नेटफ्लिक्स ब्राउज़ करते हुए अनायास ही मेरी निगाह में एक फिल्म आई, वॉट विल पीपल से ? मैं एक ऐसे सामाजिक माहौल में पली-बड़ी हूँ जहाँ हर किसी को दूसरों की, कि लोग क्या कहेंगे की, बहुत परवाह रहती है (अपना क्या विचार है, इसकी परवाह उतनी नहीं होती) और शायद इसीलिए फिल्म के शीर्षक के कारण मेरा ध्यान बरबस इसकी ओर गया और मुझे इसे देखने की उत्सुकता हुई। इस फिल्म का निर्देशन इरम हक नें किया है और इसकी कहानी आज के नॉर्वे और पाकिस्तान में स्थापित है। फिल्म में मुख्य किरदार किशोर उम्र की निशा है जिनके माँ-बाप पाकिस्तान से नॉर्वे आकर बस गए हैं।
निशा का किरदार किसी भी शहर में बड़ी हो रही एक किशोर उम्र की लड़की जैसा ही है, जो जीवन के कई पहलू समझने की कोशिश में लगी है। फिल्म के आरंभिक दृश्यों में निशा के किरदार के बारे में बताया गया है। निशा अच्छी तरह से यह समझती है कि भले ही उसके माता-पिता पाकिस्तान से नॉर्वे आ गए हों लेकिन वे अपनी संस्कृति, तौर-तरीकों और रीतियों को अब भी भूले नहीं हैं। खुद निशा भी नॉर्वे और पाकिस्तान की जीवन-संस्कृति के बीच बँटी हुई है और एक तरह से ‘दोहरा जीवन’ जी रही है, एक जो घर के बाहर है और दूसरा घर के अंदर। मैं खुद अब किशोर उम्र की नहीं रही लेकिन फिर भी मुझे खुद में और निशा के किरदार में बहुत कुछ एक सा लगता है। मेरे माता-पिता भी गाँव छोड़कर शहर में आ बसे थे, लेकिन वे यह भूल जाते थे कि मेरा जन्म और लालन-पालन यहाँ शहर की अलग संस्कृति और माहौल में हुआ था। इसीलिए मुझे निशा के इस दोहरे जीवन को जीने की बात पूरी तरह से समझ में आती है और मैं यह भी जानती हूँ कि खुद से की गयी अपेक्षाओं को नकारना आसान नहीं होता , खासकर अगर आप एक महिला हैं तो।
निशा की ज़िंदगी बड़े अच्छे से चल रही होती है कि अचानक एक दिन सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है जब उसके पिता निशा के दोस्त डेनियल को उसके कमरे में देख लेते हैं। इस एक घटना के कारण निशा के प्रति सबका नज़रिया बदल जाता है। अचानक निशा वो सब बन जाती है जो उसे नहीं होना चाहिए और इसीलिए उसके माता-पिता उसे ‘सुधारने’ के उद्देश्य से उसे वापिस पाकिस्तान में अपने कुछ रिश्तेदारों के यहाँ भेजने का फैसला करते हैं। निशा अपने माता-पिता का यह रूप देखकर हैरान-परेशान हो उठती है; वो उनसे मिन्ननतें करती है कि दोबारा ऐसी ‘गलती’ कभी नहीं करेगी, यहाँ तक कि वह एयरपोर्ट जाते हुए भी रास्ते में भाग जाने की कोशिश करती है। बदकिस्मती से कुछ भी उसके सोचे मुताबिक नहीं होता और उसे पाकिस्तान में उसके पिता की बहन के घर लाया जाता है। वहाँ निशा को छोड़कर जाते हुए उसके पिता उससे कहते हैं, “मैं यह तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूँ”। अब क्या यह बात आपको कुछ सुनी-सुनाई लगती है? मुझे तो लगती है! इस बारे में हम इस समीक्षा के आखिर में बात करेंगे। निशा के लिए पाकिस्तान में अपने रिश्तेदारों के पास रह पाना काफ़ी मुश्किल साबित होता है; वो नॉर्वे में अपने दोस्तों से संपर्क करने की कोशिश करती है लेकिन उसकी फूफी को इसकी खबर लग जाती है, और कुछ ही देर बाद, उसके फूफा निशा के पासपोर्ट को आग लगा देते हैं। इसके बाद निशा के सामने मन मारकर ‘वहीं रुकने’ के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।
अब निशा पाकिस्तान में अपनी फूफी के घर रह रही है और फिल्म आगे निशा और आमिर (निशा का चचेरा भाई) के आपसी रिश्ते को दर्शाती है। आमिर भी इसी घर में रहता है और धीरे-धीरे निशा और आमिर एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं। निशा बहुत समय के बाद खुश दिखती है। एक रात, निशा और आमिर चुपके से घर से बाहर निकलते हैं और पास में ही सड़क के एक सुनसान हिस्से मैं पहुंचते हैं। बदकिस्मती से वहाँ पुलिस उन्हें किस करते हुए देख लेती है। दोनों को प्रताड़ित किया जाता है, निशा को कपड़े उतारने के लिए कहा जाता है और उसका विडिओ रिकार्ड कर लिया जाता है। फिर इसके बाद पुलिस दोनों को घर वापिस लेकर आती है और घर में परिवार के लोगों को बताया जाता है कि पुलिस के पास निशा और आमिर की नंगी तस्वीरें और विडिओ हैं। इन तस्वीरों को आम न कर दिए जाने के बदले में पुलिस उनसे कुछ रकम निकलवा लेती है। अब परिवार के लोग इस स्थिति के लिए और आमिर को ‘बरगलाने’ का सारा दोष निशा पर डालते हैं; वे उसके पिता को बुलाकर कहते हैं कि वो निशा को वापिस ले जाएँ।
निशा के वापिस अपने माता-पिता के पास नॉर्वे लौटने के बाद उसके दोस्त उससे फोन पर संपर्क करने की कोशिश करते हैं; उनमें से एक तो उससे मिलने घर भी आ जाता है लेकिन निशा के माता-पिता उसे झूठ बोल कर लौटा देते हैं कि निशा घर पर नहीं है। मुझे लगता है कि ऐसा ही होता है जब आप शर्मिंदगी महसूस करते हैं: आप शर्म के मारे लोगों से आँख नहीं मिला पाते। निशा के माँ-बाप की परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई थी जहाँ ‘लोग क्या कहेंगे?’ बहुत महत्व रखता था। फलस्वरूप, उन्हें अभी भी यह स्वीकार कर पाने में मुश्किल आ रही थी कि अब वे एक नए तरह के अलग माहौल, एक अलग संस्कृति में रहते हैं जहाँ लोग शायद बीती बातों को भुला देते हैं; लेकिन निशा के माता-पिता इतने शर्मसार हैं कि उन्हें यही लगता है कि उनकी तरह ही लोग भी पुरानी सब बातों को याद रखते हैं। वे इस परिस्थिति से बाहर आने के लिए कुछ उपाय खोजने लगते हैं और निशा की शादी के लिए रिश्ता ढूँढा जाता है। होने वाले दूल्हे और उसके परिवार को निशा की इच्छाओं और भविष्य के लिए उसकी अपेक्षाओं से कुछ लेना देना नहीं है। फिल्म के आखिरी सीन में दिखाया जाता है कि एक रात निशा खिड़की से बाहर कूद जाती है। उसके कूदने पर पिता की नींद खुलती है और दोनों एक दूसरे को देखते हैं जिसके बाद निशा वहाँ से भाग जाती है।
चलिए अब फिल्म में “मैं तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूँ” वाले डायलाग पर विचार करते हैं जिसमें प्यार और उत्पीड़न, दोनों का मिल-जुल संदेश है। दूसरी किसी संस्कृति के बारे में तो मैं नहीं कह सकती क्योंकि मुझे उसका कोई अनुभव नहीं है, लेकिन अपने यहाँ के लिए मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूँ कि हम में से ज़्यादातर लोगों को बचपन से लेकर बड़े होने तक, बार-बार इस तरह की बातें सुनने को मिलती रहती हैं। बातों में प्यार के साथ-साथ गुस्सा दिखाना, किसी से यह कहना कि जो लोग तुम्हें प्यार करते हैं, तुम्हें सबसे ज़्यादा दुख भी वही देते हैं या फिर यह कहना कि प्यार और शोषण एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं; शायद इससे ज़्यादा गलत संदेश कोई और नहीं हो सकता। हाल ही में मैंने बेल्ल हुक्स (bell hooks) की किताब ऑल अबाउट लव पढ़ी जिसमें हमारी इसी समझ पर सवाल उठाया गया है और बताया गया है कि प्यार और नफ़रत (या शोषण) कभी एक साथ नहीं हो सकते। फिल्म के एक दृश्य में, पाकिस्तान से लौटते हुए, निशा के पिता उसे पहाड़ से कूदने को कहते है; ऐसा इसलिए कि जो कुछ चल रहा है वो उसे सह पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी औलाद के जीवन के फैसलें करना, उसे वापिस उसी जगह पर लाना जहाँ से वे खुद दूसरी जगह चले गए (पाकिस्तान से नार्वे) और फिर अपनी ही औलाद से कहना कि वो मर जाए, मेरे विचार से यह और कुछ भी हो सकता है लेकिन प्यार तो बिल्कुल नहीं।
हो सकता है यह सब शर्मिंदगी हो या फिर इस बात का डर कि आखिर लोग क्या कहेंगे। हो सकता है कि यह अपनी बात को सही तरीके से कह पाने की असमर्थता हो या फिर यह भी संभव है कि यह बड़े होने की प्रक्रिया व यौनिकता पर खुल कर बात कर पाने की नाकामी ही हो।
फिल्म में कहानी के हर पात्र की भावनाओं और संवेदनाओं को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है, खासकर निशा के पिता, जो इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे कि उनकी बेटी अब बड़ी हो रही है, बल्कि वें शर्मिंदगी में इस तरह डूबे हुए है कि ‘आखिरकार लोग क्या कहेंगे’। उनके लिए अपनी बेटी के दर्द को महसूस कर पाना भी कठिन हो गया है। निशा की माँ भी अपनी शर्मिंदगी को छुपाने के लिए बार-बार निशा पर ही अपना गुस्सा निकालती रहती है। निशा का बड़ा भाई इस पारिवारिक झगड़े के दौरान उसकी किसी भी तरह से मदद नहीं करता; ऐसा लगता है कि उसे अपनी बहन की भावनाओं से कोई सरोकार ही नहीं है। फिल्म में निशा के किरदार के माध्यम से दर्शाया गया है कि किस तरह से युवाओं पर अनेक तरह के सामाजिक प्रभाव पड़ते हैं जैसे उनके हमउम्र दोस्तों के सोच विचार, परिवार के लोगो की अपेक्षाएं। ये फिल्म यह सन्देश भी देती है कि जब हम युवाओं कि ज़िन्दगी के बारे में बात करते हैं तो हमे यह नज़रिया ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि किस तरह युवाओं का जीवन इन सब सामाजिक मांपडंडों से प्रभावित होता है | युवा लोग अक्सर खुद पर अलग-अलग दिशाओं में ले जा रहें खिंचाव महसूस करते हैं, और फिल्म में दिखाया गया है कि इस कहानी में किस तरह नॉर्वे में रहते हुए और वहाँ की संस्कृति के मुताबिक अपने हमउम्र साथियों के साथ व्यवहार करते हुए भी निशा को अपने माता-पिता की पाकिस्तानी संस्कृति के अनुसार खुद को ढालना पड़ता है।
वॉट विल पीपल से? में बहुत ही खूबसूरत और प्रभावी ढंग से यौनिकता को सफलतापूर्वक नियंत्रित कर पाने में संस्कृति और शर्मिंदगी के भावों की भूमिका को दर्शाया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे युवाओं के साथ यौनिकता के विषय पर खुल कर चर्चा न होने के कारण उनका जीवन प्रभावित होता है और परिवार के साथ उनके संबंध कड़वाहट से भर जाते हैं। अगर परिवार में और बाहर भी युवाओं को यौनिकता के स्तर पर अनुकूल माहौल मिले और उनकी यौनिकता की पुष्टि करते हुए उन्हें समर्थन दिया जाए तो युवा आसानी से आपसी सहमति से संबंध बनाए जाने, यौनिकता जैसे संवेदनशील विषय में अपनी बात कहने और निर्णय ले पाने, अपने विचारों और भावनाओं को निर्भीक होकर समझ पाने, को बहुत आसानी से समझ सकते हैं।
लेखिका – निधि चौधरी
निधि चौधरी नें दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है। उन्होंने जेंडेर स्टडीज़ में स्नातकोत्तर डिग्री अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली से ली और जेंडेर व यौनिकता के क्षेत्र में काम करने की इच्छुक रहीं हैं। इस समय वे तारशी (TARSHI) में प्रोग्राम एसोसिएट के रूप में कार्यरत हैं।
Cover Image: A still from the film: What will people say
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