जन कल्याण और विकास के क्षेत्र में क़दम रखने से बहुत पहले से ही मैं ख़ुद को एक नारीवादी ऐक्टिविस्ट के रूप में देखने लगी थी। मैंने जेंडर और यौनिकता के मुद्दों पर आयोजित अनेक विरोध आंदोलनों और उत्सवों में भाग लिया और बहुत बार उन्ही विषयों पर आधारित पैनल चर्चाओं के दौरान उपस्थित रहा करती थी। इंटरनेट पर इस मुद्दे पर जितनी व्यापक जानकारी उपलब्ध थी मैं उसे पढ़ने में रुचि रखती थी और ख़ुद अनेक तरह के सोश्ल मीडिया प्लैटफ़ार्म पर भी सक्रिय रहती थी।
अभी वर्तमान में शारीरिक रूप से सक्षम होने (ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि कोई भी किसी भी समय किसी रोग अथवा दुर्घटना के कारण विकलांगता से जूझ सकते है), “ऊंची जाति” से संबंध रखने व आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के कारण यौनिकता को देखने, समझने और अपनाने के अनेक द्वार मेरे लिए अनायास ही खुल चुके थे। सामाजिक तौर पर अनेक उपेक्षित समूहों के लोगों को अपनी यौनिकता सिद्ध करने में अलग-अलग कठिनाईओं, क्षोभ, और दुख का सामना करना पड़ता है, लेकिन मेरे लिए तो यौनिकता के बारे में चर्चा कर पाना एक बौद्धिक कार्यकलाप के तौर पर सामने आया, एक ऐसा विषय जिस पर आसानी से रचनात्म्क चर्चा करना संभव था। सामाजिक विशेषाधिकार कुछ ऐसे ही काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि इस लेख को लिखना शुरू करते हुए मुझे मानसिक द्वंद या दुविधा का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन यौनिकता का अन्वेषण करने की सुविधा मिलने के बारे में सोचना केवल उन उपेक्षित समूहों का ही दायित्व नहीं है जो अपनी यौनिकता को शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर खुल कर अपना नहीं पाते हैं, बल्कि यह हम सभी की ज़िम्मेदारी है।
मानवअधिकारों पर नारीवादी परिप्रेक्ष्य रखने वाली संस्था क्रिया में हम अनेक विकलांग लोगों के अधिकारों के काम कर रही दूसरी संस्थाओं जैसे अंजलि, श्रुति विकलांग अधिकार केंद्र, इक्वल्स, पॉइंट ऑफ व्यू और स्वतंत्र रूप से विकलांग लोगों के अधिकारों पर काम कर रहे लोगों के साथ मिल कर काम करते हैं और विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के लिए जेंडर और यौनिकता के विषयों पर वर्कशॉप और प्रशिक्षण आयोजित करते हैं। इन वर्कशाप्स में हम अपने शरीर के बारे में जानने, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से लेकर डेटिंग करने, मानव सम्बन्धों और विवाह आदि विषयों पर जानकारी देते हैं।
विकलांगता के साथ जी रही महिलाओं में यौनिकता का विषय वैसे ही सामाजिक कलंक का शिकार है और इस पर आम तौर पर चुप्पी ही साध ली जाती है। ऐसे में इन महिलाओं को यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों के बारे में जानकारी देना, यौनिकता के इस निषिद्ध विषय तक पहुँच तैयार कर पाने की दिशा में पहला कदम होता है। लेकिन, मान लीजिये कि हमनें अपनी वर्कशाप द्वारा इन विषयों पर सफलतापूर्वक महिलाओं को यह सब जानकारी दे दी और प्रशिक्षण पूरा भी हो गया – अब इसके बाद क्या? मैं ख़ुद से अक्सर यही सवाल करती हूँ। आगे जो मैं लिख रही हूँ, वो पिछले अनेक वर्षों तक विकलांग एवं क्वीयर लोगों के अधिकारों पर काम कर रहे ऐक्टिविस्ट्स के साथ विचार-विमर्श के दौरान मेरे अनुभवों का विवरण है।
अगर डेटिंग करना, संबंध और साथी बनाना, अपनी यौनिकता को व्यवहार में लाने और उसे व्यक्त करने का अभिन्न अंग है, तो विकलांगता के साथ जी रहे लोग अपने वास्तविक जीवन में इन संभावित साथियों को कहाँ, किन जगहों पर मिलते हैं? अगर वे ऐसा मोबाइल एप्स के माध्यम से, सामाजिक तौर पर होने वाले मेल मिलाप के दौरान, या फिर आम सार्वजनिक स्थानों पर करते हैं , तो देखना यह है कि आखिर ये विकल्प सुलभ हैं? कुछ समय के लिए अगर हम इन एप्स से जुड़े दूसरी समस्याओं को भूल जाएँ तो भी अगर देखा जाये तो टिंडर, ग्राइन्दर, प्लानेट रोमियो, ओके क्यूपिड, पिंक क्यूपिड वगैरह एप्स का इस्तेमाल कितनी आसानी से हो सकता है? अपने घर के आसपास के पार्कों, कॉफी शाप या रेस्तरां कितने सुलभ हैं? 2011 की एक रिपोर्ट के अनुसार बैंगलोर शहर के 710 पार्कों में से केवल 3 ऐसे थे जिनके अंदर व्हील चेयर ले जा पाना संभव था।
अब हमारी ये सामाजिक मेल मिलाप, पार्टियां और प्राइड मार्च विकलांगता के साथ जी रहे लोगों की कितनी पहुँच में होते हैं? इस साल बैंगलोर और मुंबई की प्राइड परेड में यह सुनिश्चित किया गया कि विकलांगता के साथ जी रहे प्रतिभागी भी आसानी से इन आयोजनों में भागीदारी कर पाएँ। Inclov और उनकी डेटिंग एप द्वारा विकलांग और गैर-विकलांग लोगों को अपने लिए साथी तलाश करने के लिए अलग से सुविधा दी जाती है। लेकिन इस तरह विकलांग लोगों के लिए ऑनलाइन और ऑफलाइन सुविधाएं मिलने के उदाहरण बहुत कम और यदाकदा ही देखने को मिलते हैं।
सामाजिक मंचों और इन सार्वजनिक सुविधाओं का लाभ उठाना न केवल सक्षमता/ विकलांगता से जुड़ा मुद्दा है बल्कि वर्ग और जाति की भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका रहती है। कौन इन सुविधाएं और स्थानों तक पहुँच सकता है और कौन नहीं यह इसपर भी निर्भर करता है कि वे कहाँ आयोजित किये जा रहे हैं। अगर क्वीयर पार्टियां महंगे होटलों में रखी जाएँ जहां अंदर जाने के लिए भी पैसे लगते हों या फिर जो केवल रात को ही होती हों, तो कितने कामकाजी क्वीयर लोग यहाँ पहुँच कर भाग ले सकते हैं? यहाँ केवल वही लोग पहुँच सकते हैं या इनमें भाग ले सकते हों जो इन होटलों में आने वाले खर्च वहन कर सकते हों, जो ऐसे जगहों पर आने की हिम्मत कर सकते हों जहां हर ओर अमीरी और “ऊंची जाति” का बोलबाला हो, जो बिना अपने घरवालों की डांट के डर के देर रात तक बाहर रह सकें या जिनके पास देर रात को सुरक्षित घर पहुँचने के साधन उपलब्ध हों।
IDAHOT (International Day Against Homophobia and Transphobia) के अवसर पर हमसफर ट्रस्ट द्वारा नयी दिल्ली के अमेरीकन सेंटर में स्वीकार – Towards LGBT Acceptance नामक आयोजन भी इस वास्तविकता का जीता जागता उदाहरण रहा कि किस तरह अनुचित स्थान का चुनाव उस कार्यक्रम के द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे के लिए कितना अहितकारी हो सकता है। ट्रांस लोगों के अधिकारों के लिए काम कर रहे अनेक लोगों को न जाने कितनी कोशिश करनी पड़ी कि कार्यक्रम के आयोजकों को इस समस्या से अवगत करवाया जा सके कि इस आयोजन में आने वाले लोगों को प्रवेश और पंजीकरण करवा पाने के लिए किसी सरकारी पहचान पत्र की ज़रूरत थी जिसमें उनका ‘वास्तविक नाम’ लिखा गया हो। इस नियम के चलते ट्रांस लोगों के मन में अपनी वास्तविक नाम के प्रयोग को लेकर डर और चिंता अधिक बढ़ रही थी। LGBT लोगों को स्वीकार किए जाने के लिए आयोजित किसी भी कार्यक्रम को ट्रांस लोगों की इस ज़रूरत के प्रति संवेदी होना बहुत ज़रूरी है।
इसी तरह यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ पाने के विषय को देखें। अपने स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉक्टर (Gynaecologist) से अपनी आखिरी मुलाक़ात के बारे में सोचें। क्या आपने वहाँ क्लीनिक तक पहुँच पाने के लिए बनाए गए रेम्प को देखा था? क्या डॉक्टर के क्लीनिक में प्रयोग किए जाने वाले उपकरण और प्रक्रियाएँ विकलांग लोगों की जांच के लिए उपयुक्त थे? क्या गर्भधारण और दूसरी सेवायों के बारे में जानकारी ब्रेल लिपि में मिल रही थीं? जांच के लिए लगाए गए टेबल के बारे में सोचें – क्या उसकी ऊंचाई को कम या ज़्यादा किया जा सकता था? अगर जांच के लिए लगे टेबल को ऊपर नीचे नहीं किया जा सकता तो जांच के लिए यही विकल्प बचता है कि मरीज़ की जांच व्हील चेयर पर बैठे-बैठे ही की जाये, जो कि कभी भी ठीक से नहीं हो सकती। या फिर जांच के लिए मरीज़ को किसी दूसरे व्यक्ति की सहायता से टेबल पर ले जाया जाये, जो कि जांच करवाने के लिए आए व्यक्ति के लिए बहुत बुरा और शर्मसार कर देने वाला अनुभव हो सकता है। सच्चाई तो यह है कि चलने फिरने में असमर्थ किसी महिला के लिए स्तन या सर्वाइकल जांच करवाना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि जांच के टेबल की ऊंचाई कम या ज़्यादा नहीं की जा सकती है और mammography के उपकरणों के आगे वही महिलाएं जांच करवा सकती हैं जो खड़े रहकर जांच करवाने मे समर्थ हों। [1]
इसी तरह जानकारी पाने के उन अनेक स्रोतों का क्या जहां से हमें अपनी यौनिकता के बारे में कितनी नयी बातें और जानकारी मिलती है? क्या यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य व अधिकारों पर तैयार होने वाली पूरी सामग्री और जानकारी तक भी पहुँच आसानी से हर एक को उपलब्ध हो पाती है? इसी तरह प्रचलित मीडिया का क्या? अगर हम यह स्वीकार करें कि सब तरह के मीडिया – सोश्ल मीडिया, किताबें, फिल्में, या दूसरी ऑडियो-विडियो सामग्री – हमें यौनिकता के बारे में जानकारी हासिल करने में सहायक होती है, तो प्रश्न यह है कि क्या यह उपलब्ध या सुलभ होती है? ऑनलाइन उपलब्ध होने वाली अधिकतर सामाग्री, किताबें और जानकारी आमतौर पर PDF फ़ारमैट में ही उपलब्ध होती है। हम जो भी सामग्री तैयार करते हैं उसमें हम अनेक तरह के चित्र, विडियो या ऑडियो प्रयोग में लाते हैं। लेकिन अब इस PDF डॉकयुमेंट को आम स्क्रीन रीडर पढ़ नहीं पाते (.doc और html फ़ारमैट अधिक आसानी से पढे जा सकते हैं), प्रयोग किए गए चित्रों में शायद ही कभी उनका विवरण शामिल किया जाता है और आमतौर पर हम अपनी जानकारी में प्रयोग में लायी गयी ऑडियो और विडियो सामग्री पर भी विवरण देने की ओर ध्यान नहीं देते। इंटरनेट के ऑनलाइन संसार में यह जानकारी भरी पड़ी है कि ऑनलाइन और ऑफलाइन सामग्री तक लोगों की पहुँच कैसे बढ़ाई जा सकती है और कैसे इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है और यह भी कि वो कौन लोग हैं जो इस काम में आपकी सहायता कर सकते हैं।
इसके अलावा क्या कभी हम यह भी सोचते है कि यौनिकता और दूसरे विषयों पर जिस तरह की जानकारी हम प्रकाशित अथवा तैयार करते हैं, यदि यह जानकारी यौन हिंसा के बारे में हो, तो अनेक पढ़ने या देखने वालों को इसे पढ़कर बहुत ज़्यादा अवसाद या तकलीफ अथवा ऐसी किसी घटना का अनुभव होने के बाद होने वाली तकलीफ़ों का सामना करना पड़ सकता है, और हमें ऐसी सामग्री के शुरू में ही इस बारे में सावधान कर देना चाहिए? मुझे ख़ुद इसका अनुभव और एहसास तब हुआ जब एक वर्कशाप के दौरान मैं रोने लगी और तब मैंने समझा कि जानकारी के शुरू में ही हमें चेतावनी लिख देनी चाहिए ताकि सामग्री को देख रहे लोग पहले से ही ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार कर लें और खुद ये फैसला कर सकें कि क्या वो यह सामाग्री देखें या नहीं।
इसके अलावा, अपनी इन सामग्रियों में जिस तरह की भाषा या कथानक का प्रयोग हम करते हैं, क्या वह सबको समझ में आता है? पिछली बार कब ऐसा हुआ था जब आप यौनिकता पर किसी चर्चा में या बैठक में शामिल हुए थे जहां एक भी वक्ता नें ‘pedagogies’, ‘non-normative’, ‘de-construct’, ‘Butler’, ‘Foucault’ और ऐसे ही दूसरे भरी-भरकम शब्दों का प्रयोग नहीं किया था? इस भाषा को कौन जान और समझ सकता है? मेरे विचार से सिर्फ यूनिवर्सिटी स्तर की शिक्षा पाने वाले लोग ही इन शब्दों को शायद समझ पाते हों। मेरा अगला प्रश्न है कि यूनिवर्सिटी स्तर की शिक्षा भी कितने लोग पा सकते हैं? ये केवल कुछ बातें हैं जिनसे पता चलता है कि किसी को भी यौनिकता के बारे में जानकारी पाने या उसे समझ पाने के मार्ग में कितनी कठिनाई हो सकती है।
लेकिन फिर भी, हमारे काम और हमारे द्वारा तैयार की गयी जानकारी और सामग्री के सुलभ न हो पाने के लिए हम अक्सर यही कारण बताते हैं कि इस जानकारी तक पहुँच पाना बहुत महंगा होता है। अब यहाँ मैं अपनी बात ख़त्म करते हुए आपको बताना चाहती हूँ कि शंपा सेनगुप्ता ने, जो एक जेंडर और विकलांग लोगों के अधिकारों की ऐक्टिविस्ट हैं, क्या कहा है। सबसे पहले, जानकारी तक पहुँच या उसकी सुलभता तब महंगी हो सकती है जब आप पहले से मौजूद किसी ऐसी जानकारी को सुलभ बनाने की कोशिश कर रहे हों जिस तक पहुँचना मुश्किल है। अगर जानकारी देने के एक समान और हर जगह लागू किए जा रहे तरीकों का पालन किया जाये और शुरू से ही जानकारी को सबके लिए सुलभ और आसान बना दिये जाने पर ध्यान दिया जाये, तो इस प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा खर्च नहीं आएगा। [2] उनका दूसरा विचार यह है कि सुलभता या पहुँच, दूसरी किसी भी सेवा कि तरह ही, मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती है। अगर सवाल सिर्फ विकलांगता और विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के अधिकारों से जुड़े लोगों द्वारा उठाया जा रहा हो, चाहे यह बात आयोजन के स्थान के बारे में हो या फिर दी जाने वाली सेवायों के बारे में हो, तो संभावना यही होती है कि आयोजक सुलभता बढ़ाने के लिए अधिक कीमत वसूल कर सकते हैं। लेकिन अगर हम सभी सुलभता को एक साझे दायित्व के रूप में मान लें और किसी भी ऐसे स्थान अथवा सेवा का प्रयोग न करें जो सबके लिए आसानी से सुलभ न होती हो, तो हम सब मिलकर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सेवाएँ देने वाले लोग भी सुलभता को गंभीरता से लेने लगेंगे और उसको बनाये रखने का प्रयास करेंगे। इस तरह से हम अपनी यौनिकता के बारे में जानने की कोशिशों को और अधिक सरल बना सकेंगे।
[1] इस लिंक के द्वारा आप विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा विकलांगता विषय पर जारी factsheet को देख व पढ़ सकते हैं। http://www.who.int/mediacentre/factsheets/fs352/en/
[2] विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के अधिकार अधिनियम 2016 के भाग 2(झ) में व्यापक डिज़ाइन को परिभाषित करते हुए कहा गया है, ‘वस्तुओं, परिस्थितियों, कार्यक्रमों और सेवाओं को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए कि बिना उनमें किसी भी तरह का बदलाव किए, हर तरह के लोग उनका प्रयोग कर सकें और इनके प्रयोग करने में किसी भी तरह की सहायक प्रणालियों के प्रयोग की ज़रूरत न पड़े फिर चाहे इन सहायक प्रणालियों में किसी ख़ास तरह कि विकलांगता से बाधित लोगों द्वारा प्रयोग करने के लिए किए गए फेरबदल ही क्यों न हों’।
श्रेष्ठा दास, यह जानने को उत्सुक रहती हैं कि नीतियाँ और राजनीति किस तरह से हमारे दैनिक जीवन का भाग बन सकती है। वे एक प्रशिक्षित अधिवक्ता हैं, और श्रेष्ठा की रुचि है समुदायों के साथ जुड़ाव बनाने के लिए कला पर आधारित रास्ता अपनाया जाये ताकि इस प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता बढ़े और बदलाव के बारे में लोग बात करना शुरू करें। श्रेष्ठा, विरोध को नारीवादी कोण से जानने की इच्छा रखती हैं और मानसिक व भावनात्मक तकलीफ़ों पर ध्यान देते हुए, विरोध को दूर करने के लिए समावेशी वातावरण बनाने की दिशा में अग्रसर हैं।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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