बहुत समय से मुझे यह बात सताती आई है कि ऐसी बहुत कम हिंदी फ़िल्में हैं जो औरतों के बीच दोस्ती का चित्रण करतीं हैं। मर्दों की दोस्ती पर तो अनगिनत फ़िल्में हैं, जैसे आनंद (1971), शोले (1975), दिल चाहता है (2001), रॉक ऑन (2008), ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा (2009), 3 इडियट्स (2009) और काई पो छे (2013)। (हालांकि यह सच है कि खुशकिस्मती से 2017 में केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड इतने बवाल के बाद भी लिपस्टिक अंडर माई बुर्का के प्रदर्शन के लिए राज़ी हो गया था।) इनमें से ज़्यादातर फ़िल्मों में मर्दों के बीच दोस्ती को मुख्य किरदार की ज़िंदगी के एक बेहद ज़रूरी हिस्से के रूप में दिखाया गया है, जिसकी अहमियत अक्सर परिवार के मामलों से भी ज़्यादा साबित हुई है। हालांकि यह सभी फ़िल्में कल्पित हैं, मुझे लगता है हमारे मध्यमवर्गीय समाज में भी मर्दों की दोस्ती को औरतों के बीच दोस्ती से ज़्यादा अहमियत दी जाती है।
एक औरत के परिवारवाले अक्सर उसके दोस्तों को उसकी ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा नहीं समझते। लड़कियों को ऐसी मतशिक्षा दी जाती है कि उनके जीवन में दोस्त सिर्फ़ तब तक हैं जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती। इसलिए यह अनकही उम्मीद भी रहती है कि शादी के बाद एक औरत अपने दोस्तों को छोड़कर अपने पति के घरवालों और दोस्तों को अपना लेगी। ऊपर से समाज मर्दों और औरतों के बीच की दोस्ती को एक जेंडर आधारित नज़रिये से देखता है। दो औरतों के बीच झगड़ा हुआ तो समझा जाता है उनकी दोस्ती खत्म है, जबकि मर्दों के बीच लड़ाई-झगड़े को ‘भाइयों के प्यार’ का एक आम हिस्सा माना जाता है। ऐसा लगता है जैसे पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों की पितृसत्तात्मक नींव ही औरतों के बीच की दोस्ती की ताकत झेलने के क़ाबिल नहीं है। शादी की रूपरेखा के बाहर भी हमें इस भ्रामक सोच का सामना करना पड़ता है कि एक औरत की ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा उसका बॉयफ्रेंड या पुरुष हमसफ़र है। यौनिक रिश्तों पर हम जितना वक़्त, जितना पैसा और जितनी भावनाएं खर्च करते हैं उससे यह साबित होता है कि समाज में इन रिश्तों को कितना ऊंचा दर्जा दिया जाता है। नारीवादी और क्वीयर विद्वानों ने यौनिकता सम्बन्धी विशेषाधिकार पर लिखते हुए इस बात पर गौर किया है कि समाज में यौनिक एकविवाही संबंधों का वर्चस्व उस ‘हेटेरोनॉर्मेटिव’ संस्कृति (वॉर्नर, 1993 पृ. xxi) को बढ़ावा देता है जिसमें सिर्फ़ प्रजनन के उद्देश्य से होने वाले यौन संबंधों को मान्यता दी जाती है (रूबिन, 1984 पृ. 278)। समकालीन भारत के संदर्भ में एकविवाही और पॉलीऐमरस (एक से अधिक प्रेमियों के साथ संबंध) रिश्तों का आलोचनात्मक विश्लेषण तो इस लेख के दायरे से बाहर है, फिर भी मेरे हिसाब से औरतों की आर्थिक और निजी स्वतंत्रता के सीमित होने की वजह से दोस्ती की दुनिया में मर्दों और औरतों के अनुभव काफ़ी अलग होते हैं।
औरतों के बीच दोस्ती अक्सर समाज के तय किए गए यौनिक और लैंगिक मानदंडों द्वारा निर्धारित की जाती हैं। घरवाले, पति और/या हमसफ़र अक्सर यह तय करना सही समझते हैं कि एक औरत किस-किससे दोस्ती कर सकती है। मुझे याद है, कॉलेज के दिनों में एक क़रीबी सहेली ने मुझसे बात करना बंद कर दिया था क्योंकि उसके बॉयफ्रेंड के मुताबिक मैं एक “बहुत बातूनी और शोर मचानेवाली लड़की” थी जिसका मेरी सहेली पर बुरा असर पड़ रहा था। एक ‘अच्छी’ और ‘आदर्श’ लड़की को पहचानने के यौनिक पैमाने भी अक्सर यह निर्धारित करते हैं कि हमें किसके साथ दोस्ती करने, किसके साथ ‘नज़र आने’ की इजाज़त है। जो लेस्बियन और ट्रांसजेंडर औरतें, अविवाहित औरतें या एक से अधिक यौनिक रिश्तों में रहने वाली औरतें यह लेख पढ़ रहीं हैं, वे अच्छे से समझ सकतीं हैं कि दूसरी औरतों पर ‘बुरा प्रभाव’ कहलाने का अनुभव कैसा होता है। अक्सर उन्हें समाज के यौनिक और लैंगिक मानदंडों पे खरा न उतारने की वजह से शैक्षणिक संस्थाओं और कार्यस्थलों में हिंसा का सामना भी करना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि औरतों के बीच हर दोस्ती सौहार्द और सकरात्मकता पर आधारित है, क्योंकि औरतो के मन में भी एक-दूसरे के खिलाफ़ द्वेष और पक्षपात रह सकता है। मैं यह भी जानती हूं कि बाकी रिश्तों की तरह दोस्ती भी अक्सर मुश्किल साबित होती है और अक्सर इसे निभाने में काफ़ी वक़्त और संसाधन ज़ाया होते हैं। कभी कभी किसी दोस्त के जीवन में हमारी अहमियत कम हो जाए तो बुरा ज़रूर लगता है और दोस्त हमारा फ़ायदा उठाएं तो दुःख भी होता है। दोस्त किसी दूसरे शहर में रह रहें हों तो अकेलापन और परेशानी भी झेलना पड़ता है।
डर, शर्म और आत्म-समालोचना से मुक्त होकर अपनी लैंगिक और यौनिक पहचान को व्यक्त करना एक पितृसत्तात्मक समाज के अंतर्गत एक-दूसरे के साथ मज़बूत रिश्ते जोड़ पाने के लिए ज़रूरी है। आधी रात को अपनी सहेली को फ़ोन करके एक ज़बरदस्त ऑर्गैज़म का अनुभव साझा करना, किसी सहेली को खुले में चुंबन करने के लिए पुलिस पकड़ ले तो उसकी मदद करना, एक टिंडर डेट पर जाने से पहले अपनी सहेली को बताकर जाना (जो ज़रूरत पड़ने पर हमें वहां से निकलने में मदद कर सके और चार गालियां देकर भड़ास निकालने के बाद हम जिससे लिपटकर सो सकें) कुछ ऐसे अनोखे अनुभव हैं जिनका कोई जोड़ नहीं। कई बार हम अपनी सहेलियों की मदद से ऐसे रिश्ते तोड़ने की हिम्मत जुटा पाते हैं जो हमें नुकसान पहुंचा रहे होते हैं। इस तरह दोस्ती के अंतरंग रिश्ते बनाते हुए हम दोस्ती के कुछ नए उसूलों की संकल्पना कर सकते हैं जो हमारे लिए प्रतिबंधित इच्छाओं और खुशियों को खुलकर जीने के लिए जगह बना सकें।
संदर्भ
रूबिन, जी. 1984. कैराल वैंस द्वारा संपादित प्लेज़र ऐंड डेंजर के अंतर्गत ‘थिंकिंग सेक्स: नोट्स फ़ॉर ए रैडिकल थ्योरी ऑफ़ द पॉलिटिक्स ऑफ़ सेक्शुऐलिटी’। बॉस्टन एवं लंदन: रूटलेज।
वॉर्नर, एम (संपादित), 1993. भूमिका – फ़ियर ऑफ़ ए क्वीयर प्लैनेट: क्वीयर पॉलिटिक्स ऐंड सोशल थ्योरी (वॉल्यूम 6)। यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा प्रेस।
लेखिका: श्रुति अरोड़ा
श्रुति अरोड़ा एक क्वीयर नारीवादी कार्यकर्ता हैं। वे पेशे से शोधकर्ता एवं प्रशिक्षिका हैं और यौन हिंसा पर कानूनी कार्रवाई की मांग करते हुए कई अभियानों का हिस्सा रह चुकी हैं। साथ ही वे ‘मॉरल पुलिसिंग’, सड़क पर यौन हिंसा, महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों के अधिकार जैसे मुद्दों पर भी आवाज़ उठाती हैं। श्रुति को खाना बनाना, किताबें पढ़ना और दोस्तों के साथ मिलकर ‘टु-डू लिस्ट’ बनाना पसंद है।
ईशा द्वारा अनुवादित
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