इसमें से कौन सा सवाल ख़ुद से पूछना वाजिब होगा – मुझे पहली बार कब अहसास हुआ कि मैं दुबली हूँ? या, मुझे पहली बार कब अहसास दिलाया गया कि मैं ‘अलग’ हूँ और मुझ में कुछ कमी है जिसे ठीक करना ज़रूरी था? या, मैंने अपने दुबलेपन को कब पहचाना और कब यह मेरे लिए सहज हो गया?
अपने शरीर को स्वीकार करना मेरे लिए एक लम्बा सफर रहा है। मैं हमेशा से ही अपने शरीर के साथ सहज ही रही हूँ – ख़ुद को शीशे में बिना कपड़ों के देखना, या मेरे शरीर का चपटा होना (या जैसे कि मेरे दोस्त ‘मज़ाक’ में मुझे टू-डिमेन्शनल बुलाते थे)। मैं 9वीं कक्षा में थी, जब लोग मेरे शरीर के बारे में जो कहते थे वह मेरे अंदर उतरने लगा। मैंने पहली बार रुककर ध्यान दिया कि दूसरों की नज़र में मैं कैसी दिखती थी। यह अपने बारे में सचेत होने की शुरुआत थी, और ख़ुद से असहज होने की भी। मुझे हमेशा से पता था कि मेरा वज़न कम है लेकिन यह मुझे कभी परेशान नहीं करता था। बचपन में मैं बहुत सक्रिय, ऊर्जावान, और ख़ुशमिजाज़ थी। मेरे बहुत सारे दोस्त थे, और स्कूल के दिनों में मैं हर चीज़ में हिस्सा लेती थी – ख़ुद पर ‘सवाल’ करने का कोई कारण नहीं था! मेरे माता-पिता मुझे प्यार करते थे और मेरे दुबलेपन को ही नहीं, बल्कि मेरे गुस्से को भी पूरी तरह स्वीकार करते थे जो जल्द ही मेरे ख़ुद को परिभाषित करने का बड़ा हिस्सा बनने वाला था। दिलचस्प बात यह है कि, यही समय था जब आज के मेरे सबसे क़रीबी दो दोस्तों से मेरी मित्रता की शुरुआत हुई। वे भी मेरी ही तरह दुबले हैं; हमारे बीच एक साझा चिढ़ जिसने हमें और क़रीब ला दिया। पीछे मुड़कर देखूँ, तो मुझे समझ आता है कि यह दोस्तियाँ एक सोचा-समझा निर्णय था, शायद सुरक्षित और ‘साधारण’ महसूस करने के लिए – मैं अकेली नहीं हूँ जो ‘अलग’ और विचित्र है।
बाज़ारों और बसों में चलते-फिरते आंटियाँ सुझाव पकड़ा देतीं कि कैसे मुझे उबले हुए आलू और मक्खन खाना चाहिए जिससे मुझे बहुत गुस्सा आता! उनकी यह मजाल? मेरे शरीर के बारे में उल्टा-सीधा बोलने का उन्हें क्या हक़ बनता है? मेरी ‘बर्दाश्त’ और सब्र की सीमा तो तब पार हो गई जब हमारे कॉलेज के गार्ड तक ने मुझ से कह दिया, “अरे तुम तो कितनी दुबली हो!” मैं आज भी गुस्से से आग-बबूला हो जाती हूँ कि मैंने तभी पलट कर उसे धक्का देकर क्यों नहीं चिल्लाया, ‘तुम्हें इससे क्या!’ मेरा शरीर, जो मेरे लिए इतना निजी और व्यक्तिगत है, कब सार्वजनिक वस्तु बन गया जिसके बारे में लोग मेरी सहमति के बिना चर्चा कर सकें? एक मानसिक स्वास्थ्य संस्था में नौकरी के लिए इंटरव्यू से लेकर मेरी आज की काम की जगह तक जहां मैं ‘शिक्षकों’ से घिरी हुई हूँ, सभी को लगता है कि मेरे शरीर पर टिप्पणी कसना, सवाल करना, और मज़ाक उड़ाना उनका परमाधिकार है। हर बार, हमेशा मैं असहाय और निराश महसूस करती रह गई।
लेकिन मैं इन लोगों को मुझे ऐसा महसूस करवाने से कैसे रोकूँ? एक पूंजीवादी दुनिया में, जहां औरतों का इतनी बेरहमी से वस्तुतिकरण कर दिया गया है, और इससे भी बुरा, जहां औरतें इस वस्तुतिकरण पर कोई आपत्ति भी नहीं करतीं, मैं क्या कुछ ग़लत सवाल पूछ रही हूँ? प्रमदा मेनन के साथ बॉडी इमेज पर एक कार्यशाला में (लाडो सराय की एक आर्ट गेलरी में), पहली बार मैं ऐसे लोगों के बीच थी जो सभी इसी समस्या का सामना कर रहे थे – मैं अपने शरीर को अपना वापिस कैसे बनाऊँ? कार्यशाला में मैंने सीखा कि अपने गुस्से को शब्दों में कैसे उतारा जाए, और ज़्यादा ज़रूरी यह है कि, मुझे ठेस पहुँचाने वाले लोगों का सामना करने या उनसे सवाल करने पर दोषी महसूस न किया जाए। मुझे अहसास हुआ कि लोग बिल्कुल भी सोचते नहीं हैं! उन पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया या किसी ने उन्हें सीमाएँ बनाना नहीं सिखाया। जब मैं अपनी काम कि जगह पर टीचरों से बात करती भी हूँ (मैं एक स्कूल में काउन्सलर का काम करती हूँ) या दोस्तों के साथ भी, तो वे ‘आदर्श शरीर’ के सवाल पर सोच कर आम समझ पर सवाल उठा पाते हैं। हम सब जानते हैं कि यह प्रचलित धारणाएँ कहाँ से आती हैं। लेकिन हमने उन्हें अपने अंदर कब इतनी गहराई से उतार लिया कि हमें वही एकमात्र सत्य/असलियत लगने लगी?
प्रशिक्षित होने के बाद, अब मैं प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के छात्रों के साथ यौनिकता शिक्षा की कार्यशालाएं करती हूँ। इनका एक बड़ा हिस्सा मर्दानगी और नारीत्व और बॉडी इमेज की अवधारणाओं को जानने का होता है। उन्हें तोड़ कर समझना है इससे पहले कि हमारे अंदर हमें कैसा दिखना चाहिए के बारे में यह आसपास बिखरी, सर्वव्यापी परिभाषाएँ जम जाएँ और हम अपने शरीर को और ख़ुद को कैसे परिभाषित करें इसमें समा जाएँ।
मेरी निजी-राजनीतिक सफ़र और प्रक्रिया की अभी शुरुआत ही हुई है। जब मैं अकेली या दोस्तों के साथ होती हूँ, तब मैं सुरक्षित महसूस करती हूँ और मैं कौन हूँ, इस पर मुझे यक़ीन होता है। लेकिन सार्वजनिक जगहों पर सबकी नज़रें आज भी मुझे बहुत चौकन्ना बनाये रखती है। इन वाक्यों में दो तरह की बातें है – एक ऐसा टकराव जो मेरे अंदर की उथल-पुथल को दर्शाता है। क्या दुबला होना मेरा चुनाव है? नहीं। क्या मैं कुछ अलग होना चाहूँगी? किशोरावस्था में शायद मैंने अपने शरीर के बदले आम तौर पर स्वीकार्य शरीर मांगा होता। इससे मेरी ज़िंदगी में निश्चित तौर पर कुछ कम भावनात्मक उतार-चढ़ाव होते चूंकि मुझ से ऐसे सवाल न पूछे जाते जिनसे मुझे ख़ुद पर ही संदेह होने लगता। अभी मैं दुबली होने से ख़ुश हूँ! मैं न तो ऐनोरेक्सिक हूँ, न मुझे कुपोषण या ख़ून की कमी है, न ही मुझे कोई और भोजन विकार’ है। मैं बस दुबली हूँ। हम सबको हमारे अपने शरीर पर जिस तरह से हम चाहें अपना अधिकार होना चाहिए। और अब मैं अपने बारे में शर्मिंदा नहीं होंऊँगी, अब और नहीं।
एकता ओज़ा वर्तमान में राजनीतिक भागीदारी और सोशल मीडिया पर एक परियोजना में शोध सहायक के रूप में काम कर रही हैं। पिछले आठ वर्षों में उन्होंने एक स्कूल काउंसलर के रूप में और बच्चों और युवाओं के साथ जेंडर, यौनिकता, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर विकास क्षेत्र में काम किया है।
निधि अगरवाल द्वारा अनुवादित।
To read this article in English, click here.
कवर इमेज: एकता ओज़ा