निवेदिता मेनन द्वारा काफिला के लिए लिखे लेख के कुछ अंश
गर्भपात और मादा भ्रूण के चयनात्मक गर्भपात के बीच का जटिल संबंध, एक दुविधा है, जिससे भारतीय महिला आंदोलन सन् 1980 के अंतिम वर्षों से जूझ रहा है। इस लेख में, मैं एक ऐसे सवाल को लेकर चिंतित हूँ जो अधिक परेशान करने वाला है, यह सवाल कि, उस स्थिति को कैसे समझा जाए जिसमें महिला स्वयं लिंग चयनात्मक गर्भपात का फैसला लेती हैं। मैं यहाँ नारीवादी बहस और सक्रियता की मुख्य रूपरेखा को दर्शा रही हूँ, जो करीब तीन दशकों से महिलाओं के अपने शरीर पर नियंत्रण के संदर्भ में नैतिकता और साधन या एजेंसी की जटिल समझ के चारों ओर परिक्रमा कर रही है। मैं इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण बताते हुए इस लेख को समाप्त करूंगी, जो ज़रूरी नहीं कि आंदोलन के दृष्टिकोण से मेल खाए।
हालांकि मादा भ्रूण के चयनात्मक गर्भपात का अभ्यास भारत और दुनिया के कुछ दक्षिण एशियाई समुदायों में ही सीमित है, पर इसकी उपस्थिति की संभावना ही नारीवाद के लिए एक बड़ा मौलिक संकट पैदा कर देती है। यह इसलिए, क्योंकि नारीवाद आम तौर पर शर्त रहित, सुरक्षित और कानूनी गर्भपात के लिए महिलाओं के अधिकार का समर्थन करता है। हम इसे आवश्यक इसलिए मानते हैं क्योंकि गर्भावस्था और बच्चों के पालन-पोषण से जुड़े सभी व्यावहारिक प्रयोजन महिलाओं की ही एकमात्र जिम्मेदारी हैं। इसलिए, हमें यह चुनने का अधिकार होना चाहिए कि कब और किन परिस्थितियों में हम एक बच्चे को दुनिया में लाना चाहेंगे, क्योंकि हमारे शरीर और जीवन में क्या होता है, इस पर नियंत्रण हमारा ही होना चाहिए। स्वयं के निर्णय लेने की क्षमता (सेल्फ़ डिटरमिनेशन) के लिए सुरक्षित और कानूनी गर्भपात का अधिकार, एक अनिवार्य अधिकार है।
भारत में सन् 1971 से ‘गर्भ का चिकित्सीय समापन, (एमटीपी) कानून’ लागू है जो गर्भपात को वैधानिक अधिकार का दर्ज़ा देता है। पर यह कानून नारीवादी चिंताओं या महिलाओं के लिए चिंता के कारण नहीं, लेकिन विशुद्ध रूप से जनसंख्या नियंत्रण की एक विधि के रूप में लाया गया था। भारत में गर्भपात दूसरी तिमाही तक वैध है, लेकिन यह चिकित्सीय राय के संपूर्ण अधिकार में है। एमटीपी अधिनियम के अध्ययन से पता चलता है कि गर्भवती महिला ऐसे ही यह नहीं कह सकती हैं कि यह एक अवांछित गर्भावस्था है। उन्हें ऐसे स्पष्टिकरण देने होंगे जो एमटीपी अधिनियम में सूचीबद्ध शर्तों के अनुरूप हों और यह तय करना, कि वह महिला, अधिनियम की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं या नहीं, केवल चिकित्सीय राय के प्राधिकार में है। चिकित्सीय विशेषज्ञों की यह राय कि गर्भावस्था महिला के जीवन के लिए एक खतरा साबित हो सकती है या उनके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर हानि का कारण हो सकती है या एक गंभीर रूप से विकलांग बच्चे के जन्म का काफ़ी जोखिम है। अधिनियम ‘गंभीर रूप से विकलांग’, ‘काफ़ी जोखिम’, ‘स्वास्थ्य’ जैसे शब्दों को परिभाषित नहीं करता है। यह चिकित्सक के विवेक पर छोड़ दिया जाता है कि वे इन शब्दों की व्याख्या कैसे तय करेंगे, हालांकि अधिनियम के दो व्याख्यात्मक लेखों से संकेत मिलता है कि बलात्कार के कारण (वैवाहिक बलात्कार को छोड़कर) और गर्भनिरोधक की विफलता के कारण (विवाहित महिला के मामले में) हुई गर्भावस्था को मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानि के रूप में देखा जा सकता है। वास्तव में, ‘स्वत: गर्भपात’ (मिस्कैरिज), ‘प्रेरित गर्भपात’ (इन्डूस्ड अबॉर्शन) और ‘गर्भ का समापन’ (मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेगनेन्सी) जैसे शब्दों को भी परिभाषित नहीं किया गया है जो इन मामलों पर चिकित्सा विशेषज्ञों की राय को ‘अविवादित’ बना देता है।
यह एक अलग मामला है कि एमटीपी अधिनियम के लागू होने के बावजूद, असुरक्षित गर्भपात की संख्या में वृद्धि जारी है और हर साल लगभग 20,000 महिलाओं की गर्भपात संबंधी जटिलताओं के कारण मृत्यु हो जाती है, जिनमें से अधिकांश अयोग्य कर्मियों द्वारा, अवैध रूप से किए जाने से होती हैं। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, चिकित्सा सुविधाओं और प्रशिक्षित कर्मियों की कमी है, और इसके अलावा, यह धारणा व्यापक रूप से मान्य है कि गर्भपात भारत में अवैध है। गर्भपात के वैधीकरण को, संक्षेप में, सुरक्षित और मानवीय गर्भपात सेवाओं द्वारा मज़बूत नहीं किया गया है।
लेकिन 1980 के दशक के बाद से, मादा भ्रूण के चयनात्मक गर्भपात के बढ़ते उदाहरणों के सामने इन मुद्दों का महत्व कम हो गया है। भारतीय नारीवादियों ने गर्भावस्था के दौरान लिंग परीक्षण को सीमित करने के कानून के लिए सफलतापूर्वक अभियान चलाया है। ‘गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994’ में प्रभाव में आया लेकिन जन्म के समय के लिंग अनुपात में गिरावट जारी है जो यह दर्शाता है कि लिंग का चयनात्मक गर्भपात अनियंत्रित रूप से जारी है। समस्या यह है कि नियमित रूप से गर्भावस्था की जाँच करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले परीक्षण, उदाहरण के लिए, अल्ट्रा साउंड, से भी भ्रूण के लिंग का पता चल जाता है। माता-पिता को यह जानकारी देना अब एक अपराध बन गया है, लेकिन यदि एक डॉक्टर ऐसा करते हैं, और महिला किसी अन्य क्लिनिक में जाकर गर्भपात करवाती हैं, तो दोनों के बीच की कड़ी का पता लगाना असंभव है। ‘असमान लिंग अनुपात’ के नाम से जाने जानी वाली सरकार की इस पहल ने ऐसे रूप ले लिए हैं जो तेजी से गर्भपात से जुड़ी सुविधाओं की पहुँच को प्रतिबंधित करने के खतरा बनते जा रहे हैं।
लिंग निर्धारण परीक्षण की निगरानी एक बात है, लेकिन गर्भपात की निगरानी करना एक बिल्कुल ही अलग मुद्दा है। पहले विषय में जो भी चुनौतियाँ हों, पर दूसरे विषय में खतरा कहीं ज़्यादा है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की मंत्री के रूप में रेणुका चौधरी द्वारा किए गए उपायों में से एक के तहत, सभी गर्भधारण रजिस्टर करना, और गर्भपात पर नज़र रखना अनिवार्य कर दिया गया है। लेकिन गर्भपात के लिए एक वैध कारण क्या है और इसको कौन तय करता है? भारत में ज्यादातर महिलाओं का सेक्स करने की परिस्थितियों पर कोई नियंत्रण नहीं होता, और अक्सर गर्भपात जन्म नियंत्रण का एक रूप हो जाता है। महिलाएँ अवैधता के कलंक के कारण भी गर्भपात करवाती हैं, या इसलिए कि वे एक और बच्चे के खर्च को वहन नहीं कर सकती हैं, या इसलिए क्योंकि वे अपने करियर के या जीवन के ऐसे चरण में हैं जहाँ वे एक और मानव जीवन की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकती हैं। क्या यह निर्धारित करने का अधिकार कि, गर्भपात करने के लिए कौन सा कारण वैध कारण है और कौन सा नहीं, गर्भपात की निगरानी कर रहे सरकारी अधिकारियों को होगा?
यहीं हम कुछ बहुत कठिन मुद्दों पर आते हैं, जिनको संबोधित किया जाना आवश्यक है। सबसे पहले तो मुझे लगता है कि हम इन दोनों बातों को एक साथ नहीं रख सकते कि गर्भपात में महिलाओं का अपने शरीर पर अधिकार शामिल है और साथ ही यह कि महिलाओं पर मादा भ्रूण का गर्भपात करवाने पर कानून द्वारा विशेष प्रतिबन्ध होना चाहिए। लगता है, हम (वर्तमान) महिलाओं के अपने शरीर पर नियंत्रण करने के अधिकारों के खिलाफ पैदा होने वाली (भविष्य) महिलाओं के अधिकारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सही है कि भारत में बहुत सी महिलाएँ अपने पति के परिवर के दबाव के कारण लिंग आधारित गर्भपात करवाती हैं – यह कोई स्वेच्छा से किया गया चुनाव नहीं है। पर क्या गर्भपात कभी भी एक सकारात्मक विकल्प होता है? गर्भपात करने के लिए निर्णय लगभग हमेशा ऊपर उल्लिखित कारकों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं – अवैधता, बच्चों की देखभाल के लिए सामाजिक सुविधाओं की कमी के कारण महिलाओं पर अधिक बोझ होना, आर्थिक बाधाएँ, आदि। यदि इन आधारों पर एक भ्रूण के गर्भपात का फैसला एक महिला की स्वायत्तता को प्रतिबिंबित करता है, तो मादा भ्रूण का गर्भपात क्यों ऐसा नहीं करता। इस तरह के निर्णय में पितृसत्तात्मक समाज और श्रम के यौन विभाजन पर आधारित एक परिवार संरचना की कमी की भी कम भूमिका नहीं है। तो क्यों इन सभी अन्य परिस्थितियों में गर्भपात वैध है, लेकिन मादा भ्रूण का गर्भपात नहीं?
दूसरा, ‘भ्रूण असामान्यता’ का पता लगाने के लिए प्रसव पूर्व परीक्षण, जो वर्तमान में एक कानूनी विकल्प है, के प्रयोग पर हमारा विचार क्या है? यदि हम इसे वैध मानते हैं, तो हम शारीरिक विशेषताओं के आधार पर मनुष्य का एक पदानुक्रम स्वीकार कर रहे हैं, जिनके निचले स्तर पर आने वाले मनुष्यों को पैदा होने का अधिकार नहीं है। लेकिन तब यह तर्क अन्य श्रेणियों पर भी लागू किया सकता है जैसे महिला के रूप में जन्म लेना। इस दुविधा के लिए एक नारीवादी प्रतिक्रिया हो सकती है, यह तर्क रखना कि महिलाओं पर ऐसे बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी होती है, अत: उन्हें विकल्प मिलना चाहिए कि वे उन्हें जन्म देना चाहती हैं या नहीं। लेकिन तब समान तर्क लड़की के जन्म के बारे में दिया जा सकता है – लड़कों को जन्म देने का सामाजिक दबाव, पूरी तरह से, महिला पर होता है, अत: उन्हें एक मादा भ्रूण का गर्भपात करवाने का अधिकार होना चाहिए।
कठिन सवाल यह है : नारीवादियों के रूप में, क्या हम कहेंगे कि हर व्यक्तिगत महिला को हर भ्रूण को जन्म देने के परिणामों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए और यह कि गर्भपात की अनुमति तभी दी जानी चाहिए जब भ्रूण के बारे में कुछ भी न पता हो?
मैं ऐसे मामलों के लिए ‘दुविधा’ शब्द का प्रयोग करती हूँ क्योंकि इनमें शामिल नैतिक मुद्दों का एक आसान संकल्प असंभव है। बिना किसी संदर्भ के यह मान लेना कि, गर्भपात समर्थक या गर्भपात विरोधी स्थिति, अपने आप में नारीवादी है या नारीवादी विरोधी है, स्पष्ट रूप से बेबुनियाद है। अंतत: एक गर्भवति शरीर, समान अधिकार वाले दो व्यक्तित्व नहीं हैं, यह अपने आप में अनूठा है, जिसे व्यक्तिवाद की भाषा में संबोधित नहीं किया जा सकता है। अमूर्त रूप से, बच्चों को राष्ट्रीय संसाधनों के रूप में देखा जाता है, लेकिन वस्तुतः, श्रम के वर्तमान यौनिक विभाजन के अंतर्गत, उनकी माताओं द्वारा, दिन प्रति दिन, मिनट दर मिनट, उनका ध्यान रखा जाना चाहिए। बच्चों की देखभाल के लिए कोई भी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है – उदाहरण के लिए, सभी कर्मचारियों (न कि केवल महिलाएँ) के लिए बच्चों के देखभाल केन्द्र सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी, निश्चित रूप से, हर नियोक्ता की होनी चाहिए? ऐसी परिस्थितियों में, मेरे अनुसार, गर्भ के भविष्य का फैसला करने का अधिकार महिला का ही होना चाहिए। यद्यपि यह व्यक्तिगत महिला द्वारा लिया गया निर्णय है पर यह निर्णय सार्वजनिक और सामाजिक व्यवस्था और सीमाओं के द्वारा आकार में लाया गया है और प्रेरित है – निश्चित ही, सामाजिक जिम्मेदारियों की सामूहिक विफलता के कारण।
मादा भ्रूण के चयनात्मक गर्भपात के लिए कोई झट से काम करने वाला उपाय नहीं हो सकता है। सामाजिक व्यवहार, महिलाओं के अवमूल्यन को दर्शाता है, जिसे सुसंगत नारीवादी राजनीति से काबू करने की कोशिश करनी होगी। इस तरह की राजनीति को विवाह व्यवस्था का मुकाबला करना होगा, और अधिक महत्वपूर्ण रूप से, विषमलैंगिक पितृसत्तात्मक वैधता के संवाद में मातृत्व के आवश्यक स्तंभ सर्जन पर सवाल उठाना होगा।
एक आदर्श नारीवादी दुनिया वह नहीं होगी जिसमें गर्भपात मुफ्त और आम होगा, लेकिन वह जिसमें महिलाओं का गर्भावस्था पर अधिक नियंत्रण होगा, और जिसमें उन हालातों को बदल दिया गया होगा जिनमें गर्भधारण अवांछित हो सकता हो। तब तक, एक बेहद अपूर्ण, अनुचित और लैंगिकवादी (सेक्सिस्ट) दुनिया में, नारीवादियों को ही महिलाओं की कानूनी और सुरक्षित गर्भपात तक पहुँच की रक्षा करनी होगी, जब भी वे गर्भपात करवाना चाहें और उनके ऐसा करने के जो भी कारण हों।
दीपिका श्रीवास्तव द्वारा अनुवादित