आजकल, मैं अपनी खुद की देखभाल करने के प्रति ज्यादा सचेत हो गई हूँ और मैंने खुद का ध्यान रखने पर अधिक महत्व देना शुरू कर दिया है। मैं हर रोज़ नियमित रूप से खुद के लिए समय निकालना नहीं भूलती। मेरे मोबाईल फोन पर कैलंडर मुझे बार-बार अलग-अलग तरह से अपने लिए समय निकालने की याद दिलाता रहता है। कभी यह मुझे एक कविता पढ़ने के लिए कहता है तो किसी और दिन मुझे अपने किसी प्रियजन को एक पत्र लिखने के लिए प्रेरित करता है (ऐसा होने पर किसी दिन जब मेरा मन प्रसन्न होता है तो मैं खुद अपने आप को ही पत्र लिखती हूँ)। अपनी खुद की देखभाल करने, आत्म-प्रेम और शारीरिक छवि के महत्व को समझने के पहले से भी एक काम ऐसा है जो मैं हमेशा से करती आ रही हूँ, और वह काम रहा है खुद को संवारने की कोशिश करते रहना।
व्यक्तिगत रूप से, खुद को संवारने को भी मैं स्वयं की देखभाल करते रहने के रूप में ही देखती हूँ। खासकर आज के इस उपभोक्तावाद के समय में, जबकि कीमतों में और सौन्दर्य के मानकों में लगातार तेज़ी से वृद्धि हो रही है। किसी नए अंदाज़ में बाल कटवा लेना, नए तरह के झुमके पहनना, होंठो पर चटक रंग की लिपस्टिक लगाना या फिर वैक्सिंग कराए बिना भी ऊंची स्कर्ट पहन कर भी पूरे आत्माविश्वास के साथ बाहर निकलना – ये सब काम, वास्तव में खुद से प्रेम करने और अपनी देखभाल करने के ही क्रांतिकारी परिचायक हैं।
यह सही है कि खुद के व्यक्तित्व को सँवारने के लिए हम जो कुछ भी कोशिशें करते हैं, उन पर बहुत हद तक हमारे सामाजिक वर्ग, जाति, धर्म, यौनिकता के रुझानों और दूसरे कई कारक प्रभाव डालते हैं। मेरी क्लास में ही पढ़ने वाली मेरी एक सहपाठी नें मुझे एक बार बताया था कि कैसे उसे 15 साल की उम्र से ही अपने आईब्रो की थ्रेडिंग करवानी शुरू करनी पड़ी थी क्योंकि बदन पर बुर्क़ा ओढ़ लेने के बाद चेहरे पर केवल ‘आईब्रो’ ही नज़र आते थे इसलिए उनका अच्छा दिखना ज़रूरी था। उस समय मुझे उसकी यह बात ज़्यादा समझ में नहीं आई थी और मुझे लगा था कि हो न हो, वो ज़रूर किसी तरह के ज़ुल्म का सामना कर रही है। यह तो बहुत बाद में मुझे समझ आया जब दसवीं कक्षा में मुझे उसने बताया कि ब्यूटी पार्लर से सँवर कर बाहर निकलते समय उसे बहुत अच्छा महसूस होता है। उस समय 17 वर्ष की उम्र में भी मेरे आईब्रो बहुत घने हुआ करते थे और तब अचानक मेरे मन में उसके उत्पीड़न पर दया की बजाए उसके सुंदर आईब्रो देख कर ईर्ष्या का भाव पैदा होने लगा था। तब मुझे एहसास हुआ कि कैसे एक छोटा काम भी, एक ही समय पर, व्यक्ति को आत्मबल भी दे सकता है और वहीं उसे शर्मिंदगी की ओर भी धकेल सकता है।
मुझे याद है कि जब मैं कॉलेज में थी, तब अपने एक पहचान वाले से मेरी बातचीत हुई थी। यह व्यक्ति नियमित तौर पर पुरुषों के पार्लर जाया करता था। उसनें ही मुझे उत्तरी दिल्ली में एक पार्लर के बारे में बताया जहाँ वह अक्सर अपनी दाढ़ी मूंछ बनवाने और दो महीने में कम से कम एक बार चॉकलेट फेशियल करवाने जाता था। वहाँ वह अपने आईब्रो की थ्रेडिंग भी करवाता था। उसनें कहा था, ‘मुझे गलत मत समझना, मैं कोई ‘गे’ या समलैंगिक नहीं हूँ, मुझे तो सिर्फ अच्छा दिखना पसंद है’। उसकी ये बातें सुनकर मैं बिल्कुल भौचक्की और आवाक रह गई थी। मुझे समझ नहीं आया था कि अच्छा दिखने और एक व्यक्ति की यौनिकता में आखिर क्या संबंध हो सकता है। मुझे ऐसा लगा कि दूसरी अनेक बातों की तरह खुद को सँवरना भी न सिर्फ एक जेंडर बल्कि एक यौनिक पहचान भी होती है। लगभग उन्ही दिनों मैंने पहले-पहल ‘मेट्रो-सेक्शुअल’ शब्द भी सुना था और उस समय तो मुझे यही लगा था कि शायद लोग समलैंगिक लोगो के प्रति अपने मन के द्वेष को छुपाने के लिए ही इस भारी-भरकम साहित्यिक शब्द का प्रयोग करते हैं। ये बिल्कुल ऐसा ही था मानो आपको यह सिद्ध करने के लिए कि आप विषमलैंगिक हैं, एक सीधे सपाट चेहरे और सीधे छाँटे गए आईब्रो रखने की ही जरूरत थी।
जिस तरह महिलाओं के लिए सजना सँवरना और पुरुषों का सँवरने पर ध्यान न देना, सामान्य समझा जाता है वैसे ही किसी पुरुष के सँवरने पर ध्यान देने या महिला के खुद पर ध्यान न देने को भी अपवाद माना जाता है। मैं जब भी पार्लर जाती हूँ (जो कि अक्सर अनियमित और लंबे समय के बाद होता है), वहाँ मुझे अक्सर एक लंबा लेक्चर सुनने को मिलता हैं कि मेरी बगल के बाल कितने ‘ज़्यादा’ हो गए हैं या फिर कि मेरे चेहरे पर सफ़ेद झाइयाँ और मुहाँसे हो गए हैं जिससे मेरा चेहरा ‘खराब’ दिखने लगा है। पार्लर में मुझे कहा जाता है कि मेरे चेहरे पर आ गई कालिमा को हटाना बहुत ज़रूरी हो गया है और मुझे ‘कम सांवला दिखने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी’। मुझे ऐसा लगने लगता है मानो मेरा साँवलापन एक तरह की “छूत की बीमारी” है, जिसका उपचार अगर नहीं किया गया तो यह दूसरों को भी हो सकती है।
मुझे यह तो समझ में आ चुका है कि ब्यूटी पार्लर ऐसी जगह होते हैं जहां उपभोक्तावाद, पूंजीवाद और पितृसत्ता, एक जगह पर मिलते हैं और उनका यह संगम बहुत ही जटिल हो सकता है। पिछले सालों में एक अच्छी, सकारात्मक और मेरी शक्लों-सूरत पर कोई राय कायम न करने वाली जगह की तलाश में मैंने कई पार्लर आज़माये हैं, जहां मुझ पर कम बदसूरत दिखने से बचने के लिए ज़्यादा पैसे खर्च करने का दबाब न डाला जाए। यह अलग बात है कि दबाव पड़ने के बाद भी अपने पास उपलब्ध पैसों को खर्च करने या न करने का फैसला आखिरकार मेरा ही होता है। लेकिन फिर भी मुझे यह एहसास तो हो ही चला है कि ब्यूटी पार्लर ही वो जगह है जहां आपको आपकी शक्ल सूरत को लेकर सबसे ज्यादा शर्मिंदा किया जाता है या होना पड़ता है। अब यह बहुत विरोधाभास है क्योंकि आप पार्लर में इसलिए जाते हैं कि आप में ज़्यादा आत्माविश्वास आए| आप उम्मीद करते हैं कि पार्लर से बाहर आने पर आप बेहतर दिखेंगे आप खुद को बेहतर महसूस करेंगे और आपका आत्माविश्वास ज़्यादा हो जाएगा।
अभी कुछ बरस पहले (जब मैं अकेली ही थी), तो अपनी एक मित्र के विवाह से पहले, मैं बनारस के एक पार्लर में साड़ी बँधवाने और मेकअप करवाने पहुंची। वहाँ मेरी मदद कर रही महिला, मेरे पेट पर बालों को देखकर हतप्रभ रह गई। उसने मुझसे पूछा कि मैं अपने इन बालों की वैक्सिंग क्यों नहीं करवाती। मेरे यह बताने पर ‘कि मुझे इसकी जरूरत महसूस नहीं होती’, उसे तसल्ली नहीं हुई और उसनें मुझसे इसके बारे में और कई सवाल किये।
“मुझे यहाँ, अपने पेट पर बाल अच्छे लगते हैं। मुझे इन्हें देखकर अच्छा लगता है”, मैंने उससे कहा।
उसके चेहरे की भावों को देखकर लग रहा था कि मेरे इस जवाब से वह असहज महसूस कर रही थी ।
“तो क्या तुम्हारे बॉयफ्रेंड को तुम्हारे इन बालों से कोई आपत्ति नहीं होती”? उसने मुझे पूछा। (क्योंकि एक औरत होने के नाते, ज़ाहिर है कि मैं विषमलैंगिक ही हूँगी और मुझे एक बॉयफ्रेंड या फिर एक पति की तलाश भी होगी।)
“नहीं, मेरा अभी कोई बॉयफ्रेंड नहीं है”, मैंने उसे बताया।
“हाँ, और अब तुम्हें पता चल गया होगा कि क्यों नहीं है” उसने बड़े ही सपाट तरीके से कहा।
मुझे उस पार्लर वाली महिला की वो बात कभी नहीं भूलती। लेकिन उस बातचीत के बाद मैंने यह जान लिया कि दुनिया में अपने बारे में अच्छा महसूस करवाने वाले यदि कोई है तो वह केवल मैं खुद हूँ। यहाँ तक कि वो लोग जिन्हे मैं खुद को कुछ अलग दिख पाने में (अगर अधिक खूबसूरत नहीं तो) मदद करने के लिए भुगतान भी करती हूँ, वे भी इसमें मेरी कोई सहायता नहीं कर सकते। इस घटना के बाद तो खुद से प्रेम कर पाना मेरे लिए बहुत ही आसान हो गया क्योंकि अब मुझे समझ में आ गया कि अगर मैं अपने शरीर से खुद संतुष्ट नहीं हूँ – फिर चाहे मैंने वैक्सिंग करवाई हो या नहीं, मेरी त्वचा साँवली हो या गोरी, शरीर पर बाल हों या न हों, मैं पतली हूँ या मोटी या फिर मेरे चेहरे पर झाइयाँ ही क्यों न हों – तो शायद कोई भी दूसरा व्यक्ति मुझे अपने इस शरीर के बारे में संतुष्ट या आश्वस्त नहीं कर पाएंगे । और मैं ऐसा कभी होने नहीं दूँगी।
दीपा रंगनाथन: दीपा रंगनाथन खुद को एक अश्वेत, नारीवादी कथाकार, और एक बिल्ली और एक बच्चे की माँ मानती हैं। वे बंगलौर में रहती हैं और पढ़ने, लिखने, और दुनियाभर के युवा कार्यकर्ताओं की अनकही कहानियाँ सुनाने में ख़ास दिलचस्पी रखती हैं। हाल ही में बाल साहित्य की जादुई दुनिया के बारे में जानने के बाद वे अपना अधिकांश समय उसी में बिताना पसंद करती हैं।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित।
*Yrsa Daley-Ward के कथन से प्रेरित
Cover image: Pixabay
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