Scroll Top

खान पान और यौनिकता

Still from a black and white Indian film, "Aurat" (1940). A mother with her three kids.

श्वेता कृष्णन द्वारा

मैं लामाय* से बैंकाक के एक स्पा में मिली थी। वो बात करने को उत्सुक थी और उसने मुझे बताया था कि उसका गाँव बैंकाक से आठ घंटे की दूरी पर उत्तर में है। उसके पिता एक किसान थे जिनके पास अपनी ज़मीनें थी।

जब तक वो स्कूल में पढ़ती थी तब तक उनके काम में उनकी मदद करती थी, उसके बाद वो कॉलेज की पढाई करने के लिए बैंकाक आ गई। जब वो अपने कॉलेज के पहले साल की पढाई कर रही थी, उसके गाँव में बाढ़ आई और उसके पिता की सारी फसल बर्बाद हो गई। अगले साल भी यही हुआ। “शायद जलवायु में परिवर्तन के कारण” उसने कहा। लामाय ने कॉलेज छोड़ दिया और एक सलून में काम करने शुरु कर दिया। उसे अपने गाँव की बड़ी याद आती थी, विशेषकर वहां के शांत वातावरण की पर वो जानती थी कि वो शहर में ज़्यादा पैसे कमा सकती थी। कई सारे सलून और रेस्तरां में काम करने के बाद अंततः वो इस स्पा में काम करने आई जहाँ हम मिले थे।

इस स्पा में बहुत सारे पुरुष पर्यटक आते थे। कभी-कभी, जब उसका काम ख़त्म हो जाता था, तब वे उसे रात के खाने के लिए बाहर ले जाते थे। “जब मैं अपने गाँव में होती हूँ तो मैं पुरुषों के साथ बाहर खाने पर नहीं जा सकती। मेरे पिता को ये अच्छा नहीं लगेगा” उसने कहा। इस वर्जित बात को कर पाने में भी कुछ लज़ीज़ था। उसका आखिरी ‘बॉयफ्रेंड’ जर्मन था। वो बैंकाक में एक महीने रहा था और रोज़ उसे खाने पर बाहर ले जाता था। ‘बड़ी जगहों पर जहाँ अच्छा खाना मिलता था’। फिर वो जर्मनी वापस चला गया था। “मैंने उसे ख़त लिखा था पर उसने जवाब नहीं दिया। आपको क्या लगता है, आगे बढ़ने से पहले मुझे उसका कब तक इंतज़ार करना चाहिए?” उसने उसको बाकियों से ज़्यादा प्यार किया था। वो उसे याद करती थी।

लामाय के कुछ मित्र उसे अच्छा पैसा देते थे या उसकी ज़रुरत की चीज़ें लेकर देते थे। उसे स्पा से जो पैसे मिलते थे, वो अपने माता-पिता को भेज देती थी, और बॉयफ्रेंड से जो पैसे मिलते थे, उन्हें अपने लिए रख लेती थी।

खाने पर बाहर ले जाए जाना लामाय के लिए कभी भी खाने के बारे में नहीं था। वो सीमाओं को लांघने के बारे में था, साहसी होने और अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेने के बारे में था। ये उन बारीकियों को देखने के बारे में था जिन्हें वो स्पा में नहीं देख पाती थी। ये प्यार में पड़ने के बारे में था और दिल के टूटने के बारे में था।

और लामाय की तरह ही, हममें से कईयों के लिए भोजन सिर्फ वो नहीं है जिसे हम अपनी जैविक भूख मिटाने के लिए खाते हैं। भोजन इससे कहीं ज्यादा है। वो खुशहाली और सामजिक दर्जे या हैसियत के बारे में है। वो इश्वर और प्रसाद की धारणा के साथ गुंथा हुआ है। वो समुदाय के बारे में है, बांटने के बारे में है और प्रदान करने के बारे में है। वो लोभ और लालसा के बारे में भी है। भोजन सदाचार और पाप के बारे में हमारी सोच निर्धारित करता है। ये हमारे जीवन के अनुभवों को भी आकार देता है जिन्हें अधिकतर जेंडर और कामुकता के नज़रिए से देखा जाता है, हमारे एहसास से कहीं ज़्यादा। [inlinetweet prefix=”” tweeter=”” suffix=””]यह लेख आपके लिए उन सभी ‘ऍफ़’ शब्दों की लड़ी पेश करता है जो भोजन के साथ हमारे रिश्ते की झलक दिखाते हैं[/inlinetweet] – आइये उस ‘ऍफ़’ शब्द से शुरुआत करते हैं जो भोजन से पहले आता है:

फार्मिंगया खेती

सन १९५७ की फिल्म ‘मदर इंडिया’, जो बॉलीवुड के मानदंड के अनुसार एक महाकाव्य है, एक नहर के उद्घाटन के साथ शुरू होती है जो उस गाँव की तरक्की के लिए बनाई गई है जिसमें राधा (नर्गिस द्वारा अभिनीत) ने अपने परिवार को पालने के लिए कड़ा परिश्रम किया था। इस आधुनिकता की देहलीज़ पर खड़ी राधा अपने कष्टमय अतीत को याद करती है, गरीबी के कारण समय से पहले समाप्त होने वाला विवाह, अपने प्रियजनों की मृत्यु, फ़िज़ूल खर्च करने वाला बेटा और स्वयं के साथ हुआ यौन अत्याचार। इस फिल्म का उद्देश्य था कि पूरा देश अपने आपको राधा में देख सके और उसके साथ अपने अभावग्रस्त अतीत को अलविदा कर सके। वो तरक्की जो उसे और उसके जैसे और लोगों को गरीबी से बचाएगी, उस ज़मीन को फिर से पूरित करके जिसपर वो काम करती है।

सोचती हूँ कि आज के इस आधुनिकीकरण के बारे में राधा को क्या कहना होगा – भूमि अधिग्रहण, संकर फसलें, बड़े स्तर पर उपज और मज़दूरी के नाम पर सस्ता मेहनताना। एक ऐसी आधुनिकता जहाँ ६०% पुरुषों के मुकाबले तकरीबन ८०% ग्रामीण महिलाएँ खेती और खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में काम करती हैं लेकिन उसी काम के लिए पुरुषों की कुल आय का आधा या तीन चौथाई ही कमा पाती हैं। सिर्फ ९% के पास अपनी ज़मीन है और बाकि सभी कम वेतन वाली मज़दूरी करती हैं। उनका कम वेतन कृषि क्षेत्र में उनके अधिनस्त दर्जे को बढ़ावा देता है। लेकिन, पुरुष और महिला दोनों ही की इस जीविका में विकास की क्षमता, इस क्षेत्र से बाहर काम करने वालों की जीविका में विकास की क्षमता से कहीं कम है। जहाँ वीना मजुमदार कृषि से दूर होते और औद्योगीकरण के करीब आते इस विस्थापन को अर्थव्यवस्था का पौरुष होना कहती हैं (मजुमदार १९९२), वहीँ वीना तलवार ओल्डेंबर्ग भी मानती हैं कि यह अकस्मात् ही पुरुष को अधिक ‘विवाह योग्य’ बना देता है और उन्हें बेहतर दहेज़ मांगने की अनुमति प्रदान करता है। (तलवार ओल्डेंबर्ग २००२)

फर्टिलिटीया उर्वरकता

औद्योगीकरण की ओर होने वाले इस तीव्र विस्थापन के बावजूद महिलाओं की उर्वरकता को ज़मीन से जोड़ने वाले मुहावरे और लोकोक्तियाँ अब तक मौजूद हैं। [inlinetweet prefix=”” tweeter=”null” suffix=”null”]महिलाएं और ज़मीन दोनों ही आज तक या तो उर्वरक हैं या बाँझ, पोषक हैं या बंजर।[/inlinetweet] और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में दोनों ही आज तक बिकने की वस्तु बन कर रह गई हैं जिनका शोषण किया जाता है। अपनी किताब ‘फर्टाइल ग्राउंड’ में, पर्यावरण-नारीवादी इरेन डायमंड लिखती है “पर्यावरण-नारीवाद के व्यावहारिक विश्व-विज्ञान में विविधता एवं रहस्य उत्सव के अवसर हैं” (डायमंड १९९७:१५८)। पर पूंजीवाद, विज्ञान और तर्कवाद के इस युग में इन विविधताओं, रहस्य और रिवाज़ों से उनके मायने छीन लिए जाते हैं। उर्वरकता की उपमाएं महिला की जेंडर पहचान को उनकी प्रजनन की क्षमता के आधार पर आकर देती हैं। इन सब के बदले में हमारे पास हैं, चिकित्सीय तकनीकें जो गर्भधारण को आसान बना सकती हैं और मातृत्व को अधिक अनिवार्य बना सकती हैं। ऐसे परिवेश में जहाँ प्रजनन को इतना महत्व दिया जाता है, चिकित्सीय तरक्की जो गर्भनिरोधन और गर्भसमापन जैसे विकल्पों को प्रस्तुत करती हैं, उनको दरकिनार किया जाता है और उनकी आलोचना की जाती हैं।

फॅमिली एंड फीडिंगया परिवार और उसका भरणपोषण

यह समझने के लिए कि पुरुष अभी भी परिवार में निर्णयकर्ता हैं और महिलाओं की जगह रसोई में है, हम टीवी पर आने वाला कोई भी विज्ञापन देख सकते हैं। ये एम टी आर का विज्ञापन ही लीजिये, जो देवियों को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेता है। मैं अब भी पूरी तरह समझ नहीं पाती हूँ कि ज़्यादा कष्टकर क्या है – वो बहुत सारे हाथ जो उसके शरीर से निकलते हैं, या वो एक हाथ जो उसके बालों को संवारता है जब दूसरे हाथ अन्य कामों में जुटे हैं। अगर आपको लगता है कि छोटे परिवार में रहना ज़्यादा आसान है तो इस आरामदायक ख्याल को अपने दिमाग से निकाल दीजिये। ये देवी वहां भी हैं, आपके एक अच्छी गृहणी, माँ, और पत्नी होने पर उपहास करने के लिए, और हाँ, वहां भी भोजन केंद्र में ही है। और फिर इस एयरटेल के विज्ञापन में दिखाए गए डी आई एन के** युगल भी हैं। अगर पत्नी कार्यस्थल पर पति की बॉस हो तो भी घर पर उसे अपने पति को भोजन के साथ लुभाना ही होगा। यह बता पाना मुश्किल है कि यह लुभाना है या क्षमा प्रार्थना या शायद इन दोनों को अलग करने वाली रेखा तेज़ी से विलीन होती जा रही है।

और फिर बच्चा है, जिसे स्तनपान करवाना ज़रूरी है। वह समय जब महिला बच्चे के लिए ज़रूरी पोषण को अपने शरीर में ही ‘बना’ सकती है। यह हमारी व्यक्तिपरक अस्तित्व और विकल्पों से जुड़े विचारों की परख करता है। [inlinetweet prefix=”” tweeter=”” suffix=””]कहाँ पर माँ का अस्तित्व ख़त्म हो जाता है और बच्चे का शुरू हो जाता है?[/inlinetweet] और जब हम इनको समझ ही रहे हैं, हमें यह भी समझना है कि पोषण के अन्य प्रकारों की तरह क्या स्तनपान भी दृष्टिगोचर हो सकता है। महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वो दावतें दें, अपने परिवार को नित अच्छे खाने के साथ आश्चर्यचकित करें, पति को लुभाएँ, बच्चों को तृप्त करें पर क्या वो बच्चे को स्तनपान कराते समय अपनी इस पोषण क्षमता को ‘दिखा’ सकती हैं? यह मुद्दा अभी भी विचाराधीन है।

फ़ाम फ़टाल एंड फ़ूड फेटिशया मनमोहिनी और भोजन की आसक्ति

इन्टरनेट पर ऐसे सैकड़ों विज्ञापन हैं, जिसमें महिलाऐं भोजन का रूप ले लेती हैं, खाद्य सामग्री को दांतों से काटती हैं, और यौन उत्तेजना के प्रदर्शन के लिए कुछ खाती हैं। मैं ये कभी भी बता नहीं पाई की ये भोजन का मानवीकरण है या महिलाओं का अव्यक्तिकरण। हमारे दिमाग में एक धुंधली सी रेखा है जो हमें ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि महिलाएँ भोजन हैं और भोजन यौनिक या सेक्सी है और यह कि अगर हम सेक्सी भोजन खाते हैं तो हम शायद उस मनमोहिनी का सेवन कर रहे हैं (या उसमें बदल रहे हैं)।

मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या हम पुरुषों का इस्तेमाल करके इन उत्पादों को बेच सकेंगे? आम स्वयंवर को ही लीजिये (वो जैसा है, ठीक लगता है) और कल्पना कीजिये कि रणबीर वो सब कर रहा है जो कटरीना कैफ़ करती है और अब देखिये कि क्या स्लाइस की वो बोतल आपके लिए अब भी वाही है जो पहले थी। मुझे कोई संदेह नहीं है, विज्ञापन मनोरंजक होगा, पर मुझे शक है कि मनोरंजन के कारण वही नहीं होंगे।

[inlinetweet prefix=”” tweeter=”” suffix=””]इस तेज़ी से होते औद्योगीकरण और तार्किक संसार में महिलाओं और पुरुषों को भोजन के साथ अपने आधुनिक रिश्ते पर समझौता करना होगा[/inlinetweet]। एक बार, पुरुषों और महिलाओं ने ज़मीन के साथ एक रिश्ते की मांग की, और आज हम में से अधिकतर के लिए ज़मीन एक हस्तांतरित करने योग्य उपयोगी वस्तु हो गई। पर आज भी हम बीते हुए कल की छाया को पकड़ कर बैठे हैं और भोजन पकाने के, उपभोग करने और उसकी कल्पना करने के तरीकों में मतलब खोज रहे हैं। और फिर लामाय है, जिसके लिए भोजन का उपज या उसकी तैयारी से कोई सम्बन्ध नहीं था। ना ही वो केवल जीवित रहने का साधन मात्र था। वो एक आकांक्षा का प्रतीक था। अब सवाल यह है कि हम किस तरह के संसार से गुज़र रहे हैं, हम किस बात की आकांक्षा कर रहे हैं?

चित्र सौजन्य से https://en.wikipedia.org/wiki/Mother_India

*यह उसका असली नाम नहीं है

**डबल इनकम नो किड्स

TARSHI कि दीपिका श्रीवास्तव द्वारा अनुवादित
To read this article in English, please click here.