दीप्ति नवल द्वारा निर्देशित फिल्म, दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश, (वर्ष 2009, नेटफ्लिक्स पर 2019 में रीलीज़) कमोबेश एक यथार्थवादी फिल्म है और कहा जाता है कि फिल्म की कहानी एक वास्तविक घटना से प्रेरित है। देखने में फिल्म की कहानी किसी भी आम फिल्मी कहानी की तरह ही शुरू होती है जिसमें अजनबी लोग एक दूसरे से मिलते हैं और फिर अपने–अपने नज़रिये से एक दूसरे की ज़िंदगी बदल डालते हैं। लेकिन इस फिल्म के ये अजनबी लोग कोई वैसे साधारण लोग नहीं हैं जैसे की दिखते हैं। इन किरदारों का जीवन कोई बहुत आसान नहीं रहा है और न ही एक दूसरे से मिलने के बाद इनके जीवन की राह कोई बहुत सरल हो गयी है। रजित कपूर (देबू) और मनीषा कोइराला (जुही) की मुलाकात बहुत ही घिसे–पिटे फिल्मी अंदाज़ में एक टैक्सी में होती है और यौनिकता, जेंडर भूमिका और अंतरंगता भरी फिल्म की कहानी शुरू हो जाती है।
फिल्म के शुरुआती दृश्यों से पता चलता है कि देबू एक समलैंगिक है जिसे हाल ही में उसके बॉयफ्रेंड नें ‘छोड़’ दिया है। अब देबू के पास रहने की जगह नहीं है क्योंकि उसे घर से बाहर निकाल दिया गया है, जेब में ज़्यादा पैसे नहीं हैं और उसकी लिखी शायरी को इस चमक–धमक वाली बॉलीवुड की फिल्मों में कोई पूछता नहीं है। पर्दे पर देखने में ऐसा लगता है कि देबू अभी रो देगा क्योंकि एक तो वो अपने संबंध टूटने पर दुखी है, दूसरा वो बेघर है और रोजगार के नाम पर उसके पास ज़्यादा कुछ है नहीं। इस दुखी देबू की मुलाक़ात बिलकुल फिल्मी अंदाज़ में एक टैक्सी में जूही से होती है, जूही जो बढ़ती उम्र की एक सेक्स वर्कर है। जूही देबू को एक ग्राहक समझ लेती है जो शायद मज़ा करने के लिए उसके पास आया है। अगले कुछ मिनटों तक घुमाव और मोड़ लेने के बाद फिल्म में दिखाया गया है कि देबू जूही के घर उसके विकलांग बच्चे काकू की देखभाल करने के लिए आ जाता है। इसके आगे की कहानी बिलकुल सीधी और सरल है। सच में, फिल्म की कहानी हालांकि बिलकुल जानी–पहचानी सी लगती है, लेकिन विषय को निर्देशक नें बहुत सुलझे हुए तरीके से प्रस्तुत किया है।
फिल्म की कहानी का एक नाज़ुक सा पहलू जूही और उसके बेटे काकू के बीच का जटिल संबंध हैं। काकू कुछ बोल तो नहीं सकता लेकिन उसकी आँखों से उसके मन की बातें साफ झलकती हैं। ऐसा लगता है कि जूही के काम को लेकर दोनों के बीच एक अनकहा सा समझौता है, जूही उसका ध्यान रखती है और दोनों माँ–बेटा एक दूसरे को प्यार करते हैं। काकू जूही के काम से खुश नहीं है लेकिन वो खुद को असहाय पाता है और कुछ कर नहीं सकता। उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता जब आधी रात को कोई उसकी माँ के कमरे में घुसता है। फिल्म में माँ और बेटे के बीच के प्यार, अनेक तनाव भरे दृश्यों के दौरान भी बढ़ता हुआ दिखाया गया है। ऐसे ही कुछ तनाव भरे क्षणों में जब काकू बहुत नाराज़ हो जाता है और चीजों को इधर उधर फेंक कर अपना गुस्सा ज़ाहिर करता है तो जूही उसे बिलकुल अनदेखा कर देती है और अपने काम में लगी रहती है। वह जानती है कि अगर वो यह काम नहीं करेगी तो वह कुछ भी कमा नहीं पाएगी और न ही काकू की देखभाल कर पाएगी। फिल्म में औरत को इस तरह मजबूत दिखाया जाना भारतीय दर्शकों के लिए एक रूढि़–विरुद्ध अनुभव था। आगे चलकर, फिल्म में दिखाया गया है कि काकू को अब समझ में आने लगा है कि जूही के लिए काम करना ज़रूरी है और वह उसके काम को स्वीकार भी कर लेता है। यहाँ देबू की भूमिका महत्वपूर्ण है। वो काकू की देखभाल करने के साथ–साथ घर का प्रबंध भी देखता है। जूही और काकू, दोनों को दूसरे के जीवन में अपने महत्व का पता है और दोनों ही दूसरे की सीमाओं का आदर करते दिखाये गए हैं। लेकिन फिर जब काकू, देबू को माँ कहकर पुकारता है तो जूही से सहन नहीं होता और वो रोने लग जाती है। उसे लगता है कि वो सही मानों में काकू की ‘माँ’ नहीं बन पायी और असफल हो गयी है। जूही को लगता है कि काकू का, उसकी बजाय देबू से ज़्यादा भावनात्मक लगाव है। जूही नें हालांकि मन ही मन यह मान लिया है कि वो काकू की देखभाल उस तरह से नहीं कर पाती जैसे की एक माँ के रूप में उससे उम्मीद की जाती है लेकिन फिर भी, ‘माँ’ की भूमिका और दायित्वों के बारे में सोचकर वो बहुत ज़्यादा परेशान हो उठती है। ऐसे में, देबू को भी यह लगने लगता है कि उसने भी काकू का ध्यान रखने में हदों को पार किया है। लेकिन फिल्म में एक दूसरे की भूमिकाओं, दायित्वों को स्वीकार करते हुए आपस में प्यार परस्पर बढ़ता है। जूही, देबू और काकू को समझ में आ जाता है कि उन सभी का एक दूसरे के जीवन में कितना महत्व है, उन्हें एक दूसरे का ध्यान रखना है और इस तरह से सभी के मन में दूसरों के लिए आदर का भाव पैदा होता है।
फिल्म में जेंडर भूमिकाओं और जूही व देबू के बीच संबंध को संवादों के माध्यम से प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है। फिल्म के दृश्यों से इसे बहुत ज़्यादा उजागर नहीं किया गया है। देबू की साफ–सफाई रखने की आदतों और जूही को उतना ही अव्यवस्थित दिखाते हुए फिल्म आगे बढ़ती है। देबू के घर की देखभाल करना शुरू करने के बाद कैसे एक मकान ‘घर’ में तब्दील होने लगता है, यह साफ झलकता है। देबू खुशी–खुशी घर की देखभाल करने के काम में लग जाता है और जूही की सभी हिदायतों का पालन भी करता है। उनकी बातचीत के अंदाज़ में बदलाव और पूरे परिदृश्य में बदलाव से दोनों के जीवन में आई खुशी साफ झलकती है। देबू अब भी अपने करियर को लेकर परेशान रहता है लेकिन फिर भी वो जूही को सलीके से कपड़े पहनना सिखाता है, वो उसे बताता है कि हल्का–फुल्का मेकअप कैसे करे और कैसे उसे ज़्यादा ग्राहक मिल सकते हैं।
फिल्म में घिसे–पिटे तरीके से देबू को समलैंगिक के रूप में प्रस्तुत किए जाने के लिए फिल्म की आलोचना हुई थी, लेकिन दूसरी ओर इसकी खूबसूरती भी इसी में दिखाई देती है कि इससे जेंडर भूमिकाओं के अदला बदली को बखूबी दिखाया जा सका था। पात्रों के चेहरों पर मुस्कान, घर में उनकी हंसी की आवाज़ पूरी फिल्म को खुशनुमा रूप देती है। अंतरंगता के एक ऐसे ही क्षण में, देबू की यौनिक अभिरुचियों के बारे में जानते हुए भी जूही पाती है कि वो देबू की ओर आकर्षित हो चली है। एक बार तो वो देबू को बिस्तर पर लाकर उसके साथ संबंध बनाने की भी कोशिश करती है और देबू ऐसा करने पर उसे चेतावनी भी दे देता है। ऐसे अंतरंग दृश्य को फिल्म में बड़ी ही संजीदगी से, सनसनीखेज बनाए बिना या जूही के प्रति बिना किसी नकारात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। जूही अंतत: देबू कि यौनिक अभिरुचि को स्वीकार कर लेती है और अपनी इच्छाओं को दबा लेती है। सहमति की ज़रूरत को जूही द्वारा समझ लिए जाने को फिल्म में बहुत ही हल्के से हास्य के साथ दिखाया गया है। देबू को एक बार जब अपने पुराने बॉयफ्रेंड से मिलने जाना होता है तो जूही उसे अच्छे तरह से तैयार करके भेजती है। भले ही जूही दिल ही दिल में दुखी है, लेकिन वो और काकू, देबू को उसके बॉयफ्रेंड से मिलने जाने देते हैं, जबकि वो भली भांति जानते हैं कि अब शायद देबू कभी भी लौटकर उनके पास वापिस नहीं आएगा।
फिल्म में जूही और देबू के बीच के आत्मीय लेकिन आदर्शवादी दोस्ती के माध्यम से संबंधों, खुद को स्वीकार कर लेने और जीवन के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। फिल्म का सबसे सुंदर और रोमांटिक दृश्य वो है जहां दोनों एक दूसरे की कविता और गीतों को पूरा करने में मदद करते हैं। इस भाव विभोर कर देने वाले दृश्य में, लोगों के जीवन, प्रेम के इज़हार के उनके तरीकों और एक दूसरे के प्रति आकर्षण पर बॉलीवुड फिल्मों की छाप दिखाई गयी है। इस दृश्य को देखकर दोनों पात्रों के बीच के संवादों को बार–बार सुनने का मन करता है और लगता है कि हर बार कुछ नया, अधिक अर्थपूर्ण सुनने को मिलेगा। खासकर वो दृश्य जब दोनों आपसी सम्बन्धों और स्थिरता का अनस्थिर होने पर बात करते हैं तो देखने वालों को पता चलता है कि संबंधों का हम पर कितना गहरा असर होता है। बहुत ही अर्थपूर्ण संवादों और कुछ बेहतरीन दृश्यों के माध्यम से इस फिल्म में अंतरंगता को शारीरिक संबंधों के नज़रिये से हट कर दिखाया गया है। इस फिल्म से दो लोगों के बीच के संबंधों को देखने का नज़रिया बदल जाता है, क्योंकि इसमें जेंडर, शायद यौन अभिरुचियों से भी परे हट कर संबंधों को देखने का मौका मिलता है। पश्चिमी दर्शकों के लिए इस तरह भूमिकाओं को दर्शाना शायद कोई नया अनुभव नहीं होगा लेकिन भारतीय संदर्भ में संबंधों को प्रस्तुत करने और देखने का यह बिलकुल ही अद्भुत और नया तरीका रहा है।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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