेंडर और यौनिक पहचान के लोगों की ज़िंदगी प्रतिबंधित हो जाती है।
गतिशीलता के बारे में बात करते हुए, इसी दिशा में एक और विचार यह आता है कि गतिशीलता हमारे सोचने के तरीके से भी प्रभावित होती है। अगर किसी व्यक्ति के मन में घर कर गए उसके विचार और सोच बदल नहीं सकते, या फिर आपसी सम्बन्धों में लोग एक दूसरे के तरीके से सोचने को तैयार न हों, तो इस दुनिया में भले ही हम कितने भी गतिशील क्यों न हों, मुद्दों को सुलझाने की दिशा में हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। इंटरनेट पर लोगों द्वारा ऑनलाइन लिखी ऐसी अनेक कहानियाँ देखने को मिलती हैं जब उन्होंने अपने जीवन के कोई विशेष दिन, अपने विवाह का दिन अपने सबसे अच्छे मित्र के साथ मनाया और उनका यह मित्र और कोई नहीं, लंबे बालों, पंजों और पुंछ वाला उनका पालतू जानवर था। कभी-कभी ये लोग अपने परिवार को ‘छोड़कर’ जाने पर अपने इस मित्र को परिवार के पास छोड़ने की मजबूरी पर दुखी होते हैं तो कभी कुछ लोग पूरी दुनिया को गर्व से बताते नज़र आते हैं कि कैसे उनका यह प्रिय मित्र, उनके विवाह के बाद भी उनके साथ ही रहेगा, क्योंकि विवाह की शर्तों में उन्होंने पहले से ही ऐसा सुनिश्चित कर लिया गया है। यह कहानी का एक पहलू है, और फिर इसका एक दूसरा पहलू भी है। प्रताड़ित करने वाले किसी वैवाहिक संबंध में या अन्य किसी संबंध में से बाहर निकल पाने की किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्षमता के इस दूसरे पहलू पर बहुत कम विचार किया जाता है। ऐसा कोई व्यक्ति इस तरह के वैवाहिक संबंध में से कैसे बाहर निकल सकता है और निकलने के बाद भी वह कहाँ जा सकता है अगर उसके साथ कोई उस पर आश्रित पालतू जीव हो? पति-पत्नी या साथी द्वारा अथवा घरेलू हिंसा होने पर तो इन लोगों की आश्रित संतान की ओर उनके भले को देखते हुए पूरी सहानुभूति, समानुभूति से ध्यान दिया जाता है, लेकिन आश्रित पालतू जीवों पर इस तरह का कोई ध्यान किसी का नहीं जाता। कई बार यही जीव किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह के सम्बन्धों से बाहर न निकल पाने के कारण भी बन जाते हैं। इस तरह की या ऐसी ही दूसरी परिस्थितियों में, ऐसे जीवों के प्रति सोच को बदलने के लिए किस तरह की कोशिश की ज़रूरत होगी? कई देशों में इन बातों पर किए गए पैरवी प्रयासों के कारण यह मुद्दे प्रकाश में आए हैं। यहाँ तक कि प्रताड़ित करने वाले सम्बन्धों में पालतू जीवों के लिए कानूनी संरक्षण देने की व्यवस्था भी हुई है। अमरीका में इसका एक उदाहरण देखने में आया है जहाँ पिछले ही वर्ष, Pets and Women Safety Act (PAWS) पास किया गया, इस पर कानून बना, और अब पालतू जीवों को भी कानूनी संरक्षण दिया जाता है। इस कानून में यह प्रावधान है कि, ‘किसी पालतू जीव के लिए सुरक्षा दिए जाने के आदेश का उल्लंघन करने के इरादे से राज्य की सीमा से बाहर जाने वाले लोगों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही होगी’।
केवल तर्क देने के लिए ही सही, दुनिया के अलग-अलग देशों और संस्कृतियों में मनुष्य की तुलना में जानवरों को दिए जा रहे महत्व को लेकर भी मुद्दा उठाया जा सकता है। लेकिन यह भी सही है कि लाखों करोड़ों लोगों और जीवों के लिए मनुष्य और जानवर के बीच की यह मित्रता राजनीति, जेंडर, भौतिक सीमाओं और संस्कृतियों से परे होती है। अगर आप इन्स्टाग्राम पर खोज करें तो पाएंगे कि दुनिया में जितने लोग अपने बच्चों के साथ बाहर घूमने, कैंपिंग करने, ड्राइविंग करने, पैदल चलने, साइकल चलाने, नौका विहार करने, या पहाड़ों पर चढ़ने के लिए निकले होंगे, लगभग उतने ही लोग अपने पालतू कुत्तों, बिल्लियों और कभी-कभी तो बतखों के साथ इन्हीं कामों के लिए घर से बाहर होंगे। किसी आपदा में या मुश्किल स्थिति में पालतू जानवरों के मनुष्यों के साथ फंस जाना भी ऐसी ही परिस्थितियों के उदाहरण हैं जिनके कारण आपदा आने पर भी गतिशील हो पाने की क्षमता प्रभावित होती है। इस संदर्भित लेख से पता चलता है कि कैसे ‘न्यू ओर्लेयंस के बहुत से निवासियों ने कैटरीना तूफान के समय अपने घरों से सुरक्षित निकाले जाने के लिए केवल इसलिए मना कर दिया था क्योंकि वे अपने पालतू जानवरों के साथ ही रहना चाहते थे, क्योंकि सुपरडोम जैसे आश्रय स्थलों में जानवरों को ले जाने की मनाही कर दी गयी थी’।
आपदाएँ और नाटकीय गतिविधि का मंच तब भी बन जाती हैं जब आपदा के स्थान से लोगों के बच कर निकल पाने की असमर्थता अलग-अलग लोगों को अलग तरीके से प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, हिन्द महासागर में 2004 में आई सुनामी के बाद ऐसी खबरें मिलीं कि घरेलू हिंसा और यौन आक्रमण या रेप की घटनाओं में बहुत अधिक वृद्धि देखी गयी थी। “शोधकर्ताओं द्वारा दिए गए श्रीलंका के उदाहरणों में महिलाओं के साथ हिंसा ओर मारपीट किए जाने की घटनाओं की जानकारी मिली क्योंकि इन महिलाओं ने अपने पति द्वारा अपने गहनों को बेचे जाने का विरोध किया था। इसके अलावा सुनामी राहत कोश से मिले पैसों का गलत इस्तेमाल किए जाने और पिताओं द्वारा अपनी संतान की मृत्यु के लिए माँ को दोषी ठहराने की खबरें भी इन उदाहरणों में शामिल हैं। एक एनजीओ ने बताया कि सुनामी आने के बाद उनके पास लाए जाने वाले मामलों में तीन गुना वृद्धि हुई थी।” जेंडर एंड डिसास्टर नेटवर्क (GDN) ने अपनी वैबसाइट पर विशेष रूप से LGBTQI लोगों का ज़िक्र करते हुए कहा कि ये लोग उपेक्षित होने के कारण विशेष रूप से संवेदनशील हैं और आपदाओं के बाद राहत कार्यों के दौरान इन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस नेटवर्क ने कहा कि, “GDN का लक्ष्य है कि यह यथासंभव समवेशी हो। यह नेटवर्क, जब भी संभव हो पाएगा यहाँ अतिरिक्त LGBT+ संसाधन जोड़ेगा”। संसाधन और सेवाएँ देने वाले अनेक प्रदाताओं ने अब इस तरह की परिस्थितियों में समावेशी होने और सुरक्षा के मानकों को अपने काम में शामिल करना शुरू कर दिया है। ये ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें पहले से ही गतिशीलता की कमी वाले लोगों और समुदायों की गतिशीलता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके उदाहरण स्वरूप एक प्रशिक्षण वर्कशॉप का विवरण और किसी आपदा के दौरान यौन हिंसा की घटनाओं के बारे में प्रस्तुत फ़ैक्टशीट इसके उदाहरण हैं।
गतिशीलता और यौनिकता के विभिन्न आयामों का हिसाब रखने के लिए बहुत ज़्यादा समय, ज्ञान, संसाधनों, स्थान और ऊर्जा की ज़रूरत होगी जो कि इस लेख में कर पाना संभव नहीं है। लेकिन लेख के अंत में अपनी ओर से निष्कर्ष निकालते हुए समापन विचार के तौर पर मैं यह कहना चाहती हूँ कि इस विषय पर विस्तृत समझ बनाने का सबसे बेहतर तरीका होगा कि हम एक बार फिर से अपने बचपन की ओर पलट कर देखें। किसी भी अपवाद के बिना, इस ग्रह पर रह रहे हर व्यक्ति ने बचपन का अनुभव किया है। अपने मन में सहानुभूति, दया तथा विचारों और भावों का लचीलापन के लिए अपने बचपन को आधार बना कर देखने और अपने जीवन के विविध अनुभवों पर फिर से विचार कर पाने का अच्छा अवसर हमें खिलौनों से मिल पाता है। केवल ‘नीला रंग लड़कों का और गुलाबी लड़कियों का, लड़कों को इंजिन पसंद हैं तो लड़कियों को गहने’ वाली सोच से अगर बाहर निकलकर देखा जाए तो ये खिलौने हम मनुष्यों के बारे में बड़ा ही समावेशी नज़रिया प्रस्तुत करते हैं, जिसमें मनुष्य की तमाम शरीर, सम्बन्धों और व्यक्तित्व की विविधताओं को स्वीकारा जाता है। हमें इस तरह की और अधिक रचनात्म्क सोच और विचारों की ज़रूरत है। रचनात्मकता भी अपने आप में एक तरह की गतिशीलता ही है, क्योंकि रचनात्मक होने के लिए किसी भी व्यक्ति को अपनी सोच, भावनाओं, सम्बन्धों, कर्मों और खुद में लगातार परिवर्तन करते रहना होता है। इस विषय पर विचार करने, इनके समाधान खोजने वालों से इस लेख में और अन्यत्र दूसरे मंचों पर उठाए जा रहे इन प्रश्नों के रचनात्मक उत्तरों की अपेक्षा रहेगी।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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