आजकल दिन छोटे होते हैं और रात जल्दी हो जाती है। मैं और मेरा एक दोस्त सिरी फोर्ट पार्क में टहलने जाते हैं। यह एक सुनसान सी जगह है जहां रास्तें बहुत तंग हैं और उनकी एक कठिन-सी भूल-भुलैया बनी हुई है। कई जगह तो बहुत अंधेरा रहता है, इतना ज़्यादा की अगर चाँद की चाँदनी न हो तो कुछ दिखाई ही न दे, और कई रास्तें तो किसी बंद गेट पर जाकर खतम हो जाते हैं, ये ऐसे बंद गेट लगते हैं जिन्हें सिर्फ़ किसी डरावनी अँग्रेजी फिल्म के श्वेत किशोर ही खोल कर अंदर जाने का साहस करते हैं। “40 एकड़, बाप रे, हमारे शरीर तो यहाँ इतनी बड़ी जगह में तिनकों की तरह हैं!” मेरे दोस्त को लूट लिए जाने या कत्ल कर दिये जाने का भय सताता है, जबकि मुझे मेरे बलात्कार होने और घायल होने का डर|
मैंने जब घर छोड़ा तो सबसे पहले मैं दिल्ली के नॉर्थ कैम्पस पहुंची थी, जहां की बाड़-लगी और टूटी-फूटी गलियों में हमेशा वहाँ पढ़ने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती थी, खासकर रात के समय। ज़्यादातर शामों में, मैं और मेरा दोस्त चाय पीने के लिए 15 मिनट तक चल कर इन रास्तों पर जाते थे, या फिर किसी दिन अगर हमारे पास चालीस अतिरिक्त रुपए होते या मन बहुत ज़्यादा खराब होता तो बन-आमलेट खाने के लिए चले जाते थे। अगर आने वाले कुछ ही दिनों में हमें कोई परिक्षण पत्र देना होता था, तो सिर्फ पढ़ाई करते रहने या लिखने का मन न होने पर हम तड़के सुबह तक उन रास्तों पर घूमते रहना पसंद करते थे। हमारी घर-वापसी उस समय होती थी जब मोहल्ले के मंदिरों में सुबह की घंटियाँ बजना शुरू हो जाती थीं और हमारे पड़ोसियों के घरों की बत्तियाँ जलने लगती थीं। अगर मेरी माँ मुझे रात 8 बजे के बाद कभी फोन करतीं, तो मैं उन्हें यही कहती कि मैं घर पर ही हूँ, और सब ठीक है। 2017 में रामजस कॉलेज में दो दिन तक एक संगोष्ठी (सेमिनार) होने वाली थी जो कुछ लोगों के बीच विचारों के मतभेद के कारण रद्द कर दी गयी थी । अब जैसे-जैसे विवाद बढ़ता गया, बहुत सारे छात्र विरोध करने के लिए सामने आने लगे। हमें यह निर्देश मिलें कि जहां तक संभव हो हम अपने कमरों के दरवाज़ें बंद रखें और सिर्फ बहुत ज़्यादा ज़रूरी होने पर ही घर से बाहर निकलें। बाद में हिंसा बढ़ने लगी: बहुत लड़कों की सरेआम दिन में पिटाई हुई, महिलाओं को शारीरिक और मानसिक तौर पर शर्मिंदा किया गया । एक दिन जब मेरी माँ ने मुझे और मेरे फ्लैट में रहने वाली दूसरी लड़की से कहा कि कैम्पस में शांति होने तक हम दोनों घर आ जाएँ, तब भी मैंने उनसे यही कहा कि हम अपने फ्लैट पर ही हैं और यहीं रहने का विचार रखते हैं, और यह भी कि सब कुछ ठीक-ठाक है। हम वहीं रहते रहें, बस कहीं बाहर कुछ समान खरीदने जाने के समय थोड़ी सावधानी रखते थे। जैसे-जैसे हमारे आसपास का माहौल खराब होने लगा, हम सब अपने उन दोस्तों की मदद करने लगे और उनका ध्यान रखने लगे जिन्हें रहने के लिए एक ‘सुरक्षित जगह’ की ज़रूरत थी।
जीवन में उम्र बढ़ने के साथ, खासकर किशोरावस्था पार होने पर, यौनिकता पर चर्चा में आमतौर पर हमेशा ‘सुरक्षित रहने’ पर ही बात होती है – और इसी नज़रिये से यह माना जाता है कि हमारी सुरक्षा भी इसी बात पर निर्भर करती है कि हम एक विषमलैंगिक-पितृसत्तात्म्क व्यवस्था के अनुरूप किस तरह से व्यवहार करते हैं। हमारे माता-पिता, हमारे दोस्तों के घर पर हमें छोडते हुए हमेशा एक ही बात कहते थे – “हमें सिर्फ तुम पर भरोसा है, हम दुनिया पर भरोसा नहीं करते।” फिर जैसा की इस दुनिया के बारे में उनकी राय थी कि दुनिया मुंह बाये निगलने के लिए तैयार बैठी है, ऐसे में किसी भी तरह के जोखिम उठाने के दो परिणाम हो सकते थे, एक यह कि हिंसा का सामना करना पड़ता या दूसरा कि हमसे सवाल किए जाते। अब यहाँ सवाल यह नहीं था कि हिंसा का डर क्यों हम लड़कियों को उन सुरक्षित दायरों से बाहर निकालने को रोके जो हमारे लिए तय किए गए थे, या फिर अगर हिंसा हुई तो क्यों हुई, हमें डर यह होता था कि हमसे सवाल किया जाएगा कि हमने आखिर यह जोखिम उठाया ही क्यों। यह बिलकुल वैसा ही था जैसे अगर स्कूल में किसी लड़की के लड़के के साथ सम्बन्धों का ‘पता चलता’ था तो उसके माता-पिता को स्कूल बुलाकर टीचर हमेशा यही कहते थे, “याद रखो, कुछ भी हो, अंजाम या परिणाम हमेशा लड़की को ही भुगतना पड़ता है।”
महाविद्यालय में भी, लड़कों के साथ रोज़मर्रा की बातचीत में एक वाक्य अक्सर सुनने को मिलता था – “मैं लड़कों को तुमसे बेहतर जानता हूँ ।” अब लड़कों की यह बात हमारे माता-पिता की नसीहत की तरह स्पष्ट रूप में हमारी सुरक्षा की नहीं होती थी, लेकिन फिर भी यह हम लड़कियों को विचलित कर देने के लिए काफ़ी थी। अब यह कहना मुश्किल है कि क्या यहाँ विडम्बना यह है कि वही पुरुष, जिनके साथ मैं समय बिताती हूँ, मुझसे कहते हैं कि मैं दूसरे पुरुषों से सावधान रहूँ, क्योंकि इसी में मेरी भलाई है, या फिर यह कि मुझे यह सोचकर भी गुस्सा आता है कि क्या मेरे ये पुरुष दोस्त समझते हैं कि हम लड़कियों को इन मामलों की कोई समझ ही नहीं है। इससे भी ज़्यादा हद तो उस दिन हुई, जब मेरे एक दोस्त नें मुझे यह सुझाव दिया कि मैं अपनी सुरक्षा के लिए एक ‘छोटी सी पिस्तौल’ खरीद लूँ और उसका लाइसेन्स भी ले लूँ जिसे मैं सुरक्षा के लिए अपने बैग में रख सकती हूँ। इससे पहले, मैंने उस मित्र के साथ यह चर्चा की थी कि कैसे मुझे अपने बैग में मिर्ची वाला स्प्रे (पेप्पर स्प्रे ) लेकर चलना अच्छा नहीं लगता है। अब यह सही है कि अचानक हमला हो जाने की स्थिति में यह मिर्ची वाला स्प्रे मेरे काम आ सकता है, लेकिन इसे रखने से मुझे हमेशा यह ध्यान भी रहता था कि अगर मैंने हम लड़कियों के लिए निर्धारित किए गए कामों से हटकर कुछ भी किया तो मेरे साथ हिंसा हो सकती है और मैं मुसीबत में पड़ सकती हूँ।
पिछले कुछ दिनों से, जाति के आधार पर होने वाली यौन हिंसा की बढ़ती हुई घटनाओं से एक नई बहस की शुरूआत हुई है – सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की सुरक्षा का मामला। महिलाओं के स्शक्तिकरण की तरह ही, महिलाओं की सुरक्षा पर बात करना भी आजकल एक प्रचलन बनता जा रहा है। अब इस बारे में हर तरफ से सुझाव आते हैं – जैसे हमला होने पर मुक़ाबला कर पाने के लिए आत्मरक्षा की ट्रेनिंग लेना, महिलाओं की निगरानी के लिए “ट्रैकिंग ऐप्प्स” और सीसीटीवी कैमरे लगाना, महिलाओं को सुरक्षित रखने और यौन हिंसा के मामलों के लिए कानूनी प्रक्रियाओं को मज़बूत करना | कुछ सुझाव तो ऐसे भी मिलते हैं कि महिलाओं को शालीन कपड़े पहनने चाहिए या फिर रात के समय अगर बाहर जाना ही पड़े तो तीन या अधिक लड़कियों को एक साथ जाना चाहिए। इन सब से हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि ‘सुरक्षा’ आखिर होती क्या है – अगर रात को बाहर जाना ही पड़े, तो क्या चुपके से जाने पर हमारी सुरक्षा निश्चित हो पाएगी? क्या हम लड़कियों के लिए बिना किसी डर के सुरक्षित रूप से दुनिया को जानना या फिर खुद को समझ पाना कभी संभव हो पाएगा? मीडिया में अक्सर यह कहा जाता है कि हमें खुद को व्यक्त करते रहना चाहिए, फिर चाहे यह अभिव्यक्ति अपने विचारों के माध्यम से हो या फिर अपने शरीर द्वारा, और ऐसा कहते हुए इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि हमें किस से सुरक्षित रहना है लेकिन किसे सुरक्षित रहना चाहिए, इस बात को नज़रंदाज़ किया जाता है। यह सिर्फ हमारे अक्सर आने जाने वाली जगहों पर और उन जगहों पर जाने के समय पर ही लागू नहीं होता बल्कि इस पर भी कि हम किस तरह से अपना स्वाभाविक जीवन जीने की कोशिश करते हैं। शिल्पा फडके, समीरा खान और शिल्पा रानाडे नें अपनी किताब व्हाई लोइटर? वीमेन एंड रिस्क ऑन मुंबई स्ट्रीट्स (Why Loiter? Women and Risk on Mumbai Streets) में उल्लेख किया है कि सुरक्षा किस से चाहिए बंधनकारी और शर्तों पर आधारित होता है। लड़कियां कैसे अपनी इच्छा से आनंद पाने की कोशिश कर सकती हैं जब उन्हें बार-बार यही बताने की कोशिश की जाती है कि ‘एक अकेली लड़की तो एक खुली तिजोरी की तरह होती है’।
मेरे फ्लैट में मेरे साथ रहने वाली मेरी दोस्त तो उस समय बहुत ज़्यादा चिंतित हो उठती है जब हम उसे छेड़ने के लिए कह देते हैं कि रात को सोते हुए उसे अपनी बालकनी का दरवाज़ा खटकने की आवाज़ आती है और इसीलिए वो सोने से पहले दो बार देखती है कि दरवाज़ा अच्छे से बंद है या नहीं। किसी से मिलकर वापिस जाते हुए हमेशा याद दिलाया जाता है कि पहुँच कर मैसेज कर देना और कैब में भी सवारी करते हुए कैब की स्थिति की निगरानी रखी जाती है। पिछले साल, मैं दिन में 3 बजे से रात 11 बजे तक की शिफ्ट में काम करती थी और जब भी कैब में वापसी के समय सिर्फ लड़कियां ही होती तो एक सुरक्षाकर्मी हमेशा हमारे साथ रहता। देर रात मेट्रो ट्रेन में भी सफर करते समय, किसी अन्य एक महिला के होने से भी कैसे हमें सुरक्षा का एहसास होने लगता है, मानों दोनों जानती हैं कि वे एक दूसरे की सहायता के लिए मौजूद हैं। हम लड़कियां जब इस तरह की तकलीफ़ों और डर का सामना करती हैं, तो हम में आपस में खुद-ब-खुद ही एक संगठन सा मानो तैयार हो जाता है, जहां हम एक दूसरे की मदद करते हैं। और ऐसा करते हुए हम, जोखिम उठाने के अपने अधिकार को दोबारा पाने की कोशिश करती हैं।
जोखिम में भय-आधारित इस संभाषण में शरीर के प्रति हिंसा होने की बात कही जाती है या फिर यह कि हमारा यह शरीर ही हमारे साथ हिंसा का कारण बन सकता है। लेकिन यह भी सही है कि अपने इस शरीर के माध्यम से ही हम दुनिया में आनंद और सुकून का अनुभव कर पाते हैं – जैसे अपनी जेंडर पहचान उचित रूप से अभिव्यक्त करने के लिए अपनी पसंद के कपड़े और पोशाकें पहनना, अपनी इच्छाओं और विचारों के अनुसार खुलकर खुद को अभिव्यक्त करना, या फिर देर रात मन करने पर आइसक्रीम खाने के लिए घर से बाहर चले जाना आदि। इसके साथ-साथ रोमांटिक या फिर यौन संबंध बनाने की अपनी इच्छा भी हम पूरी कर पाते हैं। अब किसी के साथ होने पर संभव है कि हम जोखिम ले रहे हों, क्योंकि आहत होने का खतरा तो हमेशा ही रहता है – फिर चाहे वो विचारों के न मिलने से हो, किसी के मना कर दिये जाने से हो अथवा लंबे समय से चले आ रहे सम्बन्धों के टूट जाने पर – कुछ भी हो लेकिन यह भी सही है कि किसी के साथ संबंध में होने पर हमारी निकटता उनसे बढ़ती है और इस संबंध में हमारा विश्वास और मज़बूत होता है।
बहुत बार दूसरों के सामने अपने मन की बात कहने या खुल कर बात करने में हम संकोच करते हैं। शायद इसका कारण यह होता है कि संभवत: हम खुल कर बात करने में सहज महसूस नहीं करते या फिर हमें डर लगता कि कहीं हमारा मज़ाक न उड़ा दिया जाए या लोग हमारे विचारों को न समझें। शायद हम ऐसा इसलिए भी नहीं करते क्योंकि हम दिल टूटने से खुद को बचाए रखना चाहते हैं। दूसरों से आत्मीयता बनाना एक तरह से प्रतिरोध दर्शाना भी हो सकता है – यह अपनी व्यक्तिगत निजता को पाने की और ऐसे लोगों से जुड़ पाने की कोशिश भी हो सकती है जो हमें हमारी वर्तमान विशेषताओं और खामियों के साथ अपनाने के लिए तैयार हों। जैसे-जैसे हम ज़िन्दगी में आगे बढ़ते है, हम प्यार, हानि, स्वतंत्रता और सीमाओं के माध्यमों से गुज़रते है, और धीरे-धीरे खुद की सीमाओं को समझते और स्थापित करते है। जोखिम उठाने पर ही हम बहुत सी नई बातें सीखते हैं और कुछ पुरानी बातों से दूर हटते हैं कि किन स्थितियों में हम सहज और सुरक्षित महसूस करते हैं, कब हमें मदद के लिए पुकारना होता है और कौन से व्यवहार हमारे वर्तमान और भविष्य के व्यक्तित्व के साथ मेल खाते हैं।
लेखिका: अंजलि
अंजलि नें दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी साहित्य में पढ़ाई की है और वे इंतज़ार करती हैं कि किसी दिन कोई उन्हें डिकेन्स (Dickens) के उपन्यास हार्ड टाइम्स (Hard Times) का विश्लेषण करने के लिए कहेगा। उन्हे पीना कोलाडा (piña colada) ड्रिंक पीना और बारिश में भीगना पसंद है।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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