अगर इन्टरनेट न होता, तो मुझे लगता है कि मैं खुद में बहुत ही असुरक्षित महसूस करती।
इस बात से आप कोई अन्य अर्थ न निकालें – यहाँ मेरी बात में ज़्यादा ज़ोर ‘असुरक्षित’ से अधिक ‘बहुत ही’ पर है। इसी बात को दुसरे पहलु से देखें तो इसका अर्थ यह निकलता है कि इन्टरनेट के होने कि वजह से मैं बिलकुल सुरक्षित और सहज महसूस करती हूँ।
यह वक्तव्य वास्तविकता से इतना परे है (यहाँ ‘परे’ पर ज़ोर दिया गया है) कि यह मज़ाक ही लगता है। मज़ाक भी ऐसा जिसे कहने पर हम शर्मिंदा तो होते हैं लेकिन ऐसा दिखाते हैं मानो कुछ न हुआ हो। यह कुछ ऐसा ही है जैसे आप सिगरेट पीने के लिए बाहर निकलें और दुसरे विभाग में काम करने वाले अपने किसी सहयोगी से टकरा जाएँ। आप शर्मिंदा होते हुए भी जताते हैं मानो कुछ न हुआ हो।
खैर, मैं विषय से भटक रही हूँ, हम तो इन्टरनेट के बारे में और मेरी असुरक्षा की भावना की बात कर रहे थे।
खैर दिखने में मैं एक हृष्ट-पुष्ट या कहें तो मोटी लड़की (या महिला?) हूँ, जो लोगों पर यह ज़ाहिर करती है कि मुझे अपना मोटा होना बिलकुल सामान्य लगता है और मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है। हाँ, बिलकुल ऐसा ही है।
ज़्यादातर मोटी लड़कियों की तरह, मेरा शारीरिक ‘विकास’ भी जल्दी हो गया था – मतलब यह कि 8 वर्ष कि उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मैंने ब्रा पहननी शुरू कर दी थी। तब मुझे अपने आप पर और अपने शरीर पर बहुत खीज आती थी, जिसके मोटा होने कारण मुझे ऐसा करना पड़ता था। लेकिन उससे भी ज्यादा मुझे अपनी माँ पर गुस्सा आता था जो जबरदस्ती मुझे ब्रा पहनने को कहती थीं। मैं बिलकुल नहीं चाहती थी कि स्कूल में किसी को भी पता चले कि मैंने अपनी कमीज़ के नीचे क्या पहना होता था, लेकिन दुर्भाग्य से हमेशा ऐसा संभव नहीं होता था। मैं कितनी भी कोशिश करती कि किसी को पता न चले लेकिन स्कूल में अकबर बीरबल नाटक में भाग लेने के समय किसी खाली पड़े क्लासरूम में कपडे बदलते हुए अपने साथी कलाकारों से यह बात छुपा पाना बहुत कठिन हो जाता था। (मैं हमेशा ही बीरबल की भूमिका ही निभाती थी, ये भी कोई पूछने की बात है।)
तो ऐसी स्थिति में मैं वही करती थी जो कोई भी ८ साल की बहादुर लड़की कर सकती थी – मैं अपने साथियों से नज़र ही नहीं मिलाती थी और जितनी जल्दी हो सके, कपड़े बदलने की कोशिश करती थी। और जब तक वह ‘समय’ गुज़र नहीं जाता था मैं किसी से भी, किसी भी विषय पर, कोई बातचीत नहीं करती थी।
अपने दसवें जन्मदिन के अगले ही दिन, मुझ मोटी को सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने की ज़रुरत आ पड़ी।
जब मुझे पहली बार मासिक हुआ, तो उस पूरे दिन मैं इस बात को अपनी गहरे रंग की पायजामी और गहरी नीली स्कर्ट की आड़ में छुपाने की कोशिश करती रही। मैंने अपनी चड्डी को धोकर और माँ को पता न चलने देने की कोशिश करते हुए वह पूरा दिन बिताया। मुझे नहीं पता था कि मासिक क्या होता है, लेकिन मैं यह समझती थी कि यह जो कुछ भी था, बहुत अच्छा नहीं था।
मासिक का दूसरा दिन तो मेरे लिए और भी असमंजस भरा था। सुबह उठकर बाथरूम गयी तो मेरी सफ़ेद पायजामी खून से पूरी तरह लाल हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में मैंने वही किया जो 10 वर्ष की कोई भी लड़की करती, मैंने फैसला किया कि और कोई रास्ता ढूँढ पाने तक कुछ इंतज़ार किया जाए। मैंने जल्दी नहाने का बहाना बनाया और बाथरूम में चली गयी और वहां जैसे ही मैंने अपनी पायजामी निकाल कर जायजा लेना शुरू किया कि माँ नें बाथरूम का दरवाज़ा खटखटा दिया।
मुझ मोटी गुनाहगार से पलंग की चादर पर लगे सबूतों को न मिटाने की गलती जो हो गयी थी।
जैसा कि मुझे पहले ही अंदेशा था, मेरी माँ बहुत झुंझलायीं हुई और गुस्से में थी। ऐसा हो ही नहीं सकता कि सुबह उठने पर मुझे इसका पता न चला हो, फिर मैंने उन्हें बतलाया क्यों नहीं?
उस घबराहट भरी स्थिति में मुझ मोटी नें ऐसा ही कुछ कहा था कि नींद में होने के कारण मुझे कुछ पता नहीं चला था। उस समय मेरी भगवान् से यही प्रार्थना थी कि यह मामला किसी तरह यहीं दब जाए।
अब इसके बाद माँ नें मुझे ‘समझाना’ शुरू किया कि अब मैं बड़ी हो गयी थी (क्या मैं हमेशा से नहीं थी?) और मुझे अब लड़कों से ज़्यादा घुलना मिलना बंद करना होगा (जैसे अब तक वे मुझसे बहुत बातें करते थे) और यह कि अब ऐसा हर महीने होगा (क्या?)। मुझे केवल इतना ही समझ में आया कि मुझे अपने इस उजागर हो चुके भेद को और अधिक चालाकी से छुपाना चाहिए था।
नहाकर और बाल धोकर, और एक मोटा पैड लगाकर जब बाथरूम से निकल कर अपने बिस्तर पर लेती, तो मेरे लिए एक और लेक्चर पहले से तैयार था।
अब महिना आने तक मेरे लिए बिस्तर पर सोने की मनाही हो गयी थी और रसोई में जाने पर भी पाबंदी लग गयी थी। मुझे अब हॉल से निकल कर बाथरूम के अलावा कहीं भी नहीं जाना था।
मुझ मोटी, शर्मिंदा, डरी हुई गुनाहगार को रोने के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा था। लेकिन मैं रो भी नहीं सकती थी, क्योंकि हम रोती नहीं हैं, है ना? कभी नहीं।
मासिक का दर्द शुरू होने तक मैंने यही सोचा था, लेकिन दर्द भी ठीक समय पर ही शुरू हो गया।
शुरू में तो मैं रोई। लेकिन आपका अहं जल्दी ही आपको जीवित रहने के अनेक बहुमूल्य पाठ पढ़ा देता है जैसे कि कैसे सबके सो जाने के बाद, जब लोगों के खर्राटे सुनाई देने लगें और जो खर्राटे नहीं लेते उनकी गहरी सांसें सुनाई देने लगें, तो अपने तकिये में मूंह छुपा कर सुबक-सुबक कर रो सकते है।
जब मेरी काँखों में बाल आने लगे तो मुझे लगा कि अब तो मैं भालू बनने वाली हूँ। फिर जब जननांगों के आसपास बाल उगने लगे, तब तो मुझे पूरा भरोसा ही हो गया कि पता नहीं मैं लड़की हूँ भी या नहीं, लेकिन मैं सामान्य लड़की तो बिलकुल नहीं हूँ।
उन शुरूआती कुछ सालों में, मैं अपने ख्यालों में हमेशा यही सोचती रहती कि वो चमत्कार किस दिन होगा जब एक दिन अचानक मैं बेहद पतली हो जाऊंगी और मेरे स्तन सूख कर वहीँ लुप्त हो जायेंगे जहाँ से वे आये थे।
12 बरस की होते-होते अब मुझे ब्रा पहनने में पहले की तरह झुंझलाहट नहीं होती थी। मैंने स्कूल के खाली क्लासरूम में नाटक के दौरान कपड़े बदलते समय आँख बचाकर डांस में भाग लेने वाली दूसरी लड़कियों को भी कपड़े बदलते हुए देख लिया था। लेकिन मुझे अपने स्तनों पर अब भी बहुत गुस्सा आता था भले ही सोते समय कम्बल के अन्दर उन्हें सहलाना मुझे अच्छा लगता था। मुझे बस यह पता नहीं था कि क्या ये ऐसे ही होने चाहियें; मुझे अब भी यही विश्वास था कि ये सब ठीक नहीं थे, लेकिन कहीं न कहीं मैं कुछ अनिश्चित भी छोड़ देना चाहती थी – कि ऐसा ही होता है और सब ठीक हो जाएगा, या ऐसी ही कुछ बकवास !
अब मैंने काँखों के बालों के होने से भी मानो समझौता कर लिया था। एक बार स्टेज के पीछे मैं एक खूबसूरत लड़की के पीछे, कपड़े बदलने में उसकी मदद करने के बहाने खड़ी हो गयी और उसके हाथ ऊपर उठाने की प्रतीक्षा करने लगी। उसने जब हाथ ऊपर उठाये तो मैंने उसकी बालों से भरी काँखों को देखा, और फिर ऐसा जताया मानो मैंने उसके पीछे एक मकड़ी देख ली थी। अब उसकी काँखों को देख लेने के बाद मेरी परेशानी बहुत हद तक कम हो गयी थी।
अब, इस समय तक मुझ मोटी बदसूरत लड़की की कुछ चिंताएं खत्म हो गयीं थीं और मुझे लगने लगा था कि संभवत; मैं उतनी अलग नहीं थी, और मुझे केवल अब अपने जननांगों पर उगते बालों की ही चिंता करनी होगी।
मुझे अपने शरीर के बारे में जानकारी देने वाला कोई भी नहीं था, और शरीर में अपने टिटनी/भग को जानने में पूरे 17 बरस लग गए। ओह, लेकिन क्या चौंका देने वाली खोज थी, यह भी !
पहली बार खुद से खेलते समय – मानो मेरे पेट में एक सख्त गठान पड़ गयी थी जो खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी, और मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि मुझे सांस ही नहीं आ रही थी। मेरी आँखों के आगे मानो तारे घूम रहे थे और मैं अब तक अनदेखे रंग देख पा रही थी, मेरी टांगों में ज़बरदस्त खिंचाव पैदा हो रहा था और मेरी अंगुलियाँ तो ऐसे चल रही थीं जैसे उनपर किसी दूसरी दुनिया की दुष्ट मकड़ी का साया हो – मुझे लग रहा था कि हो न हो, मैं अनचाहे में ही आत्महत्या कर रही हूँ।
लेकिन उसी समय मुझ मोटी का कामुक मन बार बार यही गवाही दे रहा था कि हो न हो, मरने का यह बहुत ही बेहतरीन तरीका था।
उसके बाद तो जैसे सारे बाँध टूट गए, और जब स्खलन रुक गया तो फिर मैंने एक बार और बार-बार कोशिश की जब तक कि मुझे यह विश्वास नहीं हो गया कि यह कोई एक बार मिलने वाला इनाम नहीं था और मैं जब चाहे इसका मज़ा उठा सकती थी।
मुझे तब तक सही में यह मालूम नहीं था कि मेरे हाथ में कौन सा खजाना लग गया था।
शुक्र है कि उसी सप्ताह पाउलो कोएल्हो का नावेल ‘एलेवेन मिनट्स’ हॉस्टल के चौथे ब्लाक की लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय और चर्चित हुआ था। और उन्हीं दिनों मुझे भी सभी शब्दों और उनके अर्थों की जानकारी भी हो गयी थी और बहुत कुछ समझ में आ गया था।
उस सेमेस्टर के बाद, मुझे एक लैपटॉप कंप्यूटर मिल गया था जिसमे इन्टरनेट भी था।
यह बेहतरीन तकनीक जिसे मैंने आज तक केवल अपने साथियों को तंग करने, ईमेल भेजने, हैरी पॉटर के प्रशंसकों के बातें पढ़ने, उस पर अपनी बात लिखने, खेल खेलने, दिल बहलाने और पोर्नोग्राफी देखने के लिए प्रयोग किया था, अब मेरा सबसे अच्छा मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बन चूका था।
इन्टरनेट और उसमें निहित गोपनीयता, मेरे लिए अपने उन सवालों के जवाब ढूँढने का सही ज़रिया बन चुकी थी जो मैं खुल कर किसी से पूछ नहीं सकती थी।
क्या हस्तमैथुन करना सामान्य है?
क्या मेरी योनी ऐसी ही दिखनी चाहिए?
बीडीएसएम वास्तव में क्या होता है?
क्या दुसरे लोगों की गूदा पर भी बाल होते हैं, या मुझे ह सर्कस में भर्ती हो जाना चाहिए?
मुझे अपने इन सभी सवालों के उत्तर इंसान के बनाए उस इन्टरनेट रुपी भगवान् से मिल गए।
इसी भगवान् नें मुझे बटन पोएट्री की मोटी लड़कियों के बारे में भी बताया।
इन्टरनेट से ही मुझे पता चला कि मेरे शरीर के बारे में मेरी अनभिज्ञता मुझ अकेली की ही समस्या नहीं थी, मेरे जैसी अनेक ऐसी लडकियां थीं जो अपने शरीर को और उस समाज को समझने की कोशिश कर रही थीं जो उनके इस शरीर से इतनी घृणा करता था। इन्टरनेट से मुझे पता चला कि अपने शरीर को पसंद न करना कोई असामान्य बात नहीं थी जब तक कि मुझे ऐसा करना पसंद था। फिर इन्टरनेट से मुझे विस्तार से पता चला कि यह सब कैसे हो सकता है।
यह लम्बा पत्र जो दिखने में अपराध बोध में लिखा प्रतीत होता है वास्तव में इन्टरनेट के प्रति मेरी आभार व्यक्त करने वाले धन्यवाद पत्र है जो मेरे दिल के उदगार प्रकट करता है।
ओके, धन्यवाद और नमस्कार,
लेखिका : रागमालिका कार्तिकेयन
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित