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अपना और दूसरो का ख़्याल रखना 

A photograph of a book-shelf, brown-black, with differently coloured books.

मार्च 2020 में कोरोनावायरस भारतीय उपमहाद्वीप पर आ पहुंचा और उसी अप्रैल में मैंने अपनी पहली संतान को जन्म दिया। मैं पहले भी महामारी के बीच में जन्म देने पर लिख चुकी हूं और ये कह चुकी हूं कि ये कैसे मेरे लिए एक बिलकुल नया, अजीब, और डरावना अनुभव था। एक साल से ज़्यादा हो गया है और हम आज भी इस महामारी से जूझ रहे हैं। हम आज भी अपने घरों में क़ैद हैं और इसका मुक़ाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। गर्भावस्था से लेकर महामारी की शुरुआत, जन्म देने, और अपने बच्चे की परवरिश करने तक के मेरे सफ़र ने मुझे आत्म-देखभाल पर अपने विचारों पर एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर किया है।

ये अफ़सोस की बात है कि ‘आत्म-देखभाल’ या ‘सेल्फ़-केयर’ शब्द का इस हद तक दुरुपयोग हुआ है कि इसका सही अर्थ ही खो चुका है। कितनी विडंबना की बात है कि तथाकथित ‘विशेषज्ञ’ आत्म-देखभाल पर पेपर प्रस्तुत करने के लिए सेमिनार भी ऐसे वक़्त पर रखते हैं जब हम जैसे लोगों को इनमें हाज़िर होने की फ़ुर्सत ही नहीं रहती। जिस तरह पूंजीवादी ताकतों ने नारीवाद पर क़ब्ज़ा किया हुआ है, उसी तरह ‘ख़ुशहाली’ भी पूंजीवाद की जाल में फंसकर एक उद्योग का रूप ले चुकी है। मानसिक ख़ुशहाली हमारी ज़िंदगी का एक बेहद ज़रूरी हिस्सा है लेकिन अब ये एक विलासिता बन गई है। इस देश की आधी से ज़्यादा जनता को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का इस्तेमाल करने की हैसियत नहीं है। पैसों की कमी की वजह से वे थेरपी भी नहीं ले सकते। इन सेवाओं तक पहुंच पाना भी एक और मुद्दा है जो ख़ासतौर पर महामारी के दौरान सामने आया है। इस दौरान संचार डिजिटल माध्यमों में सीमित हो चुका है और जिनके पास इंटरनेट नहीं है या जिन्हें इंटरनेट की अच्छी समझ नहीं है उनके लिए ये बहुत मुश्किल साबित हुआ है।

मां बनने के बाद से आत्म-देखभाल पर मेरे नज़रिये में बहुत बदलाव आया है। एक अभिभावक की भूमिका निभाते हुए और उसकी चुनौतियों का सामना करते हुए अपना ख़्याल कैसे रखा जा सकता है? मैं ख़ुद के लिए वक़्त कैसे निकालूं जब चौबीसों घंटे मुझे बच्चा पालने का काम करना पड़ता है जिसकी कोई तनख़्वाह भी मुझे नहीं मिलती? मैं एक औरत, एक कार्यकर्ता, एक नारीवादी, एक लेखिका, और एक मां हूं। इन सभी पहचानों की अलग-अलग ज़रूरतें हैं। लंबे समय से एक महामारी में फंसे रहने के दौरान मैं कैसे अपनी इन सारी ज़रूरतों पर ध्यान दूं?

मुझे लगता था आत्म-देखभाल का मतलब है वे चीज़ें करना जो हमें ख़ुशी दें। थोड़ी देर के लिए सो जाना, अच्छे से नहा लेना, मालिश करवाना, एक अच्छी किताब पढ़ना, कविताएं लिखना, या किसी पुराने दोस्त से घंटों बातें करना। हां, ये सभी चीज़ें आत्म-देखभाल का हिस्सा ज़रूर हैं लेकिन मैं ये समझती थी कि सिर्फ़ वही चीज़ें आत्म-देखभाल हैं जिनसे ख़ुशी मिलती हो। मां बनने के बाद ही मुझे पता चला कि ऐसा सोचना पूरी तरह सही नहीं है। कभी-कभी ख़ुद का ख़्याल रखने के लिए ऐसी चीज़ें भी करनी पड़ती हैं जिनमें ‘मज़ा’ नहीं आता। आत्म-देखभाल कभी-कभी हमें राहत दिलाती है या हमें शुक्रगुज़ार महसूस कराती है। हमें अक्सर अपनी देखभाल के लिए ऐसी चीज़ों का सामना करना पड़ता है जिनका सामना करने से हम घबरा रहे हों, या कुछ समय के लिए अकेले में रहने की ज़रूरत पड़ सकती है। ख़ुद की देखभाल कैसे की जा सकती है ये हर वक़्त बदलता रहता है और ये बात मुझे मेरे बच्चे ने सिखाई।

मैं कभी भी अपने काम से ज़्यादा अहमियत अपने निजी जीवन को देने में कामयाब नहीं हुई हूं । मुझे हमेशा लगता था कि ऐसा करने का मतलब है अपना काम ठीक से न करना। ऐसा सोचना बेहद ग़लत था लेकिन पूंजीवाद हमें यही सिखाता है। जब मैं प्रेग्नेंट हुई, मुझे एहसास हुआ कि मेरी सेहत से ज़्यादा ज़रूरी और कुछ भी नहीं है। जिन दिनों मुझे डॉक्टर के पास जाना होता था मैं बिना संकोच किये छुट्टियां लेती थी। जब मूड ख़राब रहता था और कुछ अच्छा नहीं लगता था तब भी मैं छुट्टी ले लेटी थी। मैंने अपने सारे ‘सिक लीव्स’ का इस्तेमाल मॉर्निंग सिकनेस वाले दिनों के लिए कर लिया। अपनी ज़रूरतों को पहचानना और ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को आराम देना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी लेकिन जब मेरा बच्चा इस दुनिया में आया तब एहसास हुआ कि अब यही मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा है और बाक़ी सारी चीज़ें इसी पर निर्भर करेंगी। ये सोचना डरावना था लेकिन मुझे आज़ादी भी महसूस हुई क्योंकि अब बहुत ज़्यादा काम करना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं था। मैं अब बेझिझक प्रॉजेक्ट्स और मीटिंग्स को ना कहने लगी क्योंकि मुझे अपने बच्चे को ज़्यादा वक़्त देना था। मेरे लिए इस तरह ‘ना’ कहना आत्म-देखभाल था।

मुझे हमेशा बुरा लगता था कि किताबें ख़रीदते रहने के बावजूद मैं उन्हें पढ़ नहीं पाती। बच्चा होने के बाद तो किसी किताब को हाथ लगाना भी मुश्किल हो गया। फिर भी, मैं चाहती थी कि मेरा बच्चा किताबों के साथ बड़ा हो और जब वो तीन महीने का हुआ, मैंने उसे उसके पहले ‘बोर्ड बुक’ लाकर दिए। मुझे उसे ‘गुड नाईट मून’ पढ़कर सुनाने में उतनी ही ख़ुशी मिलने लगी जितनी कोई बेहतरीन उपन्यास पढ़ने में लगती है (जो किताब-प्रेमी हैं, वे समझ पाते होंगे कि ये ख़ुशी महसूस करना बहुत आम बात नहीं है)। ‘गुड नाईट मून’ की कोई कहानी नहीं है लेकिन इसकी तस्वीरें इतनी ख़ूबसूरत हैं जो मेरे बच्चे के चेहरे पर इतनी ख़ुशी ला देतीं हैं कि इसे पढ़ने के बाद मैं शिशु साहित्य की दुनिया में डूब गई। अब मेरे पास बच्चों की किताबों का अच्छा-ख़ासा कलेक्शन है जिसे पढ़ने के लिए मेरे पास हमेशा वक़्त रहता है, अकेले या अपने बच्चे के साथ। ये हल्की-फुलकी किताबें हैं जो मैं उसके साथ ही पढ़ सकती हूं। मेरे बच्चे ने मुझे उन चीज़ों में ख़ुशियां ढूंढ लेना सिखाया है जो करना मेरे लिए मुमकिन है और ये पल भी मेरे लिए आत्म-देखभाल हैं।

घर बैठे ऑफ़िस का काम करना आसान नहीं है और जो महामारी के दौरान मां-बाप बने हैं वो ये अच्छे से जानते हैं। हम हर वक़्त थके हुए होते हैं, बिना मदद के बच्चे पालते हैं, और पहली बार बच्चे पाल रहे होते हैं इसलिए हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या कर रहे हैं। मैं एक लिंग-भेदी, स्त्री-द्वेषी, पितृसत्तात्मक दुनिया में रह रही औरत हूं जिसका रंग काला है और इस वजह से मैं सुंदरता के पैमानों में नहीं बैठती। मुझे अपनी त्वचा के रंग को अपना लेने में काफ़ी दिक़्क़त हुई थी और किशोरावस्था से लेकर आज तक मुझे अपने शरीर में इतनी असहजता महसूस हुई है कि मैं ज़्यादा देर तक आईने में ख़ुद को देख नहीं सकती। प्रेग्नेंसी के दौरान मैं और भी ज़्यादा अपने आप में सिमटने लगी लेकिन मां बनने के बाद ये सब बदल गया! मैं अपने शरीर को इज़्ज़त की नज़र से देखने लगी क्योंकि मुझे यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि मैंने बच्चा पैदा करने जैसा मुश्किल और अनोखा काम कर दिखाया है। कुछ महीने पहले मैं आईने के सामने खड़ी होकर अपने चेहरे पर निकले बालों और तिलों को देखते हुए ख़ुद को कोस रही थी कि अचानक मुझे एक हंसी सुनाई दी। मेरा चार महीने का बच्चा पहली बार ठहाके लगाकर हंस रहा था और उसी वक़्त मेरे अंदर की कमी की भावना ग़ायब हो गई। ये बच्चा सुंदरता के पैमाने नहीं समझता। वो शायद आईने में मुझे अजीब शक्लें बनाते देखकर या ख़ुद को देखकर हंस रहा था लेकिन ये पल और उसकी हंसी मेरे लिए यादगार बनकर रह गए। ये छोटी-छोटी ख़ुशियों के पल भी आत्म-देखभाल के अंदर आते हैं।

ये बात ज़रूर सच है कि बच्चा पालना कितना मुश्किल काम है ये शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। ये एक बेहद थका देने वाला काम है जो आपकी सारी ताक़त छीन लेता है और जिसके लिए कोई आपका शुक्रिया भी नहीं अदा करता। अभी भी ऐसे पल आते हैं जब मुझे लगता है कि मैं डूब रही हूं लेकिन मेरा बच्चा मुझे मदद मांगने की प्रेरणा देता है। वो जब भी गिर पड़ता है और उसे चोट लग जाती है, या जब भी कोई चीज़ उसके हाथ नहीं आती तो वो मेरे पास आता है। रोते-चिल्लाते हुए या मुझे धक्का देते हुए वो मुझसे मदद मांगता है। उसके अनजाने में ही उसने मुझे सिखा दिया है कि मांगने पर ही मदद मिलती है। महामारी के दौरान मां बनने की चुनौतियों से जूझने के लिए मैंने थेरपी लेना शुरु किया है और ये आत्म-देखभाल का एक बड़ा उदाहरण है। मैं ‘ख़ुश’ तो नहीं हूं लेकिन मैं फिर भी मानती हूं कि इस तरह की आत्म-देखभाल अपनी ज़रूरतों को प्राथमिकता देने में मेरी मदद कर रही है। ये जानना भी मेरे लिए अपनी देखभाल करने का एक तरीक़ा है।


ईशा द्वारा अनुवादित।
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