13 साल की उम्र में मुझे एक पौधे का प्रजनन तंत्र विस्तार में समझाना अच्छे से आ गया था। एक फूल की शरीर-रचना की एक-एक बारीक़ी से मैं वाक़िफ़ थी और मैं क़ायदे से उसके पराग-केसरों, उसकी रेशाओं, और उसके परागकोषों की नग्न तस्वीरें बनाती थी। मुझे लगता था कि मेहनत के लिए इम्तिहान में ज़्यादा नंबर दिए जाएंगे और हर बार बढ़िया से शेडिंग करने में काफ़ी वक़्त लग जाता था।
मगर पौधों के प्रजनन तंत्र के बारे में जितनी जानकारी मैंने इकट्ठी की थी, उसकी ज़रूरत मुझे ज़िंदगी में बाद में कभी भी नहीं पड़ी।
उसी साल मेरे सहपाठियों और मैंने बायॉलजी की एक पूरी क्लास इंसानों के प्रजनन तंत्र के बारे में ‘न सीखते हुए’ बीताई। हमारे टीचर ने बदमिज़ाजी से हमें ये ख़बर दी कि हमें अपनी किताबों से ये पन्ने फाड़ देने हैं या मार्कर से उन पर लकीरें खींच देनी हैं ये दिखाने के लिए कि हमें वो वाला चैप्टर नहीं पढ़ाया जाएगा। उस साल शिक्षा मंत्रालय ने सभी स्कूलों को ये आदेश दिया था कि बच्चों को मनुष्य प्रजनन तंत्र के बारे में नहीं पढ़ाया जाएगा। इंसान के शरीर के ऊपर होने वाली चर्चाओं में 13 साल के बच्चों की कोई जगह नहीं है।
ये कोई घटिया मज़ाक नहीं था जिसके तहत ये चीज़ें न पढ़ाए जाने के बावजूद हमें साल के आख़िर में इन पर सवालों के जवाब देने पड़ते। ऐसा भी नहीं था कि किताबों में ग़लत जानकारी दी गई थी। बात सिर्फ़ यही थी कि हम ‘बहुत छोटे थे’ इसलिए हमें प्रजनन, सेक्स, या इनसे जुड़ी चीज़ों के बारे में जानने का हक़ नहीं था। हम ‘मासूम’ थे इसलिए ये सारी बातें बताकर हमारे दिमाग़ को ‘दूषित’ करना सरकार को ठीक नहीं लगा।
अब 16 साल बाद भी मैं समझ नहीं पाई हूं कि ऐसा करने का मक़सद क्या था। 13 साल के बच्चों की एक पूरी पीढ़ी को ज़रूरी जानकारी से वंचित करने के अलावा सरकार आख़िर क्या हासिल करना चाह रही थी*।
बायॉलजी की क्लास में बैठकर मनुष्य प्रजनन तंत्र के बारे में पढ़ने को व्यापक यौनिकता शिक्षा नहीं कहा जा सकता। ये उसके आसपास भी नहीं आता। फिर भी शरीर के बारे में खुली चर्चा (भले ही वो सिर्फ़ जीववैज्ञानिक नज़रिये से हो) को बढ़ावा देने के लिए यही एक मौक़ा था। इसके अलावा ये चर्चाएं करने के लिए मेरे पास कोई और रास्ते नहीं थे और इन मुद्दों पर बात शुरु करने का भी कोई ज़रिया नहीं था।
इन मुद्दों पर चुप्पी साधने से इनसे जुड़े मिथकों और ग़लत जानकारियों को बढ़ावा मिलता है जो आगे जाकर हमारे शरीर के बारे में हमारी समझ का निर्माण करते हैं। इसका असर हमारे शरीर से जुड़े हमारे फ़ैसलों पर पड़ता है क्योंकि हम यही सीखते हैं कि हम अपने शरीर के बारे में सिर्फ़ कुछ ही फ़ैसले ले सकते हैं।
जब मैंने पहली बार रज़ामंदी (consent) के बारे में सीखा था तो अपने शरीर के नहीं बल्कि काग़ज़ात पर दस्तख़त करने के संदर्भ में सीखा था। मुझे पता ही नहीं था कि शरीर से संबंधित रज़ामंदी भी कोई चीज़ होती है। मुझे नहीं पता था कि सिर्फ़ ‘हां’ या ‘ना’ के बाहर भी रज़ामंदी के कई पहलू हैं और ‘हां’ या ‘ना’ कहना भी हमेशा आसान नहीं होता।
सुरक्षित यौन संबंधों पर कभी कोई बात नहीं होती थी क्योंकि हमसे उम्मीद ही यही थी कि हम शारीरिक संबंधों से दूर रहेंगे। यौन-संक्रमित बीमारियों पर भी हमें कोई सीख नहीं दी गई क्योंकि हमें ऐसी बीमारी हो सकती है, ऐसा मुमकिन ही नहीं माना जाता था। कॉंडम भी आसानी से नहीं मिलते थे। वे सिर्फ़ दवाई की दुकान में कांच की बंद खिड़कियों के पीछे नज़र आते थे और उनकी क़ीमत भी हमें नज़र नहीं आती। और अगर हम किसी तरह कॉंडम ले भी लेते, उनका इस्तेमाल कैसे करना है ये हमें नहीं पता था।
विषमलैंगिकता (heterosexuality) के अलावा किसी तरह की यौनिकता के बारे में हम नहीं जानते थे। हमने ऐसा कुछ न देखा था, न पढ़ा था, न महसूस किया था। ‘क्वीयर’ शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं था।
मुझसे बस इसी सीमित जानकारी से संतुष्ट रहने की उम्मीद थी। मुझे अपनी ज़िंदगी और अपनी पहचान बस इतनी सी जानकारी से भर लेना था।
ये देखकर बुरा लगता है कि इतने सालों बाद भी हालात बदले नहीं हैं। वही रिवाज चलता आ रहा है। हम अभी भी उन्हीं राहों पर चल रहे हैं जो हमने पहले बनाईं थीं। ये बड़ी विडंबना की बात है कि आज भी किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों से उनकी ‘हिफ़ाज़त’ के लिए ज़रूरी जानकारी छिपाई जाती है। ग़लत जानकारी और मिथकों का प्रचार बिना किसी रोकथाम के होता रहता है। लोगों की पहचानें और आज़ादी दबी रह जाती है क्योंकि सवाल करने और अभिव्यक्ति का कोई ज़रिया नहीं है।
क्या व्यापक यौनिकता शिक्षा की मांग करना काफ़ी है? क्या सही जानकारी मिलना हमें पुराने ढांचे छोड़कर नयापन अपनाने में मदद करने के लिए काफ़ी है?
शायद मैं नादान थी जब मैं सोचती थी कि हां, यही काफ़ी है। ज्ञान से ही ताक़त मिलती है और सिर्फ़ सही जानकारी के ज़रिए ही वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में भूकंप लाया जा सकता है।
शायद ऐसा हो भी सकता है लेकिन मेरे मन में ये ख़्याल बार-बार आता है कि ऐसा ज़रूरी नहीं है कि जिनके पास सही जानकारी है, वे सामाजिक बदलाव लाने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगे। व्यापक यौनिकता शिक्षा अकेले काफ़ी नहीं है।
जब मैं बड़ी हुई, शायद उन्नीस साल की, तब एक दिन आया जब मैं बेसब्री से अपने पीरियड का इंतज़ार कर रही थी और अपने आप को अंदर ही अंदर कोस रही थी कि मैंने ऐसा कुछ किया ही क्यों जिससे इस तरह इंतज़ार करने की नौबत आए? मुझे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए था। मुझे पता होना चाहिए था।
और हां, मुझे पता था कि गर्भावस्था और यौन-संक्रमित बीमारियों से बचना ज़रूरी है। तब तक मैंने कॉंडम का इस्तेमाल सीख लिया था। लेकिन फिर भी मैं इस हालत में थी।
टीवी पर ‘छतरी है?’** वाले कई ऐड देखने के बाद भी मुझे दवाइयों की दुकान में जाकर कॉंडम मांगने से डर लगता था, शर्म आती थी। मैं ख़ुद को समझाती रहती कि मैं कुछ ग़लत नहीं कर रही, मेरे लिए अपनी हिफ़ाज़त करना ज़रूरी है, मैं जवान और आज़ाद हूं, लेकिन फिर भी मुझे पकड़े जाने का डर था। सवालों का डर था, लोग क्या कहेंगे इसका डर था, गालियों का और अपने परिवार और दोस्तों की नज़रों में गिर जाने का डर था।
शायद मेरा ये डर बेबुनियाद था लेकिन फिर भी ये इतना बड़ा था कि अंदर से मुझे खा जाता था। हमेशा डरे-सहमे रहना, इस पर बात करने से हिचकिचाना, पीरियड का इंतज़ार करना और फिर उसके आने पर चैन की सांस लेना – मुझे नहीं लगता ये सब ठीक है।
जानकारी होने के बावजूद भी मैं सही तरह से इसका इस्तेमाल नहीं कर पाई।
मैं जब ये बातें याद करती हूं, शायद मुझे ये सारी चीज़ें एक (वर्गीय, जातिगत, शारीरिक सामर्थ्य पर आधारित, और जेंडर-संबंधित) विशेषाधिकार-प्राप्त नज़रिये से याद आतीं हैं। मैं अपने विशेषाधिकारों के ज़रिए ही उन जगहों, किताबों, लोगों, और जानकारी और ताक़त के स्रोतों तक पहुंच पाई हूं जो मेरी हिफ़ाज़त करते हैं। बहुत सारे लोग आज भी इन तक नहीं पहुंच पाए हैं और व्यापक यौनिकता शिक्षा पाठ्यक्रम के तहत इस बात पर ध्यान देना भी ज़रूरी है।
मैं व्यापक यौनिकता शिक्षा संबंधित भाषा और कार्यक्रमों की मांग कितनी ही क्यों न कर लूं, मुझे याद रहता है कि ये कोई जादूई छड़ी नहीं है। व्यापक यौनिकता शिक्षा से सारी मुसीबतें ख़त्म नहीं हो जाएंगी। ये महज़ एक शुरुआत है और इसे स्थानीय हक़ीक़तों और ज़रूरतों के अनुकूल बनाना हमारी ज़िम्मेदारी है।
हम जब सभी युवाओं के लिए व्यापक यौनिकता शिक्षा उपलब्ध कराने की बात करते हैं (ख़ासकर अगर वे विकलांगता के साथ जी रहे हों, LGBTQI हों, या किसी वंचित वर्ग से ताल्लुक रखते हों), हमारी ज़िम्मेदारी ये भी है कि हम लोगों की मानसिकता बदलने का काम करें, उन्हें ज़रूरी सेवाएं उपलब्ध कराएं, और अपने काम के ज़रिए सामाजिक, पारंपरिक, आर्थिक, और क़ानूनी सीमाएं पार करें।
सारी सरहदें तोड़ने के लिए, सरहदें बनाने वालों को अपने पक्ष में लाने के लिए, और असुरक्षित माहौल बनाने वाले भेदभावपूर्ण क़ानून रद्द करने के लिए सिर्फ़ व्यापक यौनिकता शिक्षा काफ़ी नहीं है। हमें ऐसे माहौल बनाने की ज़रूरत है जिनमें व्यापक यौनिकता शिक्षा काम कर सके। सिर्फ़ अधिकारों पर बातें करने की जगह हमें लोगों को सिखाने की ज़रूरत है कि किस तरह वे इन्हें अपनी ज़िंदगी में लागू कर सकते हैं। हमें ये सारे माहौल एक साथ बनाने की ज़रूरत है और इस बात का ध्यान रखने की ज़रूरत है कि हमें अपने ज्ञान को सक्रियता में बदलना है, और हमारा ज्ञान सचमुच हमारी ताक़त है।
*अगले साल ही सरकार ने ये अजीब-सा नियम वापस ले लिया था और स्कूलों में प्रजनन तंत्र के बारे में जल्दबाज़ी से पढ़ाया जाने लगा।
**कॉन्डम के विज्ञापनों में सुरक्षा के प्रतीक के हिसाब से छतरी दिखाई जाती है।
ऋषिता नंदगिरी लेखिका और शोधकर्ता हैं और वे यौनिक और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों से संबंधित नीतियों का अध्ययन करतीं हैं। वे एक बातूनी नारीवादी हैं जो ‘द क्वायट्यूड’ नाम का एक नारीवादी पॉडकास्ट चलातीं हैं। वे @rishie__ नाम से ट्वीट करतीं हैं, मगर किसी ख़ास मुद्दे के बारे में नहीं।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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तस्वीर – अवेटिंग ब्लूम