Scroll Top

एक आकांक्षा, कुछ कश्मकश और संतुष्टि का एक अजीब तरीका

Picture of a large bubble against the backdrop of a clear sky and trees

डिज़ायर – जब इस शब्द का हिंदी में मतलब खोजने की कोशिश की तो आकांक्षा से लेकर वासना तक के शब्दों की लम्बी फेहरिस्त सामने आ गई। ज़रा रुक कर सोचा तो यौनिकता की कई परतों को समेटे आकांक्षा से वासना तक का ये सफ़र बेहद दिलचस्प लगा। जब आप अपने जीवन में अपने करियर से जुड़ी, अपने परिवार से जुड़ी कोई इच्छा रखते हैं तो वो आपके जीवन की आकांक्षा होती है, औ इसके लिए आपको ज़्यादातर सबका समर्थन मिलता है और समाज जोश के साथ आपको आपकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। पर जैसे ही यह इच्छा यौनिकता का रंग ले लेती है तो यह वासना बन जाती है और अचानक ही अस्वीकार्य हो जाती है। हाँ, यदि यह किसी पुरुष की यौनिक इच्छा है तो यह आकांक्षा बनी रह सकती है (यहाँ ‘सकती है’ का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि यह ‘आकांक्षा’ तभी तक रहेगी जब तक कोई पुरुष एक महिला के साथ की इच्छा करें, कहीं ‘गलती से’ भी वे दूसरे पुरुष की इच्छा करेंगे तो यह तुरंत वासना के घेरे में आ जाएगी)। और महिला तो चाहे पुरुष की इच्छा करें या महिला की, या किसी भी अन्य जेंडर की, या फिर अपने ही शरीर की क्यों न हो, सभी उनकी वासना ही है। और ऐसी किसी भी इच्छा के सामने आते ही – जो वासना के घेरे को छू कर भी जाती हो – अचानक आस-पास के सभी लोगों को परेशानी होने लगती है और प्रोत्साहन तो दूर की बात, इस पसरे हुए सन्नाटे को चीरने के लिए एक आह भी नहीं निकालना मुश्किल हो जाता है।

पर यहाँ एक बड़ा सवाल खड़ा होता है, जब वासना से भरी इन इच्छाओं पर समाज का इतना कड़ा पहरा है तो क्या ये हमारे-आपके मन में उपजती ही नहीं हैं? और अगर फिर भी उपजती हैं तो हम इनका करते क्या हैं? इन्हीं सवालों के जवाब ढूँढ़ते, मैं अपने अतीत के गलियारे में चली गई। अगर पीछे पलट कर देखूं तो आपको ठीक-ठीक नहीं बता पाऊँगी कि मेरी यौनिक आकांक्षाओं ने अपने पर फैलाने कब शुरू किए। हाँ इतना ज़रूर है कि – जैसी एक लड़की से उम्मीद की जाती है, उसके विपरीत – मुझे मेरी डिज़ायर कम उम्र में ही समझ आने लगी थीं (अब कम उम्र कितनी कम है, ये भी एक विचारनीय सवाल है)। पर साथ ही समझ आने लगे थे समाज के अनकहे पर अटल नियम कानून। एक अमुक ‘वर्ग’, ‘जाति’, ‘क्षेत्र’ में रहने वाले एक ‘शिक्षित’ परिवार की ‘लड़की’ के जीवन के उद्देश्य अलग ही होते हैं, और फिर अगर वो लड़की ‘सुन्दर’ न हो तो ज़ाहिर सी बात है, उसका सारा ध्यान उसके करियर पर होना चाहिए अन्यथा जीवन निरर्थक ही समझिए उसका। तो इस सब ने एक बात स्पष्ट कर दी थी, यदि मुझे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना है तो कुछ न कुछ तो दांव पर लगाना ही पड़ेगा। सच कहूं तो समाज से इतनी बड़ी लड़ाई लड़ने की हिम्मत उस किशोर लड़की में नहीं थी। सीधी सी बात जो समाज ने बताई और मैंने मानने की भरपूर कोशिश की वो यह थी कि मेरी जैसी लड़की की (थोड़ी-बहुत) यौनिक आकांक्षाएं तभी पूरी होंगी जब मैं ‘कुछ बन जाउंगी’ या जब किसी पुरुष को मेरे ऊपर ‘तरस’ आ जायेगा और वो मुझसे शादी कर लेगा।

सच्चाई इस सब से परे थी; सच्चाई ये थी कि मैं एक किशोर लड़की थी जिसके मन में अनेको आकांक्षाएँ थी, वासना थी, लालसा थी और इन सब को पूरा करने के तरीके ढूँढने की ललक भी थी। अगर कुछ नहीं था तो बस कोई एक ऐसा व्यक्ति जो समाज का चश्मा उतार कर मुझे समझने के लिए हाथ बढ़ाता और जिस पर मैं भरोसा कर सकती और मन में उठते हजारों सवालों के जवाब मांग सकती। इन सब कश्मकश के बीच मुझे मेरी कल्पना या फैनटेसी ही एक सुरक्षित राह लगी; पर विडम्बना देखिए, अपनी फैनटेसी में भी मैं फूक-फूक कर कदम रखती थी। जिस उम्र में लोगों के इमेजिनरी फ्रेंड होते हैं, उस उम्र में मेरा इमेजिनरी बॉयफ्रेंड था… और वो भी हटकर… एक वैम्पायर। जी सही पढ़ा आपने, एक वैम्पायर या प्रेत। और ये एक सोचा समझा निर्णय था, इसमें सब कुछ ठीक था – वो एक प्रेत था तो वो सिर्फ मुझे दिखता था, दिन या रात की सीमओं में बंधा नहीं था। वो दूसरी दुनिया से था तो इस दुनिया के नियम-कानून नहीं लागू होते थे उसपर, ना ही जेंडर के, ना वर्ग, जाती, पहनावे, मर्दानगी… कोई भी बंदिश तो नहीं थी उस पर… और अगर बंदिश उस पर नहीं थी तो मुझपर भी नहीं थी। वो मुझे छुएगा या नहीं, कब छुएगा, कहाँ छुएगा और कैसे, ये सब मैं ही तय करती थी। और सबसे बड़ा फ़ायदा (उसके प्रेत होने का) था कि हमारी प्रेम कहानी यूँ ही रात दर रात चलती रहनी थी पर मेरे चरित्र पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता था; जैसा मैंने पहले कहा था, इसमें सब कुछ ठीक था।

आज १२-१३ साल की उस लड़की को पीछे छोड़ कर मैं बहुत आगे निकल आई हूँ। मेरे काम ने, मेरे नज़रिए ने, नारीवादी विचारों ने मुझे समाज के उन बंधनों पर सवाल उठाने की हिमात दे दी है, कुछ को तोड़ने की भी। पर ये कोई आसन सा सफ़र नहीं रहा है, बचपन से मन में घर कर गई इन (हीन) भावनाओं से बाहर निकलना आसान नहीं था। आज भी मैं अपने जीवन की कुछ लालसाओं को पूरा करने में झिझकती हूँ, सवाल करती हूँ “क्या मैं इसके लायक हूँ”, “क्या समाज मुझे इसकी इज़ाज़त देता है”, “कहीं मैं कोई ‘लक्ष्मण रेखा’ तो नहीं पार कर रही”। आज मैं इस बात का पुरज़ोर समर्थन करती हूँ कि किशोर-किशोरियों से यौनिकता, यौनिक आकांक्षा, इच्छा और इन जैसे सभी विषयों पर खुल कर बातचीत होनी चाहिए और मैं अपने काम के ज़रिए इस लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश भी करती हूँ। कभी एक पल के लिए उस लड़की पर तरस भी आता है, लगता है काश कोई होता उसको ये बताने के लिए कि जिनको समाज ने वासना या लालसा का चोला पहना दिया था, वो सब उसकी अपनी इच्छाएं थी; उसका हक था उन सभी भावनाओं और संभावनाओं के सपने देखने का। पर अगले ही पल उस लड़की की एजेंसी, उसकी कोशिशें मुझे हैरत में डाल देती हैं, उसने अपने जीवन के पलों को अपनी इन्ही वर्जित आकांक्षाओं, लालसा, वासना से खूबसूरत बनाया और पूरी आज़ादी से उन पलों को जिया।

Leave a comment