“हॉस्टल में रहना खतरे से खाली नहीं,” – कोलकाता में हमारी पड़ोसन श्रीमति चैटर्जी ने मेरी माँ को चेतावनी देते हुए कहा था, “इतने सारे नवयुवा एक ही जगह पर, और उसपर उन सभी की बलवती इच्छाएँ, कुछ भी हो सकता है।“ उनकी बातों में ज़ाहिर की गयी चिंता बिलकुल साफ़ थी – यौवन की दहलीज़ पर कदम रख रहीं नवयुवा लडकियाँ, पूरी तरह जनाना माहौल में साथ रहती हुई, वो भी दिल्ली जैसे शहर के हॉस्टल में, जहाँ हर तरह की सामाजिक पृष्ठभूमि और संस्कृतियों का समागम होता है। एक पारंपरिक मध्यमवर्गीय बंगाली व्यक्ति के लिए तो क्या, किसी के लिए भी यह बड़ी ही पेचीदा स्थिति हो सकती थी। श्रीमति चैटर्जी की बात सुनकर माँ ने एक कातर नज़र से मेरे पिता की ओर देखा, मानो मन ही मन कहे गए शब्दों पर विचार कर रही हों कि मुझे उस लिबरल आर्ट्स कॉलेज में भेजा जाए या नहीं, जहाँ पढ़ाई करने की मेरी बड़ी इच्छा थी। मेरे दिल्ली जाकर कॉलेज में पढ़ाई करने का विचार सभी संबन्धित पक्षों को भयभीत करने वाला था। मेरे दिल्ली जाकर पढ़ाई करने का अर्थ था कि न केवल मुझे घर छोड़ना होगा बल्कि मुझे एक प्रगतिशील शहर के अपरिचित माहौल में खुद को ढालना भी पड़ेगा।
खैर, किसी तरह से मैंने अपने माता-पिता को श्रीमति चैटर्जी की सलाह को अनदेखा कर देने के लिए राज़ी कर लिया था।
फिर कुछ ही महीनों बाद एक दिन, मैं दो बड़े-बड़े भरे हुए सूटकेस और एक पुराना सा गद्दा लेकर अपने हॉस्टल के कमरे में पहुँच गई जहाँ एक छोटे से कमरे में दो लोगों के रहने की जगह थी। मैंने अभी-अभी वयस्कता में कदम रखा था और मैं आने वाले समय की असीमित संभावनाओं के बारे में सोचकर बड़ी ही उत्साहित थी। मैं अब अपने रूढ़िवादी परिवार की बेड़ियों से मुक्त होकर अपनी इच्छानुसार सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र थी, ऐसे में मुझे खुद में एक नयी तरह की शारीरिक और यौनिक ऊर्जा का एहसास हो चला था। हॉस्टल में अपने पहले दिन, मैं 18 वर्ष की भोली-भाली लड़की (जिसमें ‘हॉरमोन उछालें भर रहे थे’) मन ही मन यह सोच रही थी कि श्रीमति चैटर्जी की कही बात ही सही हो। मैं उम्मीद कर रही थी कि यह जगह उतनी ही उच्छृंखल, बेलगाम और ‘खतरनाक’ हो।
अपनी हम उम्र अनेक दूसरी लड़कियों की तरह ही मुझे भी अपने मध्यमवर्गीय परिवार में यौन घुटन सी महसूस होती रहती थी। मुझे कम उम्र में ही अपने मन में दूसरी लड़कियों के प्रति आकर्षण होने का आभास हो गया था – जब मैं 13 वर्ष की थी तभी मुझे अपनी एक मित्र से गहरा लगाव हो गया था – लेकिन न जाने क्यों अपनी इन इच्छाओं और भावनाओं पर अमल करने की हिम्मत नहीं होती थी। मेरे घर पर माहौल ऐसा था कि समलैंगिकता का प्रति सभी के मन में घोर घृणा के भाव कूट-कूट कर भरे थे और मेरे लिए अपनी पहचान को उजागर कर पाने का कोई जरिया नहीं था। लेकिन यौन प्रतिबंधों से भरे एक माहौल से निकल कर एक नए खुले वातावरण में सांस लेने का अर्थ था कि अब मैं अपनी इच्छानुसार काम कर सकती थी। अब मुझे उम्मीद बंध चली थी कि मैं खुद को बेहतर जान पाऊँगी और मुझे मेरी पहचान से साथ स्वीकार कर लिया जाएगा।
हॉस्टल के उस छोटे से दो बिस्तरों वाले कमरे में मेरी रूममेट ने मेरी तरफ उत्सुकता भरी निगाहों से देखा। हम एक दूसरे को जानने के लिए की जाने वाली आरंभिक बातचीत (अपने-अपने बारे में थोड़ा कुछ बताना) की रस्म अदायगी कर चुके थे और अब हम “एक दूसरे को बेहतर तरीके से समझ पाने” वाली नाजुक स्थिति में थे।
बातचीत के दौरान एक लंबी चुप्पी के बाद उसने अचानक पूछ लिया, “क्या तुम वर्जिन हो?” मैं उसके इस तरह सीधे सवाल करने पर भौचक्की रह गयी थी। मेरी सांस मानो थम सी गयी और मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूँ। लेकिन फिर कुछ देर तक हाथ मलते रहने के बाद धीरे से सिर हिलाकर ‘हाँ’ कह दिया। मेरे उत्तर पर वह धीरे से मुसकुराई और बोली, ‘चिंता मत करो, मैं भी।“
तो इस तरह से हमारी जान पहचान बढ़ी और आरंभिक सकुचाहट दूर हो गयी।
मेरे घर में, कोई भी सेक्स के बारे में कभी बात नहीं करता था। डेटिंग करना निषेध था और किसी भी तरह से यौनिक इच्छा प्रकट करने पर पूरी पाबंदी थी। घर पर रहते हुए न केवल मैंने अपनी यौन पहचान और इच्छाओं को पूरी तरह से छिपा कर रखा था, बल्कि मुझे किसी तरह की भी स्वतन्त्रता या इधर उधर आने-जाने की आज़ादी भी नहीं थी। लेकिन यहाँ, इस जगह में जहाँ लगभग समान उम्र की युवा, दबाई गई महिलाएँ एक साथ रह रही थीं, जिनके हॉरमोन ‘उड़ान भरने को व्याकुल थे’, यहाँ हम सभी खुल कर अपने जीवन के यौनिक इतिहास, अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं के बारे में बात कर सकते थे। मेरी रूम-मेट और मेरी दोस्ती जल्दी ही गहरी हो गयी थी, धीरे-धीरे उस फ्लोर पर रहने वाली दूसरी लड़कियों के साथ भी ऐसी ही नज़दीकियाँ बढ्ने लगीं – और फिर पूरी बिल्डिंग की लड़कियों के साथ गहरी मित्रता होती चली गयी। हम एक-दूसरे से बिल्डिंग के गलियारों में मिलते, कभी भोजन के दौरान मेस में मुलाक़ात हो जाती या फिर स्नान के लिए साझे बाथरूम में एक-दूसरे से मिल लेते। हम देर रात किसी एक के कमरे में इककट्ठे होते, और उन सभी मुद्दों और मसलों पर खुल कर बात करते जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। हम सबने एक साथ मिलकर पॉर्न देखना शुरू किया, स्वयं के आनंद के बारे में सीखा और हमने उन सभी कपोल-कल्पित बातों की सच्चाई जानना शुरू किया जो हमेशा से हमें हमारे शरीर के बारे में बताई गयी थीं। यही वो पहली और एकमात्र जगह थी जहाँ मैं अपनी समलैंगिक इच्छाओं और संवेदनाओं के बारे में दूसरों को बताने का साहस जुटी पाई। यही वह जगह थी जहाँ मुझे अपनी इन सब इच्छाओं के लिए बिना किसी तरह के विरोध या पूर्वाग्रह के, स्वीकार कर लिया गया। यह जीवन में पहली बार हुआ था कि सेक्स के बारे में इतना खुलापन जताने पर भी किसी तरह की नकारात्मक या समलैंगिकता विरोधी प्रतिक्रियाओं का सामना नहीं करना पड़ा था। इस जगह पर यह खुलापन, इसकी स्वीकार्यता, सब अपने-आप होता चला गया था।
हॉस्टल में रहते हुए अपने दूसरे साल के दौरान, मैंने पहली बार किस किया। हम दोनों अगल-बगल के कमरों में रहते थे और दोनों ही अपनी क्विअर इच्छाओं को समझने की कोशिश कर रहे थे। हम दोनों ही यह जानने में लगे थे कि अपनी यौनिकता पर लगे बंधनों की बेड़ियों से मुक्त होकर जीवन जीना किस तरह का होता है। उस रात, पहली बार हम दोनों ने किस किया क्योंकि उस समय हम बस एक दूसरे को ही क्विअर के रूप में जानते थे, क्योंकि हम दोनों ही अकेले थे और हम दोनों को ही यह पता नहीं था कि अपनी यौनिकता और इच्छाओं को कैसे एक सुरक्षित तरीके से अभिव्यक्त किया जाए। उस रात किस करने के बाद हम दोनों के बीच कोई रोमांटिक या यौन संबंध नहीं बने, लेकिन उस एक किस ने हम दोनों के जीवन को बदल कर रख दिया। वह एक नयी शुरुआत थी अपने शरीर को बेहतर समझ पाने की प्रक्रिया की, और यह जानने की, कि अपने मन से डर और कुंठा हटा देने पर कैसा महसूस होता है। मुझे हमेशा से यही बताया गया था कि एक लड़की के लिए किसी दूसरी लड़की के साथ इस तरह अंतरंग हो जाना बिलकुल गलत होता है, इस तरह के समलैंगिक विचार विकृत मानसिकता है और प्रकृति के खिलाफ़ है। लेकिन उस दिन, मुझे पता चला कि यह सभी विचार कितने गलत थे। इस तरह – किसी दूसरी लड़की के साथ इस तरह से अंतरंग हो जाने से – मुझे अपने खुद के शरीर को एक नए रूप में सराहने का अवसर मिला था। इससे मेरे मन में आने वाले वे सभी विचार पुष्ट हो गए जिन्हे एक 13 वर्ष की लड़की के रूप में मैं हमेशा अपने मन से निकाल बाहर करने की कोशिश करती रही थी।
दूसरी महिलाओं के साथ रहने के कारण मैं खुद अपने शरीर के बारे में अधिक जान पायी, मैं अपने शरीर को लेकर अधिक सहज जो पायी। अपने माता-पिता के घर रहते हुए मुझे अंजाने में ही, एक विशेष तरह से व्यवहार करते रहना होता था। वहाँ मैं कुछ विशेष तरह के परिधान ही पहन सकती है, मुझे एक विशेष तरीके से ही बैठना होता था। माहवारी के बारे में बात करने की मनाही थी और जब भी मुझे मासिक होता, तो मुझे यह देखना पड़ता था कि इसके बारे में किसी को भी भनक तक न लगे। लेकिन अपने इस हॉस्टल में ऐसी कोई बंदिश मुझ पर नहीं थी। हॉस्टल में दूसरी लड़कियों से बातचीत करने में या अपनी यौनिकता को बेहतर जानने के लिए शारीरिक क्रियाएँ करने, यहाँ तक कि हम सभी खुद को किस तरह से देखते हैं, इस बारे में एक खुलापन, एक स्वतन्त्रता थी। यह एक ऐसी जगह थी जहाँ आप अपने सभी गहरे राज़, अपनी सभी कमियाँ, अपने डर, अपनी पहचान को ऐसे लोगों के समूह के सामने बेबाक तरीके से ज़ाहिर कर सकते थे और वे सभी सब कुछ जानकर भी आपको गलत नहीं ठहराते थे। इतना सब कुछ होने पर ही अंतत: आप खुद को प्यार करने लग पाते थे।
एक तरह से श्रीमति चैटर्जी द्वारा व्यक्त सभी डर सही साबित हो रहे थे। हॉस्टल का जीवन वाकई खतरनाक था – इसलिए नहीं कि यहाँ रहने वाली लड़कियों के हॉरमोन ‘उछालें मारते थे’, बल्कि इसलिए कि हम लगातार ऐसी चर्चाएँ करते रहते और ऐसे हालात तैयार करते जो पितृसत्ता के स्थापित मानदंडों को लगातार चुनौती देते थे।
ऐसा नहीं था कि यह जगह नारिवाद के लिए कोई काल्पनिक आदर्शलोक या यूटोपिया जैसी थी। लड़कियों के हॉस्टल में रहने का मतलब था कर्फ़्यू के समय का पालन करना, नारी विरोधी सेक्सिस्ट नियमों का पालन करना और अनेक तरह की प्रशासनिक पेचीदीगियों का सामना करना, जो किसी भी तरह से स्वतन्त्रता या स्वायत्ता का बोध कराने वाला बिलकुल नहीं था। लेकिन हॉस्टल के अंदर का जीवन, जहाँ विविध पृष्ठभूमि से आयी लडकियाँ और महिलाएँ एक दूसरे की बात सुन सकती थीं, एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर थीं, वाकई एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी माहौल उपलब्ध कराता था। जब मैं पहली बार अपना घर छोड़ कर निकली थी और इस अंजान शहर में नए लोगों के बीच नए संबंध बनाने के लिए आयी थी, तब मुझे यह नहीं पता था कि यहाँ मुझे ऐसा माहौल मिलेगा कि मेरा जीवन ही सार्थक हो जाएगा। मैं तो केवल अपनी यौनिकता और अपने क्विअरव्यवहार को अधिक जानने की उम्मीद से यहाँ पहुंची थी, लेकिन यहाँ तो इस स्वतन्त्रता का अलावा मुझे एक ऐसा घर मिल गया था जो आखिरकार मुझे अपना लगने लगा था।
आज मुझे लड़कियों के अपने हॉस्टल से निकले हुए तीन वर्ष हो चुके हैं, और मुझे लगता है कि हॉस्टल जीवन में मिली सभी सीखें आज भी मेरे यौनिक जीवन को सही दिशा देने में कारगर साबित हो रही हैं। घर मेरे लिए कभी भी एक निष्प्राण रहने की जगह मात्र नहीं रहा, लेकिन लड़कियों के हॉस्टल में बिताए अपने दिनों को याद करती हूँ तो लगता है कि उस जगह में वह सब कुछ था जो एक आदर्श ‘घर’ में होना चाहिए – एक घर जो आपको सशक्त करता हो, मुक्त करता हो और एक दूसरे को निर्बाध रूप से प्रेम करने वाली महिलाओं से भरा हो।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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