“मैं अपनी बात कहूं तो ‘कमिंग आउट’ मेरे लिए बिल्कुल आसान नहीं था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूं, कैसे कहूं, और सबसे ज़रूरी बात, किससे कहूं। लेकिन जैसे ही यह बात मैंने अपने मन में स्वीकार कर ली थी, मेरे लिए किसी को तो यह बता पाना बहुत ज़रूरी था कि हां, मैं ‘क्वीयर’ हूं। इसी दौरान मैं ‘पिंक सोफ़ा’ पर राही से मिली। उस वक़्त वह मुंबई में रहती थी। मुझे याद है मैंने कांपते हाथों से टाइप करते हुए उसे बताया था कि ‘मैं गे हूं’। तब ‘लेस्बियन’ या ‘क्वीयर’ जैसे शब्द इस्तेमाल करने में दिक्कत होती थी।” सत्या* बताती है। हिचकिचाते हुए वह यह भी बताती है कि, “उसने अपने आप को ‘पैनसेक्शुअल’ बताया और मुझे इसका मतलब गूगल पर देखना पड़ा था।”
जिल से मेरी मुलाक़ात ट्विटर पर हुई। उस वक़्त उसके 700 फ़ॉलोअर और 9000 ट्वीट थे। ‘डॉक्टर हू’ पर आधारित अपने मज़ेदार ट्विटर प्रोफ़ाइल पर वह अपना लिखा ‘क्वीयर फ़ैन-फ़िक्शन’ और डॉक्टर हू फ़ैनडम की कई सारे बातें साझा करती थी। जिल ने बताया, “मेरे ट्विटर अकाउंट पर मेरा असली नाम नहीं है और जिन्हें मैं असल ज़िंदगी में जानती हूं उन्हें फ़ॉलो नहीं करती। जब मुझे मेरी रूममेट पसंद आने लगी थी, मैंने एक गहरी सांस ली थी और ट्वीट किया था कि, ‘लगता है मुझे औरतें पसंद हैं’। छह महीने बाद यह बात मैं अपने सबसे अच्छे दोस्त को बता पाई।”
मुझे इंटरनेट की दुनिया हमेशा से ही बहुत पसंद आती है। जानकारी पसारने और लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली इसकी अनोखी क्षमता हमेशा मुझे विस्मित और अचंभित कर देती है। मैं यह देखना चाहती थी कि किस तरह भारत में क्वीयर औरतें, खासकर लेस्बियन और द्विलैंगिक औरतें इंटरनेट के ज़रिए एक दूसरे से जुड़ती हैं। यह जानने के लिए सोशल मीडिया साईटों के अलावा मैंने पिंक सोफ़ा, ओके-क्यूपिड और मिंगल2 नामक तीन डेटिंग साईटों का इस्तेमाल किया।
“मैं कुवैत में अपने घर पर थी जब ओके-क्यूपिड पर प्रिया ने मुझे मेसेज किया था। हमने कई बार जी-चैट पर बात की और फिर कॉफ़ी पीने के लिए मिलने का फ़ैसला किया। उसी ने मेरे स्कूल की सबसे अच्छी सहेली के सामने ‘कमिंग आउट’ में मेरी मदद की थी। उस रात मैं अपनी सहेली के यहां रुकी थी और उसे यह बात बताने के लिए हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रही थी। प्रिया लगातार मुझे मेसेज कर रही थी, उससे बात करने के लिए मुझे प्रोत्साहित कर रही थी और मेरा मूड अच्छा करने के लिए मुझे चुटकुले भेज रही थी। जब सब कुछ अच्छा रहा तो वह मेरे लिए कितनी खुश थी!” मुस्कराते हुए नूर याद करती है।
‘कमिंग आउट’ कई क्वीयर लोगों के लिए एक गंभीर और निरंतर संघर्ष है। अपने आसपास की दुनिया में जान-पहचान के लोगों के सामने अपने इस राज़ को खोलना तो सबसे ज़्यादा मुश्किल है, क्योंकि इसके अंजाम कठोर हो सकते हैं। “मैं एक कैथलिक कॉलेज में पढ़ती थी और मुझे पता नहीं था मेरी सहेलियों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी। हालात और भी बुरे थे क्योंकि मैं हॉस्टल में रहती थी और आपको तो पता ही है हॉस्टल में कुछ लड़कियां कैसी होतीं हैं। मैं अपने मां-बाप के पास घर जाने का जोखिम भी नहीं उठा सकती थी, क्योंकि उनके पता चल जाने का खतरा भी था,” सत्या बताती है। “जब राही स्कूल में पढ़ती थी, उसकी सहेलियों ने उसकी रज़ामंदी के बगैर उसकी यौनिक पहचान की बात जग-जाहिर कर दी थी। वह मेरा डर समझ सकती थी और उसने मेरी सहेलियों की असली नीयत पहचानने में मेरी मदद की। जब मैंने अपनी सबसे अच्छी सहेली के सामने ‘कमिंग आउट’ किया, उसे मुझ पर बहुत फ़ख्र हुआ था।”
“तुम्हारी सहेली की कैसी प्रतिक्रिया रही थी?” मैंने पूछा।
“अरे, बहुत ही शानदार! उसने कई और लोगों के सामने ‘कमिंग आउट’ में मेरी मदद की। मैं डेट पर जाती तो स्काईप पर वह और राही तैयार होने में मेरी मदद करते।” वह हंसते हुए जवाब देती है।
“गीता और टिया पिंक सोफ़ा पर मिली मेरी दो सहेलियां हैं। वे दिल्ली में थीं जब मैं चेन्नई में रहती थी। जब मैं एकतरफ़ा प्यार के दर्द से जूझ रही थी, उन्होंने दिल्ली से मेरे लिए हॉट चॉकलेट पाउडर, पॉपकॉर्न, एक किताब और कई सारी चीज़ों का एक पैकेज भेजा था ताकि मुझे बेहतर महसूस हो।” सुनैना बताती है। “मानना पड़ेगा, इससे मेरा बहुत फ़ायदा हुआ था। मेरी रूममेट ने भी इस पैकेज की बहुत तारीफ़ की थी।” वह हंसकर कहती है। फिर थोड़ी दुःखभरी आवाज़ में कहती है। “नहीं, उसे नहीं पता यह किसने भेजा था।”
एरॉटिक्स: सेक्स, राइट्स, ऐंड द इंटरनेट (2011) पांच देशों पर किया गया अन्वेषणात्मक अनुसंधान कार्य है। इसके मुताबिक क्वीयर समुदायों के लोगों ने ही इंटरनेट का उपयोग ‘सोशल नेटवर्किंग’ के लिए करना शुरु किया था क्योंकि बाहर की दुनिया में ऐसे बहुत कम स्थान थे जिनका प्रयोग वे एक-दूसरे से जुड़ने के लिए कर सकते थे। दुनिया से छिपकर वे अपनी क्वीयर ज़िंदगियां इंटरनेट पर ही जीते थे, जहां केबल तारों के ज़रिए वे एक दूसरे से बातें करते, एक दूसरे को सहानुभूति और सौहार्द जताते।
समाजशास्त्रीय अनुसंधान के मुताबिक तीन चीज़ें एक ‘समूह’ को ‘समुदाय’ में बदलती हैं: स्थान, मिलते-जुलते गुणों का अस्तित्व और सामाजिक संस्पर्श (कॉरेल, 1995 में उद्धृत बर्नार्ड, 1973)। जब 1991 में गीति थदानी ने सखी की स्थापना की, उन्हें भारत के कोने-कोने से औरतों के खत आने लगे, जो खुद को लेस्बियन कहती थीं। गीति इन खतों का जवाब देने लगीं और भारत के हर हिस्से में रहनेवाली लेस्बियन औरतों का एक ‘नेटवर्क’ या समुदाय बन गया। ये औरतें कभी एक दूसरे से मिली नहीं थीं, और शायद कभी मिलने वाली भी नहीं थीं, मगर एक दूसरे के संस्पर्श में आने से उन्हें एहसास हुआ कि वे अकेली नहीं हैं (दवे, 2011)। ऐसे में ‘स्थान’ की इतनी अहमियत नहीं रहती। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास हमें एक दूसरे के और भी करीब लाने में कामयाब हुआ है और अब किसी के संस्पर्श में आने के लिए शारीरिक निकटता की ज़रूरत नहीं है। सत्या, जिल, राही और सुनैना जैसी औरतें कभी एक-दूसरे से मिली नहीं हैं, जिसके बावजूद उनके बीच के गहरे रिश्ते बरकरार रहे हैं। इसलिए एक समुदाय आखिर कैसे बनता है इस पर नए सिरे से विश्लेषण करने की सख्त ज़रूरत है। स्थान से भी ज़्यादा यहां मीलों की दूरी के बावजूद एक-दूसरे के बीच पनपने वाली अंतरंगता की भूमिका अहम है, और इन औरतों के आपसी रिश्ते इसी अंतरंगता से भरपूर हैं।
इंटरनेट ऐसे लोगों को एक-दूसरे के क़रीब लाता है जो शायद असल ज़िंदगी में कभी नहीं जुड़ पाते। अनजान लोगों के साथ पसंदीदा फ़िल्म, क्वीयर युवाओं की आत्महत्या, तानाशाही और काले क़ानून जैसे मुद्दों पर आलोचना के ज़रिए एक अपनत्व की भावना पनपने लगती है। वैसे ही जब औरतों को चाहने वाली औरतें ईमेल और चैट के ज़रिए एक दूसरे से जुड़ती हैं, यह साझा अनुभव धीरे धीरे एक ‘इमैजिन्ड कम्यूनिटी’ के निर्माण में मदद करता है (एंडर्सन, 1991)। इंटरनेट की दुनिया बातचीत और आपसी रिश्तों को गहरा बनाने में मदद करते हुए इसी तरह का एक समुदाय बनाती है। जब मैं सुनैना से इस तरह के समुदाय की संकल्पना के बारे में बात कर रही थी, उसने थोड़ा सोचकर कहा, “लीला नाम की एक औरत थी जिसने मिंगल2 पर मुझे मेसेज किया था। हमने दो-तीन बार ही एक-दूसरे से बात की है। पहली बार बात हुई तो वह दुःखी लग रही थी। जब मैंने पूछा कि क्या बात है, उसने बताया कि तीन दिन बाद उसकी पुरानी गर्लफ्रेंड की शादी होने वाली है। वे चार साल तक एक साथ थे। लीला अंदर से टूट चुकी थी। वॉयस चैट पर बात करते दौरान वह फूट-फूटकर रोने लगी थी। मुझसे इसके बारे में बताने के बाद उसे काफ़ी बेहतर महसूस होने लगा। देखा जाए तो शायद सचमुच यह एक तरह का समुदाय ही है।” उसी तरह आशा बताती है, “मुझे यह समझने में काफ़ी वक़्त लगा था कि मैं बाईसेक्शुअल (द्विलैंगिक) हूं। मैंने अपने अंदर की यह भावनाएं समझने के लिए माईक्रो-ब्लॉगिंग वेबसाईट ‘टंब्लर’ पर लोगों से बात की थी। आज मेरे पास अपने दोस्तों का साथ है, लेकिन एक क्वीयर व्यक्ति होने के नाते मुझे टंब्लर जैसे माध्यम की ज़रूरत थी। आज भी दुनियाभर में मेरे कई सारे दोस्त हैं जो मेरा हालचाल पूछते हैं।”
इंटरनेट पर रिश्ते परिस्थिति की ज़रूरतों के हिसाब से बनते हैं। कभी कोई किसी दूसरे का टूटा हुआ दिल जोड़ने में मदद करते हैं तो कभी कोई अभिज्ञ लेस्बियन महिला अपनी यौनिकता को स्वीकार करने में अपने से कम उम्र की किसी क्वीयर औरत की मदद करती है, या फिर किसी को क्वीयर होने से जुड़े मुद्दों पर बात करने के लिए एक साथी चाहिए होता है। कभी कभी ये ज़रूरतें पूरी होने के बाद ये रिश्ते धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं। नूर कहती है, “प्रिया और मैं एक दूसरे के बहुत क़रीबी दोस्त बन गए थे। एक बार उसका डेट अच्छा नहीं जा रहा था तो मैंने किसी एमर्जेंसी के बहाने उसे वहां से छुटकारा दिलाया था। उसने कई लोगों के सामने ‘कमिंग आउट’ में मेरी मदद की थी और मैं ही उसे और उसकी गर्लफ्रेंड को एक-दूसरे के क़रीब लाई थी। जब मेरे स्कूल की एक सहपाठी ‘होमोफ़ोबिक’ (समलैंगिकता/समलैंगिकों से नफ़रत करने वाले) निकली तब उसने यह स्थिति संभालने में मेरी मदद की थी।” नूर यह भी कहती है कि, “मगर आजकल मेरी उससे बात नहीं होती। ऐसा नहीं कि हम बिछड़ गए हैं। हम आज भी एक दूसरे की बहुत कद्र करते हैं और ज़िंदगी के अहम अनुभव एक-दूसरे से साझा करते हैं। मुझे ऐसा लगता है उसके मेरी ज़िंदगी में आने के पीछे एक खास मक़सद था। अब वह मक़सद पूरा हो चुका है और हम बस एक-दूसरे का साथ देते हैं। यह एक अलग तरह का रिश्ता है।”
सुनैना कहती है, “गीता अब फ़्रांस में है और टिया झाड़खंड के भीतरी हिस्से में किसी एनजीओ के साथ काम कर रही है। मैं टिया से मिल चुकी हूं पर गीता से नहीं। हम एक ही शहर में हों तो मुलाक़ात हो जाती हो, पर बस इतना ही। वे आज भी मेरे ‘सेफ़्टी नेट’ का एक अहम हिस्सा हैं, पर हमारा रिश्ता उतना गहरा नहीं रहा जितना पहले था।”
अकीर्तित क्वीयर हीरोज़ का यह आपसी नेटवर्क सुनने में तो बड़ा शानदार लगता है, पर इसका एक और पहलू भी है। “एक-दूसरे के क़रीब होने के बावजूद मीलों की दूरियों की वजह से हम एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान नहीं पाते,” सत्या कहती है। “एक साल पहले ही राही की मौत हो गई थी। उसने अपनी नस काट ली थी और उसे अस्पताल ले जाया गया था। मुझे इस घटना के बारे में उसकी मौत के कुछ घंटों पहले ही पता चला था। उसके घरवाले बहुत होमोफ़ोबिक थे। मैं तब चेन्नई में थी और उसके अंतिम संस्कार के लिए मुंबई जाना मेरे लिए नामुमकिन था। मैं अपना दुःख अपने घरवालों, रूममेट और हॉस्टल की लड़कियों के साथ नहीं बांट सकती थी इसलिए मुझे कुछ दिन एक अच्छी सहेली के यहां रुकना पड़ा। ऐसे हालातों में यह दोहरी ज़िंदगी जीना बहुत मुश्किल हो जाता है।”
कइयों की कभी एक-दूसरे से मुलाक़ात नहीं होती, पर वे रोज़ इसी भरोसे में जीते हैं कि ऐसा कोई तो है जो हमेशा उनके साथ खड़ा है। मुंबई में रहनेवाली नीना कहती है, “एक सहेली ने मुझसे पूछा कि मैं जिससे मिली ही नहीं हूं, उस पर भरोसा कैसे कर सकती हूं? वह यह समझ नहीं पाई कि किसी पर भरोसा करने के ऐसे कई कारण हो सकते हैं जिनके रहते उससे मिल पाना इतना ज़रूरी नहीं होता। यह स्वीकार करना कि हम दोनों एक अल्पसंख्यक वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, जिसे अपराधी का दर्जा दिया गया है, हमें एक दूसरे के क़रीब लाता है। मैं यह नहीं कह रही कि बाकी चीज़ें कोई मायने नहीं रखतीं। दोस्ती के लिए अपनी पसंद की चीज़ें साझा करना ज़रूरी तो है, लेकिन एक-दूसरे को सौहार्द जताने के लिए यह ज़रूरी नहीं होता कि हम दोनों को एक ही टीवी शो पसंद आए।” इंटरनेट पर बने क्वीयर औरतों के इस समुदाय की बुनियाद एक साझा हक़ीक़त है जो ये सभी औरतें जीतीं हैं। बंद दरवाज़ों के पीछे से एक-दूसरे के सामने अपना दिल खोलकर उन्होंने ये आपसी रिश्ते बनाए हैं। यह एक ऐसा माहौल है जहां एक क्वीयर औरत को अपने जैसे दूसरों से मिल पाती है और जहां वह अपनी हक़ीक़त खुलकर जी पाती है।
*निजता बनाए रखने के लिए सभी के नाम बदले गए हैं
संदर्भ
एंडर्सन, बी. 1991. इमैजिंड कम्यूनिटीज़: रिफ़्लेक्शनस ऑन द ओरिजिन एंड स्प्रेड ऑफ़ नैशनलिज़्म. न्यू यॉर्क. वर्सो.
भट्टाचार्य , एम एवं गणेश, एम. 2011. नेगोशिएटिंग इंटिमेसी एंड हार्म: फ़ीमेल इंटरनेट यूज़र्स इन मुंबई.
एरॉटिक्स: सेक्स, राइट्स, एंड द इंटरनेट, पृष्ठ 66-108. ‘द लेस्बियन कैफ़े: जर्नल ऑफ़ कंटेंपररी एथनोग्राफ़ी’, पृष्ठ 270-298 में प्रकाशित कॉरेल, एस के लेख ‘द एथनोग्राफ़ी ऑफ़ एन इलेक्ट्रॉनिक बार’ (1996) से प्राप्त. https://journals.sagepub.com/doi/10.1177/089124195024003002
दवे, एन. 2011. ऐफ़ेक्ट, कमेंसुरेशन, एंड क्वीयर एमर्जेंसेज़. अमेरिकन एथनोलॉजिस्ट, वॉल्यूम 38 (अंक 4). पृष्ठ 650-665.
तस्वीर: लेस्बियन पोस्टकार्ड्स (CC BY-SA 2.0)
स्मिता वन्नियार द्वारा लिखित
स्मिता वन्नियार Point Of View, India के डिजिटल प्रॉजेक्ट्स विभाग में ‘सेकंड लीड’ हैं और वे जेंडर, यौनिकता और प्रौद्योगिकी के संयोग पर अनुसंधान करते हैं। उन्होंने मुंबई के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से मीडिया एवं सांस्कृतिक अध्ययन में मास्टर्स किया है और उनके पसंदीदा विषय हैं जेंडर, क्वीयर अध्ययन, इंटरनेट, प्रौद्योगिकी, कहानियां, टीवी, फ़िल्में और प्रति-संस्कृति। स्मिता अक्सर इंटरनेट पर भटकते या अच्छी कॉफ़ी की तलाश करते पाए जाते हैं।
ईशा द्वारा अनुवादित
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