हाँलाकि हाल की हिन्दी फ़िल्मों में भारत के छोटे शहरों में लेस्बियन और गे कहानियों का चित्रांकन देखने को मिलने लगा है (जैसे बधाई दो और शुभ मंगल सावधान), लेकिन किसी भी फ़िल्म में बड़ी उम्र के क्वीयर लोगों की अदृश्य ज़िंदगी को नहीं दिखाया गया है। हाल में ऐमेज़ान प्राइम पर निकली फ़िल्म मजा मा में पल्लवी पटेल (माधुरी दीक्षित द्वारा चित्रित), मध्य-उम्र की एक लेस्बियन औरत जो अपनी हक़ीक़त को छुपा कर, अपने पति और दो बच्चों के साथ, वडोदरा शहर के रूढ़िवादी परिप्रेक्ष्य में रहती है, का जीवन दर्शाया गया है।
पल्लवी के पात्र के माध्यम से, यह फ़िल्म एक आपसी सद्भाव से रहने वाले परिवार में एक मध्य-उम्र क्वीयर व्यक्ति के वास्तविक डर और चिंताओं को नाज़ुकता के साथ दर्शाती है। जहाँ तक फ़िल्में बदलते होते सामाजिक रीति-रिवाजों को प्रदर्शित करती हैं, यह फ़िल्म उन अनूठे तरीक़ों की ओर इशारा करती है जिन में आधुनिक भारत एक ओर विषमलैंगिक विवाह के प्रति गहरी जड़ें जमा चुकी सांस्कृतिक वरीयता और दूसरी ओर विवाहित व्यक्तियों की समलैंगिक पहचान के बीच तनाव पर बातचीत करने की संभावना रखता है। यह फ़िल्म अभी भी हमारे एक अति मज़बूत सामूहिक प्रवृत्ति रखने वाले परिवार-केंद्रित समाज में खुल कर सामने आने वाली समलैंगिक पहचानों को समझने के प्रयासों का एक दिलचस्प चित्रण करती है।
फ़िल्म में एक महत्वपूर्ण चरण पर पल्लवी कहती है, “एक बेटी, पत्नी और माँ होने के अलावा भी मेरी एक पहचान है”। इस फ़िल्म में दिलचस्प और अनूठी बात यह है कि जहां वो अपनी पहचान की अभिव्यक्ति करने के लिए खुल कर सामने आती है, वहीं वह उन भूमिकाओं को नहीं त्यागती जिन्होंने उसके अब तक के जीवन को सार्थक बनाया है। पल्लवी की सामाजिक (कदाचित) विषमलैंगिक और छिपी हुई लेस्बियन पहचान का यह मिलन, ध्रुवीता से बचने की भरतीय विशेषता की ओर इशारा करता है, जहां एक नई सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत दोनों पहचानों को जगह दी जाती है।
जहां हाल की दूसरी फिल्मों में लेस्बियन और गे लोगों को अपनी यौनिकता को पूरी तरह से अपनाने के लिए निश्चित कदम लेते हुए दिखाया गया है, यह फ़िल्म एक तीसरे तरीके की संभावना खोलती है जहां वे संभवतः एक ज़्यादा आसान बीच का रास्ता अपना सकते हैं , जिसमें विषमनियामक विवाह और क्वीयर रिश्ते दोनों के लिए जगह बनाई जा सके। इस अर्थ में, यह फ़िल्म न तो मुद्दे से ‘मुकर’ रही है और न ही ‘सुरक्षित’ खेल रही है, जैसा कि कुछ आलोचक कह रहे हैं। बल्कि, यह एक नई शुरुआत करते हुए दिखा रही है कि किस तरह विषमनियामक, पारंपरिक परिवार भी उम्रदराज़ क्वीयर लोगों के लिए जगह बना सकते हैं। इसीलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हर उम्र के लोगों के बीच यह फ़िल्म स्वीकार की जा रही है। (फ़िल्म कम्पैन्यन के लिए एक हाल के इंटरव्यू में माधुरी दीक्षित ने बताया कि एक महिला ने उन्हें बताया कि कैसे उसे अपनी माँ और दादी के साथ फ़िल्म देखने में इतना मज़ा आया)।
फ़िल्म का एक और ग़ौरतलब पहलू है। पल्लवी का पति मनोहर (गजराज राव द्वारा चित्रित) जो अपनी पत्नी का सच जानकार व्यथित तो होता हैं, लेकिन अंततः न सिर्फ उसकी यौनिकता को स्वीकारता है (फ़िल्म के एक भावनात्मक सीन में, वह उसे कहता है कि वो उसे छोड़ कर न जाए और “तुम्हें जो करना है तुम कर लेना – मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ”), बल्कि उसका मित्र बने रहने का वादा भी करता है। पति का सहयोग देना भारत में रूढ़िवाद और उदारवाद के अनूठे मिश्रण को बयां करता है, जो कि वैसे तो एक पारंपरिक भारतीय पुरुष है जिसके मन में बहुत स्पष्ट पुरुष (पैसा कमाने वाला) और स्त्री (घर का ख़याल रखने वाली) भूमिकाएँ हैं, लेकिन वह अपनी पत्नी की लेस्बियन पहचान को दबाने का आग्रह नहीं करता। यह विशेष रूप से दिलचस्प है क्योंकि इसके लिए उसे उस सामाजिक प्रतिक्रिया को अनदेखा और सामना करना पड़ता है, जो पल्लवी के लेस्बियन होने की विडियो पर घोषणा के वाइरल होने पर पूरे शहर में फैल जाती है। इस पात्र के माध्यम से यह फ़िल्म मर्दानगी की एक ऐसी किस्म को सामान्य बनाने का भी प्रयास करती है जिसे संवेदनशीलता, सहानुभूति और खुले विचारों से परिभाषित किया गया है।
लेकिन, परेशानी वाला प्रश्न यह भी उठता है कि क्या पल्लवी के परिवार के पुरुषों द्वारा दिखाई जाने वाली संवेदनशीलता पल्लवी के एक ज़िम्मेदार पत्नी और प्यारी माँ की भूमिका निभाने के बदले या इनाम के रूप में दी जा रही है? क्या कई दशकों तक सच्चाई से इन भूमिकाओं को निभाने के कारण उसने इतनी सामाजिक पूँजी कमा ली थी जिसके बदले वह अपनी लेस्बियन पहचान को सामने ला सकी? क्या पल्लवी ने अपनी लेस्बियन पहचान को दबा कर अपने जीवन के प्रमुख वर्ष विषमनियामक परिवार की सेवा में खर्च इसलिए किए, जिससे कि वह निस्संदेह विश्वसनीयता बना सके जो कि मध्य-उम्र में उसे अपनी लेस्बियन पहचान को दोबारा अपनाने में काम आए?
अगर पल्लवी ने शादी के तुरंत बाद पहले माह में ही अपने पति को बताया होता कि वह औरतों के प्रति आकर्षित होती है, तो उसके पति और दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या होती? क्या तब भी उसका पति उसका साथ देता? क्या दर्शक ऐसी फ़िल्म को स्वीकार करते जहां पल्लवी अपने पति को छोड़कर (या, शादी के पहले कुछ वर्षों में छोटे बच्चों को छोड़कर) अपनी प्रेमिका के साथ चली जाती?
हाल में ब्रिटिश उच्चायोग में धारा 377 का प्रभाव कम करने वाले अपने फ़ैसले की चौथी वर्षगांठ के मौके पर, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा “असामान्य या अपरंपरागत परिवार को वे सभी कानूनी और सामाजिक लाभ मिलने चाहिए, जो कि पारंपरिक परिवारों को मिलते हैं, चाहें विवाह के माध्यम से या अन्यथा। अपरंपरागत परिवारों से मेरा मतलब केवल क्वीयर युगल ही नहीं, बल्कि अन्य लोग भी हैं जो स्वीकार्य मानदंडों से हट कर अपना जीवन जीते हैं। पारिवारिक इकाई की हमारी समझ को बदल कर उसमें हमें उन विभिन्न तरीकों को शामिल करना होगा जिनसे लोग पारिवारिक रिश्ते बनाते हैं।” ऐसे बदलाव के लिए जहाँ संस्थानों को एक विशाल, सचेत प्रयास करने की ज़रूरत है, वहीं मजा मा जैसी फ़िल्में परिवारों और समुदायों में दृष्टिकोण के बदलाव की शुरुआत करने में महत्वपूर्ण भूमिका रखती हैं।
क्या शहरीकृत होते भारत में हमें मजा मा में दर्शाई गई नई सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रसार देखने को मिलेगा जो पश्चिमी श्रेणियों को और जटिल बना देंगी (तीन लोगों के रिश्ते, बहुविवाह, आदि) और अंततः सार्वजनिक नीतियों को भी प्रभावित करेंगी (कर नीति, स्वास्थ्य बीमा, विवाह प्रमाणीकरण श्रेणियाँ) आदि? क्या भारत में अपरंपरागत परिवारों का उद्गमन अपारंपरिक और समावेशी नीतियों को भी जन्म देगा जो सदियों पुरानी श्रेणियों की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए पहचानों की तरलता को सही मायनों में जगह दे सकें? अंत में, मजा मा भारत में उभरती यौन पहचान क्रांति का एक चित्रण है और बदलती वास्तविकताओं के साथ चलने के लिए हमारे दृष्टिकोण, लोगों, समुदायों, संस्थानों और नीतियों को इसके अनुरूप खुद को ढालने के लिए तैयार होना होगा।
जूही सिद्धार्थ पिछले दस वर्षों से अपने शैक्षणिक और व्यावसायिक जीवन में जेंडर और यौनिकता के विषय से जुड़ी हुई हैं। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उनके डॉक्टरेट अन्वेषण ने मुंबई की बस्तियों में रहने वाली युवा महिलाओं की यौनिकता के जीवंत अनुभवों की जांच की थी। उन्होंने कैम्ब्रिज से डेवलपमेंट स्टडीज में एमफिल और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ से सामाजिक कार्य में एमए भी किया है। उनके व्यापक दिलचस्पियों में जेंडर और शिक्षा, यौनिकता और रिश्तों की शिक्षा, अंतर-अनुभागीयता, आधुनिकता, पहचान और विकास जैसे विषय शामिल हैं। उन्होंने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और शैक्षणिक मंचों पर अपने कार्यों को प्रस्तुत किया है।
चैतन्य रवि के प्राथमिक अनुसंधान हित ऊर्जा नीति, जलवायु नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मिलन पर स्थित हैं। उन्होंने पीएच.डी. जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान और सार्वजनिक नीति में की है जहां वह 2007 से 2010 तक राष्ट्रपति विद्वान थे। उनका डॉक्टरेट शोध प्रबंध अमेरिका-भारत परमाणु सहयोग समझौते पर बहस का एक तकनीकी इतिहास था। शोध प्रबंध का एक संशोधित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस-इंडिया द्वारा एक पुस्तक (ए डिबेट टू रिमेंबर-द यूएस-इंडिया न्यूक्लियर डील) के रूप में प्रकाशित किया गया था।
निधि अग्गरवाल द्वारा अनुवादित।
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