मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है, यौनिकता। यौनिकता केवल शारीरिक या भौतिक स्तर पर ही सीमित न होकर हमारी सोच, अभिव्यक्ति और व्यवहार नीतियों को भी संबोधित करती है। क्योंकि मनुष्य केवल सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक आदि न होकर लैगनिक भी होता है, इसलिए यौन संबंध में रुचि हमें लुभाती है और आकर्षित करती है। हमारे भीतर कहीं न कहीं इस विषय से जुड़े अनेक सवाल उठते है, इससे रूबरू होने की चाहत भी होती है और इसके समक्ष होने वाली परेशानियां भी उभर कर आती हैं। समाजशास्त्र का यह मानना है कि समाज में यौनिकता हमारी सामाजिक संस्कृति से प्रभावित होती है। हमारी तृष्णाएं, अभिलाषाएं और यौन व्यंजना का चुनाव सामाजिक परत करती है। तो यौन ऊर्जा जो की हम सभी में विभिन्न रूप से विद्यमान होती है, वह ऊर्जा कितनी स्वैच्छिक व् स्वतंत्र है, कितनी सामान्य या असामान्य है और कितनी पितृसत्तात्मक समाजीकरण की अधीन है? यौनिकता को व्यक्त करने के क्या आयाम है? क्या पुरुष और महिलाएं सामाजिक संगठन से बाहर निकल अपनी अपनी यौन अभिव्यक्ति कर पाते हैं? हमारा समाज जिस पर सभी कुछ सिमित और आश्रित है, क्या वह समाज हमारा सहारा है या हमारे आड़े है?
समाज की विभेदक व्यवस्था की नारीवाद और अन्य प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने निःसंकोच निंदा की है। १९७० के दशक से नारीवाद विचारधारा ने सम्पूर्ण विश्व में अपनी जगह स्थापित की है, जिसके फलस्वरूप समाज और संस्कृति का अवलोकन हुआ। नारीवाद विचारधारा ने यौन इच्छा को पितृसत्तात्मक सामाजिक अवधारणाओं और भेदभाव से मुक्त करने की परस्पर कोशिश की है। जब सन् १९७९ में मथुरा बलात्कार कांड में आरोपियों को बरी किया गया था, तो उसकी आलोचना में उच्चतम न्यायालय को खुली चिट्ठी लिखी गयी थी। चिट्ठी में इस बात का प्रखर उल्लेख था कि उत्पीड़ित महिला का यौन इतिहास किसी भी तरह की कानूनी प्रक्रिया में बाध्य नहीं हो सकता। लेकिन साल २०१७ में अदालत के दो निर्णय – मोहम्मद फारूकी बनाम स्टेट ऑफ़ दिल्ली और जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी सामूहिक बलात्कार कांड में फिर से आरोपिओं को बरी कर दिया। इन घटनाओं में सवाल पीड़ित महिलाओं के चरित्र, घटना के वर्णन पर किये गए और इंकार या सहमति पर संशय जताया गया। बात गोलमोल होकर वहीं आ गयी जहाँ से शुरू हुई थी। संवैधानिक संस्थाएं, हमारे कानून या न्याय के पैमाने अभी भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की दृष्टि से स्त्री जाति का चिंतन करते है। क़ानून के समक्ष सज़ा का पात्र वो होता है जिसके विरुद्ध सबूत होता है, चूँकि यौन हिंसा को साबित करना कठिन है तो कारण औरत के चरित्र से निकाला जाता है। इसीलिए वैधानिक या कानूनी संस्थाएं यौन सम्बन्ध को वैध या अवैध; हाँ या ना; गलत या सही; नैतिक या अनैतिक के दायरे तक ही समझ पाती है।
प्रत्येक महिला अपने निजी जीवन का संचालन अपने मनोरथ से कर सकती है। हमारे यौन जीवन का आधिपत्य हमारी स्वेच्छा और रज़ामंदी से हो न कि कानून या पितृसत्तात्मक विचार। महिला आंदोलन ने सामाजिक संरचना में पितृसत्तात्मक मानसिकता को उभारा जिससे महिलाएं दबाव और पैतृक और पारिवारिक दायरे से बाहर आकर स्वाभाविक बन सके। परन्तु ३ दशक बाद भी स्वैच्छिक यौन अभिव्यक्ति के सामने अभी कई चुनौतियां मौजूद है। आज भी सम्मान हत्या या “ऑनर किलिंग” हमारे समाज की सच्चाई एवं समस्या दोनों है। धर्म, जाति, समुदाय आदि इन सभी की सीमाएं महिला की यौन इच्छा को नियंत्रित की जाती है। उदाहरण के तौर पर अगर हम देखे, समाज में बदज़बानी के लफ्ज़ या गाली–गलौज में महिला पर यौनिक प्रहार किया जाता है।
सामाजिक और नैतिक संलेख के अनुसार महिलाओं की अभिव्यक्ति संकुचित, सीमित और शक्तिहीन होनी चाहिए। लेकिन, वही समाज यौनिकता और कामवासना के आधार पर विज्ञापन, सार्वजनिक सूचना या इश्तेहारों में औरत को वस्तुनिष्ठ करता है। यह सोच दोगली है, जिसका खामियाजा औरत की अभिव्यक्ति ढोती है।
जब परिस्थिति आपके अभिमुख न हो एवं सामाजिक संस्थाएं और उनके तौर–तरीके आपकी इच्छा का अवरोध करते हो, तो हमारे विकल्प क्या है? इस समाजीकरण और संलेख से बाहर निकल कर, क्या इच्छाएं पूर्ण रूप से फलीभूत होती है ? क्या पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध करने से हमारे आसपास की व्यवस्था में रमी पितृसत्तात्मक सोच भी ख़त्म की जा सकती है? इसकी व्याख्या और विवरण हमें हमारे अंतरंग संबंधों के द्वारा मिल सकता है। हमारे निजी सम्बन्ध भी अक्सर नियंत्रण और इख्तियार पर चल रहे होते है। ऐसी स्थिति में निजी रिश्ते विषैले और मानसिक या भावुक हिंसा से ग्रस्त होते है, जो हमारे अभिमान को परस्पर चोट करता है। स्त्रीवाद के संघर्ष द्वारा हम सार्वजनिक रूप से औरतों के हक़ की बात करने में समर्थ हुए है पर अभी भी निजी जीवन में यौन सम्बन्ध के ऊपर सुनना, बोलना और समझाना बाकी है। इसलिए भारत अभी भी वैवाहिक बलात्कार को कानूनी तौर पर अंगीकार नहीं करता है। ऐसी परिस्थिति में लिव –इन रिलेशनशिप्स या विवाह से बाहर बने रिश्तों में यौन उत्पीड़न को समझने की क्षमता और भी कम हो जाती है।
समाज और यौनिकता के टकराव को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है कि सामाजिक नीतिमत्ता को दोबारा सजीव किया जाये। समाज, कानून और रिश्ते ऐसे हो जो सम्यक रूप से सचेत यौनिकता का समर्थन करे। महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा के बढ़ते हुए आंकड़े, सामाजिक न्यायनीतियों और कानून की विफलताएं दर्शाता है। जब तक समाज विचार शक्ति से नहीं बदलेगा तब तक समाज को किसी विरोध या कानून से भी नहीं बदला जा सकता। सख्त कानून या सामाजिक नियंत्रण सिर्फ कुछ समय के लिए भय उत्पन्न कर सकता है लेकिन स्वतंत्र सोच नहीं।