सुंदरता – यह एक ऐसा शब्द है जो अक्सर मेरे ज़ेहन में आकर मुझे परेशान करता है और मुझे सोचने पर मजबूर करता रहता है, और विडम्बना यह है कि यह सुंदरता शब्द ही मेरे पसंदीदा जेंडर, मेरी यौनिकता और मेरी शारीरिक पहचान को स्वीकार करने और सशक्त महसूस करने में मददगार प्रमुख विचार भी है। ‘सुंदरता’ या ‘सौंदर्य’ के बारे में लोगों का प्रचलित दृष्टिकोण, उनके विचार, वर्तमान रुझान और प्रचलित संस्कृति मुझे हैरान करते हैं। इन सभी के कारण मुझे खुद को बहुत छोटा महसूस होता है, मुझे अक्सर चिंता होती रहती है और मुझे लगातार यह ख्याल आता है कि क्या सुंदरता से जुड़ा एक छोटा सा भी गुण क्या मेरे अंदर मौजूद है या नहीं, या फिर कि मैं क्या मैं ‘सुंदर’ हूँ। अपनी फेम (femme) क्विअर पहचान को स्वीकार करने से लेकर इस तरह के होने या कहें कि मैं जैसी हूँ वैसे खुद की पहचान करने में गर्व महसूस करने के इस सफ़र में मैं अपने उस सामर्थ्य और सत्ता को हमेशा ही पुन:परिभाषित करती रही हूँ, जिसके माध्यम से मैं अपने मन के सौदार्य के भाव को व्यक्त करती हूँ, स्वीकार करती हूँ और आबाद करती हूँ।
जहाँ तक मेरे व्यक्तिगत अनुभवों की बात है, यह बात पूरी इमानदारी के साथ कही जा सकती है कि सुंदरता के मानकों पर हम कभी भी पूरी तरह से खरे नहीं उतर सकते हैं। सुंदरता के मानक और इसके बारे में विचार सदा ही परिवर्तनशील रहे हैं – ये हर मौसम में, साल दर साल और हर दशक में बदल जाते हैं। सुंदरता के लगातार बदलते मानकों के अनुरूप खुद को ढाल पाना एक बड़ी चुनौती होता है, और बदलते मानकों के साथ-साथ गति बनाए रखना और खुद को बदल पाना उससे भी बड़ी चुनौती होता है। भले ही सौंदर्य के ये मानक और रुझान थका देने वाले हों पर इनकी आलोचना करते रहना अक्सर आपको अधिक सशक्त कर देता है। ऐसा करने से हमें इन मानकों को आत्मसात करने में मदद मिलती है और साथ ही खुद को सुंदर बनाए रखने के अपने प्रयासों से हम सुंदरता के इन मानकों को, अपने तरीके से सबके सामने प्रस्तुत कर सकते हैं। यह सब कुछ कह चुकने के बाद, मैं यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि इन मानकों के प्रति यह आलोचनात्मक विचार और खुद अपने बारे में आत्म-निरीक्षण मैं केवल उन्ही क्षणों में करती हूँ जब मैं पूरी तरह से अपनी ही दुनिया में होती है। तब मैं इस बारे में सोचने का अपना समय लेती हूँ। यह बात और है कि जब मुझे कहीं बाहर पार्टी में, किसी आयोजन में या सिर्फ़ बाहर घूमने जाने के लिए तैयार होना हो, तब उस वक़्त हमेशा मैं यह सोचती हूँ कि मैं क्या पहनूँ, मेरे पास कौन-कौन से कपड़े हैं और क्या जो मैं पहनूंगी, वो दूसरों को अच्छा भी लगेगा या नहीं…
समलैंगिक संसार में फेम या बॉटम (bottom) होने के नाते, मुझसे उम्मीद की जाती है कि मैं अपनी त्वचा को मुलायम रखूँ, मेरा रंग साफ़ दिखाई दे, मेरा बदन तराशा हुआ हो। मुझसे यह भी अपेक्षा की जाती है कि मेरा मन भी उस तरह से बनने और सँवरने का करता रहे जैसा कि मुझे होना चाहिए। कभी-कभी तो मेरी सुंदरता कि तुलना में मेरे बनने सँवरने के शौक को ज़्यादा पसंद किया जाता है। बहुत बार मुझसे कहा जाता है कि मुझे खुद को, खासकर अपने चेहरे को अधिक ‘सौम्य’ और मुलायम रखना चाहिए ताकि मर्दाना टॉप ‘गे’ पुरुष मेरी तरफ आकर्षित हों। बहुत बार मैंने अपने चेहरे को पूरी तरह से शेव किया है लेकिन ऐसा करना मुझे खुद को अच्छा नहीं लगता। ऐसा करके फिर मेरे मन में एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या मुझे अपने चेहरे को पूरी तरह से शेव करना इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि मुझे स्त्रीत्व के गुण दर्शाने का डर सताता है जो बचपन से ही मेरे मन में भर दिया गया था जब मैं लड़कियों कि तरह व्यवहार करती थी, बातें करती थी या लड़कियों की तरह चलती थी। मेरी शकल-ओ-सूरत के बारे में लोगों की टिप्पणी सुन कर मैं बहुत ज़्यादा सचेत हो जाती हूँ, और फिर घंटों तक मुझे अपने से ही घृणा होने लगती है। सबसे दुखदायी बात तो यह है कि मेरी सुंदरता के बारे में इस तरह की टिप्पणियाँ केवल गे पुरुष ही नहीं बल्कि मेरे अपने दूसरे फेम दोस्त भी देते हैं। तो ऐसे में समस्या यह नहीं है कि दूसरे लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं, समस्या यह है कि हमने और मैंने खुद ने भी सुंदरता के बारे में इस विचार को कितनी गहराई से आत्मसात कर लिया है।
फिर इसके अलावा मेरे पूर्वोत्तर भारत के होने के कारण मुझसे लोगों की अपेक्षाएँ और भी अधिक बढ़ जाती हैं। कभी-कभी तो मुझे बेनाम गे नेटवर्किंग साइट पर खुद के पूर्वोत्तर भारत से होने के बारे में बताने से डर भी लगता है। इसका एक कारण तो यह है कि मुझे लगता है कि ऐसा बता देने के बाद, आगे होने वाली बातचीत में मुझे एक व्यक्ति के रूप में जानने की बजाए मुझे एक वस्तु के रूप में देखा जाने लगेगा। दूसरा कारण यह है कि मैं उतनी गोरी, नाज़ुक सी, शांत ओर शर्मीली नहीं हूँ जैसा की पूर्वोत्तर भारत के फेम लोगों से उम्मीद की जाती है। तो यहाँ सौन्दर्य का बोध वास्तव में मेरी नस्लीय पहचान और मेरे संघर्ष से जुड़ा है। बहुत बार मुझे ऐसा लगता है और मैं यह सोचती हूँ कि अगर मैं उम्मीद के मुताबिक सुंदरता के सभी मानकों पर खरी उतरूँ तो शायद उन पुरुषों के साथ सम्बन्धों में, जिन्हें पाने की इच्छा मेरे मन में है, मेरी बात का अधिक वजन हो, या फिर मेरे और उस पुरुष के बीच के व्यवहार में मेरी बात अधिक मानी जाएजाए या फिर हम-बिस्तर होने के समय मेरी अधिक सुनी जाए। फिर मेरी यह कल्पना टूट जाती है और मुझे एहसास हो जाता है कि ऐसा नहीं है और शायद कभी हो भी नहीं सकेगा।
इसके अलावा एक और बात यह है कि सुंदरता के बारे में एक आम धारणा और दृष्टिकोण, जो कि मुझे पसंद नहीं आता, यह है कि किसी के सुंदर या आकर्षक होने या न होने का फैसला करने का अधिकार, या फिर कि क्या सुंदर है और क्या नहीं, ये फैसला करने का अधिकार पुरुषों को ही क्यों दिया जाता है। अगर देखा जाए तो सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करने वाले लोगों में अधिकांश संख्या महिलाओं की ही होती है, लेकिन क्या सुंदर है या किस में आकर्षण हैं, इसका फैसला पुरुषों की पसंद के आधार पर ही होता है। अगर देखा जाए तो आकर्षण एक दो-तरफा व्यवहार है जिसमें एक व्यक्ति प्रदाता है तो दूसरा उपभोक्ता या अगर उपभोक्ता है तभी प्रदाता का भी अस्तित्व है। लेकिन सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों में हम हमेशा यह देखते हैं कि महिलाएँ खूबसूरती बढ़ाने के उत्पादों का प्रयोग इसलिए नहीं करतीं कि वे एक खास तरह से दिखना चाहती हैं या महसूस करना चाहती हैं बल्कि इन विज्ञापनों में हमेशा दिखाया जाता है कि अमुक उत्पाद का प्रयोग करने से या तो पुरुष अधिक आकर्षित होंगे या फिर उन पर उम्र का असर दिखाई नहीं देगा। यहाँ ऐसा माना जाता है कि पुरुषों को जवाँ दिखने वाली त्वचा अधिक आकर्षित करती है और महिलाओं को कोशिश कर अपनी त्वचा को खूबसूरत और जवाँ बनाए रखना चाहिए, क्योंकि ‘पुरुष तो पुरुष ही हैं’ उन्हें तो जैसे ही कोई अधिक सुंदर और जवाँ औरत दिखाई देगी, वे आप से बेरुख हो जाएँगे। इस तरह के विज्ञापनों से पुरुषों के मन में भी यह सोच और गहरी हो जाती है कि उन्हे ही यह फैसला करने का अधिकार है कि किसी महिला को कैसा दिखना चाहिए, उनका पहनावा कैसा होना चाहिए। यह सब कितना अनुचित है। खुद को सुंदर दिखाने का, अपनी सुंदरता को बनाए रखने का जिम्मा हम महिलाओं पर होता है लेकिन अंत में, हमारे सुंदर होने या न होने का फैसला पुरुष ही करते हैं।
मैंने अक्सर अपनी ट्रांसविमेन मित्रों को यह कहते सुना है कि जेंडर आइडेंटिटी डिसऑर्डर सर्टिफिकेट (Gender Identity Disorder Certificate) लेने के लिए अगर किसी मनोचिकित्सक के पास जाएँ, या फिर जेंडर बदलाव के लिए किसी सर्जन के पास, तो सबसे पहला सवाल वे यही पूछते हैं कि, ‘क्या आप यह अपने बॉयफ्रेंड के लिए करवा रही हैं?’ इसके अलावा ऐसी बहुत सी महिलाओं के किस्से भी हैं जो केवल इसलिए सर्जरी करवाती हैं ताकि उनके पुरुष साथी की रुचि उनमें बनी रहे। कुछ महिलाओं को तो उनके पति, साथी या बॉयफ्रेंड, खुद ही ऐसा करवाने की सलाह देते हैं। एक दूसरी विडम्बना यह है की महिलाओं और फेम से यह उम्मीद की जाती है कि वे सजने-सँवरने में अपनी वक़्त और ऊर्जा, दोनों लगाएँ ताकि उन्हें देखने वाला कोई भी पुरुष देखता ही रह जाए और उसके मन में उन्हें पाने की लालसा जाग उठे, लेकिन फिर हम महिलाएँ एक ही के प्रति वफ़ादार भी रहें। अगर महिला के मन में उन सभी पुरुषों को पाने की इच्छा जागृत हो तो उन्हें ‘चालू’ समझा जाता है और उनका आदर खत्म हो जाता है। इतना ही नहीं, फिर वह चाहे कितनी भी सुंदर क्यों न लगें, पुरुष के मन में उनके प्रति आकर्षण भी समाप्त हो जाता है। लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा नहीं है। माना जाता है कि पुरुष की तो यह ‘स्वाभाविक प्रकृति’ ही होती है कि वो अधिक से अधिक महिलाओं की ओर आकर्षित होते हैं और उन्हें पाने की कोशिश करते हैं, और इसमें उनके लिए कोई शर्म की बात नहीं होती। और अगर ऐसे में कोई पुरुष, जिनकी खुद की साथी बहुत खूबसूरत हों और जिन्हें पाने के लिए दूसरे सभी पुरुष भी लालायित रहते हों मगर जिन्हें केवल वही भोग सकते हों, जब ऐसे पुरुष दूसरी महिलाओं के पीछे भागना जारी रखते हैं तो समाज में उनका आदर और भी अधिक बढ़ जाता है।
मुझे ऐसा लगता है कि हमसे हमेशा सजी हुई गुड़िया की तरह बने रहकर दूसरे पुरुषों को आकर्षित करते हुए भी अपने गिर्द संयम और पवित्रता बनाए रखने की उम्मीद लगाने से हमारे अन्तर्मन में भी कहीं न कहीं एक दोहरे व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। वहीं पुरुष के लिए एक सुंदर बीवी की ख़्वाहिश रखना और फिर अपनी पत्नी से यह उम्मीद करना कि वह केवल उसी के प्रति वफ़ादार रहे, इससे उनका खुद का अपने शरीर के प्रति विश्वास बढ़ता है और महिला के शरीर पर उनका हक़ होने का विश्वास और भी अधिक गहरा जाता है। फिर इसके अलावा, हम महिलाएँ भी तो यह पूछ सकती हैं कि कितने पुरुष हैं जो खुद को शारीरिक रूप से फिट रखने के लिए नियमित व्यायाम करते हैं या फिर खुद को संवार कर इसलिए रखते हैं, ताकि उनके साथी के मन में उनके प्रति आकर्षण बना रहे या फिर वे वैसे पुरुष के रूप में निखर कर आएँ जैसा कि उनके साथी की उम्मीद होती है। मुझे तो लगता है कि निखरे सँवरे और फिट रहने वाले ज़्यादातर पुरुष ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उन्हें खुद को स्वस्थ और अच्छा महसूस हो और वे एक ऐसा सुडौल शरीर बना सकें जैसा वो चाहते हैं। या फिर, हो सकता है कि वो समाज में अपने इश्कबाज़ (Casanova) होने के स्टेटस को बढ़ा सके और पहले से अधिक अपना सीना चौढ़ा कर चल सकें।
समलैंगिक पुरुषों मे से किसी को डेटिंग के लिए चुनते हुए मेरे मन में सबसे पहले उस व्यक्ति की शारीरिक बनावट, कद, वजन, त्वचा का रंग, नस्ल, जातियता और वर्ग जैसे विचार उभरते हैं। आजकल ‘फिट होने’, ‘जिम में बनाया हुआ सुडौल शरीर’, ‘रोग-मुक्त’ और ‘एचआईवी नेगेटिव’ होना अधिक चलन में है और इन गुणों को आकर्षक व्यक्तित्व के मानकों में भी जोड़ा जा सकता है। फिर इसके साथ-साथ, व्यक्ति किस तरह का काम करता करते हैं, उनकी अँग्रेजी कैसी है आदि भी कुछ प्रमुख गुण हैं जिनके आधार पर कोई पुरुष दूसरों के लिए आकर्षक बन सकते हैं। जबकि मेरे विचार से होना यह चाहिए कि व्यक्ति दिखने में कैसे हैं इसका साथ-साथ उनका समग्र व्यक्तित्व – उनकी शारीरिक बनावट, दुनिया के प्रति नज़रिया, उनकी आदतें (किंक), और दूसरों के साथ मेल बिठाने की योग्यता आदि पर ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। वे अधिकांश लड़के जिन्हे मैंने आजतक डेट किया है, वे दरअसल अच्छे दिखने और आकर्षक व्यक्तित्व के मेरे मानकों के अनुरूप नहीं रहे हैं। लेकिन इन पुरुषों को करीब से जानने के बाद और उनके कई दूसरे गुणों से प्रभावित होने पर ही उनके प्रति मेरा आकर्षण और अधिक बढ़ गया और मैं उन्हें आकर्षक पुरुषों की अपनी खुद की बनाई श्रेणी में शामिल कर पायी। इसलिए मेरा मानना है कि सौन्दर्य, केवल उन सभी गुणों में ही नहीं समाया होता जिन्हें हम आकर्षण के मानदंड मानते हैं बल्कि यह तो व्यक्ति की रचनात्मकता और उनके अन्य अनेक गुणों में भी निहित रहता है। हमेशा पुराने मानदंडों के अनुसार आकर्षक व्यक्ति का चुनाव करते रहना बोरिंग या उबाने वाला हो सकता है। इससे कहीं बेहतर है कि पुराने गुणों को साथ लेकर कुछ नया बनाया जाए। ऐसा करने से ही, जीवन में सही मायनों में सौन्दर्य पैदा होता है।
जहाँ तक क्विअर समुदाय का सवाल है, विषमलैंगिकता और इस विषमलैंगिक दुनिया की तुलना में हम क्विअर समुदाय के लोग हमेशा ही अलगाव कर देने, बहिष्कार और भेदभाव से दूर रहे हैं। हमारी पहचान का आधार ही यह है कि हम सामाजिक मान्यताओं को आँख मूँद कर स्वीकार नहीं करते और हमेशा उन पर सवाल खड़े करते रहते हैं। ऐसा करने से हम अपने मन को खोल पाने और विविधता को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं और उस तरह की समावेशिता बना पाते हैं जैसा कि सही मायने में ‘सामाजिक होने’ में होना चाहिए। आखिर इसी के लिए तो हम हमेशा से संघर्ष करते रहे हैं। ऐसा करने से ही हम लगातार विकसित होते रहने में सफ़ल रहते हैं। अपनी पसंद को ज़ाहिर कर देना ठीक है, उसमें कुछ गलत नहीं लेकिन मानकों को बढ़ा देना शायद गलत होगा। फ़ैशन की दुनिया में भी क्विअर लोगों को हमेशा अग्रणी इसीलिए माना जाता है क्योंकि हमने सुंदरता, जेंडर और यौनिकता के सभी पारंपरिक विचारों की अवहेलना की है। जीवन का सार विविधता, बदलाव और रचनात्मकता को स्वीकार करने में ही निहित है न कि सुंदरता की प्रचलित विचारधारा के अनुरूप मानकों को और ऊंचा, और अधिक बढ़ाते रहने में। क्विअर व्यवहारों में विनाश, विध्वंस इसलिए दिखाई पड़ता है क्योंकि क्विअर लोग इच्छा और आकर्षण के विषमलैंगिक मानकों को अनदेखा करते हैं। यह विध्वंस इसलिए नहीं दिखाई देता क्योंकि हम सुंदरता को अपने तरीकों से बनाते, पहचानते और स्वीकार करते हैं। कभी कभी तो मुझे यह लगता है कि विषमलैंगिकों की तुलना में समलैंगिक लोग ‘फ़ैशन पुलिस’ की भूमिका ज़्यादा निभाते हैं। कभी-कभी तो समलैंगिक समुदाय के लोगों के बीच मैं खुद को बहुत असहज और असुरक्षित इसलिए भी महसूस करती हूँ क्योंकि सौन्दर्य और आकर्षक दिखने के मामले में इस समुदाय के लोगों के मानक और मापदंड बहुत ऊंचे हैं और यहाँ लोग आपको इस नज़र से देखते हैं कि आपने कौन सा ब्रांड पहना है या कौन सा ब्रांड आप इस्तेमाल करते हैं। या फिर अपने प्रोफ़ाइल में ही कई बार वे बता देते हैं कि वे ’फेम’, ‘चब’ (‘chubs’) से मिलना जुलना पसंद नहीं करते – यह सब वाकई बहुत दिल दुखाने वाला होता है। इससे भी निश्चित और निर्धारित रूढ़िवादी भूमिकाओं (स्टीरियोटाइप्स) को बढ़ावा मिलता है। यह सब बहुत ही अमानवीय प्रतीत होता है जब आप उनके बनाए नियमों के अनुरूप नहीं होते – यह बिलकुल ऐसा ही है कि क्योंकि आप हमारे मानकों के अनुरूप नहीं हैं इसलिए आपको प्यार पाने और लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने का कोई हक़ नहीं है। हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी पसंद का इज़हार करें, लेकिन खुल कर ऐसा कह देना या किसी खास समूह के लोगों के प्रति अपनी घृणा या विरोध को दर्शाने से तो पहले से ही अलगाव और कलंक झेल रहे लोगों का जीवन और भी कलंकित हो जाता है।
मुझे तब और भी बुरा लगता है जब मेरे दोस्त मुझसे यह कहते हैं कि मैं देखने में फेम जैसी नहीं दिखती या मैं एक सुंदर फेम नहीं हूँ। वे मुझे कहते है कि मैं अपने शरीर के बालों को शेव कर लूँ और कभी-कभी तो मेरे लिए कुछ सौन्दर्य प्रसाधन और उपचारों का भी सुझाव दे देते हैं। यह सुनकर मुझे लगता है जैसे कोई मेरी बात नहीं सुनता या मेरी ओर ध्यान नहीं देता, शायद मेरे अंदर सौन्दर्य का वो भाव नहीं है या फिर मुझे खुद को सजा-संवारकर रखने का गुण नहीं आता। ऐसा सुनकर मुझे अपने पहने हुए उन कपड़ों और पोशाक को देखकर शर्म आने लगती है जिसे मैंने कुछ ही समय पहले बड़े चाव से पहना था और खुद को सबके सामने प्रस्तुत किया था। ज़्यादातर लोग आपको अनदेखा करते हैं, वे आपकी ओर देखने भी नहीं और आपको ऐसा महसूस करा देते हैं मानों आप अदृश्य हों। अक्सर जब लोग आपके स्टाइल, आपके तरीकों तो पसंद नहीं करते तो आपको मजबूरन अपने पहनावे अपने स्टाइल को बदलना पड़ता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने के कारण आपके मन में अपने प्रति हीनता का भाव आ जाता है और आप और अधिक विचलित होकर खुद से ज़्यादा घृणा करने लगते हैं। इस पर सुंदरता के लगातार बदलने वाले मानदंड आपकी इस उलझन को और अधिक बढ़ाते ही हैं।
सुंदरता के बारे में मेरा विचार यह है कि, ये वो भाव हैं जो मुझे प्रसन्न करते हैं कभी-कभी मुझे हैरान परेशान कर सदमे में भी डाल देते हैं। सुंदरता के बारे में सोचते हुए अनेक तरह की कल्पनाएँ और उम्मीदें मेरे मन में आती हैं और मुझे आश्चर्य भी होने लगता है। मेरे विचार से सुंदरता यह है कि मैं खुद अपने बारे में कैसा महसूस करती हूँ और दूसरों के सामने खुद को किस रूप में प्रस्तुत करना चाहती हूँ, दुनिया को मैं किस नज़रिए से देखती हूँ, आदि। यह लिस्ट लंबी है और नए विचार इसमें जुड़ते रहते हैं। और जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि आकर्षण और चाहत होने के अब तक के मानकों के अलावा, रचनात्मकता और नये प्रयोग करने का नाम ही सुंदरता है। हमें यह ध्यान देना होगा कि सुंदर दिखने और आकर्षण व आकर्षक होने के बारे में हमारे मन के ख्याल कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं – सुंदर और आकर्षक दिखने के हमारे कारण और हमारी जरूरतें क्या हैं? हमें अपनी इच्छाओं और प्राथमिकताओं को व्यक्त करने में प्रयोग की जाने वाली अपनी भाषा शैली का भी ध्यान रखना होगा, साथ ही अपने मज़ाक और चुटकुलों में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों की ओर भी ध्यान देना होगा। हालांकि यह बहुत आसान नहीं होता, पर अपनी खुद की नज़रों में सौन्दर्य बोध के विचारों के प्रति सजग रहना और उनका पालन करते रहना भी बहुत महत्व रखता है। हमें चाहिए कि आत्म-अभिव्यक्ति के अनेक दूसरे तरीकों को भी हम बढ़ावा दें। अगर मैं मुझे दिखाई देने वाले दृश्य से अनभिज्ञ हूँ तो मुझे चाहिए कि मैं उस दिखने वाली चीज़ के पीछे की प्रेरणा को जानने की कोशिश करूँ न कि सौन्दर्य और सुंदरता के अपने विचारों के आधार पर मैं उस दिख रहे दृश्य को ही गलत कहना शुरू कर दूँ। जब हम दूसरों में विविधता और उनके नज़रिए से देखने लगते हैं तो ऐसा करने से हमें खुद अपने को बेहतर रूप में देख समझ पाने और पसंद करने का अवसर मिलता है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने खुद के बारे में और अपने शरीर को लेकर असुरक्षा की भाव के साथ जी रहा है। दूसरों के दृष्टिकोण से देखना हमें इस बारे में मददगार हो सकता है। हमें चाहिए कि सुंदरता को, जीतने अधिक रूपों में संभव हो, परिभाषित होने देने दें। ऐसा करके हम अपने लिए और दूसरों के लिए भी, नयी संभावनाओं के द्वार खोल देंगे। अगर सौन्दर्य और सुंदरता को लेकर विचारों और नजरियों की भरमार हो भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है? इससे तो केवल दुनिया सुंदरता और अधिक ‘बढ़ेगी’ और लोगों को अधिक सुंदरता निहारने के अवसर मिलेगा। और अंत में, विषय आता है प्रेम की सेज पर भली-भांति अपना दायित्व पूरा करना का। सौन्दर्य और सुंदरता के हमारे मानक अक्सर हमारे मन में चिंता उत्पन्न कर देते हैं और इसी के कारण प्रेम के क्षणों में भी आनंद का एहसास खत्म होने लगता है। अगर हम इन चिंताओं और उम्मीदों के बारे में सोचना कुछ कम कर दें और इसकी बजाय सौन्दर्य के प्रति अपने विचारों को बढ़ाकर, विविधता में सुंदरता ढूंदने लगें और उसका अनुभव करें, तो मुझे लगता है कि हमारे बेडरूम में प्रेम की सेज हमेशा उन्मादित करतल ध्वनि करती रहेगी जो कि शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
Cover Image: (CC BY-SA 2.0)
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