मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन तुम वहीं रही उसमें नरगिस के फूलों से सजा एक गुलदस्ता था जब उसने मुझे यह दिया, मैंने तय कर लिया था कि मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी जिस औरत ने मुझे तुम्हें सौंपा था उसे तुमसे इतनी घिन नहीं आई होगी जितनी मुझे तुम्हारी शक्ल देख अब आती हैं। जिस कीचड़ में तुम थी… उसमे ही अब तक रहती तो तुम्हारी नाज़ुक त्वचा में अब तक पस पड़ जाती। तुम्हें क्या पता कैसे-कैसे मैंने तुम्हें पाला है पर तुमने कभी कोशिश ही नहीं की अपनी माँ सा बनने की मानो जब तुम आईने में मुझसे छुपके खुद को देखती हो तो तुम्हारा प्रतिबिम्ब तुम्हें तुम्हारा अतीत बतला जाता हो। …………………………………… मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन तुम वहीं रही उस रोज़ तुम्हारे दफ़्तर से लौटने से पहले जब चाय चूल्हे की आंच को बुझा स्लैब की दरारों पर फैल गई तब न जाने क्यों मुझपर सफ़ाई का कैसा चाव चढ़ा? रसोई के साथ-साथ, अपना और फिर तुम्हारा कमरा भी साफ करने और सजाने लगी। सिरहाने के ऊपर बने शेल्फ पर जब हाथ ना पहुंचा तो बाथरूम के पटरे पर चढ़ गई और अंदर झाँक के देखा तो कोने में कुछ सुनहरा सा दबा देखा। पांव का पंजा जब फिसला तो धड़ाम से बिस्तर पर और हाथ में आई वह सुनहरी वस्तु आँख से ओझल, कमरे में तितर-बितर हो चली। एड़ी को बचा जब सभी टुकड़े जोड़े तो हथेली के माप का एक फूलदान जिसमे धानी डंठल वाले नर्गिसी फूलों गढ़े थे अब टुकड़ो में सम्भला रखा था। …………………………………… मैंने बहुत कुछ देखा है , लेकिन तुम वही रहीं आज उसने फिर तुम्हारे बाल नोचे, गाल पर खींच के कई बार मारा और भूखा रखा है । कई बार तुम्हारी माँ ने तुम्हे ज़मीन पर पटका हैं, पर मेरी तरहा तुम नाज़ुक नहीं हो, तुम्हारी पंखुडिया बस मुड़ी है, टूटी नहीं। मुझे जब इसने छीना था तब से अब में एक कोणे में मुरझा ही रही थी, तुमने तो मुझे छू, मेरी पंखुड़ियों को फ़िर याद कराया की वह छुई-मुई नहीं , नर्गिसी हैं। मेरे टूटने का अफसोस ना करो , में धूल से ज़ादा मिट्टी में दफ़न होना पसंद करुँगी। मगर मैं तुम्हें समझ नहीं पाई , क्या तुम्हें अभिलाषा नहीं है कि तुम्हारी माँ भी तुम्हें स्नेह दिखाए? तुम्हारे सपने में जब मैंने तुमसे पूछा अपनी कोई एक इच्छा पूरी करने की तो तुमने आँख भींच कर यह क्यों पूछा, की क्या क़िस्मत पलट जाने से यादें भी बदल दोगी?
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