मुझे याद है कि बहुत समय पहले, कहीं दूर एक कमरे में खेलते हुए, मैं हमारी पौराणिक कहानियों में वर्णित एक देव की भूमिका निभा रही थी। धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखते हुए देवता का नाम ना लेना उचित होगा। मेरे उस पात्र की पत्नी की भूमिका मेरे बचपन की एक सहेली निभा रही थी। मैं, अर्थात कहानी का नायक, जंगल में शिकार करने (?!) और भोजन तलाश करने के लिए जब कमरे से बाहर जाने लगा, तो देव अर्थात मेरी पत्नी ने पीछे से मुझे यह बताने के लिए आवाज़ लगाई कि हमारा बच्चा भूखा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय मुझे कितना आश्चर्य हुआ था कि शिकार करने जाने की इस कहानी में यह बच्चा कहाँ से आ गया? मुझे तो पता भी नहीं था कि हमारा बच्चा भी है। ठीक है, अगर भूखा है तो उसे खाना खिला दो, मैंने चिढ कर कहा था। पर कैसे, उसने पुछा, मुझे बच्चे को दूध पिलाना पड़ेगा? उसने बड़ी उम्मीद से मेरी ओर देखा मानो मुझसे किसी चमत्कार की आशा कर रही हो। पशोपेश और घृणा के बीच फंसी मैं चुप रही। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था कि क्या करना चाहिए। यह सारी वर्जित बातचीत थी जो मुझे असहज कर रही थी। मैं तो केवल शिकार पर निकलना चाहती थी। शिकार करने जैसी वीरता भरी कहानियों में बच्चों को दूध पिलाने जैसे काम के लिए कोई स्थान नहीं था। इस बातचीत से पहले मुझे याद है कि मुझे अपनी यह सहेली बहुत पसंद थी, लेकिन इसके बाद मुझे याद नहीं कि मैंने कभी उसके साथ खेला होगा। शायद मैं भाग कर अपने घर चली गयी थी। हम दोनों के बीच जेंडर की इस पशोपेश के बाद हमारे बीच का स्नेह अचानक ख़त्म हो गया। उस समय हम दोनों ही लगभग 6 वर्ष की आयु की लडकियां थीं जिनमे से एक पत्नी या माँ की भूमिका करना चाहती थी और दूसरी एक कुंवारे, शिकार करने वाले, राजकुमार की!
अक्सर शिशु ही परिवार में बच्चों के साथ प्रेम और यौनिकता के बारे में बातचीत शुरू करने में माध्यम बन जाते हैं। हम बच्चों को कुछ इस तरह बताते हैं कि, “जब दो लोग एक दुसरे से प्यार करते हैं तो वे शादी कर लेते हैं और फिर उनके बच्चे होते हैं”, या फिर हम उन्हें इसी कहानी का दूसरा रूप सुनाते हैं जिसमे एक बगुला होता है। हमें भी यही कहानी सुनाई गयी थी जिसे हम कुछ बड़ा चढ़ाकर, सजा संवार कर कहानी के रूप में अपने बच्चों को सुना देते हैं। यही हमारे लिए प्रेम और यौनिकता का प्रथम पाठ होता है और हममे से बहुत 6 साल से लेकर 16, फिर 26 और फिर आगे की उम्र में भी इसी पाठ को दोहराते रहते हैं। अब समय आ गया है कि इस प्रथम पाठ को बदला जाए, कम से कम हम बड़ी उम्र के लोगों को तो ऐसा कर ही लेना चाहिए। उसके बाद हम यह फैसला करेंगे कि हम आगे अपने बच्चों को क्या बताएं।
6 वर्ष की आयु के बच्चों की बात करें तो 15 Real Stories about Kids Exploring Sex नामक कहानियों की किताब का ज़िक्र आवश्यक है। यहाँ एक कहानी का अंश नमूने के रूप में प्रस्तुत है:
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मुझे लगता है कि ऊपर बताये गए कहानी के अंश की तरह, उन परिवारों की कहानी में अपेक्षकृत ज्यादा यौनिकता की स्वीकृति और आपसी प्यार झलकता है जिन कहानियों में भाई-बहन, प्यार, यौनिकता, टेडी बेयर/खिलौने, रिश्तेदार और माँ के पात्र शामिल होते हैं!
प्यार की अभिव्यक्ति कई रूपों में की जा सकती है और इसी तरह यौनिकता और इसे व्यक्त करने के भी कई तरीके होते हैं। हम सच्चाई को अधिक करीब से देख सकते हैं अगर हम इन सभी तरीकों को समझे और समग्र रूप से जाने।
आइये बच्चों के विषय पर वापस आते हैं। एक बच्चे का जन्म होता है। इस बच्चे के जन्म की परिस्थितियों, सामजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं और परिवार की हैसियत के आधार पर ही या तो इस बच्चे के जन्म पर ख़ुशी मनाई जायेगी या नहीं मनाई जायेगी। अगर माँ और बच्चा, दोनों ही स्वस्थ हों, बच्चे के माता-पिता (एक दुसरे से) विवाहित हों या बच्चे के जन्म पर खुश होने के लिए परिवार के लोग मौजूद हों तो निश्चित रूप से ख़ुशी मनाई जायेगी।
एक और परिस्थिति है जिसमे बच्चा पैदा होता है लेकिन उसका पिता कौन है, किसी को नहीं पता। यह गर्भधारण किसी चमत्कार की वजह से नहीं हुआ।सेक्स की वजह से हुआ। फिर प्यार का क्या? एक नाबालिग लड़की जो अपने ‘पिता की उम्र के’ अपने ऑनलाइन प्रशंसक को अपनी निर्वस्त्र तस्वीर दिखाती है, शायद उससे प्यार करती हो। यह भी संभव है कि वह व्यक्ति भी इससे प्यार करता हो। फिर दोनों मिलते हैं और बहुत ही अन्तरंग तरीके से सेक्स करते हुए अपने इस प्यार की अनुभूति को समझते हैं। हो सकता है वह लड़की 18 वर्ष की आयु से 1 महीना छोटी हो या कुछ वर्ष भी छोटी रही हो। ऐसे में अगर उस देश के कानून के अनुसार सेक्स करने की हामी भरने की कानूनी उम्र 18 वर्ष है तो वह लड़की और उसका साथी गंभीर मुसीबत में पड़ सकते हैं। हम सभी प्यार, विवाह और फिर बच्चे पैदा करने की कल्पना में इतने मशगूल थे कि इस परिस्थिति पर हमनें ध्यान ही नहीं दिया।
जितना समय इस लेख को पढने में लगेगा, उतने समय में वास्तविक दुनिया में प्यार और यौनिक संबंधों की अनेक ऐसी घटनाएं घटित हो रही होंगे जिनमे प्यार अपने अनेक अवतारों में और यौनिकता अपने अनेक अवतारों में अनेकों जाल बुन रहे होंगे। रिश्ते में भाई-बहन लगने वाले बहुत से लोग आपस में प्यार करते हैं और फिर चाहे आप इसे मंज़ूर करें या नहीं, उनकी कहानी आगे बढती है। इस बारे में अलग-अलग लोगों के विचार अलग-अलग हो सकते हैं। बचपन में एक दुसरे से दूर रहे दो भाई-बहन बरसों के बाद मिलते हैं और अपने भाई-बहन के सम्बन्ध से अनजान अपने प्रेम को सेक्स के माध्यम से अभिव्यकत करते हैं। इस तरह के संबंधों को ‘आनुवंशिक यौनिक चाहत (जी.एस.ए.)’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। एलिक्स कस्र्टा का कहना है, “आपसी रिश्तों में बने यौन संबंधों के प्रति घृणा की भावना या ‘आनुवंशिक यौनिक चाहत’ का अनुभव कर रहे व्यक्ति को कलंकित किये जाने के कारण इस तरह के संबंधों के बारे (माँ-बाप या भाई-बहन के साथ बने संबंधों की तो बात ही न करें) में खुल कर बताया नहीं जाता, इनके बारे में बहुत कम जानकारी मिल पाती है। इससे भी बुरा तो यह है कि अकादमिक दुनिया में तो इस तरह के संबंधो के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया जाता। यह अलग बात है कि आनुवंशिक यौनिक चाहत की कुछ घटनाओं को अखबारों में बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है, लेकिन फिर भी इस बारे में जानकारी का सामान्य अभाव बना ही रहता है। अभी यह जानकारी नहीं है कि संबंधों में आनुवंशिक यौनिक चाहत के मामले बहुत कम ही क्यों देखने को मिलते हैं, क्या कुछ लोगों में आनुवंशिक यौनिक चाहत होने की सम्भावना अधिक रहती है या फिर यह आनुवंशिक यौनिक चाहत माता-पिता और बच्चों या भाई-बहनों में अलग तरीके से दिखाई पड़ती है। इन सब से भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आनुवंशिक यौनिक चाहत से यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि किन्ही दो लोगों के बीच यौन आकर्षण किन कारणों से प्रभावित होता है…””।
यौन साथियों के बीच संबंधों के अतिरिक्त प्यार, लगाव और पारिवारिक संबंधों पर यौनिकता के प्रभाव के बारे में जानकारी नहीं है। जानकारी के अभाव के कारण कभी कभी इन संबंधों में सीमाओं का कांसेप्ट ही नहीं रहता और वैसे भी ऐसे संबंधों में पारिवारिक संबंधों की सीमाओं की क्या आवश्यकता है, है ना?! भाई-बहनों के बीच आपसी सम्बन्ध पर लिखे अपने एक रोचक लेख में जॉन काफ्फारो कहते हैं, ‘’पारिवारिक हिंसा की घटनाओं में भाई-बहनों के बीच हुए यौन शोषण को सबसे अधिक गुप्त रखा जाता है’’। मैंने जिस लेख से यह उद्धरण दिया है वह एक कलाकार, निर्देशिका, निर्माता लेना डन्हम द्वारा लिखी गयी किताब पर प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया है। अपनी इस किताब में डन्हम ने अपनी बहन के साथ अपने यौन संबंधों और एक दुसरे के साथ यौन क्रीडा का खुलासा कर ख़ासा ववाल खड़ा कर दिया था। इस मामले में नज़रिया विशेष उल्लेखनीय इसलिए बन गया क्योंकि जिसे उन्होंने यौन क्रीडा कहा, उसी कार्य को अन्य लोग शोषण कह कर बुलाते हैं। मुझे नहीं पता कि उनकी बहन का इस बारे में क्या कहना है। अनेक देशों और संस्कृतियों में यह बहस बहुत प्रासंगिक है।
कम से कम यह बहस प्रेम और यौनिकता के दायरे को बढ़ाती है। इसका यह भी अर्थ है कि हमारी कहानियों में जो बताया जाता है उससे भी अधिक कुछ है और ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने इन अनुभवों को जिया है। मैं आपसे यह बात साझा करना चाहती हूँ कि इस विषय पर लिख कर और रिसर्च करते हुए मुझे ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं मैंने अपनी सीमाओं को लांघा है। दो लोगों का आपस में प्रेम करना, विवाह कर लेना और फिर बच्चे पैदा करने के नैतिक सिद्धान्त और इनके परिणाम बहुत मज़बूत हैं। लेकिन अगर कुछ लोग ऐसा सोचते हैं की केवल इन्द्रधनुषी झंडे लेकर चलने वाले लोग ही लुकछिप कर ‘बंद अलमारी’ में जीवन व्यतीत करते हैं तो मैं बता दूं कि ऐसी अनेक ‘अलमारियां’ हैं। प्रेम और यौनिकता के मानवीय अनुभव केवल कानून और ‘नैतिकता’ तक ही सीमित नहीं होते।
हमें इन बातों पर चर्चा करने के भय से लड़ना होगा। हम नहीं जानते कि ऐसे प्रेम और यौनिक संबंधों के बारे में क्या कहा जाए जो स्वीकार्य संबंधों में प्रेम के अलावा किसी अन्य रूप में व्यक्त किये जाते हैं। इन स्वीकार्य संबंधों के अतिरिक्त बाकी सब कुछ ‘अम्म्म’ अर्थात चुप्पी के क्षेत्र में आता है और यह चुप्पी खतरनाक है। जिस विषय पर बात करने की मनाही हो, उस पर चर्चा न करके या खुद को कलंकित करके हम इस सच्चाई से मुंह मोड़ते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं। लेकिन इससे सच्चाई बदल नहीं जाती। इसका यह अर्थ नहीं होता कि हमने अपनी वास्तविक परेशानी का हल खोज लिया है बल्कि इसका यह मतलब निकलता है कि हमें तब तक अपनी वास्तविकता का पता नहीं चलता जब तक कि सच्चाई अपने भयावह रूप में हमारे सामने नहीं आ जाती। तब हमारा अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाता है। ऐसा अक्सर होता है। मुझे लगता है कि जितना हम समझते और जानते हैं, उससे कहीं अधिक अनभिज्ञ और अनजान हम हैं।
‘चुप्पी’ साधने में जानकारी का अभाव होता है। इसके साथ हम सही और गलत में से सही का चुनाव नहीं कर पाते और न ही हमें किसी स्थिति के गुण, दोषों, हाँ, ना, क्यों, आदि का पता चल पाता है। इस पूरे विषय पर चर्चा में ‘चुप्पी’ के अलावा भी बहुत कुछ है।