यौनिकता में बड़ी फिसलन होती है। ये कभी हमेशा एक जगह नहीं रहती और एक जैसी भी नहीं रहती। हमें पता ही नहीं चलता कि कब ज़िंदगी की छोटी-छोटी आम चीज़ें एक यौनिक रूप ले लेतीं हैं, या क्या ऐसा है कि यौनिकता ख़ुद ही बड़ी आम चीज़ है? शायद यौनिकता की फ़ितरत अस्थायी होना ही है। हम ख़ुद भी इसी की धुन में चलते-फिरते हैं और गिरते, पड़ते, फिसलते रहते हैं।
मेरा लिपस्टिक और लिपस्टिक के रंगों के साथ हमेशा से एक यौनिक रिश्ता रहा है। लिपस्टिक से मेरी पहचान निशानों और धब्बों के रूप में ही हुई थी। मुझे याद है, हर दोपहर जब मैं स्कूल से घर लौटती थी, मैं दौड़कर अपनी मां के पास जाती थी और वो मेरे गालों को चूम लेती थी। मां गाढ़े रंग के लिपस्टिक लगाया करती थी जिससे मेरे गालों पर होंठों के आकार के निशान पड़ जाते थे। मैं फ़ख़्र से ये निशान अपने गालों पर पहने रहना चाहती थी मगर लोग हंसते थे। उनके हंसने की वजह से ही मैं अपनी उंगलियों से ये निशान अपने गालों पर फैलाने लगी ताकि ऐसा लगे कि मैंने ‘ब्लशर’ लगाया हुआ है। मैं बड़ी होती गई तो ये भी धीरे-धीरे बंद हो गया।
कॉलेज में फिर एक बार मेरा लिपस्टिक से रिश्ता बना। मैंने लिपस्टिक लगाना शुरु किया और मैं इसमें सहज भी महसूस करने लगी। मेरे होंठ हर जिस चीज़ को छूते थे उसी पर लिपस्टिक के निशान पड़ जाते थे और ये देखकर मुझे हमेशा अचरज होता था। कभी-कभी इन निशानों के रंग मेरे खाने के रंगों के साथ मिल जाते थे और एक बिलकुल नया रंग पैदा करते। चम्मचों, कपों, और मेरे कपड़ों की लंबी स्लीवों पर ये निशान पड़ जाते। पता नहीं क्यों, मगर मेरे आस-पास के लोगों को ये देखकर हमेशा असहजता महसूस होती थी। वे ये कहते तो नहीं थे, मगर वे मेरे निशान पड़े कप पर एक नज़र डालते और उससे पीने से इनकार कर देते या जान-बूझकर उस निशान वाले हिस्से से ही पीते।
मुझे ये बात बड़ी दिलचस्प लगती थी मगर मेरी मां को ये सब बिलकुल पसंद नहीं था। मां की दिक़्क़त ये नहीं थी कि मेरे कपड़े गंदे हो रहे हैं बल्कि ये कि मुझे लिपस्टिक लगाए रखने में कुछ ज़्यादा ही सहजता होने लगी थी। वो मुझे हर रोज लिपस्टिक लगाने से मना करती और इसी दौरान मैंने टिश्यू पेपर का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया, अपनी लिपस्टिक ‘संभालने’ के लिए। बाद में मुझे लगने लगा कि कुछ ज़्यादा ही टिश्यू पेपर बर्बाद हो रहा है इसलिए मैं अपने साथ सिर्फ़ एक ही रखने लगी। मैंने पूरे दिन में कब, कहां, या कितनी बार अपना लिपस्टिक सही किया था इसका सारा हिसाब मेरे पास रहने वाले इस टिश्यू पेपर पर रह जाता था। कभी-कभी टिश्यू पेपर का इस्तेमाल लिपस्टिक को कम गाढ़ा करने के लिए होता था, तो कभी उसे पूरी तरह मिटा देने के लिए क्योंकि उस वक़्त लिपस्टिक आंख में कुछ ज़्यादा ही खटक रहा था। यहां मैं लिपस्टिक मिटाने की इस आदत पर थोड़ा ग़ौर करते हुए ‘निशान छोड़ जाने’ के मायने पर थोड़ा गहरा विश्लेषण करना चाहूंगी। निशान हमेशा अधूरे होते हैं। कहीं से हटाए जाते हैं तो कहीं और लग जाते हैं। कुछ चीज़ों को नज़र में लाते हैं तो कई और चीज़ों को नज़रों से छुपा भी देते हैं, और इसीलिए इनका कोई भरोसा नहीं। इनकी व्याख्या करना नामुमकिन के बराबर है। हिंदी टीवी सीरियलों में पत्नियों के लिए पति के कपड़ों पर लिपस्टिक का निशान शादी के बाहर संबंधों का प्रतीक है, वहीं टीवी के विज्ञापनों में औरतें किसी मर्द के लिए टिश्यू पेपर पर अपना फ़ोन नंबर लिखते हुए उस पर अपने होंठों का निशान छोड़ती हुई नज़र आतीं हैं।
ये कहना सही रहेगा कि इन निशानों में यौनिकता बसती है। यौनिकता से इस जुड़ाव के कारन ही मेरी मां को लिपस्टिक के साथ मेरी सहजता से ऐतराज़ था। ये निशान एक औरत और उसकी यौनिकता के ही प्रतीक बन जाते हैं और शायद जब किसी को एक निशान-लगा कप नज़र आता है तो उनके मन में लंबे समय तक वो निशान रह जाता है। भले ही उन्होंने उसे देखा न हो जिसके होंठों का निशान उस कप पर लगा हुआ है, मगर उसकी कल्पना में डूब जाने में उन्हें देर नहीं लगती। लिपस्टिक के रंग के हिसाब से वे उसके व्यक्तित्व की कल्पना करने लगते हैं लेकिन, जैसा मैं बताने वाली हूं, यहीं पर वे फिसलने लगते हैं। शायद इसी वजह से मैं आजकल जान-बूझकर हर जगह लिपस्टिक के निशान छोड़ जाती हूं। मैं उन्हें पैरों के निशानों की तरह छोड़ जाती हूं ताकि कोई इनके साथ चलना चाहे तो चल सके। जब मैं उन लोगों के बारे में सोचती हूं जो कप के उसी हिस्से से पीते हैं जिस पर लिपस्टिक का निशान लगा हो, मुझे लगता है कि वो निशान मेरे अपने ‘कामसूत्र’ जैसा ही है। ‘कामसूत्र’ में वात्स्यायन कहते हैं कि यौनिकता हमारी चारों तरफ़ विराजमान है और इसे व्यक्त करने के अलग-अलग तरीक़ों को उन्होंने ‘64 कलाओं’ का नाम दिया है। इन कलाओं का एक उदाहरण है “अपने दांतों, शरीर, और कपड़ों को रंगना”, यानी कि लिपस्टिक लगाना एक यौनिक क्रिया है। लिपस्टिक-लगे होंठों का निशान कहीं पर लग जाता है तो होंठों के आकार में फ़र्क़ पड़ता है। इतनी मेहनत से सजाए गए होंठों की आकृति बिगड़ जाती है। मैंने किशोरावस्था में इंटरनेट पर कुछ ऐसा पढ़ा था जिसका कहना था, “अपने लिए एक ऐसा मर्द ढूंढो जो तुम्हारा लिपस्टिक बिगाड़ दे, तुम्हारा आईलाइनर नहीं।” सोचने में अचरज होता है कि टिश्यू पेपर सिर्फ़ लिपस्टिक को ‘संभालता’ ही नहीं बल्कि एक प्रेमी की तरह उसे ‘बिगाड़’ भी देता है।
जब मैं लिपस्टिक से रंगे टिश्यू पेपर की तस्वीरें अपने दोस्तों को दिखाती हूं, उन्हें अक्सर लगता है कि मैं उन्हें सैनिटरी नैपकिन की तस्वीर दिखा रही हूं। लेकिन मुझे हर बार उनकी इस प्रतिक्रिया से हैरानी होती है। वे इसे ग़ौर से देखते ही रहते हैं और फिर कह देते हैं, ‘सैनिटरी नैपकिन’! जैसे कि लाल धब्बों से सनी कोई भी सफ़ेद चीज़ सैनिटरी नैपकिन के अलावा कुछ हो ही नहीं सकती! यहां मैं तीन अहम चीज़ों पर ज़ोर डालना चाहूंगी। पहली बात ये है कि टिश्यू पेपर पर लगे दाग़ों का इस तरह से ग़लत मतलब निकालना ये दिखाता है कि कैसे यौनिकता की ग़लत व्याख्या निकालना भी कितना आसान है। इन ग़लत व्याख्याओं से पता चलता है कि यौनिकता हमेशा एक जैसी नज़र नहीं आती। मैं हर रोज़ एक अलग रंग का लिपस्टिक लगाती हूं और इस बात का ध्यान रखती हूं कि ये रंग कभी एक जैसे न लगें। किसी एक दिन मैं ‘रोमैंटिक ड्रीमर’ नाम का गाढ़ा लाल लिपस्टिक लगाती हूं तो दूसरे दिन ‘क्लासिक ब्यूटी’ नाम का हल्का न्यूड रंग। ये शायद इसलिए क्योंकि अलग-अलग रंगों के लिपस्टिक लगाने से मैं रोज़ एक नई पहचान अपना लेती हूं। हर रंग के साथ मैं अपनी पहचान बदल सकती हूं और ये पहचान हर किसी के पल्ले नहीं पड़ती।
कॉलेज के फ़ेयरवेल के दिन की एक घटना मुझे इस बात की याद दिलाती है कि किस तरह आपकी पहचान दूसरों के लिए एक रहस्य जैसी लग सकती है। एक दोस्त ने मुझसे पूछा था, “तुम्हें समझ पाना मुश्किल है, मुस्कान! तुम्हारे लिपस्टिक के रंगों से पता नहीं चलता तुम आख़िर हो कौन। तुम ‘स्ट्रेट’ हो या ‘बाई’ हो?” मैं ये बात सुनकर दंग रह गई कि मेरी यौनिकता का मेरे लिपस्टिक के रंगों के साथ कुछ लेना-देना हो सकता है। बाद में मुझे फ़ेसबुक पर “जानिए आपके लिपस्टिक का रंग आपके बारे में क्या कहता है!” के नाम से एक क्विज़ मिली। हां, ये सच है कि लिपस्टिक के ज़रिए मैं अपनी पहचान को व्यक्त करती हूं लेकिन मैं पहचानें बदलती भी रहती हूं। कभी कभी मैं ‘गॉथ’ बन जाती हूं तो कभी एक आम सी लड़की। अपनी पहचान को रहस्यमयी बनाए रखने और उसे व्यक्त करने के लिए अलग-अलग रंगों के लिपस्टिकों का इस्तेमाल करती हूं। शायद अपनी पहचान ढूंढने का सफ़र एक मेकअप की दुकान के अंदर जाने से ज़्यादा अलग नहीं है।
दूसरी बात ये है कि हम कहते तो हैं कि हम मेकअप का इस्तेमाल सिर्फ़ ‘अपने लिए’ करते हैं, लेकिन ये हमारे चेहरे (जो हमारी पहचान का सबसे अहम हिस्सा है) पर साफ़ नज़र आता है। मैं ये मानना तो चाहती हूं कि मैं मेकअप ख़ुद के लिए करती हूं लेकिन सच तो ये है कि मेरा चेहरा ख़ुद से ज़्यादा दूसरों को नज़र आता है और मेकअप करना अपने चेहरे के फ़ोटो पर फ़िल्टर लगाने के समान है। इस तरह मेरे चेहरे और साथ ही मेरी पहचान की व्याख्या लोग कैसे करते हैं ये उन्हीं के ऊपर है। मैं चाहती तो हूं कि इस फ़ोटो में जो चीज़ है उसकी व्याख्या लोग किसी ख़ास तरीक़े से करें लेकिन ऐसा करना मेरे हाथ में नहीं है। मैं अपनी क्या पहचान बनाना चाहती हूं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यही ज़रूरी होता है कि लोग मेरी पहचान की व्याख्या किस तरह से करते हैं। मैं यही मानकर चलना चाहती हूं कि जब तक मैं अपनी पहचान को एक राज़ बनाए रखूं , मेरी यौनिक पहचान की फिसलते और बदलते रहने की आज़ादी बरक़रार रहेगी।
आख़िरी बात, लिपस्टिकों को ‘रोमैंटिक ड्रीमर’ और ‘क्लासिक ब्यूटी’ जैसे नाम देना रंगों को अलग-अलग क़िस्म की पहचानों में सीमाबद्ध करने की एक कोशिश है। मुझे ये बड़ा दिलचस्प लगता है कि कैसे एक न्यूड शेड का रंग होंठों पर तो नज़र नहीं आता लेकिन टिश्यू पेपर पर लगाया जाए तो ये ज़ंग जैसे नारंगी रंग का रूप लेता है। अगर लिपस्टिक का चरित्र ही उसके नाम से मेल नहीं खाता तो उसे लगाने वाले का व्यक्तित्व भी उसके नाम जैसा कैसे हो सकता है? लिपस्टिक का रंग ऐसे में एक ‘क्वीयर’ रूप ले लेता है क्योंकि ये उन लेबलों में सीमित नहीं रहना चाहता जो इस पर थोप दिए गए हैं। उसकी क्वीयरता उसे एक विरोधाभास में बदल देती है। विरोधाभासों की ख़ासियत ये है कि वे वो चीज़ें भी हैं जो वे नहीं हैं। इन विरोधाभासों की फिसलाऊ प्रकृति की तरह मेरी यौनिक पहचान भी फिसलाऊ है और वो कभी एक-सी नहीं रहती। शायद मैं बाईसेक्शुअल हूं, या शायद नहीं। कौन बता सकता है? और आख़िर नाम में रखा भी क्या है?
लिपस्टिक और उनके धब्बे शायद अलादीन के चिराग़ वाले जिन्न की तरह होते हैं। एक जिन्न जो हमारी सारी ख़्वाहिशें, उम्मीदें, और सपने पूरे करता है जिन्हें हम समझ भी नहीं पाते। ये जिन्न ख़्वाहिशों के पूरे होने के बाद होने वाली गड़बड़ी का प्रतीक है, क्योंकि इन धब्बों की तरह ख़्वाहिशों का भी भरोसा नहीं किया जा सकता। धब्बों की तरह ख़्वाहिशें भी एक जगह और एक जैसी रहने का वादा नहीं करतीं, न ही इनकी कोई शुरुआत होती है और न अंत।
अशोक विश्वविद्यालय में उनकी क्लासों के लिए राहुल सेन और माधवी मेनन को शुक्रिया
ये कहना मुश्किल है कि मुस्कान नागपाल कौन हैं। शायद ये बात वे ख़ुद ही समझ नहीं पातीं। वे हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से साहित्य का अध्ययन कर चुकीं हैं और बाद में अशोक विश्वविद्यालय के ‘यंग इंडिया फ़ेलोशिप’ का हिस्सा भी रह चुकीं हैं।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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