यह लेख तारशी के #TalkSexuality अभियान का हिस्सा है
पिछले साल अगस्त में मेरे दादाजी का निधन हो गया। इस संभावित परिणाम के आखिरकार वास्तविकता में बदलने पर अचंभित सी हो गई थी मैं; एक अंत, जिसका इंतज़ार मेरे परिवार का हर एक सदस्य कर रहा था। नवम्बर २०१३ में, आखिरकार मैं दिल्ली पुलिस को कॉल करके अपने दादा के खिलाफ ऍफ़ आई आर करवाने की हिम्मत जुटा पाई; जिससे दो चीज़ें साफ़ हुईं – पहली यह कि ये कॉल करना कितना आसान था और दूसरी, कि दिल्ली पुलिस के वे निडर ऑफिसर उस दिन कितने असमर्थ और असहाय थे। तकरीबन दो घंटे तक सालों तक चले यौन शोषण और घरेलु हिंसा से जुड़े सभी प्रसंगों को विस्तारपूर्वक बताने के बाद, वे पुलिस वाले बस इतना ही कह सके “यह घरेलु हिंसा का मामला है।हम देख सकते हैं कि आपके दादा एक अहंकारी और अड़ियल व्यक्ति हैं। पर चूँकि यह घर उनका है, इसलिए हम उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर सकते हैं। आप उन्हें कमरे में बंद करके रख सकते हैं, और चाहें तो उन्हें पीट भी सकते हैं।” बाहर जाते समय उन्होंने दादा की आँखों में आँखे डालकर उन्हें अच्छा व्यवहार करने को कहा और निकल गए। मैं पूर्ण रूप से आश्वस्त थी कि अब ‘न्याय’ पाने के लिए मैं अपनी तिल भर भी शक्ति बर्बाद नहीं करुँगी। मैंने अपने दोस्तों को कॉल किया कि वो मुझे आकर ले जाएँ और मैं चली गई।
मैं उस वक़्त सातवीं कक्षा में पढ़ती थी जब मैंने अपने दादा को अपने कमरे की आँगन की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास खड़े होकर हस्तमैथुन करते देखा था, मैं और मेरी बड़ी चचेरी बहन रात का खाना खाने के बाद अपनी थाली रखने गए थे, एक ऐसा नियम जो मेरे दादा ने अपने ‘उत्कृष्ट अनुशासन’ की इच्छा में लागू किया था, और इसी कारण वे इस नियम के नियम से पूरी तरह अभ्यस्त थे। मेरी बहन, जो शायद इस दृश्य से वाकिफ़ थी, ने हैरानी के हलके से भी संकेतके बिना, मेरा हाथ पकड़ा और मुझे जल्दी से हमारे कमरे में ले आई। बाद में उस रात उन्होंने मुझे बताया कि इसे हस्तमैथुन कहते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है, मैंने यह बात अपनी माँ को नहीं बताई थी। पर यह याद नहीं आ रहा कि क्यों नहीं बताई थी। मुझे पता है कि मुझे इस बात का डर नहीं था कि वो मुझ पर विश्वाश नहीं करेंगी, पर फिर भी एक हिचकिचाहट थी।
आखरी बार जब मैंने अपने दादा के लिंग को देखा था तो मैं ग्यारवीं कक्षा में थी। मैं अपनी एक प्यारी दोस्त से फ़ोन पर बात कर रही थी और दादा ने मुझे फ़ोन रखने को कहा। जब मैंने मना किया तो उन्होंने अपनी पैंट की चैन खोली और मुझ पर आक्रमण करने को दौड़े। सोफ़े पर बैठे होने के कारण मेरा मुह उनके लिंग के बराबर पर था। आपके जीवन के इन क्षणों के बारे में आपसे कोई बात नहीं करता है, स्कूल में ऐसी कोई पाठ्य पुस्तक नहीं होती जो इस जीवन कौशल में समर्थ बनाए। उस दिन अपने पूरे शरीर में मैंने जिस डर को महसूस किया, वही मेरा एकमात्र साधन था ये जानने के लिए कि मेरे साथ जो हो रहा है वो गलत है, और यह कि मुझे अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए कुछ करना होगा, कुछ भी।पथराई हालत में मैने अपनी सहेली को बताया कि मेरे साथ क्या हो रहा है, और उसने मुझसे कहा कि मैं अपने कमरे में जाकर अपने आपको बंद कर लूं। अपने आंसू पोंछते हुए और अपने डर को काबू करते हुए, मैंने चिल्लाते हुए उन्हें एक ओर धकेला, और कहा“आपको तो यही करना आता है” और अपने कमरे की ओर दौड़ पड़ी।मेरी दादी अपने पति को रोकने की बजाए मुझे चुप करने में लगी थीं।मुझे याद है मेरी माँ के काम से लौटने पर, अपने पारंपरिक गुजराती झूले पर बैठे हुए, मैंने ये घटना उन्हें बताई थी।वो मुझ पर विश्वास करती थीं पर विश्वास नहीं भी करना चाहती थीं। उनकी कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर, यहाँ तक कि गले लगाने कि मेरी अपेक्षा तक ना पूरी होने के कारण, हर बीतते हुए पल के साथ मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वह गुस्सा जो सुबह की असहायता से शुरू हुआ था, उस दिन के अंत तक, परिवार की गहरी छुपी हकीकत के रूप में जम गया।
अपनी माँ, चचेरी बहनों, छोटे चचेरे भाइयों और उनकी माँ के साथ, अपनी सामूहिक रसोई में बैठ कर मैंने वो सारी कहानियाँ सुनी कि कैसे घर के मुखिया – मेरे दादा – द्वारा उन सभी का यौन शोषण हुआ था। हमारे घर में घरेलु हिंसा तो एक आम बात थी। चीखते, चिल्लाते, गालियाँ देते लोग; अपने बच्चों के साथ अपने कमरों में भागती माएँ, मुझे और मेरी माँ को मेरे दादा से बचाते मेरे पिता, इन सब ने मुझे तेज आवाज़ के प्रति अति संवेदनशील बना दिया था, जो मैं आज भी हूँ।आज भी तेज आवाज़ मेरे अन्दर उसी डर को जगा देती है।
पर १३ सदस्यों के इस अति-मान्य संयुक्त परिवार के ८ सदस्यों के साथ १७ वर्षों तक चले यौन शोषण के बारे में घर के किसी पुरुष सदस्य को पता नहीं, यह बात सबसे बड़े सवाल की तरह मेरे किशोर कन्धों पर भार बनकर बढ़ता जा रहा था।यह कैसे संभव है? हमने इसे होने कैसे दिया? हमने क्यों नहीं कहा “नहीं, बस अब बहुत हुआ”?
हम उसी रसोई में या कभी कोई फिल्म देखते समय, अक्सर साथ मिल कर इस बात पर हँसते थे – अपने इस सामूहिक जीवन की सच्चाई के साथ रहने के लिए परिहास हमारे लिए एक साधन बन गया। हम असहाय थे और इसके परिणामस्वरूप प्रबल क्रोध भी महसूस करते थे। उनका हमारे ऊपर पूरा नियंत्रण होता था – हम क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, टी वी पर क्या देखते हैं।उनकी दबंग आवाज़ और उनकी परपीड़कसंतोष से भरी चुभती हुई आँखों से जो डर हमें महसूस होता था वो हमारे आतंरिक संसार में बहुत साफ़ तौर पर झलकता था।यह जानते हुए कियही हमें हमारी अप्रतिकार्य विभिन्नताओं के बावजूद हमें बांध कर रखता है, एक साथ रोना और एक दूसरे को सांत्वना देना ही एकमात्र तरीका था जिससे हम खुद को सँभालते और बचाते थे।
मेरे सारे दोस्तों को मेरे ‘परिवार’ की इस सच्चाई के बारे में पता था। जैसा कि मेरे मनोचिकित्सक ने एक बार समीक्षा की थी “लगता है जैसे तुम लोगों की एक सेना तैयार कर रही हो जो तुम्हें सहारा देंगे…” और उन्होंने कैसे मेरा साथ दिया! हम सभी एक ही उम्र के थे; उनसे बात करना और अपनी बातें साझा करना एकमात्र तरीका था जिससे मुझे कुछ राहत मिल सकती थी। पर जब मेरे साथ यह सब हो रहा था तब मैं कितना चाहती थी कि काश कोई होता, स्कूल में एक काउंसलर, या एक शिक्षक ही, जिन्हें मैं ये सब बता पाती, जो मेरी मदद कर पाते, जो मुझे बता पाते कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, जो मुझसे ‘सहज एहसास और असहज एहसास’ के बारे में बात कर पाते, या मुझसे कहते कि मुझे ना कहने का अधिकार है क्योंकि ये शरीर मेरा है!
मैंने अपना स्नातकोत्तर शोध-निबंध (मास्टर्स डिसर्टैशन) अपने दादा पर लिखा और इस पर कि क्यों हम में से किसी ने ना तो कभी उनका सामना किया और ना ही उस अनकही सच्चाई से लोगों को अवगत कराया। अपने धैर्य से सुनने वाले, समर्थन करने वाले और गंभीर रूप से विश्लेषण करने वाले मार्गदर्शकों (गाइड) की मदद से मैंने उन धागों को खोलना और सुलझाना शुरू किया जिसने मुझे अब तक बांध कर रखा था।मैंने अपने दादा को अपने शोध-निबंध एक प्रति उनके जन्मदिन पर तोहफ़े में दी। मैंने अपने पिता को भी पढ़ाया।शोध-निबंध को लिखने की प्रक्रिया ही वह कारण थी जिससे मैं उनका सामना कर पाई और पुलिस वालों को बुला पाई, और आख़िरकार अपने जीवन के उस अध्याय को निर्णायक अंत दे पाई; जो काश मैं ८ साल पहले कर पाती, जब मेरी माँ जीवित थीं।
चित्र श्रेय
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