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‘सेक्सी’ और मज़ाकिया महिलाओं से जुडी विसंगतियां

Comedian Aditi Mittal speaking into a mike.

क्रिस्टिन फ्रैंकर द्वारा

पिछले वर्ष, एआईबी के बदनाम नाकआउट रोस्ट के दौरान कॉमेडियन अदिति मित्तल ने कार्यक्रम के पैनल पर अपने सहयोगी अबिश मैथ्यू के बारे में मज़ाक करते हुए कहा था ““अबिश, अगर कोई लड़की आपके साथ सेक्स कर ले तो वो दोबारा कुंवारी बन जायेगी, आप तो सही मायने में कौमार्य झिल्ली ठीक करने वाले ह्यमन रिपेयर मैन हो।” हालांकि उस दिन कहे गए चुटकुलों में से यह सबसे ज्यादा अश्लील चुटकुला नहीं था, फिर भी अचानक अदिति मित्तल ने पाया कि अनेक औद्योगिक कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर पहले से बुक हुए उनके कार्यक्रमों को रद्द करने का आग्रह किया था। ‘महिला दिवस’ अदिति के व्यस्ततम दिनों में से एक होता है और यह वही कंपनियां थीं जो चाहती थी कि महिला दिवस पर आयोजित उनके कार्यक्रम में कोई महिला अदाकारा भी भाग लें।

आज नीति पाल्टा, वासु प्रिम्लानी और राधिका वाज़ के साथ-साथ अदिति मित्तल की गिनती भारत की चुनिन्दा चार महिला कॉमेडियन में की जाती है। दिलचस्प बात यह है कि भारत में केवल यही चार महिला कॉमेडियन हैं। यह बात इन अदाकाराओं के बारे में दिए जाने वाले लगभग हर इंटरव्यू में कही जाती है, यहाँ तक कि अब ये खुद अपने कार्यक्रमों के दौरान यह बात दोहराना नहीं भूलतीं। कौमार्य झिल्ली वाला चुटकुला तो इनके द्वारा उठाये जाने वाले अनेक मुद्दों का एक छोटा सा उदाहरण मात्र है। इनके द्वारा चर्चा किये जाने वाले विषयों की लम्बी फेहरिस्त है; अविभावकों के साथ सेक्स के विषय पर चर्चा, मुख-मैथुन, महिलाओं का हस्त-मैथुन करना, बच्चे पैदा न करने का निर्णय, लिंग के आधार पर गर्भपात, बढती आयु, मल-मूत्र, योनी का ढीलापन (और इसमें फिर से खिंचाव पैदा कर आपको दुबारा 18 वर्षीय बना देने वाली सौंदर्य क्रीम), बलात्कार और मासिक धर्म आदि इस फेहरिस्त में शामिल हैं। मासिक धर्म पर बात करते हुए अदिति मित्तल बहुत खूबसूरती से बयान करती हैं कि किस तरह सेनेटरी नैपकिन के बारे में बात किया जाना ऐसा ही है जैसे होग्वार्ट्स के कॉमन रूम में कोई चिल्ला कर वोल्डमार्ट कहे।

कोई महिला अगर कौमार्य झिल्ली या सेनेटरी नैपकिन के बारे में बात करे तो ऐसा विवाद क्यों खड़ा हो जाता है? आज के इस युग में जब एंग्री इंडियन गोडेसेस जैसी हलकी फुलकी कॉमेडी पर भी सेंसर बोर्ड अपने दांत भींचने लगता है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे महिलाओं का कुछ भी कहना नागवार होता है। ये महिला अदाकारा केवल महिलाओं के मतलब के चुटकले या मज़ाक नहीं करती बल्कि उनकी कही बातों में मज़ाक और उपहास इसलिए दिखाई पड़ता है क्योंकि उनकी बातों में वे सब अनुभव शामिल होते हैं जो लम्बे समय से पुरुषों के बोलबाले वाले इस भारतीय कॉमेडी के क्षेत्र में (या दुनिया में कहीं भी) अनदेखे रहे हैं।

हो सकता है कि महिलाएं गलियों में होने वाले शोषण जैसी घटनाओं वाले मज़ाक पर और भी खुल कर हंसती हों क्योंकि उन्हें ही ऐसी घटनाओं कर सामना करना पड़ता रहा है लेकिन ये सभी महिलाएँ इस बात पर जोर देती हैं किसी भी सफल कॉमेडी में व्यक्तिगत विवरण और सच्चाई का बहुत महत्व होता है। किसी भी कॉमेडियन द्वारा सही मायने में सभी सीमाओं को तोड़ते हुए दर्शकों के दिल तक उतरने के लिए ज़रूरी है कि दर्शकों को यह भरोसा हो कि कलाकार उनके साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव बाँट रहे हैं। जैसा कि वाज़ कहतीं हैं, ‘यही हास्य का सार है और यही कारण भी है कि इतनी कम महिलाएँ इस व्यवसाय को चुनती हैं’। उनका कहना है कि स्टैंड-अप कॉमेडियन हास्य का सहारा लेते हुए ऐसी कोई बात कह देते हैं और उस पर लोगों की प्रतिक्रिया लेकर ‘बड़ा बखेड़ा खड़ा’ कर देते हैं, जिस पर आमतौर पर कोई चर्चा नहीं करता। वाज़ का मानना है कि महिलाओं को सिखाया जाता है कि वे ऐसी बातों पर चुप रहें और कोई नाटक खड़ा न करें

हो सकता है कि वाज़ की बात में बहुत बारीकी न हो, लेकिन जेंडर पर आधारित यही वह ज़रुरत है जो इन सभी महिलाओं के काम को एक सूत्र में पिरोती सी प्रतीत होती है। महिला हास्य कलाकारों द्वारा जेंडर और यौनिकता के विषय पर की जाने वाली चर्चा भले फूहड़ लगे लेकिन इससे दर्शक और श्रोता ज़रूर उनकी ओर आकर्षित होते हैं। एक बार श्रोताओं के प्रभावित हो जाने पर वे बिलकुल समय व्यर्थ न करते हुए सामजिक मान्यताओं को नए सिरे से परिभाषित करने लगती हैं कि महिलाओं को क्या करना और कहना चाहिए। ऐसे करते हुए वे सामजिक मान्यताओं पर चर्चा आरम्भ कर अंत में उन्हीं को नकार देती हैं। यहाँ मज़ाक की बात तब नहीं होती जब कोई महिला जोर से ‘योनी-योनी’ चिल्लाती है बल्कि नादानी तब समझी जाती है जब कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।

केवल इतना ही नहीं है कि हास्य-कलाकारों द्वारा कही गयी बातों की सच्चाई को हज़म करना कठिन होता बल्कि इसके अलावा मज़ाकिया लेकिन खूबसूरत महिलाओं द्वारा अपनी बात कहने और अपने लाभ के लिए हास्य का इस्तेमाल करना हमारे गले इसलिए भी नहीं उतरता क्योंकि इससे वो पारंपरिक मान्यताएँ खंडित होती हैं कि मज़ाक कर पाने का ‘अधिकार’ किसे होना चाहिए। बॉलीवुड फिल्म उद्योग में मज़ाकिया महिलाओं के इतिहास के बारे में तरन एन. खान लिखते हैं कि केवल सुंदर हीरोइन की परिभाषा से अलग दिखने वाली महिलाओं को ही हास्य अभिनेत्री की भूमिका के लायक समझा जाता था जैसे कामुक खलनायिका, मोटी औरत, सनकी दादी इत्यादि। यह ऐसी भूमिकाएँ थीं जिन्हें कोई ‘खूबसूरत’ हिरोइन नहीं कर सकती थी। अपनी अभिनय क्षमता का बावजूद टुनटुन जैसी अभिनेत्रियों को नायिका की भूमिका के अलावा अन्य भूमिकाएँ दी जाती थीं और लोग उनके ‘असली’ आकर्षक महिला बनने की नाकामी पर दिल खोल कर हंसते थे।

पुरुषों और महिलाओं द्वारा हास्य का प्रयोग किस तरह से किया जाता है, इस विषय पर अनेक शोध किये गए हैं और इनसे पता चलता है कि महिलायों से आशा की जाती है कि वे केवल पुरुषों द्वारा किये गए हास्य व्यंग्य पर ही हंसें, खुद अपने पर और अपने लिए हंसने वाली महिलाओं को कम आकर्षक समझा जाता है और उनकी हास्य क्षमता को कम करके आंका जाता है। कॉमेडी के क्षेत्र में भी स्थापित मान्यताओं की अवहेलना करने वाले या उन पर खरे न उतरने वाले लोगों को सजा दी जाती है। अभी भी यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि श्रोता या दर्शक ऐसी किसी महिला अदाकारा की यौनिकता के प्रति किस तरह का नज़रिया रखते हैं जो पारंपरिक रूप से सुन्दरता की परिभाषा का अनुरूप भी हो और आपको मजबूर कर दे कि आप उनकी उन्हीं बातों पर हंसें जिनमे वो महिला की सुन्दरता को परिभाषित करने वाली मान्यताओं का ही मज़ाक उडाती हैं। ऐसी अदाकारा विशेष रूप से लोगों को भयभीत इसलिए कर देती हैं क्योंकि वो वही हास्य अभिनीत करती हैं जिसे समाज समझता था कि उनकी समझ के बाहर की बात है।

इन महिला अदाकाराओं के अभिनय या प्रस्तुति में एक अन्य भिन्नता यह पायी जाती है कि यह अदाकाराएँ, ‘आदर्श’ स्त्रीत्व, यौनिकता और उसके मानदंडों को अपने हास्य के द्वारा किस रूप में दर्शाती है या ना दर्शाने का फैसला करती हैं। यह पहलु ही उनके हास्य की प्रमुख विशेषता होती है। जब एक इंटरव्यू में वाज़ यह कहती है कि वह अपने को ‘पूरी तरह महिला नहीं समझती’ तो यह समझ में आता है कि वो ऐसा इसलिए नहीं कह रही क्योंकि वो किसी पुरुष का स्थान ले लेना चाहती है बल्कि इसलिए क्योंकि वो उस मानक आदर्श महिला की परिकल्पना का विरोध करती है और इस रूप में खुद को प्रस्तुत नहीं करना चाहती। वाज़ की प्रस्तुतियों में पुराने दिनों की वेशभूषा और पहनावे का प्रयोग बखूबी किया गया है, जैसे अनलेडी लाईकमें 60 के दशक के वस्त्र प्रयोग किये थे जिसमे वो अपने पति के साथ अपने यौन अनुभवों को याद करते हुए एक नाज़ुक से प्याले से चाय पीती हैं। यह एक आदर्श और कुलीन घराने की महिला की उस छवि से बहुत अलग था जो कि दर्शकों के मन में थी कि वो कैसे बात करेगी और कैसे सोचेगी। अपनी हाल ही की एक प्रस्तुति में वाज़ ने अपने रोज़मर्रा के कपडे पहने थे; सम्भतः यह उस प्रस्तुति ‘ओल्डर, अन्गरिएर, हेएरिएर के अनुरूप थे जिससे लोग शायद यह समझें कि 40 की आयु के बाद अब वाज़ इन बातों को और भी कम एहमियत देतीं हैं।

पहली बार स्टैंड-अप कॉमेडियन की भूमिका शुरू करते समय अदिति मित्तल का मन था कि वो सेक्स पर चुटकुले सुनाएँ लेकिन उन्हें श्रोताओं की प्रतिक्रिया का डर था कि कहीं एक बार भी सेक्स शब्द का प्रयोग कर लेने पर उन्हें गन्दी, बेशरम या सेक्स में बहुत रूचि रखने वाली महिला न समझ लिया जाए। उन्होंने अपनी अभिनय प्रस्तुतिओं में डॉक्टर श्रीमती लुटचुके के पात्र को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जो एक अधेड़ उम्र की मराठी सेक्स सलाहकार के रूप में जानी जाती है और लोगों को अन्य बातों के अलावा ‘अपना कुंवारापन खोने’ के बारे में सलाह देती है। सेक्स के विषय पर हास्य करने के इस तरीके का प्रयोग कर (पात्र को अदिति से अलग रखकर), अदिति ने इस आरोप से बचे रहने की कोशिश है कि उन्होंने अपनी यौनिकता को सीढ़ी बनाकर स्टेज तक पहुँचने में सफलता पायी।

प्रिम्लानी, जो खुद की पहचान एक लेस्बियन के रूप में करती हैं, अपनी प्रस्तुतिओं में एक बिलकुल अलग तरीके का दृश्य और अनुभव दर्शाती हैं। उनकी प्रस्तुतिओं में हास्य के शारीरिक पहलु पर बहुत ध्यान दिया जाता है और वो जानबूझकर अपनी प्रस्तुतिओं के लिए युवा महिला दर्शकों को वालंटियर के रूप में चुनकर उनके माध्यम से अभिनय दर्शाती हैं। हालांकि उनकी प्रस्तुतियां रोज़मर्रा के जीवन पर आधारित होती हैं जैसे दिल्ली मेट्रो में सफ़र और भारतीय लोग लाइन में कैसे खड़े होते हैं आदि, अपनी अभिनय प्रस्तुतिओं के द्वारा वे खुलकर इन परिस्थितियों में महिलाओं की इच्छा पर चर्चा करती हैं और ऐसा करते हुए वे अपनी यौनिकता को दबाने की बजाए बड़ा-चढ़ाकर दर्शाती हैं। इससे उत्पन्न तनाव से ही हास्य पैदा होता है। एक बार तो स्टेज पर ही एक महिला वालंटियर ने उन्हें लगभग थप्पड़ मार ही दिया था जबकि वहीँ दूसरी ओर पुरुष उनका धन्यवाद करते हैं कि उनके खराब व्यवहार को दर्शाकर उन्होंने उन्हें मजबूर कर दिया है कि वे अपना व्यवहार बदलें। उन्हें बहुत अच्छा लगता है जब स्टेज पर उनकी क्वीयर यौनिकता के प्रदर्शन के बाद सूचित दर्शक और श्रोता इस बारे में चर्चा करते हैं। उन्हें यह सुनकर अच्छा लगता है जब उनके श्रोता यह प्रश्न करते हैं कि क्या वाकई जो उन्होंने कहा, वह सब ‘पूरी तरह से सच’ है।

जैसा कि कहा जाता है, “यदि ‘दुखद घटनाओं पर सामयिक टिपण्णी करना ही कॉमेडी है”’ तो ऐसा कैसे संभव है कि यह कॉमेडियन बलात्कार और लिंग-आधारित गर्भपात जैसे गंभीर विषयों पर मज़ाक कर पाते हैं? भले ही माइक पर कोई महिला ही बलात्कार के बारे में चुटकुला सुना रही हो तो भी क्या यह मज़ाक का विषय हो सकता है [1]? यदि सच्चाई के बारे में बात करना ही कॉमेडी है तो यह सही ही प्रतीत होता कि हर रोज़ यौन हिंसा का सामना करने वाली, यौन कटाक्ष झेलने वाली और जेंडर और यौनिकता के आधार पर अन्य तरह के भेदभाव का सामना करने वाली महिलाएं बलात्कार जैसे विषयों को अपनी चर्चा में शामिल करती हैं।

जहाँ तक बलात्कार जैसे विषयों पर हास्य करते हुए चर्चा करने का प्रश्न है, यह हास्य अभिनेता इस बात से अधिक चिंतित हैं कि भारतीय लोग किस तरह छोटी से बात पर राइ का पहाड़ बना लेते हैं और इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में क्या सन्देश जाता है? जैसे कि पाल्टा ने एक इंटरव्यू में कहा है, हास्य में कही गयी बात से ज्यादा महत्व कहने वाले की मंशा का होता है। उनका मानना है कि यह वाकई सोचने की बात है कि हमारे समाज में आज ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि कॉमेडियन अपने हास्य चुटकुले सुनाने में डरते हैं, कलाकार किसी विशेष तरह का कार्टून बनाने में डरते हैं लेकिन बलात्कारी बलात्कार करने से नहीं डरते। अपने हास्य अभिनय के द्वारा यह चारों कलाकार बलात्कार के (वास्तविक) कारणों को दर्शाती हैं और किस तरह से एक समाज के रूप में हम इन कारणों पर विचार करते हैं; यह विसंगतियां एक ही समय पर ह्रदय-विदारक और हास्यात्मक, दोनों बन जाती हैं।

यौन हिंसा की घटनाओं पर नहीं पर बार बार होने वाले इस बेतुकेपन पर हँसना शायद ज्यादा राहत देने वाला है कि इस समाज में अधिकाँश महिलाओं को जीवन में कभी न कभी बलात्कार का सामना करना होगा और पुलिस व परिवार हमेशा पीड़ित महिला को ही इसका दोषी समझेंगे और कानून निर्माता भारतीय विवाह जैसी ‘पवित्र’ संस्था में बलात्कार की सम्भावना को नकार देंगे। प्रिम्लानी, जो अपने बचपन में यौन हिंसा के बारे में खुलकर बात करती हैं, उन्होंने इस विषय पर 2014 में एक व्याख्यान दिया था। उन्होंने हाल में एक विडियो भी जारी किया है जिसमे उन्होंने चर्चा की है यदि पुलिस किसी टेलीविज़न सेट के चोरी होने के मामले की भी छानबीन उसी तरह करे जैसे कि बलात्कार के मामले के करती है तो क्या होगा? – शायद तब ऐसे सवाल पूछे जायेंगे, “क्या आपको पक्का पता है कि आपका टेलीविज़न चोरी ही हुआ है, हो सकता है आपने अपनी मर्ज़ी से किसी को दे दिया हो”। ऐसी बातों पर हंस लेने से वह परिस्थितियाँ नहीं बदल जाती जिनके कारण इनकी उत्पत्ति होती है, हाँ यह ज़रूर है कि इन परिस्थितियों पर फर्क अवश्य पड़ता है। एक छोटे से पल के लिए सोचें तो हम सभी उस व्यंग्य का हिस्सा हैं कि यह पूरी वास्तविकता वाकई कितनी भयावह है और कितना कम ऐसा होता है कि इनके बारे में हास-परिहास हमें उन्ही महिलाओं से सुनने को मिलता है जो इस दैनिक हिंसा को इतना पास से देखती हैं।

 

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इस लेख में शामिल:

नीति पालता दिल्ली आधारित हास्य अभिमंच लूनी गूंस के साथ अभिनय करती हैं।

 

अदिति मित्तल ने हाल ही में अपने पहले शो थिंग्स थे वुडन्ट लेट मी से का दौरा पूरा किया है। वे मुंबई के कैनवास लाफ फैक्ट्री में नियमित अभिनय करती हैं।

 

राधिका वाज़ ने हाल ही में अपने शो ओल्डर अन्ग्रिएर हैरिएर का दौरा पूरा किया है। वे वेब आधारित कॉमेडी शग्स एंड फैट्स में अभिनय करती हैं और अपने यू ट्यूब चैनेल पर नारीवाद विषयों पर विडियो पोस्ट करती हैं। वाज़ टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सप्ताह में दो बार ऑप-एड रीड इट एंड वीप प्रकाशित करती हैं।

 

वासु प्रिम्लानी ज़्यादातर दिल्ली और मुंबई में अभिनय करती हैं, जिसमें उनका हाल ही में लोदी – द गार्डन रेस्टोरेंट में और डीयू क्वियर कलेक्टिव के साथ २०१५ प्राइड के लिए अभिनय शामिल है।

 

[1]और क्या सिर्फ महिलाओं को ही बलात्कार के बारे में बात करनी चाहिए? वाज़ को ऐसा ही लगता है पर प्रिम्लानी पुरुषों द्वारा जेंडर आधारित हिंसा पर चर्चा के महत्त्व की ओर इशारा करती हैं। कॉमिक डेनियल फेर्नान्डेस ने, उदहारण के लिए, भारतीय सरकार (और भारतीय पुरुषों) के विवाह में बलात्कार पर दृष्टिकोण पर उत्तम आलोचना की है।

सोमिंदर द्वारा अनुवादित

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