पिछले साल के जुलाई महीने में मुझे बताया गया कि मुझे फ़ाइब्रोमायल्जिआ नाम की बीमारी है। आप में से जिनको इसके बारे में नहीं पता उनके लिए बता दूं कि फ़ाइब्रोमायल्जिआ में पूरे शरीर में कुछ विशेष जगहों (जिन्हें टेंडर पॉइंट्स कहते हैं) पर लगातार दर्द बना रहता है। फ़ाइब्रोमायल्जिआ के साथ कुछ और लक्षण भी जुड़े होते हैं जैसे थकान, मनोदशा विकार, चिड़चिड़ापन, नींद न आना, कुछ सोचने समझने में कठिनाई होना, उद्दीप्त आंत्र सहलक्षण (पाचन क्रिया पर असर पड़ना) आदि। कभी-कभी इन लक्षणों की गंभीरता का जाँच द्वारा निर्धारण नहीं हो पाता अतः इनका अनुभव व्यक्तिपरक होता है। यही कारण है कि फ़ाइब्रोमायल्जिआ रोग को अक्सर सामान्य दर्द और थकान समझ लिया जाता है।
मुझे याद कि कैसे लम्बे समय तक मैंने लगातार दर्द और शारीरिक थकान को झेला। कई डाक्टरों के पास अनेक बार जांच करने बाद कहीं जाकर पता चला मुझे असल में क्या रोग था। कई सालों तक तो मुझे यही कहा जाता रहा कि यह दर्द सिर्फ़ मेरे दिमाग की उपज थी क्योंकि किसी भी जांच में कुछ भी पता नहीं चलता था। एक दिन मुझे इतना अधिक दर्द था कि मुझे हिलने डुलने में भी दिक्कत हो रही थी। तब मैंने अपने साथी से कहा कि अगर वह मुझे उसी समय डॉक्टर के पास नहीं ले गए तो मेरी मौत निश्चित है। वे चिंतित हो गए और मुझे एक दर्द निवारण क्लिनिक में दिखाने ले गए। वहां के स्टाफ को उनके कंप्यूटर में मेरी एक पुरानी पर्ची मिली जिससे पता चला की मैं 8 साल पहले भी उस क्लिनिक में इसी तरह के तेज़ दर्द की शिकायत के साथ दिखाने आई थी। वहां मेरी कुछ जांच की गयीं और फिर पता चला कि मुझे फ़ाइब्रोमायल्जिआ हो गया था । मुझे खूब अच्छे से याद है कि बीमारी का पता चलने के बाद मेरे मन में कैसे भाव उत्पन्न हुए थे, क्योंकि अब साफ़ हो गया था कि यह दर्द कोई मेरे दिमाग की उपज नहीं थी बल्कि यह वाकई एक तरह का रोग था जिसका अपना एक नाम भी था। हालांकि अब मुझे यह भी समझ में आने लग गया था कि आने वाले समय में बहुत कुछ झेलना था लेकिन कम से कम अब मैं लोगों को कह सकती थी कि ‘इतने दिनों तक आप मेरे दर्द और मेरी थकान को लेकर मेरा मज़ाक उड़ाते रहे, लो सुन लो इसका यह नाम है’।
अब मुझे अपनी बीमारी के नाम और उसके बारे में तो पता चल गया था, लेकिन साथ ही साथ मुझे यह एहसास भी होने लगा था कि आगे का जीवन मेरे लिए बहुत कठिन होने वाला था। सबसे पहले तो लोगों को इस रोग के बारे में समझाना ही बहुत पेचीदा काम था। कभी-कभी प्रियजनों को यह बताने में कि मुझे फ़ाइब्रोमायल्जिआ है, बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। मुझे अब भी कई बार यह लगता है कि मेरे करीबी लोग आज भी उस तकलीफ़ और दर्द को नहीं समझ पाते जिसका सामना मुझे रोज़ करना पड़ता है। कुछ मुझसे कहते हैं, ‘तुम कुछ व्यायाम क्यों नहीं करतीं’। मुझे यह पता है कि ऐसा वे केवल इसलिए सुझाते हैं क्योंकि उन्हें मेरी चिंता है, लेकिन मेरा शरीर सुबह हिलने की हालत में ही नहीं होता। कभी-कभी तो मेरी इच्छा होती है की बस गरम पानी की सिंकाई करने की बोतलें हों और लेटने के लिए अँधेरा कमरा हो। कई रोज़ तो ऐसा होता है कि मेरा दिमाग कुछ भी ‘काम की बात’ सोचने-समझने से इनकार ही कर देता है। मुझे पता है कि हम आज एक उपभोक्ता युग में रह रहे हैं और हर रोज़ अपने प्रयासों के फल चाहते हैं। मैं हर रोज़ कोशिश करती हूँ कि कुछ अच्छा, कुछ उपयोगी कर पाऊँ लेकिन कभी-कभी मेरे सभी प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी यह सोचती रहती हूँ कि कब यह दर्द ख़त्म हो ।
मेरा पालन पोषण ही इस तरह का रहा है कि मैं ‘मजबूत’ बनूँ। दुनिया भर में सभी नारीवादी आन्दोलनों में भी हमेशा यही कहा जाता है कि हमें मज़बूत होना चाहिए और अपने सामने आने वाली सभी समस्याओं का सामना करते रहना चाहिए। मानसिक रूप से मज़बूत बने रहने और कभी घुटने न टेकने की इसी अभिलाषा ने मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाला है। जैसे कि, बहुत बार ऐसा होता था कि मेरा काम को ना कहने का मन होता था या किसी विरोध मार्च में हिस्सा नहीं लेना चाहती थी क्योंकि मैं बहुत दूर तक पैदल नहीं चल सकती। लेकिन मैं अपनी इस विकलांगता के बारे में किसी से कुछ नहीं कहती। बात ना कर पाने से, किसी को यह ना जता पाने से कि हम भी कमज़ोर हो सकते हैं, हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत असर पड़ता है। मानसिक खुशहाली का अर्थ केवल मानसिक रोगों का ना होना नहीं है बल्कि इसका यह अर्थ इस सत्य को स्वीकार करना भी है कि मुझे कुछ ऐसी समस्या है जिस पर अगर मैं पूरा ध्यान नहीं दूँगी तो मेरा मानसिक स्वास्थय आहत हो सकता है। कई दिनों तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैं अपने आसपास के सभी लोगों पर बोझ हूँ और उन दिनों मेरी मन:स्थिति बिलकुल भी ऐसी नहीं होती कि किसी भी बात से मुझे ख़ुशी मिले।
अब मैं बहुत बार अपने कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ; मैं ज़्यादा दूर तक पैदल चलने से मना कर देती हूँ क्योंकि मेरे घुटने इस काम में मेरा साथ नहीं देते। लगातार बनी रहने वाली शारीरिक थकान ने मेरी कभी हार न मानने वाले जीवट को मानो हरा दिया है और मैं हमेशा, हर रोज़, हर घंटे थकान महसूस करती हूँ। मुझे अपने उन दोस्तों से इर्ष्या होती है जो रात देर तक जागकर पार्टी कर सकते हैं। मैं भी ऐसा करना चाहती हूँ। लेकिन इस फ़ाइब्रोमायल्जिआ ने मेरे जीवन को इस तरह प्रभावित कर दिया है कि हर रोज़ मुझे यही मन करता है कि बिस्तर मिले और मैं उस पर लेट जाऊं । अब सेक्स करना भी थका देने वाला काम बन गया है और कई बार तो ऐसा होता है कि अपने साथी के करीब जाने से पहले मुझे बहुत बार मन ही मन अपने को तैयार करना पड़ता है।
मैं खुद अपने से बहुत अधिक लडती रही हूँ और अब मुझे यह एहसास हो चला है कि मेरी यह बीमारी वास्तविक है। डॉक्टर लम्बे समय तक मुझे यह समझाने का प्रयास करते रहे कि मेरा यह रोग केवल मेरे मन की उपज है और इसके लिए वे मुझे अनेक तरह की दर्द-निवारक दवाएं भी देते रहे। एक समय तो ऐसा भी आया जब मैंने एक भी दर्द-निवारक इंजेक्शन लगवाने से मना कर दिया और किसी ऐसे डॉक्टर की तलाश में लग गई जो सही मायने में फ़ाइब्रोमायल्जिआ को समझता हो। मुझे एक ऐसा डॉक्टर मिला भी जिसे इस रोग के बारे में समझ थी लेकिन कई बार उनके पास भी मुझमे दिखने वाले कई लक्षणों जैसे बदन पर चकत्ते पड़ना, सूजन होना, दिमाग का कुंद पड़ जाने और शरीर में लगातार सुइयां चुभने का कोई उत्तर नहीं होता। वे हमेशा मुझे यही बताते हैं कि मुझे इन सभी के साथ ही अपना जीवन व्यतीत करना सीखना होगा।
अपने जीवन के इस दौर में मुझे केवल एक सहारा मिला है जो फ़ाइब्रोमायल्जिआ के साथ रह रहे लोगों का एक ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप है। मुझे यह सोच कर कुछ तसल्ली मिलती है कि मेरा साथ देने के लिए अन्य लोग भी हैं। मुझे इन अनजान लोगों के साथ बात करके कुछ राहत मिलती है जब वे अपनी रोजाना की तकलीफों के बारे में बात करते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपनी इन तकलीफों से पार पाने के कुछ तरीके ढूँढ निकाले हैं।
मेरे पास नौकरी है, एक साथी है, तीन पालतू जीव हैं और बहुत सारे दोस्त भी। मैं अपना पूरा समय और दिन इन्हीं जीवों और लोगों के इर्द-गिर्द बिताने की कोशिश करती रहती हूँ। अक्सर मैं अपने लिए एक नियत दिनचर्या बनाने में सफल भी हो जाती हूँ, लेकिन कभी-कभी ऐसा नहीं भी हो पाता। मैं अनजान लोगों को यह नहीं समझा पाती कि क्यों मैं लम्बे समय तक मेट्रो में खड़ी नहीं रह सकती, क्यों मैं दूर तक पैदल नहीं चल सकती, क्यों मैं लोगों के साथ मेलजोल नहीं बढाती, क्यों मैं अपने कार्यक्रम अचानक बदल देती हूँ और मेरे लिए तो इस रोग की अदृश्यता सबसे भयभीत करने वाली है जिससे हर रोज़ लड़ाई करते रहना पड़ता है। पर जिस बात से मुझे कुछ तसल्ली मिल जाती है वह ये है कि अब मैंने भी इस रोग को ‘वास्तविक’ मान लिया है।
इसके अलावा अब मैंने अपने मन में आने वाले विचारों के बारे में लोगों से बात करना शुरू कर दिया है। अब मैं हमेशा बिलकुल ठीक होने का दिखावा नहीं करती। मेरा विश्वास कीजिए, इससे बहुत फर्क पड़ता है। अब जब मेरी तबियत ठीक नहीं होती या मैं खुद को बीमार महसूस करती हूँ तो मुझे दूसरों को इस बारे में बताने में पहले की तरह अपराधबोध नहीं होता। बहुत बार ऐसा होता है कि मैं हिलने-डुलने से मजबूर हो जाती हूँ, ऐसे में मैं घर पर ही रह जाती हूँ, आराम करती हूँ और अपनी बिल्लियों के साथ अपना समय बिताती हूँ। अब मुझे यह एहसास हो चला है और मैंने यह स्वीकार कर लिया है कि अगर मैं कभी काम करने में खुद को असमर्थ पाती हूँ तो इसमें कोई बुराई नहीं है। मेरे लिए कोई ज़रूरी नहीं है कि मैं हमेशा ही कुछ न कुछ करती रहूँ और मुझे भी कभी-कभी कुछ न करने का हक है। एक सक्रियवादी, एक कार्यकर्ता होने के नाते मैं कि खुद आराम करने के लिए छुट्टी लेना भूल ही गयी थी। अब मैं अपने साथ, अपने लिए बहुत सा समय व्यतीत करती हूँ और इस समय के दौरान मैं और कुछ नहीं करती! इससे बहुत मदद मिलती है।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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चित्र: Pixabay