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साक्षात्कार – चाँद

A photo of Chand dressed in a red sari with a white blouse, holding a mike on a stage and reading out from their phone.

चाँद (शी/दे) यू.एस.ए. के कॉलेज पार्क में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड में ‘वीमेन, जेंडर एंड सेक्शुअलिटी स्टडीज’ विभाग की पी.एच.डी. छात्रा हैं। उन्होंने मास्टर्स डिग्री टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के डेवलपमेंट स्टडीज़ विभाग से की हैं, जहाँ उन्होंने अपना शोध प्रबंध/थीसिस विश्वविद्यालय परिसर में क्वीयर समूहीकरण की प्रक्रिया पर किया था। उनकी रूचि-क्षेत्र ट्रांस स्टडीज़, क्वीयर थ्योरी, जाति-विरोधी दर्शन, सामाजिक आंदोलन, यूटोपियन स्टडीज़, राजनीतिक अर्थव्यवस्था और विकास मानवशास्त्र हैं। इसके साथ ही वे एक प्रकाशित कवयित्री हैं। पी.एच.डी. में दाख़िला लेने के पूर्व इन्होंने सामाजिक विकास के क्षेत्र में कार्य किया है।
 

अक्षिता – हलो, चाँद! आप से मिलकर बहुत अच्छा लगा, और शुक्रिया आज आपने हमसे बातचीत के लिए समय निकाला। चलिये बिना किसी देरी के शुरुआत करते हैं। मेरा पहला सवाल है – आप LGBTQIA+ लोगों के लिए सुरक्षित स्थान को कैसे परिभाषित करेंगी? और यह स्थान विशेषकर विश्वविद्यालय परिसरों में महत्वपूर्ण क्यों है?

चाँद – दरअसल ‘सुरक्षित स्थान’ का एक काफ़ी लंबा इतिहास है और इसके अलग-अलग अर्थ भी हो सकते हैं जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि हम किस जगह की बात कर रहे हैं। मूलतः इसका मतलब है कि एक ऐसी जगह जहाँ आप उत्पीड़न और भेदभाव से सुरक्षित महसूस करते हैं। चूँकि दुनिया हाशिये में जीने वाले लोगों के प्रति इतनी प्रतिकूल रही है, इसलिए वे लोग हमेशा से, हर जगह ‘सुरक्षित स्थान’ बनाने की कोशिश करते आ रहे हैं। भारत-भर में महिलाएँ, जातिभेद का सामना कर रहे लोग, क्वीयर और ट्रांस लोग हमेशा से अपने लिए यह सुरक्षित स्थान रचते आए हैं। जिस ढंग से इन सुरक्षित स्थानों को परिचालित किया जाता है वह प्रायः अराजनैतिक होता है और लोग इस धारणा को आम तौर पर मान लेते हैं कि इन स्थानों के भीतर अंतर्विरोध नहीं पाये जाते। चूँकि विचारों के आदान-प्रदान के बिना कोई सुरक्षित स्थान नहीं हो सकता, प्रायः बुरी भावनाएं पैदा हो जाती हैं, और इसके कारण अंतर्विरोध होने की सम्भावना बन जाती है। यह बात मैंने ‘ब्लैक फ़ेमिनिज़्म’ से सीखी कि गठबंधन निर्माण का काम कितना अव्यवस्थित होता है। मास्टर्स के स्तर पर एक क्वीयर कलेक्टिव में होने के समय मेरे पास यह अंतर्दृष्टि नहीं थी, और मुझे यह लगता था कि सुरक्षित स्थान तभी सुरक्षित हो सकते हैं जब हम राजनैतिक रूप से सबसे सही (पॉलिटिकली करेक्ट) विकल्प चुनते हैं, चाहे वह कोई भी हो, और अंतर्विरोध से बचे रहते हैं। आख़िरकार जब आप पहले से ही सत्ता संरचनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहे होते हैं तो आप उन लोगों से बहस नहीं करना चाहते जो राजनैतिक रूप से आपके साथ खड़े हैं। और उनके साथ झगड़ कर आप नहीं चाहते कि आपके और उनके बीच कोई भी बुरी भावनाएं रहें, लेकिन ये मतभेद ज़रूरी होते हैं। मैं नहीं जानती कि कॉलेज या विश्वविद्यालय परिसर ऐसे सुरक्षित स्थान बनाने में सक्षम हैं या नहीं क्योंकि वे गहरी श्रेणीबद्ध सत्ता संरचनाओं के तहत काम करते हैं। मुझे नहीं लगता कि सिर्फ़ इरादा कर लेने से कोई जगह स्वाभाविक रूप से सुरक्षित बन जाती है। अपने आप में कोई सुरक्षित जगह मौजूद नहीं होती बल्कि किसी जगह को सुरक्षित बनाने के लिए काफ़ी समय और प्रयत्न लगता है। अंततः आप सुरक्षित जगह बनाने की दिशा में हमेशा आगे बढ़ सकते हैं।  

अक्षिता – साझा करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! यह बातें वास्तव में ज्ञानवर्धक थीं और हमें हमारे अगले प्रश्न की ओर ले जाती हैं। अच्छा, जब हम सुरक्षित स्थान की बात करते हैं तो इसको बनाने का दायित्व किस पर है? इसमें विश्वविद्यालय/कॉलेज प्रशासन की क्या भूमिका है? हम यह भी पूछना चाहेंगे कि क्या साथी/ऐलाइज़ की कोई भूमिका है, यदि हां, तो क्या?

चाँद –  इसमें निश्चित रूप से ऐलाइज़ की भूमिका अहम रहती है लेकिन मैं विश्वविद्यालय प्रशासन के सवाल को पहले संबोधित करना चाहूंगी। मुझे लगता है कि यहाँ मुख्य भूमिका विश्वविद्यालय प्रसाशन की ही है। यह उन्हीं की ज़िम्मेदारी है क्योंकि सारी सत्ता का नियंत्रण उन्हीं के हाथों में है, है कि नहीं? यहाँ तक कि 2019 का ट्रांस एक्ट जो अपने आप में एक समस्याप्रद क़ानून है, और जिसकी ट्रांस समुदाय के द्वारा कई आलोचनाएँ की गई हैं, वह भी मूलतः यह कहता है कि विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक स्थानों में ट्रांस छत्रों के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इस क़ानून के बावजूद यथार्थ यह है कि यह भेदभाव बहुत आम है। या तो यह क़ानून ही अपने आप में उतना सक्षम नहीं है या इसके कार्यान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) में ही गड़बड़ी है। लेकिन इसमें कार्यान्वयन से ज़्यादा अहम भूमिका नज़रिये की है जो मुख्यतः क्वीयर और ट्रांस छत्रों के लिए सुरक्षित स्थान बनाने के बारे में विचार नहीं करता। इसलिए मुझे लगता है कि सुरक्षित स्थान को बनाने का काम पहले नज़रिये और मानसिकता के स्तर पर  होना चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासनों को इस बात का आंकलन करने की ज़रूरत है कि वे LGBTQIA+ छात्रों के लिए एक सहायक वातावरण, एक सुरक्षित माहौल बनाने के लिए क़दम उठा सकें। और तदानुसार एक क्वीयर समावेशी पाठ्यक्रम, क्वीयर सकारात्मक काउन्सलर और शिकायतों के समाधान के लिए एक सेल जैसी चीज़ें विश्वविद्यालय परिसरों में होने चाहिए, जिनकी मदद से छात्र बिना डर के जी सकें और अपनी अस्मिता को छुपाने पर मजबूर ना हों। यह एक क्वीयर कलेक्टिव, एक सहायता समूह या ऐसा कुछ और हो सकता है। क्योंकि इतना करना तो उनकी ही ज़िम्मेदारी है। और हम कोई पूरा आसमान नहीं मांग रहे हैं, वास्तव में यह तो सबसे न्यूनतम काम है जो कि एक विश्वविद्यालय प्रशासन अपने क्वीयर और ट्रांस छात्रों के लिए कर सकता है। मैं संरचनात्मक परिवर्तन की वकालत करती हूँ इसलिए व्यक्तिवादी संरचनाओं में विश्वास नहीं करती। इसका मतलब यह नहीं है कि अगर आपको व्यक्तिवादी बदलाव देखने को मिल रहा है तो मैं ये कहूँगी की ये ख़राब है, बल्कि मैं आपके लिए ख़ुशी महसूस करूंगी। लेकिन मेरा मानना है कि परिवर्तन संरचनात्मक स्तर पर ही होना चाहिए। कुछ संरचनात्मक परिवर्तन क्वीयर और ट्रांस छत्रों के लिए ज़रूरी हैं।

यह देखते हुए की ये जो सारे स्टेकहोल्डर हैं उन्हें सहयोगी/ऐलाइज़ की भूमिका निभानी चाहिए, ऐसे में सहयोगियों की भूमिका यह है कि उन्हें क्वीयर, ट्रांस समूहों की पहचान के बारे में सीखने की ज़िम्मेदारी स्वयं लेनी होगी। इसे सीखने का भार क्वीयर लोगों पर ना डाल कर, उनसे सीखने के संसाधनों को जुटाकर, सहयोगियों को स्वयं सीखना होगा। मेरे ख़याल से सहयोगी इस संरचनात्मक परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक निभाते हैं। जैसा कि मैंने कहा था कि मैं व्यक्तिवादी संरचना में विश्वास नहीं करती, लेकिन जब ऐलाइज़ हर जगह होते हैं और भले ही वे सिस-जेंडर हों, ट्रांस ना हों और तब भी वे ही/शी, शी/हर आदि, सर्वनामों का इस्तेमाल करते हैं तो वे ट्रांस लोगों के लिए भी बाहर आने के लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण कर सकते हैं। यह अपने आप में एक संरचनात्मक परिवर्तन है, एक व्यक्तिगत चीज़ जो संरचनात्मक बदलाव लाती है। तो मेरे ख़याल से इन कुछ तरीक़ों से ऐलाइज़ इस संघर्ष में अपना योगदान दे सकते हैं। 

अक्षिता – बिलकुल! हम विश्वविद्यालय की भूमिका की बात कर ही रहे हैं तो मैं कॉलेज के दिनों में आपके अनुभवों को भी सुनना चाहूंगी। इसलिए मेरा अगला सवाल है – आपने भारत के विभिन्न शहरों (दिल्ली, मुंबई और कोलकाता), ऑस्ट्रेलिया के सिडनी और अमेरिका के वाशिंगटन डीसी जैसे शहरों के विश्वविद्यालय परिसरों में अध्ययन किया है। एक क्वीयर छात्रा के रूप में इन स्थानों पर आपका अनुभव कैसा रहा है? आपके अनुसार इन स्थानों को सुरक्षित किस प्रकार बनाया जा सकता है?    

चाँद – तो मैं कालानुक्रमिक रूप से बताना शुरू करूंगी। पहले दिल्ली विश्वविद्यालय (डी.यू.) से शुरू करती हूँ जहाँ मैं पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में थी। वहाँ पर अगर आप क्वीयर या ट्रांस हैं तो काफ़ी बुलिइंग तो होती थी और उत्पीड़न भी होता था। और मैं ठीक तरह से नहीं कह सकती मुझे क्या महसूस हुआ। मुझे लगता है कि डी.यू. का पाठ्यक्रम क्वीयर समावेशी नहीं रहा है और ना ही वहाँ क्वीयर और ट्रांस छात्रों के लिए कोई सहायता समूह था। कॉलेज के तीसरे वर्ष में हमने एक ‘जेंडर और सेक्शुअलिटी सोसाइटी’ बनाने की कोशिश की थी। एल.एस.आर. कॉलेज में एक वीमेन डेवलपमेंट सेल (महिला विकास सेल) जैसा सहायक समूह था, लेकिन मेरी उस तरह के मॉडल में दिलचस्पी नहीं थी, मैं और अधिक व्यापक रूप से सोच रही थी। हाँलाकि उस वक़्त मुझे नहीं पता था कि मैं ट्रांस हूँ – वह अगले साल पता चला। तब तक मुझे लगता था मैं क्वीयर हूँ। हम पास होकर कॉलेज से निकल रहे थे, कॉलेज प्रसाशन के साथ की झिक-झिक, और जूनियर्स की कम दिलचस्पी के कारण आख़िरकार वह सोसाइटी नहीं बन सकी।   

जब मैं टी.आई.एस.एस./टिस (TISS) में आई तो हमारे फ़ाउंडेशन कोर्स में जेंडर और यौनिकता के बारे में पढ़ाया जाता था। वह पाठ्यक्रम बहुत अच्छा था और पढ़ाने का तरीक़ा भी ठीक ही था। परिसर में क्वीयर कलेक्टिव भी था जिसका व्यापक रूप से समर्थन तो नहीं किया जाता था, लेकिन सहन कर लिया जाता था। टिस में बातें तो सब प्रगतिशील करते थे लेकिन क्वीयर फ़ोबिया और ट्रांसफ़ोबिया मौजूद था। ऐसे में अगर आप दलित, बहुजन आदिवासी, या ट्रांस हैं तो आपको अलग चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो क्वीर लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों और समस्याओं में बढ़ोतरी ही करता है। यह अंतर्विभागीयता (इंटेरसेक्शनलिटी) है, जो अपने आप में एक जटिल चीज़ है। जिस तरह से अलग-अलग लोग क्वीयर फ़ोबिया और ट्रांसफ़ोबिया का सामना करते हैं वह इस बात पर निर्भर करता है कि वे सामाजिक पदानुक्रम (हायरार्की) में किस स्थान पर आते हैं। कुल मिलाकर टिस डी.यू. से ज़्यादा प्रगतिशील था। फिर मैं सिडनी गई। जैसा कि मैंने बताया था कि एक सुरक्षित स्थान किस तरह का होना चाहिए, मुझे वहाँ वैसा ही अनुभव हुआ। वहाँ की अपनी अलग समस्याएँ थीं जिनका लेकिन क्वीयर मुद्दों से ज़्यादा वास्ता नहीं था। मैं सिडनी में कुछ ही महीनों के लिए थी तो इस विषय में ज़्यादा तो नहीं लेकिन इतना तो कह सकती हूँ यह क्वीयर संवेदनशील जगह थी, क्या यह ट्रांस संवेदनशील जगह थी या नहीं, यह मैं नहीं जानती। 

इसके बाद मैं जादवपुर यूनिवर्सिटी आई, जो कि बहुत ही प्रगतिशील-वामपंथी जगह है, तो वहाँ पर अनुभव ठीक ही था। वहाँ पर क्वीयर /ट्रांस समावेशी पाठ्यक्रम शामिल नहीं था जो कि मुझे लगता है कि हर जगह का मुद्दा है। जेंडर न्यूट्रल शौचालय भी नहीं थे। टिस में हम जेंडर न्यूट्रल हॉस्टल पाने की मांग में तो सफ़ल रहे लेकिन जेंडर न्यूट्रल शौचालय की मांग में नहीं। जब हॉस्टल भी बना तो निगरानी में रखा गया। लोग हम क्वीयर और ट्रांस लोगों को चील निगाहों से घूर कर देखते थे जैसे हम कोई अजीब शो-पीस हों। लेकिन ये ही तथागथित प्रगतिशील जगहों के विरोधाभास होते हैं। अब तो ख़ैर वह जगह दक्षिणपंथी हो चुकी है और प्रगतिशीलता का दिखावा तक नहीं बचा। इसलिए मुझे अब वहाँ के लोगों के लिए चिंता महसूस होती है। 

अब मैं मैरीलैंड विश्वविद्यालय में हूँ। कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार, यह पूरे देश का सबसे क्वीयर स्कारात्मक परिसर है। विश्वविद्यालय को इस बात की काफ़ी ख़ुशी है और उनका इस बात पर ख़ुश होना नव-उदारवादी राजनीति और पहचान की राजनीति के बारे में बहुत कुछ बताता है। मुझे लगता है कि विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है जहाँ पर छात्र जब आते हैं वे जीवन जीने के नए तरीक़ों के बारे में सोचते हैं। वे सोचते हैं कि समाज कैसे बदला जा सकता है। लेकिन विरोधाभासी रूप से यह विश्वविद्यालय आपको पूंजीवादी नौकरी बाज़ार के लिए भी तैयार करता है और आपको समाज की मांग के अनुरूप भी ढ़ालने लगता है। हाँलाकी मैरीलैंड यूनिवर्सिटी का पाठ्यक्रम क्वीयर समावेशी है, मेरे प्रोफ़ेसर भी क्वीयर हैं, लेकिन यह पाठ्यक्रम पारदेशी (ट्रांसनेशनल) नहीं है। तो एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय होने का क्या अर्थ हुआ जहाँ आप क्वीयर अधिकारों की बातें तो करते हैं लेकिन आप इन्हें पश्चिमी दृष्टिकोण से देख रहे होते हैं। हर जगह के अनुसार समलैंगिक समावेशन की चुनौतियाँ बदलती रहती हैं। और किस तरह से कोई इसे अनुभव करता है वह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी सामाजिक लोकेशन कैसी है। एक स्नातक छात्र के रूप में मैरीलैंड राज्य में हम अपना संघ (यूनियन) नहीं बना सकते। यदि हम यूनियन नहीं बना सकते तो मूल रूप से हम अपनी मांगें प्रस्तुत नहीं कर सकते। कॉलेज/विश्वविद्यालय उस संघ को मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं है। एक क्वीयर व्यक्ति का एक स्नातक छात्र के रूप में अलग श्रम होता है, तो फिर विश्ववियालय आपको संघ बनाने का अधिकार दिये बिना आपसे इस श्रम की अपेक्षा कैसे रख सकता है। संघ बनाने का अवसर टिस में था। यह एक जटिल तस्वीर है कि किस तरह चीज़ें एक ही समय में प्रगतिशील, रूढ़िवादी और संयमित हो सकती हैं। मैंने इन सभी अलग-अलग परिसरों में क्वीयर होने का वहाँ बदलाव की अलग-अलग ज़रूरतों का अनुभव किया है।

अक्षिता – हमें आपके विचार सुनकर बहुत अच्छा लगा चाँद, और आपके जो अनुभव हैं वो भी काफ़ी प्रेरणादायक हैं। इसी क्रम में हम अपने अगले सवाल कि ओर बढ़ते हैं।  तो हर साल ग्रेजुएट होने के बाद छात्र विश्वविद्यालयों को छोड़ कर चले जाते हैं, जिससे छात्र संघ निरंतर रूप से परिवर्तित होता रहता है। इसके साथ ही क्वीयर छात्रों के विशेषाधिकारों या हाशियाकरण से पनपीं विभिन्न पहचानें, राजनैतिक विचारधाराओं और रुख़ों के भेद का कारण हो सकती हैं। इस लगातार बदलते, संघर्षरत और प्रतिवाद के माहौल में एक सुरक्षित स्थान को कैसे क़ायम रखें?

चाँद – जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि कोई भी सुरक्षित स्थान संघर्ष रहित नहीं है, आपके बीच मतभेद होंगे ही क्योंकि जैसा आपने भी कहा कि विश्वविद्यालयों जैसे स्थानों में विभिन्न पहचान वाले छात्र आते हैं, उनके पास अपने स्वयं के हाशिए के अनुभव और विशेषाधिकार हैं। यह एक अच्छा सवाल है कि आप कैसे लोगों को एक साथ लाएँ? वर्तमान में जो नफ़रत भरा माहौल देश में है, जो कुछ राजनीतिक और सामाजिक ताक़तों के कारण पैदा हुआ है, इस स्थिति में हमें ऐसे स्थानों की ज़रूरत है जो आशा में, विश्वास में, और जैसा कि बाबा साहब ने नवायान बौद्ध दर्शन में रेखांकित किया है, ‘मैत्रेयी’ में संवाद कर सकें। क्योंकि मेरा यह विश्वास ​है कि केवल ‘मैत्रेयी’ ही है जो हमें इस द्वेषपूर्ण वर्तमान समय में बचा सकती है। सत्ता हमें यह भुलाने के लिए कि हम बहुत समय से सद्भाव में भी रह रहे हैं ब्राह्मणवादी शक्तियों का उपयोग करती है। यह मैत्रेयी है जो आत्म-करुणा, सौहार्द, साथी भावना और सभी मनुष्यों के प्रति प्रेमपूर्ण दयालुता के मूल्यों पर आधारित है। सुरक्षित स्थान की मेरी कल्पना और उद्देश्य इन्ही मूल्यों पर आधारित हैं। एक ऐसी जगह जहाँ हम एक दूसरे के प्रति समानुभूति और आपसी समझ के साथ विचार कर पाएँ, जहाँ हम एक दूसर को अविश्वास की दृष्टि से न देखें। हम मूल्यांकन कर पाएँ कि कौन सी चीज़ें काम नहीं कर रही हैं और कौन सी कर रही हैं। मुझे लगता है कि अगर मैत्रेयी व्यावहारिक रूप से साकार होती है तो अपनी विचारधाराओं, राजनैतिक झुकावों और पहचानों से परे लोग एक सुरक्षित स्थान के निर्माण के लिए मिलकर काम कर सकते हैं। लेकिन मैं उन लोगों में से भी नहीं हूँ जो अगर सामने वाला आपके जीवन के अधिकार के खिलाफ़ है तब भी उनसे संवाद करने को तैयार रहे। मैं समानुभूति और भाईचारे की बात को इस हद्द तक तक नहीं ले जा सकती। सामाजिक न्याय समूहों (सोशल जस्टिस ग्रुप्स), क्वीयर समूहों में भी अंतर्विरोध मौजूद है। मुझे लगता है कि विश्वास और आपसी समझ से इसका हल निकाला जा सकता है। यही कारण है कि मैं बाबा साहब के मैत्रेयी के दर्शन में विश्वास रखती हूँ, और कैसे वे इस सामाजिक दुनिया को समझते हैं। क्योंकि हमारी सामाजिक दुनिया पहले भी जेंडर, जाति, ब्राह्मणवादी पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में मौजूद थी। काफ़ी नफ़रत फैली हुई हैं, काफ़ी अविश्वास है, और इस स्थिति से जूझने के लिए मैत्रेयी की अवधारणा का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। मेरा विश्वास है कि सुरक्षित स्थान बनाने की यात्रा की शुरुआत यहीं से होगी।  

अक्षिता – तो चुनौतियों की बात हम कर ही रहे हैं चाँद, तो हमारा आख़िरी सवाल आपके लिए यह है कि आपके अनुसार छोटे शहरों के कॉलेज/विश्वविद्यालय परिसरों में सुरक्षित स्थान बनाने में क्या चुनौतियाँ होंगी? यू.जी.सी. (यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन) जैसी संस्थाओं की यहां क्या भूमिका होनी चाहिए?

चाँद – तो यू.जी.सी., एक वैधानिक आयोग है, जो उच्च शिक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यू.जी.सी. विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को ग्रांट्स देती है, उन्हें मान्यता प्रदान करती है, और सरकार और उच्च शिक्षा के बीच एक कड़ी बनकर, दलित, बहुजन, आदिवासी, और डिसेबल्ड, क्वीयर और ट्रांस विद्यार्थियों के लिए एक समावेशी माहौल बनाने में, विशेषकर छोटे शहरों में, एक अहम भूमिका निभाती है। वास्तव में, अधिकाँश छात्र छोटे शहरों में पढ़ते हैं – सिर्फ़ बॉम्बे, कलकत्ता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों में नहीं। मगर यू.जी.सी. चाहे जितने निर्देश दे, इन निर्देशों का या योजनाओं का कार्यान्वयन इस पर निर्भर करता है कि इन कॉलेजों का प्रशासन कार्यान्वयन को लेकर कितना तत्पर है, और वह ख़ुद कितना अवगत हैं। क्या उन्हें ये महत्वपूर्ण लगता भी है? क्या उन्हें ये प्रयास सार्थक लगता भी है या नहीं? क्यों यह सार्थक है? मेरे अनुसार यह न्याय संगतता (इक्विटी) और समानता से सबंधित काफ़ी बुनियादी प्रश्न हैं जिन्हें प्रशासनिक संस्थानों, विशेषकर शैक्षणिक संस्थानों को सुलझाने की आवश्यकता है। वे न्याय संगतता का महत्व नहीं समझते। मेरे अनुसार कॉलेज प्रशासनों को इसका महत्व समझना और इसकी ज़रुरत ख़ुद महसूस करने की आवश्यक्ता है। मेरा मानना है कि यू.जी.सी. द्वारा आयोजित टीचर ट्रेनिंगों से और अध्यापकों और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए अनिवार्य संवेदीकरण से यह बहुत हद तक संभव है। इन ट्रेनिंग में प्रशासनिक कर्मचारी कई बार छूट जाते हैं। वे सिर्फ़ अध्यापकों को प्रशिक्षण करते हैं, और सोचते हैं कि इतना करना काफ़ी है जबकि ऐसा बिलकुल काफ़ी नहीं होता क्यूंकि छात्रों को, विशेषकर मास्टर डिग्री और उससे ऊपर की डिग्री के छात्रों को ना केवल अद्यापकों से बल्कि प्रशासन से भी कार्य-सम्बंधित बहुत बातचीत करनी होती है। मेरे अनुसार उन्हें क्वीयर समूह, क्वीयर सहायता दलों, और क्वीयर संस्थानों से जुड़ना चाहिए। और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये समूह इतने कम हैं, होंगे ही नहीं – हर प्रदेश में अब कुछ न कुछ है तो यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि कई जगहों पे नहीं हैं। तो प्रयास करना होगा अपने या फिर पड़ोसी प्रदेशों के संस्थानों से जुड़ने का और उनसे ट्रेनिंग के लिए सहायता लेने का। बहुत सारे संस्थान, समूह, विशेषकर क्वीयर और ट्रांस समुदाय से जुड़ी संस्थानें यह कार्य पहले से ही करते आ रहे हैं। मेरे अनुसार ट्रेनिंग में डिसेबिलिटी जस्टिस, जाति-विरोधी विचारधाराएं और क्वीयर और ट्रांस सकारात्मक दृष्टिकोण – इन तीनों का समावेश करने की आवश्यकता हैं ताकि छात्रों की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता पैदा हो सके। मेरा मानना हैं कि एक विस्तृत दृष्टिकोण को अपनाने से उसमें क्वीयर और ट्रांस सम्बन्धी विशिष्ट मुद्दे भी आ जायेंगे। जब हम विस्तृत रूप से न्याय संगतता की बात करेंगे तो बाक़ी मुद्दों के महत्व को भी स्वीकारा जायेगा। मेरे अनुसार क्वीयर और ट्रांस संवेदनशीलता के ऊपर ट्रेनिंग ज़रूरी हैं, लेकिन उससे भी ज़रूरी है इस ट्रेनिंग से पहले न्याय संगतता और समानता और उन्हें प्राप्त करने के तरीक़ों पर ट्रेनिंग देना, जो मुझे अधिकतर जगह नहीं दिखाई देता। हम पॉश (POSH) पर केवल एक ट्रेनिंग, क्वीयर और ट्रांस अधिकारों पर एक ट्रेनिंग या डिसेबिलिटी सम्बंधित अधिकारों पर एक ट्रेनिंग दे देते हैं, लेकिन वास्तव में ये संवाद एक सतत प्रयास होते हैं। यौन उत्पीड़न पे केवल एक सेशन ले लेने से समस्या का समाधान नहीं होता। यह इतना आसान नहीं होता है। पहले यह समझना अनिवार्य है कि उत्पीड़न अपने-आप में एक समस्या क्यों है? और विभिन्न पहचानों के लोगों के उत्पीड़न को भी समझने की ज़रुरत है। इसीलिए मेरे अनुसार संवेदनशीलता ट्रेनिंग को न्याय संगतता पर केंद्रित कर जाति-विरोधी विचारधाराओं, क्वीयर और ट्रांस दृष्टिकोण, और डिसेबिलिटी जस्टिस का समावेश करना ज़रूरी है, विशेषकर क्यूंकि सुरक्षित स्थान से सम्बंधित अधिकतर संवाद में इन तीनों दृष्टिकोण का पर्याप्त रूप से उल्लेख नहीं हो रहा है।       

अक्षिता – आप जो कह रहीं हैं, उससे हम पूर्णतः सहमति रखते हैं। हमारे साथ अपनी अंतर्दृष्टि और विचार साझा करने के लिए धन्यवाद। यह एक बहुत शिक्षाप्रद संवाद था। इससे पहले कि हम इस साक्षात्कार का अंत करें, क्या आप कुछ अंतिम शब्द कहना चाहेंगी?   

चाँद – ज़्यादा कुछ नहीं, बस जय भीम और सतरंगी सलाम!  

अक्षिता – हमारी तरफ़ से भी!
                        

हम प्रूफ़रीडिंग और अनुवाद में सहायता के लिए सत्यभामा राजोरिया को धन्यवाद देते हैं।


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