सेक्शुअलिटी को हिंदी में यौनिकता शब्द से संबोधित करते हैं, ये शब्द भी अपने आप में बहुत कुछ कहता है। कई बार इस शब्द को जोड़कर हम आसानी से मान लेते हैं कि यौनिकता सिर्फ यौनिक मुद्दों की बात है, ये शरीर से जुड़ा मामला है …पर हम इस बात पर सवाल नहीं उठाते कि क्या यौनिक मुद्दे सिर्फ़ शरीर से जुड़े है? किसी भी क्षण किसी भी स्थान और किसी भी समय शरीर कैसे खुद को अभिव्यक्त करता है, खुद को अनुभव करता है … इस विषय पर बहुत कम बात होती है। क्या मन और शरीर बिलकुल अलग होकर अभिव्यक्त किए जा सकते हैं? यौनिकता पर चर्चा ज़रूर शरीर की बात करना है पर शरीर कई अनुभवों से जुड़ता है जिसमें नियंत्रण, प्यार, आज़ादी, तकलीफ़ और आनंद सब कुछ शामिल होता है। और फिर हम हिंसा और नियंत्रण की बात तो आसानी कर लेते है पर आनंद की नहीं, क्यों? क्योंकि शायद ये नैतिक रूप से अस्वीकार्य होता है, या फिर शायद शरीर को आनंद से , खुशी से जोड़ना ही नहीं चाहिए? हमारा शरीर बचपन से ही सीख रहा होता है कि किस बात को कैसे अभिव्यक्त करना है…किन विषयों पर बड़े किस प्रकार प्रतिक्रिया देते हैं और किन पर चुप्पी लगा लेते हैं। ये सारे अनुभव मिलकर हमारे शरीर का निर्माण करते हैं और साथ में ये भी तय करते है कि शरीर के किन अनुभवों को भाषा दे सकते हैं और किन्हें नहीं। यौनिकता पर कसी गयी चुप्पी के कारण बड़े होते समय हमें अपनी भाषा में ना ही शरीर के बारे में जानकारी मिलती है और ना ही उनसे जुड़े अनुभवों की बात होती है, फिर बात करें कैसे? उदाहरण के लिए मेन्स्रुएशन की बात करें तो इस पर बात करते समय कुछ लोग ‘महिना’ बोलते हैं कुछ लोग ‘मासिक धर्म’ बोलते हैं तो कुछ लोग ‘माहवारी’ बोलते हैं। नहीं पता कि किस शब्द के क्या मायने है और किसे कब उपयोग करना है। इसा शब्दों से हिन्दी भाषी इतने अनजान है कि कैंपेन और आन्दोलन में भी मेन्स्रुएशन और पीरियड्स जैसे शब्दों का ही उपयोग होता है। सोचने की बात है कि इतने व्यक्तिगत मसले में भी हमें अपनी भाषा के शब्दों का प्रयोग करने में हिचक क्यों होती है और इसके लिए अंग्रेज़ी के ही शब्द इतने प्रचलित क्यों हैं?
मैं ज़्यादातर काम हिन्दी भाषा में करती हूँ और मेरी पहली भाषा भी हिन्दी है, परन्तु दुर्भाग्यवश हिंदी में यौनिकता पर बात करना बहुत ही मुश्किल होता है। शब्द मिलते ही नहीं तो सही और उचित शब्दों को चुने कैसे, बात करते समय। पहली बात तो मुख्यधारा में यौनिकता से जुड़े ज़्यादातर शब्द अंग्रेज़ी से आते हैं, जो शायद चर्चा को आसान भी बना देते हैं। पर ये समझना ज़रूरी है कि यौनिकता पर बात करने समय अंग्रेजी के शब्दों को उपयोग करना आसान सा क्यों लगता है… इसका बड़ा कारण यह है कि उसके साथ ज़्यादा नैतिकता और शर्म का बोध नहीं होता है। समुदाय में काम करते वक़्त भी कई बार ये सवाल मन में उठा कि क्यों तथाकथित कम पढ़े-लिखे लोग भी इस मुद्दे पर बात करते समय अंग्रेजी के ही शब्द उपयोग करते हैं। शायद एक कारण ये हो सकता है कि अंग्रेजी के शब्दों से या दूसरी भाषा से हमारा वो जुड़ाव नहीं होता जो अपनी पहली भाषा से होता है। अपनी भाषा में बात करते समय लोग उससे कई तरह से जुड़ाव महसूस करते हैं और यदि हिन्दी भाषी लोग हिन्दी में यौनिकता से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तो वो बहुत शर्म और नैतिकता से जुड़ा हुआ महसूस होता है इसलिए उन्हें उपयोग करना बहुत कठिन लगता है। उदाहरण के लिए बचपन में सिखाये गये बॉडी पार्ट्स के नाम, सब अंग्रेज़ी में … उसे बोलना आसान है क्योंकि वो किसी और भाषा में किसी और की बात करता है, एक दूरी होती है जो भाषा से आती है और हमारे लिए बोलना सरल बनाती है बिना किसी नकारात्मक या सकारात्मक संवेदना के साथ। बचपन से शरीर से बारे में बात नहीं होती, खासकर हिन्दी में। हम जो सीखते है वो अंग्रेजी में होता है, जानकारी, ज्ञान, जो हमें हिन्दी में भाषा देता ही नहीं है। और फिर जब हम अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग करना शुरू करते हैं तो यह भी बोला जाता है हम मॉडर्न है और अंग्रेजी संस्कृति से प्रभावित है।
यौनिकता और भाषा पर सोचती हूँ तो ध्यान आती हैं हिन्दी की वो सारी गालियाँ जिन्हें महिलाओं से जोड़कर उन्हें नीचा दिखाने लिए उपयोग किया जाता है। और ध्यान आते हैं वो अनुभव, जिनको तो शब्द ही नहीं मिले हैं, क्योंकि वो यौनिकता से जुड़े हैं। ज्यादातर यौनिकता से जुड़े हिन्दी शब्दों को सकरात्मक नज़रिए से नहीं देखा जाता और उनके साथ कई गालियाँ और नकारात्मक अनुभव जुड़े होते हैं जो उन शब्दों को उपयोग करना नामुमकिन बनाते हैं। दिलचस्प है ना कि अंग्रेजी की गालियाँ तक स्वीकार्य हैं, ‘कूल’ मानी जाती हैं, पर हिन्दी में उन्हीं गालियों को सोच भी नहीं सकते बोलना तो दूर की बात…बहुत ही असभ्य होगा।
शरीर, गर्भ, अनुभव, और आनंद आदि कि बातें हिन्दी में होती हैं पर महिलाओं के लिए उपयोग करने समय इनका अर्थ कमजोरी या नियंत्रण को दिखाता है। यौनिकता से जुड़े ये शब्द महिलाओं पर हिंसा और नियंत्रण को दर्शाते हैं, इसलिए इनका उपयोग भी बहुत सीमित होता है और विशेषकर महिलाएँ उनका उपयोग करने में हिचकिचाती है। ये भी है कि कई बातें प्रचलित रूप में ऐसे कही जाती है जिसमें बहुत नैतिकता का भार है जैसे ‘बच्चा गिराना’ … ‘बच्चा गिराने’ को सीधा ‘पाप’ और ‘पुण्य’ से जोड़कर देखा जाता है जो यह दिखाता है कि निर्णय है तो परन्तु बिलकुल गलत। यदि कोई महिला ये निर्णय लेती है तो पाप करती है…इसमे उसके शरीर या निर्णय की तो बात ही नहीं है … ये सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चे की बात है और तब हम सभी भूल जाते है कि जन्म से पहले सिर्फ़ भ्रूण होता है, बच्चा नहीं और ये कि महिला का यह निर्णय कई कारणों से हो सकता है । क्या गर्भ को समाप्त करने के लिए कोई ‘पाप-पुण्य’ रहित भाषा नहीं हो सकती ? दूसरी तरह अनुवाद को देखें तो एबॉर्शन को हम हिन्दी में गर्भ समापन ना कहकर ‘गर्भपात’ क्यों कहते है? क्या पात शब्द का जुड़ाव अपने आप हो जाना नहीं दर्शाता? अधिकार आधारित और सकारात्मक शब्दों का निर्माण करना आवश्यक है और ये संभव भी है। आवश्यकता है कि हम पहले अपनी धारणाओं को टटोलें।
बहुत जरूरी है कि सकारात्मक अनुभवों को भी अपने भाषा में बांटा जाए ताकि हम सब खुद को अभिव्यक्त करने में ज़्यादा सहज महसूस करें, भाषा को अनेक अनुभवों से जोड़ने और व्यक्त करने से ही उसमें लगातार बढ़ोत्तरी भी होती है ।
दुर्भाग्यवश यौनिकता पर ज़्यादातर सामग्री अंग्रेज़ी में ही मिलती है और हमें अपनी भाषा में उसे जानने समझने के लिए अनुवाद पर निर्भर होना पड़ता है। क्या हमने कभी सोचा है कि अंग्रेज़ी को जब हम हिन्दी में अनुवाद करते हैं तो उसके अर्थ में परिवर्तन होता है या अर्थ को बचाए रखने के लिए हम ऐसे हिंदी शब्दों का उपयोग करते है जिन्हें कभी किसी ने पढ़ा ही ना हो और जो सिर्फ़ किताबों में ही दीखता हो। ऐसे शब्द जो अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद होने के बावजूद उतने ही कठिन और अनजाने से लगते है क्योंकि उन्हें ना कभी किसी ने आम बोलचाल में सुना और ना कभी बोला। अनुवाद बोलचाल की भाषा में क्यों नहीं हो सकता? अनेक शब्द है जिनका उपयोग कानूनी भाषा या डाक्टरी भाषा के रूप में होता है और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उपयोग ना के बराबर है। इस रवैये को भी बदलने की ज़रुरत है । कुछ शब्द तो अंग्रेज़ी के ही इतने प्रचलित हो गए हैं कि हिंदी में उनका अनुवाद करके उपयोग करना भी मुश्किल हो गया है। हिंदी में क्योंकि जयादा उपयोग हुआ नहीं है तो अलग-अलग जगहों पर लोग अलग-अलग शब्दों को उपयोग करते हैं। जैसे मैंने शुरू में मेन्स्रुएशन शब्द का उदाहरण दिया था – महिना, मासिक धर्म, माहवारी – बिना इन शब्दों के अर्थ और उसके पीछे की राजनीती को जाने हुए लोग इन में से किसी का भी प्रयोग करते हैं।
अनुवाद के ज़रिए भी अनेक तरह से भाषा का लगातार विकास हो सकता है और इस पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। जब हम अनुवाद करें तो लगातार सोचें कि कैसे पुराने शब्दों को नए तरीके से पेश कर सकते हैं जिसमें महिलाओं की ताकत के साथ-साथ उनके अधिकार और मर्ज़ी भी झलके। वो सभी लोग जो यौनिकता के मुद्दे पर कार्य कर रहे है, प्रशिक्षण कर रहे है , क्यों ना आपस में मिले और बातचीत करें कि इन कार्यों के अनुभव को भाषा को अधिक मज़बूत बनाने में कैसे उपयोग कर सकते है। कैसे यौनिकता और हिन्दी से जुड़ी झिझक को पीछे छोड़ कर और शब्दों को निमार्ण कर सकते हैं। जो लोग अनुवाद से जुड़े हैं वो जमीनी अनुभव से कैसे लाभ उठाएँ ताकि उनका अनुवाद सरल और बोलचाल की भाषा में हो…ये चर्चा करें कि नए शब्दों को कैसे इजाद करें ताकि यौनिकता पर बात करने के लिए हिन्दी में शब्दों की कमी ना हो।
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