“हम डिजिटल माहौलों में मटरगश्ती नहीं कर सकते, बस घुट-घुटकर जी सकते हैं।”
दिल्ली में हम लोग एक नए मुद्दे पर चर्चा करने के लिए इकट्ठे हुए थे और उसके दो दिन बाद भी ये एक बात मेरे ज़ेहन में बसी हुई थी। इस बैठक में अलग-अलग जेंडर और यौनिक पहचानें रखने वाले लोग शामिल थे, और शामिल थे विकलांगता-अधिकार कार्यकर्ता, तकनीकी विशेषज्ञ, शोधकर्ता, और डिजिटल व्यवसायी। कुछ लोग लाठियों और व्हीलचेयर के सहारे आए थे तो कुछ लोगों की विकलांगताएं ऐसी थीं कि वे बाहर से नज़र नहीं आती थीं। कई विकलांगता-रहित लोग भी सौहार्द या दिलचस्पी दिखाने आए थे।
ऐसा लग नहीं रहा था कि हम ऑनलाइन दुनिया में ‘मटरगश्ती’ के बारे में बात करने आए थे। हम यहां बात कर रहे थे विकलांगता के साथ जीने वाले लोगों के लिए डिजिटल आत्मनिर्णय की – एक बड़ा, पेचीदा मुद्दा जिसे हम आसान बनाने के लिए उसके मूल तत्व यानी ‘स्वयं’ पर ले आए थे।
मैं किसी डिजिटल माहौल में अपने आप में महफ़ूज़ कैसे रह सकती हूं – चाहे वो कोई डेटिंग ऐप हो या पेटीएम की तरह आर्थिक लेन-देन का कोई प्लैटफ़ॉर्म? मुझे इन माहौलों में अपने वजूद की अहमियत का एहसास कैसे दिलाया जा सकता है? डिज़ाइन, तकनीक, और नीतियों का इसमें क्या योगदान हो सकता है?
लेकिन अगर ग़ौर किया जाए तो हम वाक़ई मटरगश्ती की ही बात कर रहे थे। क्योंकि आख़िर डिजिटल माहौलों पर अपना हक़ जताना, अपनी मर्ज़ी से ख़ुद को व्यक्त करना, और धाक से अपनी पहचान पूरी दुनिया के सामने बयां करना मटरगश्ती ही तो है, ख़ासकर अगर वे माहौल वासना, रोमांस, सेक्स, और आनंद पर केंद्रित हों।
विकलांगता के साथ जी रही एक क्वीयर औरत बता रही थी कि उसे डेटिंग ऐप्स का इस्तेमाल करने में असहजता होती है क्योंकि अक्सर उनमें विकलांगता के लिए कोई ‘मार्कर’ नहीं होते, यानी ये चिह्नित करने का कोई ज़रिया नहीं होता कि हम विकलांगता के साथ जी रहे हैं। इन मार्कर्स का न होना एक तरह का बहिष्कार है क्योंकि ऐसे में उस व्यक्ति को तय करना होता है कि अपनी विकलांगता की बात कैसे बताए, या बताए भी या नहीं। क्या सामने वाले को अपनी विकलांगता के बारे में बताना सही होगा? क्या ये बात छिपाए रखने में ही भलाई है? अपने प्रोफ़ाइल में कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए?
इससे मुझे याद आया कि मैंने एक बहुत अच्छा लेख पढ़ा था जिसमें लेखक एक प्रत्यक्ष विकलांगता के साथ ‘टिंडर’ डेटिंग ऐप पर होने का अनुभव बताते हैं। लेखक टोनी कुरियन दृष्टिबाधित हैं और इस लेख में वे कहते हैं, “मुझे सबसे पहले जिस सवाल का सामना करना पड़ा वो यह था कि क्या मुझे अपने प्रोफ़ाइल में अपनी विकलांगता के बारे में बताना चाहिए या क्या मुझे किसी होने वाले साथी को मुझे जानने और समझने के लिए थोड़ा वक़्त देने के बाद उन्हें बताना चाहिए?”
टोनी आख़िरकार अपने प्रोफ़ाइल में अपने दृष्टिबाधित होने का ज़िक्र करने का फैसला लेते हैं क्योंकि उन्हें ये एहसास होता है कि ऐसा करने का मतलब है बेझिझक होकर अपनी पहचान दुनिया के सामने व्यक्त करना। वे कहते हैं, “टिंडर पर प्रोफ़ाइल बनाकर और उसमें अपनी विकलांगता का ज़िक्र करते हुए मैं दुनिया से ये कहना चाह रहा था कि मैं भी एक ऐसा इंसान हूं जिससे प्यार किया जा सकता है और मेरे जैसा कोई भी प्यार करने लायक है।
हमारी मीटिंग में एक और हिस्सेदार ने अपनी दोस्त का ज़िक्र किया था, जो एक ट्रांस औरत है। उसने शारीरिक ट्रांज़िशन की प्रक्रिया शुरु नहीं की है और इसलिए वो अपनी तस्वीरें डेटिंग ऐप पर डालती है तो उसे कोई ‘मैच’ नहीं आते (यानी कोई उसका प्रोफ़ाइल पसंद नहीं करता)। लेकिन वो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के जरिए अपने चेहरे को ‘औरत जैसा’ बना लेती है तो उसे बहुत सारे मैच मिलने लगते हैं।
ये हमें इंटरनेट पर अपने शरीर और पहचान पर अपने अधिकार जताने के बारे में क्या बताता है? बात आगे बढ़ती रही और हम समझने लगे कि किस तरह डिजिटल माहौल ढांचागत रूप से विषमलैंगिकता-प्रधान, विकलांगता-विरुद्ध, और द्विआधारी होते हैं, और किसको किन सामाजिक स्थानों में रहने का अधिकार है इससे जुड़े सामाजिक मानदंड निर्धारित करते हैं।
“हम चाहते हैं कि हमें पसंद किया जाए और मान्यता मिले मगर हमें इनका एहसास कभी नहीं हुआ है,” एक हिस्सेदार ने कहा। “हमें अपने विकलांग, ट्रांस शरीरों पर शर्म आती है लेकिन कुछ हद तक डेटिंग ऐप्स पर हमें इस शर्म का इतना एहसास नहीं होता। ये एक अजीब-सा अनुभव है, वो भी एक ऐसी दुनिया में जहां हम से यह उम्मीद रखी जाती है कि हम विकलांगता-रहित लोगों की तरह ही चलते-बोलते फिरें। हम कैसे इसके साथ जूझ सकते हैं?”
विकलांगता के साथ जी रहे एक और ट्रांस हिस्सेदार ने बताया किस तरह गोपनीयता वासना की अभिव्यक्तियों को बढ़ावा दे सकती है। उनके सोशल मीडिया प्रोफ़ाइलों पर उनका असली नाम तो नहीं है पर उनसे ये ज़रूर प्रतीत होता है कि वो ट्रांस है। “लोग अक्सर मुझसे ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे मैं कोई सामान हूं,” उन्होंने कहा। “मर्द अक्सर मेरी तरफ़ आकर्षित होते हैं लेकिन वे ये मानते नहीं और छिपाए रखते हैं। क्योंकि समाज उनकी इच्छाओं को मान्यता नहीं देता, वे इंस्टाग्राम पर गुमनामी अकाउंटों से मुझे ‘हैलो हॉटी’ जैसे मेसेज भेजते हैं। मुझे नहीं लगता इसमें उनका कोई कसूर है क्योंकि शर्म से मुक्त होकर इस इच्छा को व्यक्त करने के लिए उनके पास कोई ज़रिया नहीं है।”
डिजिटल माहौलों में गोपनीयता का मुद्दा थोड़ा पेचीदा भी है। एक तरफ़ अपने असली नाम का इस्तेमाल न करना हमारी पहचान को दूसरों से छिपाए रख सकता है, वहीं दूसरी तरफ़ डिजिटल माहौलों में शामिल होते वक़्त हमसे जो निजी जानकारी इकट्ठी की जाती है, उससे हमारी पहचान का पता आसानी से लगाया जा सकता है। एक-दूसरे से अपनी पहचान छिपाने के बावजूद भी हम इस डिजिटल ढांचे से कुछ नहीं छिपा सकते।
दृश्यता (visibility) और अदृश्यता की राजनीति भी आत्म-निर्णय का एक अहम हिस्सा है। डिजिटल मंच जब विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के लिए सुगम्य बनने की कोशिश भी करते हैं, वे सिर्फ़ प्रत्यक्ष विकलांगताओं को मद्देनज़र रखते हुए काम करते हैं और नज़र नहीं आने वाली विकलांगताएं वंचित रह जातीं हैं।
डिजिटल सुगम्यता को लेकर दृश्यता से जुड़ा एक और बड़ा सवाल पैदा होता है – क्या ऐप और डिजिटल मंच विकलांगताओं के साथ जीने वालों के इस्तेमाल के लिए आसान हैं? कोई उस मंच में अपनी पहचान को व्यक्त कैसे कर सकता है अगर वो उस मंच तक पहुंच ही न पाए?
निधि गोयल जेंडर और विकलांगता अधिकारों पर काम करतीं हैं और उन्होंने मेरे साथ मिलकर ये बैठक संचालित की थी। इस लेख में वे बताती हैं कि किस तरह वे जिस वॉईस टेक्नोलॉजी के सहारे काम करतीं हैं, लोगों से जुड़तीं हैं, और अपनी ज़िंदगी जीतीं हैं, उसी के सहारे वे एक डेटिंग ऐप नहीं चला पातीं। वे ये भी बतातीं हैं कि डेटिंग ऐप इस्तेमाल करने वालों में जेंडर का फ़र्क़ नज़र आता है। विकलांगता के साथ जी रही औरतें बतातीं हैं कि वे इन मंचों पर खुलकर अपनी इच्छाएं नहीं बयां कर सकतीं क्योंकि उनसे हमेशा यही उम्मीद रहती हैं कि वे शादी के बाद अपने पति के साथ ही ऐसा करें।
सुगम्यता, विकलांगता-अनुकूल तकनीकी डिज़ाइन, सुरक्षा, अपनेपन और समुदाय का एहसास… ये सारी चीज़ें डिजिटल माहौलों में आत्म-निर्णय को बढ़ावा देने के लिए बहुत ज़रूरी हैं। विकलांगता के साथ जीने वाले कई लोगों ने बताया कि डिजिटल समुदाय उन्हें अलग-अलग तरीक़े से ज़िंदगी जीने में मदद करते हैं। लेकिन सिर्फ़ ज़िंदगी जीना ही काफ़ी नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में अपने हिसाब से अस्तित्व रखना भी ज़रूरी है। इसीलिए सुगम्यता को प्राथमिकता देना बहुत ज़रूरी है और इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये तकनीकी डिज़ाइन का एक मुख्य अंग बना रहे। विकलांगता के साथ जीने वालों को डिजिटल माहौलों तक हर तरह से पहुंच दिलवाना ज़रूरी है और ये समझना ज़रूरी है कि उन्हें भी औरों की तरह मटरगश्ती का हक़ है।
एक शानदार लेख में शिल्पा फडके, शिल्पा रानडे, और समीरा ख़ान ने बताया है कि हक़ीक़त की ज़िंदगी में मटरगश्ती करना एक राजनीतिक क्रिया है जो आनद को प्राथमिकता देती है[1]। जब बात जेंडर की होती है, मटरगश्ती करने की क्रिया उन सामाजिक मानदंडों के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा मारती है जो सार्वजनिक स्थानों में औरतों से एक ‘आदर्श’, ‘इज़्ज़त के लायक’ बर्ताव की उम्मीद करतीं हैं। ये दृश्यता की राजनीति का एक उदाहरण है। सार्वजनिक स्थानों में सत्ता की व्यवस्थाओं को चुनौती देते हुए ये इन स्थानों पर हर किसी के समान अधिकार की बात करती है और “सत्ता की वर्तमान व्यवस्थाओं को तोड़ते हुए इस धारणा को ही नकार देती है कि किसी एक तबके के मुक़ाबले किसी दूसरे तबके के अधिकार ज़्यादा अहमियत रखते हैं।”
इस तरह की मटरगश्ती की ज़रूरत डिजिटल माहौलों में भी है। ऐसे डिजिटल माहौल बनाने की ज़रूरत है जहां विकलांगताओं के साथ जीने वाले लोग सिर्फ़ एक कोने में सिमटकर न रह जाएं बल्कि खुलकर मटरगश्ती करते हुए अपने होने का एहसास दिला सकें और अपनी पहचान बना सकें। लाठियों, वॉइस असिस्टेंट, और सुगम्यता फ़ीचरों के सहारे कामना और आनंद का लुत्फ़ उठा सकें।
बिशाखा दत्त डिजिटल माहौलों में जेंडर और विकलांगता पर काम करतीं हैं। वे मुंबई में ‘पॉइंट ऑफ़ व्यू’ नामक ग़ैर-लाभकारी संगठन चलातीं हैं, ग़ैर-काल्पनिक साहित्य लिखतीं हैं और फ़िल्में बनातीं हैं, और उन मुद्दों में दिलचस्पी रखतीं हैं जिन पर खुलकर बात नहीं की जाती।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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[1] फडके, एस; रानडे, एस; ख़ान, एस (2009)। व्हाई लॉइटर? रैडिकल पॉसिबिलिटीज़ फ़ॉर जेंडर्ड डिसेंट। एम बुचर और एस वेलायुधम द्वारा संपादित डिसेंट ऐंड कल्चरल रेसिस्टैंस इन एशियाज़ सिटीज़ में (पृ: 185-203)। लंडन एवं न्यू यॉर्क: रूटलेज।
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