तारशी के ब्लॉग में हम इस महीने ‘बॉडी इमेज’ पर बात करेंगे। बॉडी इमेज वह है जो व्यक्ति अपने शरीर के बारे में सोचते हैं – जो इस धारणा पर आधारित है कि उन्हें अपने शरीर के बारे में क्या अच्छा लगता है और क्या नहीं।
बॉडी इमेज और आत्मविश्वास या स्वाभिमान का बहुत गहरा जुड़ाव है, विशेषकर युवाओं के लिए। कोई व्यक्ति अपने बारे में क्या सोचते हैं एवं महसूस करते हैं, उससे निर्धारित होता है कि वे अपने जीवन में किस प्रकार के निर्णय लेंगे और अपने जीवन को कैसे संभालेंगे। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति में आत्मविश्वास एवं सकारात्मक बॉडी इमेज का विकास हो। बॉडी इमेज से जुड़े मुद्दे हर व्यक्ति के लिए प्रसंगानुकूल हो सकते हैं पर कभी–कभी ये कुछ लोगों को अन्य लोगों की तुलना में ज़्यादा प्रभावित करते हैं। यह उन लोगों के लिए अधिक कठिन हो सकता है जो समाज के बनाए ‘शरीर के ढांचे’ से अलग दिखते हैं, जैसे वे जिनकी त्वचा का रंग अलग है, वे जो बहुत पतले या मोटे हैं, जिनमें कोई विकलांगता है या फिर वे जिन्हें अपने शरीर के बदलाव ‘सामान्य’ नहीं लगते या असहज लगते हैं – ट्रांसजेन्डर व्यक्ति। निरंतर द्वारा प्रकाशित इस कहानी में ऐसे ही एक व्यक्ति के जीवन की कश्मकश को चित्रित करने की कोशिश की गई है।
पंजाब में रहने वाला गुनराज बचपन से ही प्यारा सा शर्मीला बच्चा था। अक्सर उसे लगता था कि इस दुनिया में वह ही एक मात्र ऐसा लड़का होगा जिसे लगता है कि वह एक लड़की है। जितना भी उसे उसके परिवार वाले या उसके दोस्त लड़के के रूप में देखते थे, उतना ही उसे लगता था कि वह लोग गलत हैं, क्योंकि वह तो एक लड़की है।
खैर, यही सोचते-सोचते वह बड़ा होने लगा। एक बार स्कूल में एक नाटक में वह लड़की का किरदार निभा रहा था। लड़की के वेश में मानो वह फूला नहीं समाया हो। घर आकर वह अपने पापा से बोला ‘पापा मुझे तो सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब मिलेगा’। उसके पापा उसे टोकते हुए बोले ‘नहीं बेटा, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’। यह सुनकर दुखी हो गया था वह। अक्सर जब कोई किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, तो उसके लिए आइना एक दोस्त या सहेली बन जाता है। परंतु जब गुनराज की उम्र बढ़ने लगी, तब आइने में अपना चेहरा देखकर उसे खीज होने लगी। वह सोचता, यह कैसे बाल मेरे चेहरे पर आने लगे हैं। इस पर एक और दिक्कत – स्कूल में सिख लड़कों के लिए पगड़ी पहनना ज़रूरी था। आप सोच सकते हैं गुनराज की क्या हालत होती होगी। सिख समुदाय के होने की वजह से, लड़का होने के बावज़ूद उसके बाल लम्बे थे लेकिन उसे उन्हें पगड़ी में बाँधना पड़ता था।
गुनराज के माँ-बाप को काफ़ी उलझन होती थी। वे उसे बताते थे कि तुम जैसा सोच रहे हो वैसा नहीं होता है। लेकिन वे उसे डाँटते नहीं थे। उनको पता था कि गुनराज लड़कियों की आवाज़ में किसी-किसी से फ़ोन पर बात करता था। बारहवीं कक्षा की परिक्षा से पहले जब वह घर से भाग गया, परिवार वाले उसे वापस लाए और उसे पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगे।
खैर 17-18 साल की उम्र तक यह सिलसिला चलता रहा। उस समय तक तो उसे लगता रहा कि इस दुनिया में बस वही एक अलग तरह का इन्सान पैदा हुआ था। तभी उसकी पहचान इंटरनेट की दुनिया से हुई और इंटरनेट से उसे पता चला कि उसकी तरह कई सारे लोग हैं। जो बचपन में अकेलापन उसे खाए जा रहा था, वह कम हुआ।
12वीं पास करने के बाद गुनराज का दाखिला एक इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया। वह हॉस्टल में रहने लगा। उसे पता था कि उसका मज़ाक उड़ाया जाएगा, उसे लड़की-लड़की कह कर चिढ़ाया जाएगा। वह जानता था कि इससे पीछा नहीं छुड़ा सकता था वह। घर से दूर आकर उसे अपने आपको खोजना था। पहला साल तो इसी तरह ताने, हँसी-मज़ाक में चला गया। फिर भी इसी सबके बीच में उसे कुछ दोस्त भी मिले। वह कई सारे समलैंगिक लड़कों से भी मिलने लगा। क्योंकि उसे लड़कों के प्रति आकर्षण था। लेकिन लड़के के रूप में जन्म लेकर लड़की जैसा महसूस करने वाला गुनराज अपने आपको समलैंगिक नहीं मानता था, क्योंकि वह अपने आपको लड़का नहीं महसूस करता था।
इंजीनियरिंग खत्म होने के बाद गुनराज ने यह तय किया कि वह इंजीनियर नहीं बनना चाहता। वह मुंबई के एक फिल्म स्कूल में भर्ती हो गया। जब पढ़ाई के दौरान गुनराज को फिल्म बनानी पड़ी तो उसने ‘ट्रान्सजेन्डर’ लोगों पर फिल्म बनाने की सोची। दोस्तों ने उसका साथ दिया। गुनराज चाहता था कि इस फिल्म में वह लोग भी शामिल हों जिन्होंने लिंग बदलने का ऑपरेशन कराया हो या जो ऑपरेशन करवाना चाहते हैं। लेकिन बहुत मेहनत के बाद भी ऐसे लोग नहीं मिल रहे थे, जो कैमरे के सामने आकर अपनी बात कह सकें। तब गुनराज को लगा कि असल में उसे खुद भी इस फिल्म में होना चाहिए।
फिल्म बनी और गुनराज ने अपने माता-पिता को यह फिल्म दिखाई। काफ़ी सोचने के बाद ही वह यह कर पाया। जब फिल्म खत्म हुई तो कमरे में सन्नाटा था। फिर धीरे से पिता बोले, ‘ऑपरेशन के लिए कब जाना है’।
उस दिन के बाद गुनराज ने पलटकर नहीं देखा। डेढ़ साल तक उसके ऑपरेशन का सिलसिला चला। यह आसान नहीं था। न मानसिक तौर पर, न सामाजिक तौर पर और न शारीरिक तौर पर। बहुत सारी दवाइयाँ खानी पड़ी। एक नहीं कई ऑपरेशन करवाए और आखिर में प्रक्रिया पूरी हुई और जन्म हुआ – गज़ल का ! गज़ल खुशी से फूली नहीं समाई। उसे मानो अपना असली शरीर और असली पहचान मिल गई थी।
निरंतर द्वारा प्रकाशित ‘खुलती परतें : यौनिकता और हम’; अंक 2; संस्करण – सितंबर, 2011; पृष्ठ संख्या 29-30; से उद्धरित
यह वृत्तचित्र गज़ल के उस सफ़र की एक झांकी है जो उन्होंने गुनराज के रूप में शुरु किया था। गज़ल के ही शब्दों में, ‘मेरे लिए गुनराज एक बहुत दुखी इन्सान था। मुझे लगता था कि हर कोई मुझसे बेहतर है। मैं कहीं भी फिट नहीं होती थी।’ इस वृत्तचित्र के माध्यम से जेन्डर पहचान से जुड़े मुद्दों की विशिष्टता दर्शाने की कोशिश की गई है।
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Images: Gazal Dhaliwal, Facebook