मीडिया में उग्र पुरुषत्व और उसके वर्णन के बारे में चल रहे सभी हंगामे के बीच, मैं इस बात को सोचती रहती हूं कि क्यों कुछ रूढ़िवादिताएं, मानदंड और जेंडर-संबंधित विशिष्ट मान्यताएं अभी भी इतनी मामूली और समर्थित हैं कि जेंडर-आधारित समानता में हमारे विश्वास के बावजूद, हम धीरे-धीरे मौजूदा परिस्थितियों को मान लेते हैं।जेंडर स्टडीज़ और जेंडर-आधारित हिंसा में मेरी रुचि मेरी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान शुरू हुई, और यह जानकर मैं आज भी हैरान हूं कि इस क्षेत्र में सीखने-समझने के लिए बहुत कुछ है। मेरी दिलचस्पी की वजह से, असमान सत्ता संबंधों, अलग-अलग क्षेत्रों में जेंडर-आधारित भेद्यता, संस्थागत और संरचनात्मक हिंसा, और बाक़ी कई विषयों पर मेरी जानकारी बढ़ती गई।
अपनी किशोरावस्था के दौरान, जब मैं अंग्रेजी कहावत “अज्ञानता परमानंद है” को मानती थी, तो मैं फ़िल्में देखती थी, किताबें पढ़ती थी, गाने सुनती थी, और फिर उनके विषय-वस्तु के बारे में बिलकुल नहीं सोचती थी। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई और अपने आप को और अपने आस-पास को समझना शुरू किया – एक भोली-भाली बालिग़ युवती, जिसे ज़िन्दगी भर सुरक्षा और आसरा मिला था अब एक अलग शहर में रहने लगी है (आख़िरकार अकेली)! मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ भी नहीं जानती थी और इससे मैं भयभीत हो गई। मुझे डर था कि कहीं मुझे “बाघी” न करार दिया जाए, इसलिए मैं वही करती थी जो मेरे माता-पिता मेरे लिए सही समझते थे। लेकिन अब मुझे एहसास हुआ है कि एक लड़की के रूप में मुझे घर के नियमों के अनुसार चलने के लिए तैयार किया गया था, जबकि मेरे प्रतिरूप जो पुरुष थे, उनके साथ ऐसा नहीं था। अधिकार में असमानता, औरतों की अधीनता, और औरतों को फैसला न लेने देना, मैंने सिर्फ़ अपने ही परिवार में नहीं, बल्कि दूसरे परिवारों में भी देखा। और ध्यान रखिये, मैं तब भी अपने परिवार को ‘प्रगतिशील” बताती हूँ।
मीडिया अक्सर वही दिखाता है जो वास्तव में समाज में मौजूद है। लेकिन हानिकारक रूढ़िवादिता को चुनौती देने की ज़िम्मेदारी, जो उदाहरण के लिए जेंडर-आधारित हो सकती है, केवल उन संस्थानों पर नहीं हो सकती है जो अपना मुनाफ़ा देखती हैं। ये बल्कि दर्शकों के पास हैं। हमारे जैसे लोग ही ऐसी फ़िल्में देखने सिनेमा जाते हैं, उनका मज़ाक उड़ाते हैं, ट्वीट लिखते हैं, और फिर भूल जाते हैं। क्या यह एक तरह से ख़राब मीडिया के पक्ष में रहना नहीं हुआ? अब मुझे हालिया फिल्म, एनिमल (2023) की एक पंक्ति याद आ रही है, “शादी में डर होना चाहिए, पकड़ होनी चाहिए। पकड़ के रखो।” हम किस पकड़ की बात कर रहे हैं? यहाँ किस तरह के डर का ज़िक्र किया जा रहा है? यह संदेश किन असमान सत्ता के संबंधों का समर्थन करता है? क्या यह महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा नहीं है?
महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा (यूनाइटेड नेशंस डिक्लेरेशन) के अनुसार, “महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा” का अर्थ जेंडर-आधारित हिंसा का कोई भी कार्य है, जिसके नतीजे महिलाओं को शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक हानि या पीड़ा होती है या होने की संभावना होती है, जिसमें ऐसे कार्यों की धमकी, ज़बरदस्ती या स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित करना शामिल है, चाहे वह आम या निजी ज़िन्दगी में हो। हिंसा के कुछ ऐसे भी रूप हैं जो काफ़ी प्रचलित हैं और समाज की जड़ों में समा गए हैं, जिसके कारण वे हमारे मन में भी सामान्य हो गए हैं। हम लोगों के लिए, जो अपने माता-पिता और उनसे पहले की पीढ़ियों की तुलना में मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर बात करने के लिए एक कोशिश कर सकते हैं, फिर भी अलग-अलग स्तरों पर महिलाओं के साथ होने वाली भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक हिंसा को देखना काफ़ी परेशान करने वाला है। महिलाओं को अपने विचारों को दबाने, ‘अपनी तक़दीर को मानने’ और ‘उसे सहने’ के लिए तैयार करने से पता चलता है कि जेंडर मानदंड ज़्यादातर पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों की जगह को बनाए रखने के लिए मौजूद हैं। फ़िल्म थप्पड़ (2020) की एक पंक्ति इस तरह की सोच को और भी गहरे तरीक़े से बताती है, “थोड़ा बर्दाश्त करना सीखना चाहिए औरतों को।” ज़्यादातर मामलों में, कम महत्व देने वाली भूमिका महिलाओं और हाशिए पर स्थित जेंडर पहचान वाले लोगों तक सीमित हो जाती है, जिससे उन्हें नुकसान पहुंचता है।
किसी के साथ एक परिचित रोमांटिक रिश्ते में पहली बार शामिल होना एक जादुई एहसास है और अपने साथी के साथ पहला रोमांटिक अनुभव होने के बारे में सोचना काफ़ी बड़ी चीज़ लगती है, हालांकि, लोग उन ज़रूरी तत्वों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जो एक रिश्ते में मौजूद होने चाहिए, जैसे देखभाल, प्रतिबद्धता, विश्वास और सम्मान जैसे पहलु। ऐसी आपसी भावनाओं की कमी, रिश्ते में बुरे व्यव्हार का मार्ग प्रशस्त कर सकता है और अंतरंग साथी हिंसा (इंटिमेट पार्टनर वायलेंस या आईपीवी/ IPV) का एक रूप बन जाता है। हिंसा के इस रूप को एनिमल की एक पंक्ति में साफ़ तौर पर ज़ाहिर किया गया है, “मैं तुम्हें बहुत ज़ोर से थप्पड़ मारूंगा। फ़र्स्ट किस हुआ है, फ़र्स्ट सेक्स हुआ है, फ़र्स्ट स्लैप नहीं हुआ न?” क्या यह किसी भी तरह से एक प्यार भरी बातचीत लगती है उन दो साथियों के बीच जो प्यार में होते हैं? या फिर यह एक IPV में बयां की धमकी है?
मीडिया में टॉक्सिक मस्क्युलिनिटी (पुरुषत्व से अक्सर जुड़े हुए हानिकारक दृष्टिकोणों और व्यवहारों के एक समूह का वर्णन) को दिखाते हुए जहां धमकियां, ज़बरदस्ती, पत्नी के साथ मारपीट, अपमानजनक बयान और शारीरिक हिंसा को आम बात माना जाता है। हम उम्मीद करते हैं कि इसके लिए कुछ मुआवज़ा मिलेगा और हम कम से कम एक प्रभावशाली महिला को देख पाएंगे, लेकिन असलियत इससे भी बदतर है।महिलाओं को कमज़ोर दिखाया जाता है, उन्हें मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने साथियों को उनकी सभी ख़ामियों के साथ प्यार करें और स्वीकार करें और अपने जीवन जीती रहें । यह अपमान से भरा हुआ चित्रण है जिन्हें हमने देखा है, और बदक़िस्मत कुछ लोगों ने इन्हें असल ज़िन्दगी में जीया भी है।
हदें, मर्ज़ी, और चित्रण
अपने बच्चों को बाहरी दुनिया की बुराइयों से बचाने की अपने यक़ीन के कारण भारतीय परिवार इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि बच्चों को भी दुनिया को समझने के लिए तैयारी की ज़रुरत होती है। ज़्यादातर भारतीय घरों में सेक्स और आत्मीयता हमेशा से पाबंदी भरे विषय रहे हैं, जिसकी वजह से मर्ज़ी, ख़ासतौर से सूचित सहमति, यौनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, आनंद और महिला यौनिकता के बारे में बातचीत नहीं होती है। किसी को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि 23 साल की उम्र में ही मुझे यह समझ में आ गया था कि “नहीं” कहने का क्या मतलब होता है, हदें कैसे तय और बनाए रखी जाती हैं, और बेक़द्री क्या होती है। मैं काफ़ी ख़ुशनसीब हूं कि मैंने यह सब कुछ अच्छे अनुभवों के ज़रिये सीखा।
भारतीय परिवार मर्ज़ी जैसी बात को संजीदगी से नहीं लेते हैं और बड़े होते बच्चों को इसकी तालीम नहीं देते हैं। मीडिया छोटे बच्चों और यहां तक कि बड़ों के दिमाग को आकार देने में बहुत ज़रूरी भूमिका निभाता है। जेंडर का चित्रण इस बात को प्रभावित करता है कि हम इसे कैसे समझते हैं। लगभग सभी काम के क्षेत्रों में महिलाओं के ख़िलाफ़ संगठनात्मक झुकाव मौजूद है और जेंडर की पहचानों के बारे में समाज की धारणाओं को हमारे ज़रिये देखी जाने वाली मीडिया में समर्थन प्राप्त है। जब इसे नज़रअंदाज़ न किया जाए, तो जेंडर भेदभाव में बैर और जेंडर संबंधित पहचानों को केवल यौनिक नज़रिये से देखने और एक ‘चीज़’ की तरह समझने में लोगों के आनंद को भी महसूस किया जा सकता है। हालांकि, सही और ग़लत को साफ़ तरीक़े से परिभाषित करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन मुक़्तलिफ़ जेंडर और अलग-अलग रिश्तों की गतिशीलता को सम्मान देने और समझने की उम्मीद बढ़ती जा रही है। इसमें अनावश्यक संघर्ष से आज़ाद, न्यायसंगत रिश्तों की संभावना को पहचानना और नारीवादी मूल्यों को अपनाना शामिल है। मीडिया में अलग-अलग जेंडर और संबंधित अंतर्संबंधों का चित्रण कम है पर नामुमकिन नहीं, जैसे कि फ़िल्म मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ (2014) जिसमें सेरिब्रल पॉलसी से जूझती एक युवा महिला की अपनी यौनिकता की खोज की कहानी को दर्शाया गया है। एक औरत की तमन्ना, सपनों और जुनून के मुद्दे के बारे में सोचते हुए, जिसे वह सामाजिक चुनौतियों का सामना करते हुए चोरी चुपके से पूरा करने की कोशिश करती है, मुझे एक और फ़िल्म लिप्स्टिक अंडर माय बुर्क़ा (2016) की याद आती है। निजी तौर पर, मेरे लिए, एक औरत जिसने सहमति और दो-अक्षरों के शब्द ‘नहीं’ का सही मतलब समझा, भले ही काफ़ी देर से, वह पिंक (2016) की मुख्य पात्र है, एक ऐसी फ़िल्म जिसने मेरी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा बदलाव किया। मैं इन बॉलीवुड फिल्मों का ज़िक्र इसलिए कर रही हूं क्योंकि मैं इनसे जुड़ पाती हूं और अपने आप को इतना बहादुर पाती हूं कि उन पात्रों के ज़रिये अपनी भावनाओं को चुनौती दे पाती हूं जो मेरे डर और असुरक्षाओं को दर्शाते हैं और इससे अक्सर मुझे अपनी भावनाओं को समझने और तलाशने में मदद मिलती हैं। इन फ़िल्मों ने मुझे ख़ुद को स्वीकारने का मतलब समझने में मदद की है और मुझे अपनी बिना ज़ाहिर की हुई भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कुछ पल दिए हैं। और, हाँ, मैं उनका आनंद लेती हूँ क्योंकि वे मेरी ज़िन्दगी में कुछ अर्थ लाते हैं।
प्रांजलि द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
To read the original article in English, click here.
Cover Image: Photo by Hannah Porter on Unsplash