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बेटे का पत्र, पिता के नाम

By: Amateur Pic, Courtesy: PublicDomainPictures.net

प्रिय पिताजी,

बहुत बार मुझे ऐसा लगता रहा है कि लेखन एक निरर्थक और उबाऊ काम होता है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि यादों को कागज़ पर उतारते समय अक्सर या तो बातें भूल जाती हैं या फिर उन्हें लिख कर व्यक्त करते समय उनका अर्थ वैसा नहीं रह जाता जो वास्तव में होता है। और फिर इसके अलावा लिखते समय हमेशा यह डर बना रहता है कि कहीं आपके द्वारा लिखी गयी बात का, किसी पूर्वाग्रह के चलते, जानकारी की कमी या फिर भाषा की अशुद्धता के कारण गलत अर्थ न निकाल लिए जाए। लेकिन मुझे अपने विचारों को व्यक्त करने का यही एकमात्र तरीका आता है, इसलिए मेरे लिए ज़रूरी है कि मैं किसी भी अन्य तरीके से अपनी बात रखने की बजाए, केवल लिख कर बात कहने के अपने कौशल को बढ़ाऊँ।

आपके जन्मदिन के अवसर पर आपको मेरी ओर से अनेक बार बधाई। मैं जानता हूँ कि हमारे बीच वर्षों से कोई बातचीत नहीं हुई है – कम से कम पत्र के माध्यम से तो नहीं। मुझे एक बार किसी ने कहा था कि, दो लोग जो आपस में खून का रिश्ता रखते हों, जो एक-दूसरे को पसंद करते हों, रोज़ आपस में मिलते हों, एकसाथ खाना खाते हों, जिनके शौक लगभग एक जैसे हों, ऐसे दो लोगों के बीच की दूरी तब बहुत ज़्यादा असहनीय हो जाती है जब वे आपस में विचारों को साझा करना बंद कर देते हैं और एक-दूसरे से बातों को छुपाने लगते हैं। मुझे उम्मीद है कि इस पत्र के माध्यम से मैं उस दूरी को खत्म कर पाऊँगा जो हमारे बीच पिछले बीस वर्षों के दौरान आ गयी है।

ऐसे देश में, जहाँ हिन्दुत्व – हिन्दू राष्ट्रवाद की प्रचलित नैतिकता – प्रमुख धर्म है, वहाँ एक कुलीन उच्च मध्य वर्ग के हिन्दू परिवार में जन्म लेने और विषमलैंगिक पारिवारिक मूल्यों के साथ पालन पोषण होने के कारण, मैं खुद को बहुत ही विशेषाधिकार वाली स्थिति में पाता हूँ। मैं खुद को, अपने विचारों का मंथन करने और उन्हें लिख कर व्यक्त कर पाने की मजबूत आर्थिक और सामाजिक स्थिति में पाता हूँ, जहाँ अधिकांश पिछड़ी जाति और धार्मिक अल्प-संख्यकों के लिए तो जीवन, मानों हर रोज़ एक संघर्ष की तरह होता है – जहाँ वे स्वतंत्र रूप से सोचने और विचारों को व्यक्त कर पाने के लिए संघर्ष करते हैं या अपने जीवन के बारे में स्वतंत्र रूप से निर्णय ले पाने के लिए भी कठिनाई का सामना करते हैं। हम सभी इस विकृत सामाजिक व्यवस्था के परिणाम हैं, और समाज में हमारा ऊँचा स्थान, हमारी सफलताएँ और हमारी समृद्धि, सभी कुछ दूसरे, सामाजिक रूप से कमज़ोर, लोगों को दबाकर, उनके अधिकारों को कुचलकर प्राप्त की हुई हैं।

आज हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ सब के लिए, एक घर के मायने एक जैसे नहीं हैं। दुनिया में अनेक ऐसे देश हैं जहाँ शरणार्थियों की भीड़ हैं, ऐसे लोग जो बार-बार अपना घर को छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं, उन्हें हिंसा, भय या सरकार द्वारा तंग किए जाने के कारण अपना देश छोडना पड़ता है। दुनिया में बहुत से ऐसे देश भी हैं जहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी लोग, एक बेहतर कल की तलाश में आ पहुँचे हैं और अपने पीछे अपने परिवारों को भी छोड़ आए हैं। वे एक अंजान देश, एक अंजान जगह पर अंजान लोगों के बीच अपना जीवन फिर से शुरू कर पाने की उम्मीद लेकर आए हैं। हम हर रोज़ संघर्ष करते हैं, कभी-कभी तो हमारा यह संघर्ष दूसरों के साथ कम और खुद के साथ ज़्यादा होता है।

एक ऐसी दुनिया में, जहाँ हमारे चुप रह जाने से फ़ायदा उठाया जाता है और जहाँ ज़्यादातर लोग डर दिखाकर दूसरों चुप कराने में विश्वास करते हैं, वहाँ हमें खुद के प्रति ईमानदारी बरतने का साहस दिखाना होगा। हमारे भीतर इतना नैतिक साहस होना चाहिए कि हम स्वीकार कर सकें कि हम वास्तव में क्या हैं और खुल कर कह सकें कि हम क्या सोचते हैं। आज यहाँ मैं भी आपसे ऐसा ही कुछ कहना चाहता हूँ, अपने बारे में कुछ ऐसा जो दूसरे सभी मेरे बारे में जानते हैं, और मुझे लगता है कि अब तक तो आपको भी उसके बारे में पता चल ही चुका होगा, लेकिन फिर भी आज मैं खुद आपको वह बता देना चाहता हूँ; मैं गे (समलैंगिक) हूँ। मेरे समलैंगिक होने का अर्थ इतना सा ही है कि मेरी भावनात्मक और शारीरिक जरूरतें कोई महिला पूरा नहीं कर सकतीं, उसके लिए एक पुरुष की ही ज़रूरत होगी।

मुझे खुद अपनी इस यौनिकता को स्वीकार कर पाने में बरसों लगे हैं – इन अनेक वर्षों में मैं बहुत परेशान रहा हूँ और असमन्जस, तकलीफ़, निराशा और अकेलेपन का सामना करता रहा हूँ। इस पूरे समय में मैं न केवल लगातार उत्कंठा या एंग्ज़ायटी का शिकार रहा हूँ, मुझे बार-बार बुखार भी आता रहा है और घबराहट के दौरे (पैनिक अटैक) भी पड़ते रहे; बल्कि बिना सोचे-समझे यौन-गतिविधियों में शामिल रहकर और लापरवाह तरीके से स्वयं का परित्याग करके मैंने अपनी मानसिक आत्म-छवि भी खराब कर ली है – अपनी किशोरावस्था के बाद के वर्षों तक और वयस्क होने के शुरूआती दिनों में भी, मेरे लिए ये स्वयं को मान्यता देने/साबित करने का एक तरीका लगता था जिसका मैंने बिना सोचे-समझे इस्तेमाल किया। मेरा बचपन जैसा भी था पर सुखद नहीं था। मुझे स्कूल जाने में डर लगता था क्योंकि वहाँ दूसरे बच्चों ने मेरा जीवन दूभर कर दिया था; वे मुझे लगातार परेशान करते थे, बिना-वजह मुझ से झगड़ा करते थे, फब्तियाँ कसते थे और इशारेबाज़ी करते थे, और इन सबके कारण मैं खुद में ही सिमट कर रह गया था, मैंने अपने-आपको केवल स्कूल की किताबों और लाइब्ररी के तंग गलियारों में बंद कर लिया था। जाने-अंजाने इस कारण से शायद मैं अपनी पढ़ाई और दूसरी खेलकूद गतिविधियों में बहुत अच्छा करने लगा था, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे बहुत घुटन होती थी।

बचपन में या शुरू-शुरू में अपने बारे में सबको खुल कर बता देने में मुझे वैसा ही डर लगता था जैसे कि सब को लगता है; कि कहीं सब मुझसे दूर न हों जाएँ, मुझे छोड़ न दें, मुझे लगता था कि मैं अपने ही मन और शरीर में कैदी हो गया हूँ, जिसे न प्यार मिला है और न ही ज़िंदगी। यह सही है कि खुद को साबित करने की ललक हमें अंदर से कमज़ोर बना देती है, लेकिन साथ ही यह भी सही है कि कभी-कभी हमारी इच्छाएँ हम से अधिक बलवती हो जाती हैं। अब इस समय मैं जीवन में ऐसे पड़ाव पर आ पहुँचा हूँ जहाँ मुझे किसी से भी, न अपने दोस्तों और न ही समाज को कुछ साबित करने की या उनकी स्वीकृति की ज़रूरत रह गई है। मैं जान चुका हूँ कि प्यार का मतलब होता है बिना किसी शर्त के स्वीकार कर लेना; और जो लोग सचमुच किसी से प्यार करते हैं, वे भले ही कितनी दूर राह भटक जाएँ, वे वापिस ज़रूर आ जाते हैं। मेरा यह भी मानना है कि जीवन का असली मकसद केवल खुशी की तलाश कर लेना ही नहीं है। खुशी तो एक साधन मात्र है। इसलिए मैं मानता हूँ कि हमें छोटी-छोटी सफलताओं का जश्न मनाना चाहिए, हमें वर्तमान में जीना सीखना चाहिए, अपनी विद्वता के विपरीत भी कभी-कभी भरोसा रखना चाहिए और जब सभी उम्मीदें टूट जाएँ, तब भी प्रेम का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हम सभी जीवन में किसी खास मक़सद को पूरा करने के लिए आए हैं, जो, सत्य की ही तरह, कभी भी एक ही बार में हम पर उजागर नहीं होता बल्कि हमें कभी अचानक ही टुकड़ों में और कभी अंतर्दृष्टि के रूप में सत्य का पता चलता है।

यह बिलकुल सही बात है कि जीवन में कुछ सीखे बिना विकास नहीं हो सकता। नई सीख के ज़रिए ही हमें नई वास्तविकताओं का पता चलता है, हमारा मानसिक विकास होता है और हमारी सोच बेहतर होती है। हर किसी को चाहिए कि वह जीवन में पढ़ने, यात्रा करने, अलग-अलग भाषाएँ और विधाएँ सीखने के लिए समय निकालें। और जब खुद के जीवन में पर्याप्त जानकारी और ज्ञान प्राप्त हो जाए तो यह भी आवशयक है कि इस प्राप्त जानकारी को दूसरे ऐसे लोगों के साथ बाँटा जाए जिन्हें इसकी ज़रूरत है; एक तरीके से हर व्यक्ति एक शिक्षक हैं और छात्र भी हैं। एक शिक्षक होने की सच्ची भावना – और इसकी सबसे बड़ी सांत्वना – इसके कथित बड़प्पन में इतनी नहीं है जितनी कि इस ज्ञान में है कि रोज़मर्रा की जीवन की सामंजस्यता के बावजूद, अच्छे-बुरे समय, दैनिक संघर्षों से जूझते हुए, अनेक परेशानियों का सामना करते हुए भी कुछ लोगों में इतना सामर्थ्य होता है कि वे खुद साधारण जीवन जीते हुए, दूसरों के जीवन को बेहतर बना पाते हैं।

जीवन में हमारी मुलाक़ात जब किसी ऐसे व्यक्ति से होती है जिसे हम पसंद करते हैं, चाहते हैं, तो हमें यह दुनिया बहुत बड़ी लगने लगती है। ऐसे में हमारे व्यक्तित्व में अनेक बदलाव आते हैं, एक बेकरारी सी आ जाती है, हमारे लिए एक खुशगवार लम्हा भी मानो एक जीवन के समान हो जाता है। दुर्भाग्य से, बहुत बार लोग रोमांस और प्रेम में अंतर नहीं कर पाते और रोमांस को ही प्यार समझने लगते हैं। ज़्यादातर रोमांटिक प्रेम-संबंध जल्दी ही खत्म हो जाते हैं, इसलिए नहीं कि इसमें पड़े दो लोग इस सम्बन्ध को कायम नहीं रख पाते बल्कि इसलिए क्योंकि ज़्यादातर समय वे प्रेम होने पर मिलने वाले आरंभिक आनंद और रोमांच से ही घिरे रहते हैं और इसी के बारे में सोचते हैं; और जब, कुछ समय बाद प्रेम का यह अतिरेक कुछ कम होने लगता है या शिथिल पड़ने लागत है, उस समय उनका मन, जो हमेशा ही एक अंजान, अनदेखी खुशी की कल्पना करता है, तब विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है। लोग हमेशा ही प्रेम सम्बन्ध बनाते रहते हैं और उनके यह संबंध खत्म भी होते रहते हैं। वे जो साथ रह पाने में कामयाब रहते हैं वो यह जानते हैं कि प्रेम करना एक दुष्कर कार्य है। वे जानते और समझते हैं कि केवल एक दूसरे से हमेशा एकमत होना ही प्रेम नहीं होता; प्रेम अनेक असहमतियों, भिन्नताओं, झगड़ों से गुजरने का नाम है, यह मिलकर खुश होने, चुप रहने, एक दूसरे के प्रति छोटी-छोटी सहानुभूतियों और समानुभूति का नाम है जो अक्सर दूसरे साथी की गैर-हाज़िरी में परिपक्व होता है।

परस्पर प्रेम और विश्वास पर टिके अन्य किसी भी सम्बन्ध की तरह ही, विवाह भी एक पवित्र बंधन हो सकता है, लेकिन यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि निजी सम्बन्ध में दो लोगों को मिलकर साथ रहने के लिए विवाहित होना ही एकमात्र आदर्श व्यवस्था हो सकती है। विवाह एक सामाजिक और कानूनी अनुबंध है जो दो लोगों के बीच – दो पुरुषों, दो महिलाओं या एक पुरुष और एक महिला – के अंतरंग सम्बन्धों को स्वीकार्यता प्रदान करता है और उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करता है। समलैंगिक विवाह (या सम्बन्धों) में बंधे दो लोग अपने साथी के साथ मिलकर संतान उत्पन्न नहीं कर सकते और अगर वे अपने परिवार को बढ़ाने के इच्छुक हों तो उन्हें संतान को गोद लेने या संतान पैदा करने के लिए किसी अन्य महिला की कोख का सहारा लेने (सरोगेसी) जैसी व्यवस्था करनी होती है। दुनिया के अनेक देश अब समलैंगिक विवाह और सरोगेसी को कानूनी मान्यता देने के लिए अपने क़ानूनों में बदलाव कर रहे हैं।

लेकिन हमारे यहाँ, भारत में, समलैंगिक सम्बन्ध बनाना, अब भी कानूनी अपराध है* जिसके लिए जुर्माने और 10 वर्ष तक की जेल की सज़ा हो सकती है। यही कारण है कि हमारे यहाँ समलैंगिकता को आज भी अपराध माना जाता है और कलंक की नज़र से देखा जाता है जिसके कारण बहुत से समलैंगिक पुरुष और महिलाएँ शर्म और गोपनीयता का जीवन व्यतीत करने को मजबूर हो जाते हैं। अनेक वर्षों तक ऐसे जीवन जीने के बाद अब लोगों ने दोहरा जीवन व्यतीत करना भी सीख लिया है – एक जीवन जो सार्वजनिक है और दूसरा जो उनका व्यक्तिगत जीवन है – लेकिन इस तरह से दोहरा जीवन जीने के मानसिक, भावनात्मक, शारीरिक परिणाम और इसके कारण आने वाली आर्थिक समस्याएँ अनेक लोगों को तोड़ कर रख देती हैं। कोई भी देश, सरकार या व्यवस्था जो अपने नागरिकों को केवल अपनी यौनिक पहचान उजागर करने और आदर के साथ जीवन जीने की इच्छा रखने के लिए अपराधी मानती है और सज़ा देती है, वे अपने इन नागरिकों के साथ अमानवीय अत्याचार करने और हत्या की दोषी होनी चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि आने वाले समय में हमें भारत और बाकी दुनिया में बेहतर बदलाव नज़र आएँगे जब समलैंगिकता को अपराध नहीं समझा जाएगा और लोग अपनी इच्छा से अपने साथी का चुनाव कर अपने तरह से जीवन व्यतीत कर पाएंगे।

मुझे लगता है कि मेरा यह पत्र, जितना मैंने सोचा था, उससे ज़्यादा ही लंबा हो गया है। फिर भी, अब जब आपने इसे यहाँ तक पढ़ ही लिया है, तो अंत में मैं केवल इतना ही कह कर खत्म करना चाहूँगा कि हम में से कई को तो शायद पूरा जीवन ही इसी तरह संघर्ष करते रहना होगा; और बहुतों के लिए तो जीवन में एक साथी का होना या अपना परिवार बना पाना शायद दूर का ख्व़ाब बन कर ही रह जाएगा। मैंने खुद, अनेक समलैंगिक पुरुषों और महिलाओं के जीवन की व्यथा-कथा को देखा और अनुभव किया है जिन्होंने छोटी उम्र में ही या तो आत्महत्या कर अपना जीवन समाप्त कर लिया या अपने जीवन के एकाकीपन को भरने और घुट-घुटकर धीरे-धीरे दर्दनाक मौत का शिकार होने के लिए शराब या दूसरे मादक पदार्थों कर सहारा लेने लगे। जीवन में कभी भी समझे न जाने, प्यार न मिलने, किसी के स्पर्श का एहसास न हो पाने या अपनी बात न कह पाने का दर्द बहुत ही दुष्कर और जीवन दूभर करने वाला हो सकता है।

आज वैश्विक और स्थानीय रूप से हम जहाँ भी हैं, मैं दिल से आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ कि आपने मुझे हमेशा ही मजबूत और निर्भीक रहना सिखाया है। साथ ही मैं आपको इसलिए भी धन्यवाद कहना चाहता हूँ कि आपने मुझे जीवन में पैसे के महत्व के बारे में समझाया है, आपने बताया कि पैसे से हम समय, खुशी, यहाँ तक कि ज़िन्दगी भी खरीद सकते हैं। अपने परिवार की खुशी सुनिश्चित करने के लिए, कठिन परिस्थितियों में लम्बे समय तक अपने परिवार से दूर रहकर, काम करते रहना निश्चित तौर पर उनके प्रति प्यार और त्याग का एक ऐसा भाव है जिसके बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा कभी नहीं जाता, क्योंकि इस तरह के एकाकी जीवन की कठोरता की कल्पना कर पाना भी एक कठिन कार्य होता है। मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मैं आपके मानदंडों पर खरा उतार पाऊँगा और आप ही की तरह बन पाऊँगा। बस उस समय, उस दिन के आने तक मैं इस दुख:दायक संसार में अकेला हूँ और मेरे पास अपना कहने को केवल मेरी ईमानदारी, सच्चाई के अलावा कुछ नहीं है। मुझे उम्मीद है कि एक दिन मेरा जीवन भी किसी के काम आने लायक हो पाएगा। मैं आशा करता हूँ कि इस बहुत संसार में, जहाँ प्यार की हर किसी को तलाश है लेकिन जो बहुतों को नहीं मिल पाता, किसी दिन मुझे भी ऐसा कोई मिल जाएगा जिसे मैं प्यार करूँ और जो मुझे प्यार करे और हम दोनों मिलकर अपना एक नया जीवन शुरू कर पाएंगे और हमारा भी एक परिवार होगा। सच में, मेरे दिल में बस यही एक इच्छा और उम्मीद है।

मैं आपके लिए सुखद भविष्य, सुखमय और स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ।

सस्नेह, आपका अपना

बेटा

*यह लेख सन् 2018 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में किए गए बदलाव से पहले लिखा गया था; भारत में अब जहाँ समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं है, ज़मीनी स्तर पर समलैंगिकता अभी भी कलंकित मानी जाती है और समलैंगिक लोगों के खिलाफ़ शोषण एवं भेदभाव जारी है।

 

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित

To read this article in English, please click here.

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