लेखिका – अनुभा सरकार
मेरी माँ के मन में हमेशा मुझे लेकर एक ही चिंता रहती है – कि मैं लड़कियों सरीखी नहीं हूँ, या मुझ में स्त्री-सुलभ गुणों की कमी है।
माँ की कुछ बहुत-बहुत पुरानी, कोनों से मुड़ी हुई ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों से पता चलता है कि माँ अपने समय में काफ़ी फैशनेबल रही थी। बिल्कुल चुस्त फिटिंग वाले कुर्ते, बेल-बॉटम जीन्स, सलीके से बांधी गई साड़ियाँ, केश-विन्यास बिल्कुल सही, फैशन और मेक-अप के प्रति माँ का ‘लगाव’ आज तक भी वैसा ही बना हुआ है। फिर भी उनकी एक ही बेटी, यानी मैं, फ़ैशन, मेक-अप और इनसे जुड़ी हर चीज़ से दूर भागती है। लेकिन माँ नें अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है, उन्हें अभी भी लगता है कि एक दिन मेरा मन बदलेगा और मैं नेल पॉलिश लगाऊँगी, लेकिन मैंने भी अभी तक हार नहीं मानी है।
बचपन के मेरे शुरुआती दिनों से ही, मेरी माँ के अलावा, कुछ और लोगों का एक छोटा सा समूह रहा है जिनकी हमेशा से यही इच्छा रही है कि मैं उनके कहे अनुसार खुद को संवारा करूँ। लेकिन चूंकि मैं हमेशा से ‘किताबी कीड़ा’ बन पढ़ाई में लगी रही, इसलिए अब समाज में लोग मुझे ‘पढ़ाकू’ या ‘बेवकूफ़’ कहकर बुलाने लगे हैं। कठिनाई उस समय उठ खड़ी होती है जब मेरे विवाह के लिए वर खोजने के लिए ‘उपयुक्त’ तस्वीरें खिंचवाने की ज़रूरत होती है ताकि ये प्रस्तावित वर पक्ष को भेजी जा सकें या फिर मैट्रीमोनियल वैबसाइट पर डाली जा सकें। अब चूंकि मैं सभी तरह के ‘लड़कियों वाले’ परिधान पहनने से और मेक-अप आदि करने से छिटक कर दूर भागती हूँ, मुझे यह समझ नहीं आता कि मैं किस तरह से खुद को एक अच्छी, संभावित पत्नी के रूप में प्रस्तुत करूँ।
हाल ही में अपनी एक महिला मित्र से बातचीत के दौरान, बातों का रुख वैक्सिंग करने की ओर मुड़ गया। इस बारे में हम दोनों के विचार एक दूसरे से बिलकुल अलग थे। अपने हमउम्र दोस्तों के दबाव के कारण और किसी न किसी तरह की फैशन से जुड़ी गतिविधि में भागीदारी करने की मजबूरी के चलते अपनी किशोरावस्था में मुझे अपनी टांगों और बाज़ुओं की वैक्सिंग करवाने के लिए जाना पड़ा था, हालांकि मेरे शरीर पर बिलकुल न के बराबर बाल थे। वहीं मेरी इस महिला मित्र का कहना था कि उसके शरीरपर तो हमेशा से ही ‘बहुत ज़्यादा’ बाल आते थे लेकिन किशोरावस्था में उसे कभी भी वैक्सिंग नहीं करवाने दी गई। लेकिन अब वयस्क होने के बाद वो हमेशा अपने शरीर के रोए को हटवाती रहती है क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा न करने पर वो ‘भद्दी’ लगेगी। अपने बीच इस बातचीत के बाद हम दोनों ये सोचने लगे कि कैसे सामाजिक मान्यताओ के कारण हम ये समझने लगते हैं कि लड़कियों को ‘लड़कियों की तरह’ लगने के लिए एक विशिष्ट प्रकार से दिखने की ज़रूरत होती है।
अब प्रचलित और लोकप्रिय मीडिया और संस्कृति भी इसी विचार को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं कि पुरुष भी केवल उन्हीं महिलाओं में ज़्यादा रुचि दिखाते हैं जो एक विशेष प्रकार की शारीरिक बनावट की होती हैं और कपड़े पहनने के कुछ विशेष मानकों का पालन करती हैं। अब मैं तो ऐसे किसी भी मानक पर खरी नहीं उतरती और इस बात का एहसास मुझे अपनी बी.ए. की पढ़ाई के दौरान हो गया था कि मुझ में फ़ैशन की कोई समझ नहीं है। अब लड़कियों के महाविद्यालय में पढ़ने के कारण मेरा सामना बहुत सी खूबसूरत और सजी-सँवरी फ़ैशन बालाओं से होता था और यह कॉलेज भले ही एक सुरक्षित जगह थी, फिर भी मुझे लगने लगा था कि जिस तरह से लड़कियों को दिखना चाहिए, उस मामले में मैं शायद सबसे पिछड़ती जा रही थी। मेरी न केवल शारीरिक बनावट बहुत ‘आकर्षक’ नहीं थी या चेहरा बहुत सुंदर नहीं था, बल्कि मैं उन कुछ लोगों में से थी जिनके नाप की जूती या चप्पल ढूंढ पाना भी मुश्किल हो जाता था।
अब आपको शायद लग रहा होगा कि मेरे पैरों में कहीं कोई खराबी थी क्योंकि जूते या हील वाले सैंडल ढूँढने में क्या मुश्किल हो सकती है। लेकिन नहीं, मेरे मामले में थी। शायद आनुवांशिक कारणों से या फिर ऐसे ही, मेरे पाँव वैसे तो बहुत छोटे हैं लेकिन आगे पंजे की तरफ बहुत चौड़े हैं। इसका मतलब है कि नोकदार और ऊंची ऐड़ी के सैंडल मैं नहीं पहन सकती। अब मैं उम्र के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में हूँ और मुझे आज भी यह सोचकर हैरानी होती है कि जूते बनाने वाली ये बड़ी और मेहेंगी कंपनियाँ चौड़े पैरों वाले लोगों के लिए जूते क्यों नहीं बनाती, और क्यों मुझ जैसे लोगों को एक आरामदायक जूता ढूँढने के लिए इतनी मेहनत करते हुए समय बर्बाद करना पड़ता है। लेकिन मैं यह तो दावे के साथ कह सकती हूँ कि मैं सिण्ड्रेला की सौतेली बहनों की तरह उन ‘सुंदर’ चप्पलों में अपने पैर डालने के लिए उनकी उंगलियाँ तो कभी नहीं काटने वाली।
जहाँ तक मुझे याद है, मुझे हमेशा से गुलाबी रंग नापसंद रहा है। बचपन से ही हमेशा मैं कोई भी गुलाबी कपड़ा पहनने या कुछ भी गुलाबी खरीदने से साफ़ इंकार कर देती थी। मुझे कभी यह समझ नहीं आता था कि क्यों मुझे एक खास रंग की चीज़ें सिर्फ इसलिए दिलवाई जाती हैं क्योंकि मैं एक लड़की हूँ। बस यही सोच कर मैं विद्रोह कर दिया करती थी। मुझसे ठीक अलग, अमरीकी प्रोफेसर और द बैड फेमिनिस्ट किताब की लेखिका रॉक्सन गे (Roxane Gay) को गुलाबी रंग बहुत पसंद था लेकिन वे हमेशा सबसे यही कहती थी कि काला रंग ही उनका पसंदीदा रंग था ताकि वे ‘कूल’ प्रतीत हों। उनकी तरह ही एक समय ऐसा था जब मैं भी लड़कियों के लिए बनाई जाने वाली हर चीज़ से सिर्फ इसलिए दूर भागती थी क्योंकि मुझे लगता था कि नारीवादी दिखने के लिए एक खास तरीके से दिखना और व्यवहार करना आवश्यक है।
एक समय ऐसा भी था जब मुझे संतान पैदा करने या माँ बनने की अपनी इच्छा पर खुद ही ग्लानि होने लगती थी क्योंकि मैं एक महिला की इस भूमिका को नारीवादी-विरोधी समझती थी। माँ बनने की इच्छा रखने का मतलब था ‘स्त्रीत्व’ की ओर बढ़ना, और यह बिलकुल वही सोच थी जिससे मैं बचपन से ही लड़ती आ रही थी। मैं यह समझती थी कि नारीवादी होने का मतलब होता है आत्मनिर्भर और स्वतंत्र होना, पुरुषों पर भरोसा न करना, अपने परिवार की प्रथाओं और सम्बन्धों को नापसंद करना। मेरा यह मानना था कि नारीवादी होने के लिए मातृत्व जैसी उन सभी प्रथाओं से दूर हो जाना चाहिए जो परंपरागत रूप से महिलाएँ निभाती चली आ रही हैं। यह तो बहुत बाद में सूज़न ब्राउनमिलर (Susan Brownmiller) की पुस्तक फेमिनिनिटी (स्त्रीत्व) से एक अंश पढ़ने के बाद मेरी सोच बदली और दिमाग कुछ शांत हुआ:
अगर उसे स्त्री-सुलभ व्यवहारों की मूल ज़रूरतों को पूरा कर पाने में कठिनाई होती है, अगर स्त्री-सुलभ आचरण उसकी इच्छा के विरुद्ध जाता है , या फिर अगर उसकी कमियों और खामियों के लिए उसे आलोचना का सामना करना पड़ता है, तो जितना ज़्यादा वह स्त्री-सुलभ व्यवहार को किसी को संतुष्ट करने के मार्ग के रूप में देखने लगेगी, एक ऐसी कार्ययोजना जिसे छोड़ पाने की इच्छा या साहस उसके अंदर नहीं होगा, तो निश्चित तौर पर हर स्थिति में उसका विफलता का सामना करना निश्चित है। (पृष्ठ 16)
इस अंश के अंतिम कुछ शब्द, “…तो हर स्थिति में उसका विफलता का सामना करना निश्चित है” पढ़ने के बाद मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे द्वारा किए गए हर काम या मेरे आचरण पर कोई न कोई कठोर निर्णय ज़रूर दिया जाएगा। अपनी मान्यताओं और सिद्धांतों के बारे में विचार करते हुए मैंने जाना कि हो सकता है कि रॉक्सन गे की तरह मैं भी एक बुरी नारीवादी साबित हो जाऊँ लेकिन नारीवाद के मूल सिद्धांतों के प्रति तो मेरी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं है। आगे चलकर मैंने यह विचार करना शुरू किया कि किस तरह से मेरे व्यवहार से मेरे आसपास के लोग प्रभावित होते हैं। क्या मेरा आचरण महिलाओं के प्रति द्वेष, लिंग-भेद और भेदभाव से लड़ने के मेरे विचारों से मेल खाता है? अगर हाँ, तो निश्चित रूप से माँ बन पाने की मेरी इच्छा मेरे नारीवादी होने के विरोध में कदापि नहीं है।
तो अब मैं इस बारे में क्या सोचती हूँ? आपको बता दूँ कि मेरी अलमारी में आज एक चटक गुलाबी रंग की जैकेट है जो मेरे पसंदीदा कपड़ों में से है। लेकिन यह भी सही है कि मुझे बहुत ज़्यादा हिम्मत की ज़रूरत थी कोई गुलाबी रंग की चीज़ खरीद पाने के लिए और यह स्वीकार करने में कि स्त्रीत्व के अनेक प्रकार हैं और वे सभी सही हैं।
अनुभा सरकार ऑस्ट्रेलिया में मेलबोर्न की मोनाश यूनिवर्सिटी में पीएचडी के अंतिम वर्ष की प्रत्याशी हैं। अपने शोधकार्य के लिए इन्होने मुंबई के बॉलीवुड फिल्म उद्योग में सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक नीतियों और सॉफ्ट पावर के आपसी सम्बन्धों की विवेचना की है।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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