यह लेख है एक कहानी सुनाने की यात्रा के बारे में जिसमें कि पांच सेक्स वर्कर्स – चार महिलाएं और एक पुरुष – एक फ़िल्म निर्माता/कथावाचक के साथ निकलते हैं। शोहिनी घोष की फ़िल्म टेल्स ऑफ़ द नाइट फ़ेरीज़, सेक्स वर्क के इर्द-गिर्द समकालीन मुद्दों पर विचार करते हुए सामूहिक संगठन और प्रतिरोध की शक्ति का पता लगाती है।कलकत्ता का भूलभुलैया जैसा शहर इस फ़िल्म की व्यक्तिगत और संगीतमय यात्राओं के लिए पृष्ठभूमि बनता है।
2001 में दरबार महिला समन्वय समिति (DMSC) ने अपनी मौजूदगी और हज़ार वर्षों के सम्बद्ध में सेक्स वर्कर्स के लिए सॉल्ट लेक स्टेडियम में एक कार्निवल का आयोजन किया जिसको मिलेनियम मिलन मेला का नाम दिया गया था। यह एक नियमित पुराने मेलों जैसा ही था जिसमें संगीत, खेल, और अलग-अलग तरह के प्रदर्शन थे। लेकिन इसे तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, और यह विरोध सामान्य लोगों की ओर से नहीं था बल्कि वास्तव में, कई शक्तिशाली और मुख्यधारा के महिला समूहों ने इसे बंद करने की कोशिश की थी। “मेरा यह मानना है कि प्रॉस्टिट्यूशन भी महिलाओं के ख़िलाफ़ एक तरह की हिंसा है। मैं यह निश्चित रूप से कहती हूँ कि आप भी यह मानेंगे। हैं न?” एक महिला का DMSC सदस्य सुदिप्ता बिस्वास से एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान यह सवाल था जो टेल्स ऑफ़ द नाइट फ़ेरीज़ में दिखाया गया है। सुदिप्ता बिस्वास का इस पर तीखा जवाब था – “प्रॉस्टीटूशन भी बाक़ी कामों की तरह ही एक काम है, और सेक्स वर्कर्स स्पष्ट रूप से समाज की ज़रुरत को पूरा करते हैं, तो फिर उन्हें उनके पेशे के लिए क्यों सताया और शर्मिंदा किया जाना चाहिए?”
दरबार महिला समन्वय समिति एक सामूहिक तौर से 1995 में महिला, पुरुष, और ट्रांसजेंडर सेक्स वर्कर्स के संगठन के रूप में स्थापित हुई। ये सोनागाछी – जिसे भारत का सबसे बड़ा रेड-लाइट ज़िला माना जाता है – में 1992 के एड्स हस्तक्षेप कार्यक्रम के चलते हुआ। इस हस्तक्षेप का दृष्टिकोण सहकर्मी-आधारित था, जिसमें सुरक्षित यौन संबंध के बारे में जागरूकता बढ़ाने की प्रक्रिया में सेक्स वर्कर्स को शामिल किया गया। हालाँकि यह एक बहुत ही सफ़ल कार्यक्रम था, सोनागाछी के सेक्स वर्कर्स का मानना था कि केवल सुरक्षित यौन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के कारण इसमें कलंक, जबरन वसूली और पुलिस उत्पीड़न जैसी कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया, जिससे सेक्स वर्कर्स के लिए अपने अधिकारों का दावा करना और स्वस्थ रहना और भी मुश्किल हो गया। इसी बात ने DMSC की स्थापना को प्रेरित किया – एक ऐसा संगठन जो शुरू से ही मौलिक अधिकारों पर आधारित रहा है और अक्सर अपने समय से आगे रहा है (या शायद मुख्यधारा का नारीवाद समय से पीछे है)। आज, DMSC बहुत बड़ा संगठन है जो 65,000 से अधिक सेक्स वर्कर्स का प्रतिनिधित्व करता है और अत्यधिक प्रभावशाली है।
टेल्स में शामिल DMSC के सदस्य – शिखा दास, माला सिंह, दीप्ति पाल, निताई गिरि, साधना मुखर्जी और उमा मंडल – इस तथ्य प्रति बहुत सचेत हैं कि सेक्स वर्कर्स को अक्सर मजबूर किया जाता है, तस्करी की जाती है या उनके हिसाब से उन्हें (कभी-कभी छोटे बच्चों के रूप में) “लाइन” में शामिल होने के लिए मजबूर किया जाता है। वैश्विक दक्षिण में सेक्स वर्क की इस वास्तविकता ने अक्सर नारीवादियों को इस मामले में एक मूल्यवान तर्क प्रदान किया है कि सेक्स वर्क महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा है और इसे सभी रूपों में समाप्त किया जाना चाहिए। इन (ज़्यादातर नॉन-सेक्स-वर्कर) नारीवादियों द्वारा समाप्ति की अडिग मांग अपने आप में सीमित और हिंसक है, क्योंकि आप एक तरह के श्रम की समाप्ति के लिए कैसे लड़ सकते हैं और साथ ही साथ, उस श्रम को करने वाले कामगारों के अधिकारों की मांग कर सकते हैं? आप कामगारों को शर्मिंदा किए बिना उस तरह के काम को शोषणकारी और अपमानजनक कैसे कह सकते हैं? इसलिए, इस फ़िलॉसोफ़ी को अक्सर सेक्स-वर्कर-अपवर्जनात्म मौलिक नारीवाद (Sex Worker-Exclusionary Radical Feminism या SWERF) कहा जाता है।
टेल्स ने बहुत ही जटिल मगर सशक्त तरीक़े से भारत में सेक्स वर्कर्स और नारीवाद के बीच संघर्ष को दर्शाया है, और वह भी उस समय जब बहुत से नारीवादी प्रॉस्टीटूशन को SWERF के नज़रिये से देखते थे[1]। यह DMSC सेक्स वर्कर्स के रुख़ को भी उजागर करता है – भले ही लोगों को मजबूर किया जाता है, उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, तस्करी की जाती है, या उन्हें सेक्स वर्क करने के लिए विवश किया जाता है, भले ही वे इस काम से नफ़रत करते हों और इसे छोड़ना चाहते हों, भले ही वे इसे समाप्त करना चाहते हों, फिर भी उनके पास कामगारों के रूप में अविभाज्य अधिकार हैं – जिसमें काम की गरिमा का अधिकार, और “लाइन” में रहने का विकल्प सिर्फ़ इसलिए शामिल है क्योंकि इससे उनके परिवारों का भरण-पोषण होता है। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि लोग अपनी इच्छा से भी सेक्स वर्क करना शुरू कर सकते हैं, लेकिन एक सेक्स वर्कर कैसे सेक्स वर्क में आये, इससे उनके एजेंडे और राजनीति पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
कामगारों के रूप में अधिकारों और मान्यता की मांग के जवाब में, सरकार से सम्बंधित महिला समूहों ने “पुनर्वास” की पेशकश की। माला सिंह ने व्यंग्य करते हुए कहा – “उन्हें पहले कभी हमारी चिंता नहीं थी!” अचानक संजीदा होकर वह इस बेचैन करने वाली बात पर ज़ोर देती हैं कि अधिकारों के स्थान पर पुनर्वास या बचाव (या, हाल के संदर्भ में, सशर्त “वैधीकरण”) की इच्छा केवल इसलिए है क्योंकि समाज सेक्स वर्कर्स पर नैतिक और राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखना चाहता है। बचाव का उद्देश्य सेक्स वर्कर्स की “मदद” करना नहीं है बल्कि यह कहानी क़ायम रखना है कि सेक्स वर्क एक शर्मनाक पेशा है।
DMSC के सदस्य इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि दर्शक ये देखें की उन्हें भी अपने काम और जीवन में आनंद और खुशी मिलती है। उदाहरण के लिए, निताई, जो कि एक पुरुष सेक्स वर्कर हैं[2] और सेक्स वर्कर प्रदर्शन कला संगठन कोमोल गांधार में शामिल है। उन्हें इस संगठन के काम में भाग लेना अच्छा लगता है क्योंकि इससे वे अपने स्त्रीत्व को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त कर पाते हैं जबकि युवावस्था में उन्हें अपने पड़ोस में ऐसा करने की स्वतंत्रता नहीं थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं लोग उन्हें देख न लें। कोमोल गांधार के सदस्य गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं और नाटक प्रस्तुत करते हैं, जिनमें से एक है रात पोरिदर कथा (जो इस फ़िल्म का शीर्षक भी है – टेल्स ऑफ़ द नाइट फेरीज़)।
शिखा को एक बार एड्स हस्तक्षेप समूह के साथ अपना काम प्रस्तुत करने के लिए जमैका जाना पड़ा। विमान यात्रा के दौरान मुफ़्त शराब को याद करके वह मुस्कुराती हैं और कहती हैं, “मुझे शराब बहुत पसंद है!” कलकत्ता में सेट की गई किसी भी फ़िल्म की ज़रूरतों को पूरा करते हुए (विशेषकर अगर यह सेक्स वर्कर्स के बारे में हो), निर्देशक शोहिनी घोष और माला, हुगली नदी पर नाव की सवारी करते हुए ‘चिंगारी कोई भड़के’ गाते हैं – वह भी बहुत ही मधुर स्वर में। पर ख़राब शॉट्स, एक अनजान नाविक, दुर्भाग्यपूर्ण मौसम और कैमरे के पीछे अनियोजित संवादों के कारण सीन का असर नष्ट हो जाता है। “प्यार के दुश्मन हर जगह हैं!” माला नाटकीय अंदाज़ में कहती हैं।
टेल्स सरल और वास्तविक है, लेकिन साथ ही मधुर और मज़ेदार भी है। बाक़ी दस्तावेज़ी (डाक्यूमेंट्री) – विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण में सेट हुई – के विपरीत, कैमरा सेक्स वर्कर्स को सिर्फ़ पीड़ितों या लापरवाह, गैर-ज़िम्मेदार लोगों के रूप में नहीं दिखाता है। वे बस इंसान हैं – सेक्स वर्कर्स, कलाकार, कार्यकर्ता, माताएं, शोधकर्ता, मज़ाकिया, स्मार्ट और कामुक। जैसा कि यूट्यूब विवरण में सफ़ाई से कहा गया है, “यह बॉर्न इनटू ब्रोथल्स जैसी नहीं है” जो की सोनागाछी पर एक और फ़िल्म है जिसकी DMSC द्वारा आलोचना की गई है क्योंकि इसमें सेक्स वर्क को घटिया, और सेक्स वर्कर्स को अपने बच्चों के प्रति ग़ैर ज़िम्मेदार के रूप में, दर्शाया गया है।
टेल्स भी निश्चित रूप से नब्बे के दशक के अंत और 2000 के दशक की उपज है। इसकी शुरुआत एक ऐसे गाने से होती है जिसे मैंने कई सालों से नहीं सुना था – वो चली (आपको भी याद होगा। आपने दिखावा किया होगा कि आपको यह गाना पसंद नहीं है, लेकिन कभी-कभी आपने ख़ुद को इसके मधुर और बेहद आकर्षक बोल गुनगुनाते हुए पाया होगा।) विषाद के अलावा आखिर के 90 के दशक के दौरान इस फ़िल्म को एक अलग रूप मिला। टेल्स में सेक्स वर्कर्स और मुख्यधारा के महिला आंदोलन के बीच तीखे संघर्ष और संवाद की शुरुआत को दर्शाया गया है। इस समय, HIV ‘महामारी’ के मद्देनजर सेक्स वर्कर्स के सामूहिकीकरण और क्वीयर सक्रियता के उदय के साथ, कामुकता के बारे में चर्चाओं ने तत्कालीन मुख्यधारा के नारीवाद में यौनिकता को युद्ध के मैदान के रूप में निर्मित करने और भारतीय महिलाओं की यौनिकता को हमेशा दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण के प्रति संवेदनशील बनाने में आनंद और शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार के लिए जगह बनाना शुरू कर दिया[3] [4] [5]। एक महत्वपूर्ण पल वह है जब घोष कहती हैं कि उन्होंने केवल महिला सेक्स वर्कर्स के बारे में एक फ़िल्म बनाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन निताई किसी तरह फ़्रेम में आ गए। उन्होंने ख़ुद को “न तो यहां और न ही वहां का” कहा, जबकि उन्होंने बताया कि कैसे उनके लिए एक क्रॉस-ड्रेसिंग करने वाला पुरुष सेक्स वर्कर बनना मुश्किल था। कम से कम महिलाओं को कुछ हद तक मान्यता और वैधता प्राप्त थी जिससे उन्हें रेड-लाइट क्षेत्र में काम करने की अनुमति मिली। अगर यह फ़िल्म 70 या 80 के दशक में बनी होती तो यह संदिग्ध है कि निताई की कहानी को इस तरह से प्रस्तुत भी किया गया होता। मैं इस इतिहास की जानकारी के लिए फ़िल्म देखने की बेहद अनुशंसा करती हूं।
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
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[1] “The Feminist and The Sex Worker: Lessons from the Indian Experience.” HIMAL Magazine, Srilatha Batliwala.
[2] Nitai identified as a male sex worker at the time of filming.
[3] “Virtuous Women, Radical Ethics, and New Regimes of Value.” Queer Activism in India, Naisargi Dave.
[4] Seeing Like a Feminist, Nivedita Menon.
[5] “The VAMP/SANGRAM Sex Worker’s Movement in India’s Southwest”. VAMP/SANGRAM Team.
Cover Image Credit: Tales of the Night Fairies