A digital magazine on sexuality, based in the Global South: We are working towards cultivating safe, inclusive, and self-affirming spaces in which all individuals can express themselves without fear, judgement or shame
व्यापक यौनिकता शिक्षा एक संवेदनशील मुद्दा है जिसे लोग अनदेखा कर देना ही आसान समझते हैं, चाहे इसकी वजह से किशोरावस्था से गुज़र रहे लोग अपने शरीर के बारे में उपयुक्त जानकारी के न रहते हुए ग़लत फ़ैसले क्यों न ले लें।
ये बड़ी विडंबना की बात है कि आज भी किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों से उनकी ‘हिफ़ाज़त’ के लिए ज़रूरी जानकारी छिपाई जाती है। ग़लत जानकारी और मिथकों का प्रचार बिना किसी रोकथाम के होता रहता है।
बाल यौन शोषण रोकथाम पर शिक्षा को असरदार बनाने के लिए इसके साथ-साथ व्यापक यौनिकता शिक्षा ज़रूरी है। यौनिकता शिक्षा सिर्फ़ ‘सेक्स कैसे करते हैं?’ तक सीमित नहीं है। इसमें सम्मान के आधार पर बने रिश्तों, रज़ामंदी, यौनिक स्वास्थ्य, सुरक्षित संबंध बनाने के सुझावों, गर्भनिरोध, यौनिक रुझान, जेंडर मानदंडों, शारीरिक छवि, यौन हिंसा वग़ैरह पर जानकारी भी होती है।
भारत जैसे देश में सेक्स जैसी चीज़ों के ज़रिए शारीरिक सुख का आनंद उठाने को लालच और कमज़ोरी के रूप में देखा जाता है। हमें आमतौर पर ये सिखाया जाता है कि सुख की तलाश महज़ फ़िज़ूल की ऐयाशी है जो हमें आत्मबोध तक पहुंचने से रोकती है, जिसकी वजह से हमें लुभावों से दूर रहना चाहिए।
समाज में स्वीकृत शादियों को एक तरह से यौनिकता के जश्न के तौर पर देखा सकता है, कम से कम यौनिकता के उन पहलुओं का जिन्हें समाज जायज़ मानता है – जैसे समाज-स्वीकृत यौन संबंध और प्रजनन।
दो साल, कई लेज़र ट्रीटमेंट्स और एक थोड़ी-बहुत ‘स्वस्थ’ ज़िंदगी जीने की कोशिश के बाद भी मेरे लक्षण अभी भी ‘क़ाबू में’ नहीं आए हैं। लेकिन अब मैं इस बात पे संतुष्ट होने लगी हूं कि मुझसे जितना हो पाया, मैंने अपने शरीर के लिए उतना किया।
मैं 9वीं कक्षा में थी, जब लोग मेरे शरीर के बारे में जो कहते थे वह मेरे अंदर उतरने लगा। मैंने पहली बार रुककर ध्यान दिया कि दूसरों की नज़र में मैं कैसी दिखती थी। यह अपने बारे में सचेत होने की शुरुआत थी, और ख़ुद से असहज होने की भी।
वक़्त के साथ मैं समझने लगी कि सिर्फ़ शोषण नहीं, उससे उभरने की प्रक्रिया के साथ मेरा रिश्ता भी मेरा ‘औरत’ होना तय करता है। सदियों से ‘भारतीय नारी’ को हाशिए पर रखा गया है और उसे स्नेह और स्वीकृति सिर्फ़ तब तक दी जाती है जब तक वो अपनी ‘औक़ात’ के बाहर न निकले।
आख़िर यह कहने का क्या फ़ायदा कि मेरा शरीर मेरा है जब असल में हमारा मतलब यह है कि मेरा शरीर आंशिक रूप से मेरा है और बाकी शरीर मेरे माँ-बाप, जिम, मैं जिन लोगों को चाहती हूँ और वे मुझे नहीं चाहते उनका, मीडिया, समाज और अनगिनत अनजान लोगों का है, जिन्हें लगता है कि वे मुझे राय दे सकते हैं और बता सकते हैं कि मुझे कैसा दिखना चाहिए।
अधिकतर अभिभावकों, शिक्षकों और देखरेख करने वालों को बच्चों के साथ यौनिकता के विषय पर बात करने और यौनिकता शिक्षा देने में शर्म आती है। क्या इसे दूर करने के लिए व्यंग का उपयोग किया जा सकता है?
व्यंग छुपी हुई हंसी को बाहर लाने का अवसर देता है। प्रतिभागी जो आज तक इन मुद्दों को गंदा, कलंकित या महत्वहीन मान कर छुपा रहे हैं अब कम से कम उनपर हंस सकते हैं।
हालांकि यह शो किसी भी तरह से अचूक या सर्वोत्तम नहीं है, लेकिन यह सही तरीके से यौनिकता, कल्पना और यौन अभिव्यक्ति के तत्वों के अंतर्संबंधों को मुख्य कथानक बिंदुओं के रूप में जोड़ता है।
पारंपरिक जेन्डर भूमिकाओं ने हमेशा ही खेलों के स्वरूप को प्रभावित किया है। यह सच है कि एक ऐसी जगह में, जो विशेष रूप से पुरुषों के लिए ही बनी थी, धीरे धीरे महिलाओं के लिए स्वीकार्यता आई है, लेकिन इस स्वीकार्यता ने औरतों को स्वतंत्र रूप से ख़ुद को स्थापित करने के लिए बहुत कम जगह दी है।