मैंने देखा है कि खेल के मैदान में सभी खिलाड़ियों को, चाहें उनका जेन्डर कुछ भी हो, “मर्दों की तरह” ही खेलना पड़ता है। हाल में मैं बैडमिंटन खेल की शुरुआत कर रहे एक खिलाड़ी को कोच कर रही थी, और बार-बार उसे ज़ोर से मारने के लिए कह रही थी (यहाँ तक कि यह भी कह दिया कि वो सोचे जैसे जिसे वह पसंद नहीं करती उसको मार रही है)। बाद में मैं सोच रही थी कि आख़िर मैं उसे और ज़्यादा आक्रामक होने के लिए क्यों कह रही थी (वास्तव में, मुझे विचार आया कि क्या मैं उसे एक मर्द की तरह खेलने को कह रही थी), और फिर मैंने सोचा कि आक्रामक होना मेरे लिए पुरुषात्मक क्यों बन गया है। मैं अक्सर यह सवाल करती हूँ कि मुझे खेल के कोर्ट और उसके बाहर हमेशा अपनी जेन्डर भूमिकाओं को बदलते रहना पड़ता है। अपने अनुभवों और विचारों को लिखने से पहले मैंने अपनी माँ से बात की, जो 1980 के दशक में कर्नाटक के लिए राज्य स्तर पर हॉकी खेल चुकी हैं। उन्होंने कहा, “महिला टीम में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी होने के लिए तुम्हें मर्दों की तरह खेलना होगा; वैसे भी हम मर्दों का मुक़ाबला नहीं कर सकते क्योंकि वे शारीरिक रूप से हमसे ज़्यादा बलवान होते हैं और इसीलिए हर खेल के लिए महिला टीमें होती हैं।” जब मैंने पूछा, “आपको सच में ऐसा लगता है?”, उन्होंने जवाब दिया, “हाँ और क्या! हमें मासिक माहवारी, बच्चे पैदा करने का श्राप जो मिला हुआ है… और यह सब हमें शारीरिक रूप से कमज़ोर बनाता है और इसलिए हम उनका मुक़ाबला नहीं कर सकते।” मुझे पता है कि हम में से बहुत लोग इस पर सवाल करेंगे, लेकिन इसके जवाब ढूँढने के बजाय मैं इस बारे में बात करना चाहूँगी कि मुझे खेल में इन सवालों का कैसा अनुभव रहा है। मैं एक एथलीट थी और मैंने ज़िला और राज्य स्तर पर बैडमिंटन, थ्रो बॉल और वॉली बॉल प्रतियोगिताओं में भाग लिया है। मैंने मैरथान में दौड़ा है। अन्य खेलों जैसे कि लॉंग जम्प, हाई जम्प और जैव्लिन थ्रो में भी भाग लिया है। वर्तमान में मैं आई.आई.टी. मद्रास में, जहां पर मैं पी.एच.डी. की छात्रा हूँ, बैडमिंटन खेलती हूँ।
पारंपरिक जेन्डर भूमिकाओं ने हमेशा ही खेलों के स्वरूप को प्रभावित किया है। यह सच है कि एक ऐसी जगह में, जो विशेष रूप से पुरुषों के लिए ही बनी थी, धीरे धीरे महिलाओं के लिए स्वीकार्यता आई है, लेकिन इस स्वीकार्यता ने औरतों को स्वतंत्र रूप से ख़ुद को स्थापित करने के लिए बहुत कम जगह दी है। उदाहरण के लिए, हम खेल को ‘यौन आकर्षित’ बनाने के लिए प्रस्ताव देते हैं कि महिला बैडमिंटन खिलाड़ियों को स्कर्ट पहननी चाहिए, जैसे कि स्कर्ट उनके नारीत्व को बनाए रखना सुनिश्चित कर देगी। तो मेरा सवाल यह है कि हमने किस हद तक इस स्थान पर अपनी जगह बनाई है, हमें औरत होने के नाते इस जगह पर बने रहने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है और हम इस जगह पर रहते हुए किस प्रकार से अपनी पारंपरिक जेन्डर भूमिकाओं को सुलझाते हैं।
मेरे लिए, खेल की जगहें स्वभाव से ही मर्दाना आदर्श दर्शाती हैं। उदाहरण के लिए, स्कूलों में जब किसी खेल की टीम के लिए खिलाड़ी चुने जाते हैं, तो कुछ विशिष्ट शारीरिक पहलुओं, जैसे कि ऊंचा कद, अच्छा शरीर और आंतरिक बल को प्राथमिकता दी जाती है। खेल की जगहों के बाहर, इन्हें मर्दाना गुण माना जाता है। पारंपरिक तौर पर, महिलाओं के अंदर ‘स्त्री गुण’ होने चाहिए; कद ज़्यादा ऊंचा न हो, ज़्यादा बलवान न हो, न ज़्यादा भारी और न ज़्यादा काली। खेल की जगहों में, ‘मर्दाना गुणों’ के पक्ष में इन ‘स्त्री गुणों’ को अस्वीकार कर दिया जाता है। तो इस खेल की जगह में घुसने के लिए, हम औरतों को मर्दाना गुणों के लिए प्रयास करना पड़ता है, जिसके लिए अपनी ताकत, कद, वज़न आदि बढ़ाना पड़ता है। मुझे आज भी याद है कि स्कूल के दिनों में खेलने वाली सभी लड़कियों, जिसमें मैं भी शामिल थी, खासकर कबड्डी और वॉली बॉल खेलने वाली लड़कियों, को सबके द्वारा टॉमबोय (लड़कों जैसी लड़की) बुलाया जाता था। बहुत लड़कियां वॉली बॉल नहीं खेलती थीं, और इसलिए मैं लड़कों के साथ खेलती थी और वो भी मुझे ‘टॉमबोय’ बुलाते थे। लड़कों के साथ वॉली बॉल खेलते समय, मेरी विरोधी टीम के लड़के मेरी टीम से कहते थे कि वे मुझे आगे या बीच में खड़ा न करें क्योंकि फिर वे लड़की की तरफ बॉल स्मैश नहीं कर सकते। उन्हें यक़ीन था कि मैं हिट्स का सामना नहीं कर पाऊँगी। इसके बदले मैं लड़कों को अपनी ताक़त दिखाने के लिए उत्सुक रहती थी कि मैं भी उनके बराबर के स्तर पर खेल सकती हूँ। मुक़ाबले की भावना में, मैं हमेशा ख़ुद को ताकतवर साबित करने के लिए सामने वालों को ज़ोर से हिट करती थी, इस उम्मीद में कि मुझे कोने की जगह से हटकर दूसरी जगह से खेलने की इजाज़त मिल जाएगी।
यह दिखाने के लिए कि हम औरतें किस प्रकार खेल जगत की इस मर्दाना भूमिका की चाह और मांग को पूरा करने का प्रयास करती हैं, मैं आपको हाल का अपना एक अनुभव बताती हूँ। मैं अपने इंस्टिट्यूट में पुरुषों के साथ बैडमिंटन खेल रही थी। दुर्भाग्य से विरोधी टीम के एक पुरुष ने मेरे मुंह पर स्मैश मारा, और मेरा चश्मा टूट गया। मेरी टीम के साथी ने पूछा, “क्या तुम्हें चोट लगी है? तुम ब्रेक ले लो”। मैंने तुरंत कहा, “कोई प्रॉब्लेम नहीं है”, टूटे टुकड़े उठाए, उन्हें किनारे रखा और खेलने चली गई। उसी समय मैंने अपनी टीम के एक साथी (वो भी पुरुष था) को विरोधी टीम से कहते सुना, “अरे भाई! इतना मर्दाना खेल मत खेलो”। उसके ऐसा कहने से मैं सोचने लगी: क्या ‘स्मैश’ करना मर्दानगी की निशानी है? क्या मुझे गेम खेलने के लिए ‘मर्दाना गेम’ खेलना पड़ेगा? मेरे अपने बर्ताव (टूटे चश्मे को किनारे रखकर खेलना जारी रखना) ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया कि अगर मुझे खेल के मैदान के बजाय किसी और जगह में चोट लगी होती, तो क्या मैंने कुछ और बर्ताव किया होता? क्या मेरी प्रतिक्रिया ‘स्त्रीयोचित’ होती अगर मैं रो पड़ती, लोगों का ध्यान आकर्षित करती, अपने दर्द के बारे में बात करती या उस समय खेल छोड़ देती? हमारी प्रतिक्रियाएं खेल के मैदान और उसके बाहर जेन्डर आधारित अलग अलग क्यों होती हैं? मैं ऐसे कई अनुभव बाँट सकती हूँ, जहां मैं कई बार एक अस्तित्व संकट के भंवर में फंसी हुई थी और उससे बाहर आने के लिए मैंने खेल की जगहों में ‘एक पुरुष’ की भूमिका अपना ली।
खेल की जगहों में जिस तरह की ताक़त की ज़रूरत होती है उसे पूरा करने के लिए, औरतों को खेल के मैदान पर सामाजिक रूप से निर्धारित ‘स्त्रीत्व’ से बचने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। खेल की जगहों के बाहर, हमें जेन्डर अनुरूप अपनी सामाजिक भूमिकाओं को साबित और पूरा करने के लिए ख़ुद को ज़रूरत से ज़्यादा यौनाकर्षित बना कर इसकी भरपाई करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन, कोई खेल खेलने के लिए, क्या मुझे ‘मर्दाना’ बनना चाहिए, या खेल के मैदान के बाहर और अंदर अपनी जेन्डर भूमिकाओं के बीच बदलाव करना चाहिए? क्या किसी खेल में मेरा प्रदर्शन जेन्डर अनुरूप होना चाहिए, और विशेषकर, क्या मेरे प्रदर्शन की तुलना हमेशा एक पुरुष के प्रदर्शन से की जानी चाहिए?
सुप्रिया सुब्रमणी आई.आई.टी. मद्रास में पी.एच.डी. की छात्रा हैं जो बायो-मेडिकल ऐथिक्स विषय पर अध्ययन कर रही हैं। वे एक बैडमिंटन और वॉली बॉल खिलाड़ी हैं और स्नातक डिग्री खत्म होने तक उन्होंने राज्य स्तरीय खेलों में प्रतिस्पर्धा की। वे एक नर्तकी भी हैं, और वे यात्रा, व्यंजनों और अच्छी बातचीत में आनंद लेती हैं।
निधि अग्गरवाल द्वारा अनुवादित।
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